Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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४/गो. सा. जीवकाश
समाधान -द्रव्याथिकनय की मुख्यता से जीव अनादिकाल से अनन्त काल तक सर्वथा एक स्वभाव अवस्थित है अतएव मंगल में भी अनादि-अनन्तपना बन जाता है ।
शङ्का-इस प्रकार जीव को मिथ्याट अपस्था में भी मंगलाने की बात हो जाती ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं, क्योंकि यह इष्ट है। कारण कि जीवत्व का अभाव होने से मिथ्यात्व, अविरति एवं प्रमाद आदि को मंगलपना प्राप्त नहीं हो सकता । मंगलस्वरूप तो जीव ही है और वह जोव केवलज्ञानादि अनन्तधर्मात्मक है।
शङ्खा-केवलज्ञानावरण यादि कर्मबन्धन की (संसार) दशा में मंगलीभूत केवलज्ञानादि का सद्भाव कैसे सम्भव है ?
समाधान--कर्मों के द्वारा आवृत होने वाले केबलनामादि का सद्भाव न माना जावेगा तो आवरण करने वाले केवलज्ञानावरणादि का भी सद्भाव सिद्ध नहीं हो सकेगा।
शङ्का-छद्मस्थ जीव के ज्ञान-दर्शन अल्प होते हैं अत: वे मंगलस्वरूप नहीं हो सकते ?
समाधान नहीं, क्योंकि ट्रयस्थों में पाये जाने वाले एकदेश ज्ञान-दर्शन में यदि मंगलपने का प्रभाव माना जावेगा तो सम्पूर्ण अवयवभुत ज्ञान-दर्शन को भी अमंगलपना प्राप्त हो जावेगा।'
शङ्का-प्रावरण से युक्त जीवों के ज्ञान और दर्शन मंगलीभून केवलज्ञान और केबलदर्शन के अवयव ही नहीं हो सकते हैं ?
समायान-ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि केवलज्ञान और केवल दर्शन से भिन्न ज्ञान और दर्शन का सद्भाव नहीं पाया जाता है ?
शङ्का - केवलज्ञान और केवलदर्शन से अतिरिक्त मनिज्ञानादि ज्ञान और चक्षुदर्शनादि दर्शन तो पाये जाते हैं ? इनका प्रभाव कम किया जाता है ?
समाधान-उस ज्ञान और दर्शनसम्बन्धी अवस्थाओं की मतिज्ञानादि और चक्षुदर्शन ग्रादि माना संज्ञाएं हैं। अर्थात् ज्ञानगुण की अवस्था विशेष का नाम मत्यादि और दर्शनगुण की अवस्था विशेष का नाम चक्षुदर्शनादि है । यथार्थ में इन सर्व अवस्थानों में रहने वाले ज्ञान और दर्शन एक ही हैं 1
शङ्का केवलज्ञान और केवलदर्शन के अंकुररूप छद्मस्थों के ज्ञान और दर्शन को मङ्गलपना प्राप्त होने पर मिथ्या दृष्टि जीव भी मंगल संज्ञा को प्राप्त होता है, क्योंकि मिथ्याष्टि जीव में भी वे अंकुर विद्यमान हैं ?
समाधान - यदि ऐसा है तो भले ही मिथ्याप्टि जीब को ज्ञान और दर्शनरूप से मंगलपना प्राप्त हो, किन्तु इतने से ही मिथ्यात्व, अविरति ग्रादि को मंगलपना प्राप्त नहीं हो सकता है।
१. घ. पृ. १ पृ. ३६-३८ ।