Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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६/गो. सा. जीत्रकाण्ड
जीव सम्बन्धी बीस प्ररूपणाएँगुरगजीवा पज्जत्ती पारणा सगा य मग्गणापो य ।
उधोगो वि य कमसो वीसं तु परूवरणा भरिणवा ॥२॥ गाथार्थ - गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्रारण, संज्ञा, मागंणा (१४) और उपयोग ये बीस प्ररूपणा कही हैं ।।२।।
विशेषार्थ गुणस्थान १४, जीवसमास १४, पर्याप्ति ६, प्राण १०, संज्ञा ४, मार्गणा १४ और उपयोग १२ हैं। इनमें से १४ मार्गणाओं के अवान्तर भेद.. गति ४, इन्द्रिय ५, काय ६, योग १५, बेद ३, कषाय १६, ज्ञान ८, संयम ७, दर्शन ४, लेण्या ६, भव्यत्व २, सम्यक्त्व ६, संज्ञित्व २ और पाहार २ हैं। गुणस्थान, जीवसमासादि का लक्षण एवं विशेष कथन यथास्थान ग्रन्थकार स्वयं करेंगे।
प्ररूपणा, निरूपणा और प्रज्ञापना अथवा निर्देश, प्ररूपण, विदरण और व्याख्यान ये सभी एकार्थक हैं।
शङ्का-प्ररूपणा किसे कहते हैं ?
समाधान-- गुणस्थानों में. जीवसमासों में, पर्याप्तियों में, प्राणों में, संज्ञाओं में, गतियों में, इन्द्रियों में, कायों में, योगों में, वेदों में, कषायों में, ज्ञानों में, संयमों में, दर्शनों में, लेण्यामों में, भव्यों में,प्रभव्यों में; सम्यक्त्वों में, संजी-प्रसंज्ञियों में, पाहारी-अनाहारियों में और उपयोगों में पर्याप्त और अपर्याप्त विशेषणों से विशेषित करके जो जीवों की परीक्षा की जाती है, उसे प्ररूपणा कहते हैं।
__दो प्रकार से प्ररूपणा का कथन - संखेसो पोधो ति य गुणसण्णा सा च मोहजोगभवा ।
विस्थारादेसो ति य मगरणसण्णा सकम्मभवा ॥३॥ गाथार्थ संक्षेप या ओघ गुणस्थान की संज्ञा है। गुणस्थान की उत्पत्ति मोह और योग के कारण होती है। विस्तार या आदेश यह मार्गमा की संज्ञा है। मार्गणा की उत्पत्ति में कर्म कारण हैं ।।३।।
विशेषार्थ मोघ या संक्षेप, सामान्य या अभेद से कथन करना मोघ प्ररूपणा है। आदेश या विस्तार, भेद या विशेषरूप से निरूपण करना दूसरी आदेश प्ररूपरगा है। इन दो प्रकार की प्ररूपरगानों को छोड़कर बस्तु-विवेचन का अन्य कोई तीसरा प्रकार सम्भव नहीं है, क्योंकि वस्तु में सामान्य और विशेष धर्म को छोड़कर अन्य तीसरा धर्म नहीं पाया जाता है ।
___ शङ्का विशेष को छोड़कर सामान्य स्वतंत्र नहीं पाया जाता इसलिए आदेश-प्ररूपरगा के कथन से ही मामान्य प्ररूपणा का ज्ञान हो जावेगा । अतएव दो प्रकार का व्याख्यान करना यावश्यक नहीं है।
१. प्रा. प. सं. गा. २, अ. १ ।
२. ध. पु. १ पु. १६०-६१ ।
३. घ. पु. २ पृ. ४१३ ।