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1 [प्र.] भगवन्! कोई पुरुष धनुष को स्पर्श करता है, धनुष का स्पर्श करके वह बाण
का स्पर्श (ग्रहण) करता है, बाण का स्पर्श करके (धनुष से बाण फेंकने के) स्थान पर 卐 आसनपूर्वक बैठता है, उस स्थिति में बैठकर फेंके जाने वाले बाण को कान तक आयत 卐
करे-खींचे, खींच कर ऊंचे आकाश में बाण फेंकता है। ऊंचे आकाश में फेंका हुआ वह
बाण, वहां आकाश में जिन प्राण भूत, जीव और सत्त्व को सामने आते हुए मारे (हनन करे) 卐 उन्हें सिकोड़ दे, अथवा उन्हें परस्पर श्रृिष्ट कर (चिपका) दे, उन्हें परस्पर (पीड़ा) दे, उन्हें ॥
वलान्त करे- थकाए, हैरान करे, एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकाए एवं उन्हें जीवन से 5 रहित कर दे, तो हे भगवन्! उस पुरुष को कितनी क्रियाएं लगती हैं?
[उ.] गौतम्! यावत् वह पुरुष धनुष को ग्रहण करता यावत् बाण को फेंकता हैं, 卐 तावत् वह पुरुष कायिकी, आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातिकी,
इन पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है।
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{73} [2] जेसि पि य णं सरीरेहिंतो धणू निव्वत्तिए ते वि य णं जीवा काइयाए जाब पंचहिं किरियाहिं पुढे ।
(व्या. प्र. 5/6/10(2)) जिन जीवों के शरीरों से वह धनुष बना (निष्पन्न हुआ) है, वे जीव भी पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं।
{74} एवं धणुपुढे पंचहिं किरियाहिं । जीवा पंचहि । हारू पंचहिं । उसू पंचहिं । सरे म पत्तणे फले प्रहारू पंचहिं।
(व्या. प्र. 8/6/11) ____ इसी प्रकार धनुष की पीठ भी पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होती है। जीवा (डोरी) पांच ॥ ॐ क्रियाओं से, पहारू (स्नायु) पांच क्रियाओं से एवं बाण पांच क्रियाओं से तथा शर, पत्र,
फल और ण्हारू भी पांच क्रियाओं से स्पष्ट होते हैं।
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REEEEEEEEEEEEEEEEE [जैन संस्कृति खण्ड/28