Book Title: Kalpasutra
Author(s): Devendramuni
Publisher: Amar Jain Agam Shodh Samsthan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिर दिल्ली क्रम संख्या ४604 काल न०-5 क्रम संख्या मदवा काल न० खण्ड Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर की पच्चीस-सौ वी निर्वाण तिथि समारोह के उपलक्ष्य में क लप सू व्र (भुमकेवली भमबाहु रधिन) दिशा-निर्देशक गंभीर तत्त्वचिन्तक, प्रसिद्ध वक्ता परम श्रद्धय, पण्डित प्रवर श्री पुष्कर मुनि जी महाराज सम्पादक और विवेक्षक श्री देवेन्द्र मुनि, शास्त्री, साहित्यरत्न प्रकाशक: श्री अमर जैन आगम शोध संस्थान, सिवाना Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक : कल्पसूत्र •दिशा निर्देशक . पण्डित प्रवर, श्रद्धेय सद्गुरु वर्य श्री पुष्कर मुनि जी महाराज सम्पादक-विवेचक : देवेन्द्र मुनि शास्त्री, साहित्यरत्न . प्रकाशक : श्री अमर जैन आगम शोध सम्थान गढ सिवाना ( (बाडमेर-गजस्थान ) प्राप्तिस्थल : श्री लक्ष्मी पुस्तक भण्डार गाधी मार्ग, अहमदाबाद १ प्रथम प्रवेश : १५ अगस्त १६६८ मुद्रक : प्रेम प्रिटिंग प्रेस, आगरा वास्ते पर जमुद्रणालय मूल्य: सोलह रुपए Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ On the occasion of Twenty five hundredth years Lord Mahavira KALP-SUTRA BY ( SHRUT KEWALI BHADRA BAHU) Directions - Instructed By Gambhir Tatva Chintak, Prasidha Vakta Param Shradhyaya Pandit Pravar Shri Dushkar Munniji Maharaj Edited & Annoted By Derendra Mum, Shastri, Salatya Ratna Published By Sri Amar Jain Agam Shodh Sansthan, SHIVANA Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O Book Kalpa Sutra - Edited & Annoted by Devendra Muul, Shastri Sahitya Ratana O Available Sri Laxmi Pustak Bhandar Gandhi Marag Ahmedabad O Printed Prem Printing Press, Agra For, Raj Mudranalay O Directions-Intrasted by Gambhir Tatva Chintak Prasidha Vakta Param Shradhyaya Pandit Pravar Shri Pushkar Muniji Maharaj Published by Sri Amar Jain Agam Shodh Sansthan Shivana (Marwar) First Entrance 15th August 1968 O Price Rs. 16/ only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण सूर्य की तरह जिनका जीवन तेजस्वी था, चन्द्र की तरह जिनका मन सौम्य था, स्वर्ण की तरह जिनका आचार निर्मल था, सागर की तरह जिनके विचार गंभीर थे, मधु की तरह जिनकी वाणी मीठी थी, जो दूसरो के प्रति फूल से भी अधिक कोमल थे, और अपनी संयम-साधना के प्रति . वज्र से भी अधिक कठोर थे। अपने उन परम गुरु परम श्रद्धेयरत्न महास्थविर, स्वर्गीय पूज्यपाद श्री ताराचन्द्र जी महाराज को सभक्तिभाव, समर्पित विनयावत - देवेन्द्र भूमि Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकोय-प्रकाश प्रबुद्ध पाठको के पाणि-पत्रों में चिर-अभिलषित-चिर प्रतीक्षित श्री कल्पसूत्र का सर्वाङ्ग-सुन्दर एवं महत्त्वपूर्ण श्रद्धास्निग्ध उपहार अर्पित करते हुए हम अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं । अपनी तरह का यह एक अनुपम और अभूतपूर्व ग्रन्थ है, जो हिन्दी साहित्य को एक नवीन देन है। यहाँ पर यह उल्लेख करना अनुचित एव अप्रासांगिक न होगा कि हिन्दी में ही नहीं, अपितु किसी भी भाषा में कल्पसूत्र पर इस प्रकार शताधिक ग्रन्थों के विमलप्रकाश में लिखा गया ससन्दर्भ प्रामाणिक विवेचन अद्यावधि प्रकाशित नहीं हुआ है । प्रस्तुत प्रन्थ मे विद्वान् एव विचारक लेखक श्री देवेन्द्र मुनि जी, शास्त्री, साहित्य, रत्न ने कल्पसूत्र के सम्बन्ध में बहुप्रचलित भ्रान्तियां एव अज्ञानमूलक धारणाओं का परिष्कार तथा परिमार्जन ही नही किया, अपितु वह मत्य-तथ्य प्रकट किया जो आगम सम्मत है. इतिहास-सिद्ध है और प्रामाणिक ग्रन्थो से प्रमाणित है, एतदर्थ यह ग्रन्थरत्न नयी पीढी के नये विचारशील मनीषी युवको के लिए तथा श्रद्धाशील वृद्धों के लिए, एव भावनाशील महिलाओ के लिए पठनीय तथा मननीय है। ___ प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादक, श्रमण संघीय गम्भीर तत्त्व चिन्तक, प्रसिद्ध वक्ता, पण्डित प्रवर परम श्रद्धेय श्री पुष्कर मुनि जी म० के सुयोग्य शिष्य श्री देवेन्द्र मुनि जी हैं । वे कुशल लेखक, सुयोग्य सम्पादक एवं मधुर प्रवक्ता है। उनके द्वारा लिखित ऋषभदेव : एक परिशीलन, धर्म और दर्शन, सस्कृति के अचल मे, चिन्तन की चाँदनी साहित्य और संस्कृति प्रभृति ग्रन्थ अत्यधिक लोकप्रिय हुए है। मुनि श्री द्वारा सम्पादित दो दर्जन से भी अधिक ग्रन्थ हिन्दी, गुजराती एवं राजस्थानी भाषा में प्रकाशित हो चुके है। अन्य आवश्यक लेखन कार्य मे अत्यन्त व्यस्त होने पर भी हमारे प्रेम भरे आग्रह को सम्मान देकर कल्पसूत्र का अत्यन्त श्रम के साथ और हमारी भावना के अनुरूप सम्पादन किया, तदर्थ हम ग्रन्थ के दिशानिर्देशक सद्गुरुवर्य श्री पुष्कर मुनि जी म. के व सम्पादक देवेन्द्र मुनि जी के अत्यन्त आभारी हैं । ग्रन्थ को मुद्रणकला की दृष्टि से अधिकाधिक शुद्ध व सुन्दर बनाने में तथा प्रूफ सशोधन में श्रीचन्द्र जी सुगणा 'सरस' का मधुर सहयोग मम्प्राप्त हुआ है तथा सम्पादन आदि के लिए ग्रन्थोपलब्धि में श्री अमर जैन ज्ञान भण्डार, खा डप, श्री जिनदत्त सूरि ज्ञानमन्दिर, गढ़ सिवाना, श्री तारक गुरु ग्रन्थालय. पदगडा का स्नेहपूर्ण सहकार प्राप्त हुआ है जो सदा स्मरणीय रहेगा। साथ ही अर्थ सहयोगियो का उदार सहयोग विस्मरण नही किया जा सकता, जिनके उदात्त महयोग के कारण ही हम प्रस्तुत ग्रन्थ को इस रूप में प्रकाशित करवा सके हैं। मुलतानमल रांका मन्त्री श्री अमर जैन आगम शोध संस्थान गढ़ सिवाना, जि० बाडमेर ( राजस्थान) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र के प्रकाशन में अर्थ सहयोगी २०००) श्रीमान् हस्तीमलजी जेठमल जी, जिनाणी, गढ़ सिवाना (मारवाड़) २०००) श्रीमान् रिखबचन्द जी पारसमल जी जिनाणी, गढ़ सिवाना , १०००) श्रीमान् सुखलाल जी छोगालाल जी जिनाणी, गढ़ सिवाना , १०००) श्रीमान् दीपचन्द जी प्रेमचन्द जी जिनाणी, गढ़ सिवाना ,, १०००) श्रीमान् मुलतानमल जी माणकचन्द जी रांका, गढ़ सिवाना , १०००) श्रीमान् मुलतानमल जी हजारीमल जी गंका, गढ सिवाना , ७००) श्रीमान् धींगडमल जी मुलतानमल जी कानुगा, गढ़ सिवाना , ५००) श्रीमान् डूगरचन्द जी राजमल जी ललवाणी, गढ़ सिवाना , 29 ON 60 OJA 00 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ⭑ अर्थ सहयोगियों की : परिचय रेखा राजस्थानी इतिहास के निर्माण में सिवाना गढ़ की अपनी विशिष्ट देन रही है । इस भूखण्ड का अतीत अत्यन्त गौरवमय रहा है । राजपूत संस्कृति और आर्य धर्म का गढ समझा जाने वाला यह भूखण्ड परम श्रद्धेय आचार्य प्रवर श्री अमरसिंह जी महाराज एव उनकी परम्परा के श्रद्धास्पद मुनि पुङ्गवों की साधनाभूमि रहा है। धार्मिक दृष्टि से सिवानागढ का महत्त्व अक्षुण्ण है । महानुयोगी श्री जेष्ठमल जी महाराज, तपोमूर्ति श्री हिन्दुमल जी महाराज एवं महास्थविर श्री ताराचन्द्र जी महाराज से संबद्ध धर्ममूलक कथाएँ, पुण्य संस्मरण आज भी जन मानस में अनुप्राणित हैं। उनका सिवाना गढ़ से घनिष्ट संपर्क रहा है, बल्कि कहना चाहिए, सिवाना गढ इन महापुरुषों के धार्मिक और सांस्कृतिक साधना का केन्द्र ही था। वे अनेक बार पधारे और वर्षावास किये तथा अपनी चारित्रिकसौरभ से जन-मानस को प्रभावित करते रहे। आज भी परम श्रद्धेय गुरुदेव, प्रसिद्ध वक्ता पण्डित प्रवर श्री पुष्कर मुनि जी महाराज की गढ़ सिवाना पर अपार कृपा दृष्टि है । शंका परिवार : सिवानागढ का रांका परिवार अतीत काल से ही धर्मनिष्ठ रहा है। इस परिवार के अनेकों व्यक्तियो ने जैनेन्द्री दीक्षा ग्रहण की है और अपने जीवन को साधना के द्वारा स्वर्ण की तरह निखारा है । सत्तरहवी शताब्दी मे श्री सोमचन्द्र जी रांका ने और उगणीसवीं शताब्दी में अक्षयचन्द्र जी ने, एव श्री हिन्दूमल जी ने आर्हती दीक्षा ली है। हिन्दू मल जी महाराज एक तपोनिष्ठ सन्त रत्न थे। उनकी त्यागनिष्ठा अपूर्व थी, संयम संग्रहण करने के साथ ही उन्होंने पांचों विगय का यावत् जीवन पर्यन्त के लिए त्याग कर दिया था। उनकी पुत्रवधू ने भी संयम को स्वीकार कर अपने जीवन को पावन बनाया था श्रीमान् मुल्तानमल जी माणकचन्द जी रांका : श्री मुलतानमल जी का जिनकी प्रबल प्रेरणा के कारण ही प्रस्तुत ग्रन्थ ने मूर्तरूप धारण किया, वे एक प्रतिभा सम्पन्न, विवेक निष्ठ श्रद्धालु श्रावक हैं । सर्वप्रथम स्थानक - वासी जैन समाज में कल्पसूत्र को प्रकाशित करवाने का श्रेय आपको ही है, आपकी ही प्रेरणा से स्वर्गीय उपाध्याय श्री प्यारचन्द जी महाराज ने कल्पसूत्र तैयार किया था, और वह पत्राकार जैनोदय प्रेस से मुद्रित हुआ था। वह संस्करण कभी का समाप्त हो चुका था और समाज की ओर से प्रतिदिन मांग बढ़ती हुई देखकर आपने श्रद्धय सद्गुरुदेव प्रसिद्ध वक्ता, गम्भीर तत्त्वचिन्तक पण्डित प्रवर श्री पुष्कर मुनि जी महाराज के सुशिष्य अनेक Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ग्रन्थों के लेखक एवं सम्पादक श्री देवेन्द्र मुनि जी शास्त्री से प्रार्थना की और मुनि श्री ने अत्यन्त परिश्रम के साथ नवीन शैली से यह ग्रन्थ तैयार किया। श्री मुलतानमल जी रांका की धर्मपत्नी धर्मानुरागिणी प्यारकुवर बहिन ने उभरते हुए यौवन मे जब दीक्षा ग्रहण करना चाहा तब अपनी इच्छा से आपका द्वितीय पाणिग्रहण श्री राजमल जी भंसाली की सुपुरी डाई बाई के साथ करवाया और असार संसार को छोड़कर, पति के प्यार से मुख मोडकर, विदुषी महासती श्री किस्तुरकुवर जो के पास दीक्षा ग्रहण की। छः वर्ष तक उत्कृष्ट सयम-साधना कर डग (झालावाड) गांव में सथारा लेखना कर स्वर्गस्थ हई। श्री रांका जी के वर्तमान मे एक पत्र हैं, जिनका नाम श्री माणिकचन्द जी हैं और चार पुत्रियाँ है। सक्षेप में कहा जाय तो श्री मुलतानमल जी रांका सिवाना गढ के स्थानकवासी समाज के गौरव है। प्रस्तुन प्रकाशन में १००१ रुपये प्रदान कर साहित्यिक सुरुचि एव उदारता का परिचय दिया है। श्रीमान् मुलतानमल जी हजारीमल जी रांका : ये भी गढ़ सिवाना के निवासी थे, बड़े ही समझदार, विवेकशील व धर्मप्रेमी थे। अभी-अभी आपका अकस्मात् स्वर्गवास हो गया। आपका व्यवसाय मेसूर स्टेट मे बल्लारी ग्राम में था, आप एक कुशल व्यापारी थे, बल्लारी में जैन स्थानक के भव्य-भवन के निर्माण कराने मे आपका पूर्ण सहयोग रहा। अनेक बाधाओ के बावजूद भी आपने स्थानक का कार्य पूर्ण करके ही छोड़ा। कल्पसूत्र के निर्माण मे १००१ रुपये का सहयोग प्रदान कर शास्त्र प्रेम का परिचय दिया। बागरेचा परिवार : सिवानागढ के रांका परिवार की तरह ही वागरेचा (जिनाणी) परिवार का भी धार्मिक, सामाजिक एवं राजनैतिक दृष्टि से बहत महत्त्व रहा है। सामाजिक दृष्टि से ही नही, धार्मिक दृष्टि से भी यह परिवार सदा अगुआ रहा है । सन्त भगवन्तो की ही नहीं, अपितु श्रद्धालु स्वधर्मी बन्धुओ को भी सेवा-शुश्रूषा करना इस परिवार को अत्यधिक प्रिय रहा है। । स्वर्गीय सुश्रावक भभूत मल जी एक धर्म प्रेमी थावक थे, जो स्वभाव से भद्र और प्रकृति से विनीत थे। जिन्होने जीवन की सान्ध्य वेला मे सथारा कर समाधि पूर्वक आयु पूर्ण किया था। उनके चार सुपुत्र थे, श्री छोगालाल जी, चुनीलाल जी, मिश्रीमल जी और हस्तीमल जी, ये चारो भाई पूज्य पिता को तरह ही धर्म निष्ठ थे। आगे तीन भाई तो स्वर्गस्थ हो चुके हैं, केवल हस्तीमल जी साहब इस समय उपस्थित हैं। श्रीमान् हस्तीमल जी जेठमल जी : ___ आप प्रकृति से बड़े उदार, मिलनसार तथा धर्मनिष्ठ हैं। आपकी आगम स्वाध्याय के प्रति सहज निष्ठा है तथा स्तोक (थोकड़े) साहित्य का आपका गहरा अभ्यास है। आप वर्षों तक सिवाना गढ के स्थानकवासी संघ के मंत्री रहे हैं। आपकी तरह आपके सुपुत्र Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ सहयोगियों को परिचय रेखा ११ जेठमल जी धर्म प्रेमी आगम अभ्यासी हैं । श्रीमान् हस्तीमल जी साहब ने प्रस्तुत प्रकाशन में दो हजार रु० प्रदान कर अपनी आगम अभिरुचि का परिचय दिया है। श्रीमान् छोगालाल जी: श्रीमान छोगालाल जी साहब वर्तमान में हमारे सामने नहीं हैं, किन्तु उनकी पुण्य स्मृति आते ही हृदय गद्गद् हो जाता है । क्या थी उनमें अतिथि सत्कार की उत्कट भावना ! और क्या थी उनमें मुनियों के प्रति गजब की निष्ठा ! वर्तमान मे आपके तीन पुत्र हैं(१) श्री सुखराज जी । (२) श्री घेवरचन्द जी और (३) श्री लालचन्द्र जी। श्रीमान् सुखराज जी : श्री सुखराज जी साहब एक बहुत ही मघर प्रकृति के व्यक्ति हैं। हृदय से उदार हैं और मन से साफ हैं । आगम-व स्तोक माहित्य के अच्छे अभ्यासी हैं। आपकी धार्मिक भावना प्रशसनीय है । आपका व्यवसाय बेंगलोर, मद्रास, और बम्बई में वागरेचा एण्ड कम्पनी के नाम से चलता है । आपके दोनों लघुभ्राता भी धर्म प्रेमी व श्रद्धालु श्रावक हैं । श्री सुखराज जी साहब ने कल्पसूत्र के प्रकाशन में एक हजार का अर्थ सहयोग दिया है। आप बैगलोर में भी श्रावक संघ के अध्यक्ष व उपाध्यक्ष पदों पर रह चुके हैं। स्वर्गीय श्री चन्नीलाल जी के सुपुत्र चनणमल जी एक उत्साही, धर्म प्रेमी सज्जन हैं। श्रीमान् मिश्रीमल जी और उनके सुपुत्र : श्री मिश्रीमल जी साहब का भौतिक देह भी आज हमारे सामने नही है, पर आपकी मधुर स्मृति मानस पटल पर अकित है। आपने वीर पुरुष की तरह संथारा कर अपने जीवन को सफल किया था। आपके वर्तमान में दो पुत्र हैं जिनका नाम क्रमशः श्री ऋषभ चन्द जो और पारसमल जी हैं। दोनो भाई पूज्य पिता की तरह ही धर्मनिष्ठ हैं, और बहुत ही उदार हैं, आपने भी प्रस्तुत कल्पसूत्र के प्रकाशन में दो हजार रुपये प्रदान किये हैं। श्रीमान प्रेमचन्द जी: स्वर्गस्थ श्री प्रेमचन्द जी वागरेचा बहुत ही मधुर स्वभाव के सज्जन थे। धर्म के प्रति उनके मन में अटूट श्रद्धा थी, मन्तों के प्रति गहरी भक्ति थी। आपके चार पुत्र है (१) हरखचन्द जी (२) दीपचन्द जी (३) राणमल जी, और (४) देवीचन्द जी। श्री दीपचन्द जी: श्री दीपचन्द जी एक उत्साही युवक हैं । पूज्य पिता की तरह ही आपकी धार्मिक भावना है। साहित्य के प्रति सहज अभिरुचि है। आपने १००१ रुपये कल्प सत्र के लिए प्रदान किये हैं । इस प्रकार वागरेचा परिवार की और से ६ हजार रुपये कल्पसूत्र के लिए प्राप्त हुए हैं। श्री धीगड़मल जी कानुगा : रांका और वागरेचा परिवार की तरह ही सिवाना गढ़ का कानुगा परिवार भी एक समृद्ध परिवार है । श्रीमान् मुलतानमल जी कानुगा के सुपुत्र श्री धीगड़मल जो साहब Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ कानुगा एक सुलझे हुए विचारक एवं समझदार युवक हैं। आपकी धार्मिक भावना सराहनीय है । आपका धार्मिक अध्ययन अच्छा है । आपका व्यवसाय अहमदाबाद में है। पूज्य श्री घासीलाल जी महाराज के शास्त्र प्रकाशन मे भी आपने अच्छा सहयोग दिया है । कल्पसूत्र के प्रकाशन में आपने ७०१ रुपये का अर्थ सहयोग दिया है। श्री चन्द जी ललवाणी : सिवाना गढ़ के सांस्कृतिक धार्मिक एवं सामाजिक उत्थान में ललवाणी परिवार का योगदान भी अपूर्व रहा है । श्रीमान् राजमल जी ललवाणी के सुपुत्र श्री डुंगरचन्द जी वाणी एक विवेकनिष्ठ धर्मप्रेमी युवक सज्जन हैं । त्याग व सयम के प्रति इनमें गहरी आस्था है । सन् १६६५ में श्रद्धेय सद्गुरुवर्य श्री पुष्कर मुनि जी महाराज के पास श्री पूनमचन्द जी गुमानमलजी दोशी, वडु (मारवाड) निवासी के सुपुत्र बालब्रह्मचारी रमेश कुमार जी और राजेन्द्र कुमार जी की दीक्षाएं गढ़ सिवाना में बड़े उत्साह के साथ सम्पन्न हुई थीं, उसमें श्री रमेशकुमार जी की दीक्षा आपके घर से हुई थी और उनकी मातेश्वरी धाप वर बहिन की दीक्षा खाण्डप में चन्दनबाला श्रमणी सघ की अध्यक्षा त्यागमूर्ति स्वर्गीय महासती श्री सोहनकुवर जी महासती की सुशिष्या परम विदुषी महासती पुष्पवती जी, प्रतिभामूर्ति प्रभावती जी म० के पास सम्पन्न हुई थी । उनका नाम महासती प्रकाशवती जी हैं । प्रस्तुत कल्पसूत्र के प्रकाशन मे ललवाणी जी ने ५०१ का अर्थ सहयोग प्रदान किया है। सर्व प्रथम स्वाध्यायी संघ, गुलाबपुरा ने एक साथ कल्पसूत्र की १०० प्रतियाँ अग्रिम लेकर हमारे उत्साह को बढाया है । हम उन सभी सज्जनों को हार्दिक धन्यवाद देते हैं, जिन्होंने अत्यधिक उदारता के साथ अपनी स्वेच्छा से प्रस्तुत प्रकाशन के लिए अर्थ सहयोग प्रदान किया व श्री अमर जैन आगम शोध संस्थान का निर्माण किया । प्रस्तुत संस्थान मरुधर देश में सर्व प्रथम स्थानकवासी जैन धर्म का प्रचार करने वाले आचार्य सम्राट् श्री अमरसिंह जी महाराज के स्मृति में स्थापित किया जा रहा है । प्रस्तुत संस्थान का उद्देश्य स्थानकवासी जैन धर्म का प्रचार करना है । कल्पसूत्र इस संस्थान का प्रथम प्रकाशन है । अन्तगड सूत्र इसी प्रकार नव्य भव्य रूप में द्वितीय पुष्ष के रूप में अर्पित करने का संस्थान का विचार है, अतः हम भविष्य में भी आप सभी के उदार सहयोग की मगल कामना करते है । मन्त्री, श्री अमर जैन आगम शोध संस्थान गढ़ सिवाना ( राजस्थान) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना नन्दीसूत्र मे आगम साहित्य की सविस्तृत सूची प्राप्त होती है। आगम की जितनी भी शाखाएं है, उनका निरूपण उसमें किया गया है। प्रथम आगम को अंग प्रविष्ट और अग बाह्य में विभक्त कर फिर अंग बाह्य और आवश्यक व्यतिरेक इन दो भागो मे विभक्त किया है, उसके पश्चात् आवश्यक व्यतिरेक के भी दो भेद किये हैं, कालिक और उत्कालिक कालिक श्रुत की सूचि मे एक कल्प का नाम आया है जो वर्तमान मे बृहत्कल के नाम से जाना पहचाना जाता है, और उत्कालिक श्रुत की सूची मे 'चुल्ल कल्पश्रुत' और 'महाकल्पश्त' इन दो कल्पसूत्रो के नाम आये है । पं० गणि श्री कल्याणविजय जी का मानना है कि महाकल्प को विच्छेद हुए हजार वर्ष से भी अधिक समय हो गया है और 'चुल्लकल्पत को आज पर्युषणा कल्पसूत्र कहते है।" परन्तु लेख मे मुनि श्री कल्याणविजय जी ने कोई प्राचीन ग्रन्थ का आधार प्रस्तुत नहीं किया। आगम प्रभावक प० मुनि श्री पुण्यविजय जी का अभिमत है कि 'महाकल्प' और चुल्लकल्प ये आगम नन्दीसूकार देवगणी क्षमाश्रमण के समय में भी नहीं थे। उन्होने उस समय कुछ यथाश्रुत एवं कुछ यथादृष्ट नामो का संग्रह मात्र किया है । अतः 'चुल्लकल्प श्रुत' को पर्युपणा कल्पसूत्र मानने का मुनि श्री कल्याणविजय जी का अभिमत युक्तियुक्त और आगम सम्मत नहीं है।" स्थानाङ्ग सूत्र मे दशाश्रुत स्कध का नाम 'आयार दसा (आचार दशा) दिया है। उसके दस अध्ययन है, उसमे आठवा अध्ययन पर्युषणा कल्प है। जो वर्तमान मे पर्युपणा कल्पसूत्र है, वह दशाबुत स्कंध का ही आठवा अध्ययन है । दशाभूतस्कंध की प्राचीनतम प्रतिया (१४वीं शताब्दी से पूर्व की ) जो पुण्यविजय जी महाराज के सौजन्य से मुझे देखने को मिली है, उसमे आठवे अध्ययन मे पूर्ण कल्पसूत्र आया है। जो यह स्पष्ट प्रमाणित करता है कि कल्पसूत्र कोई स्वतंत्र एवं मनगढन्त रचना नहीं है, अपितु दशाथ तस्कंध का ही आठवा अध्ययन है । ♡ दूसरी बात दशा तस्कष पर जो द्वितीय भद्रबाहु की नियुक्ति है, जिनका समय विक्रम की छठी शताब्दी है, उसमे और उस नियुक्ति के आधार से निर्मित पूणि मे, दशा तस्कंध के आठवें अध्ययन में जो वर्तमान में पर्युषणा कल्पसूत्र प्रचलित है, उनके पदो की व्याख्या मिलती है। मुनि श्री पुण्यविजय जी का अभिमत है कि दशा तस्कर की भूमि लगभग सोलह सौ वर्ष पुरानी है। १. प्रबंध पारिजात मुनि कल्याणविजय जी पृ० १४३ २. लेखक के नाम लिखे पत्र का मक्षिप्त सागण पत्र सं० २०२४ वैशाख शुदि ५ शुक्रवार अहमदाबाद से । बारस ३. आचारवमाणं दस नयणा पण्णता त जहा-बीसं असमाहिठाणा, एगवीस सबला, तेतीस आमायणाता अट्ठबिहा गणितपया, दस चित्तसमाहिठाणा, एगारस उवासगपडिमातो, भिक्खुडिमातो पोसवण कप्पो, तीसं मोहणिज्जठाणा, आजाइट्ठाणं । ४. कल्पसूत्र, प्रस्तावना पृ० ८ स्थानाङ्ग १० स्थान १३ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ प्रश्न हो सकता है कि आधुनिक दशाभूतस्कंध की प्रतियों में कल्पसूत्र क्यो नही मिलता ? इसका उत्तर यही है कि जब से कल्पसूत्र का वाचन पृथक् प्रारंभ हुआ तब से स्थानशून्यार्थं उसमें सक्षिप्त कर दिया गया होगा । यदि पहले से ही संक्षिप्त होता तो नियुक्ति और चूर्णि मे उनके पदो की व्याख्या कैसे आती ? स्थानकवासी जैन समाज दशाश्रुत स्कंध को एक प्रामाणिक आगम स्वीकार करता है, तो कल्पसूत्र उसी का एक विभाग होने के कारण उसे अप्रामाणिक मानने का कोई कारण नही है । मूल कल्पसूत्र मे ऐसा कोई प्रसंग और न घटना हो आयी है जो स्थानकवासी जैन परम्परा की मान्यता के विपरीत हो । श्रमण भगवान् महावीर को जीवन झाकी का वर्णन आचारांग के द्वितीय श्रुतस्क के माथ मिलता जुलता है। भगवान् ऋषभदेव का वर्णन भी जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति से विपरीत नहीं है, अन्य तीर्थ करो का वर्णन जैसा सूत्र रूप मे अन्य आगम साहित्य में बिखरा पड़ा है, उसी प्रकार का इसमे भी है । समाचारी का वर्णन भी आगम सम्मत है । स्थविरावली का निरूपण भी कुछ परिवर्तन के साथ नन्दी सूत्र में आया ही है, अतः हमारी दृष्टि से कल्पसूत्र को प्रामाणिक मानने में बाधा नही है । पाश्चात्य विचारकों का यह अभिमत हैं कि कल्पसूत्र मे चौदह स्वप्नों का आलंकारिक वर्णन पीछे से जोड़ा गया है, एवं स्थविरावली तथा समाचारी का कुछ अंश भी बाद मे प्रक्षिप्त किया गया है। पं० पुण्यविजय जी का मन्तव्य है कि उन विचारको के कथन मे अवश्य ही कुछ सत्य तथ्य रहा हुआ है, क्योंकि कल्पसूत्र की प्राचीनतम प्रति वि० स० १२४७ की ताडपत्रीय प्राप्त हुई है, उसमे चौदह स्वप्नों का वर्णन नही है और कुछ प्राचीन प्रतियो मे स्वप्नों का वर्णन आया भी है तो अति संक्षिप्त रूप से आया है। नियुक्ति, चूर्ण एवं पृथ्वीचन्द्र टिप्पण आदि में भी स्वप्न सम्बन्धी वर्णन की व्याख्या नहीं है, परन्तु इतना निश्चित है कि जो आज कल्पसूत्र मे स्वप्न सम्बन्धी आलंकारिक वर्णन है वह एक हजार वर्ष से भी कम प्राचीन नहीं हैं, यह किसका निर्मित है यह अन्वेषणीय है । कल्पसूत्र को नियुक्ति, चूर्णि आदि से यह सिद्ध हैं कि इन्द्र आगमन, गर्भचंक्रमण, अट्ट, णशाला, जन्म, प्रीतिदान, दीक्षा, केवल ज्ञान, वर्षावास निर्वाण अन्तकृदभूमि आदि का वर्णन उसके निर्माण के समय कल्पसूत्र मे था और यह भी स्पष्ट है कि जिनचरितावली के साथ उस समय स्थविराबली और समाचारी विभाग भी था। ५. कल्पसूत्र - प्रस्तावना - पृ० ६ का साराश ६. पुरिमचरिमाण कप्पो, मंगलं वयमाणतित्वम्मि । दह परिकहिया जिण गणहराइयेरावलि चरित ं । - कल्पसूत्र नियु किन गा० ६२ पुरिमचरिमाण यतित्वगगंणं एस मम्मो चैव जहा वासावासं पज्जोसवेयव्वं पचतु वा वामं मावा मज्झिमगाणं पुण भयितं । अवि व वद्धमाणतित्यम्मि मंगसणिमित्तं जिणगणहर (राशि) बलिया सम्बेसि च जिणाणं समोसरणाणि परिकहिज्जेति । - कल्पसूत्र पूर्ण प० १०१ पुण्यविजय जी सम्पादित Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि स्थविरावली मे जो देवद्धगणी क्षमाश्रमण तक के नाम आये हैं, वे श्रुतकेवली भद्रबाहु के द्वारा वर्णित नहीं है, अपितु आगम वाचना के समय इसमें संकलित कर दिये गये हैं। मुनि श्री पुण्यविजय जी के अभिमतानुसार समाचारी विभाग में 'अंतरा वि से कपई नो से ears तं रर्याणि उवायणावित्तए" यह पाठ, संभवत आचार्य कालक के पश्चात् का बनाया गया हो । संक्षेप मे सार यह है - श्रुतकेवली भद्रबाहु के रचित कल्पसूत्र मे अन्य आगमों की तरह कुछ अंश प्रक्षिप्त हुआ है। प्रक्षिप्त अंश को देखकर श्री बेवर ने जो यह धारणा बनायी कि कल्पसूत्र का मुख्य भाग देवद्विगणी के द्वारा रचित है, और मुनि अमरविजयजी के शिष्य चतुरविजय जी ने द्वितीय भद्रबाहु की रचना मानी है, यह कथन प्रामाणिक नहीं है। आज अनेकानेक प्रमाणो से यह सिद्ध हो चुका है कि कल्पसूत्र बतकेवली भद्रबाहु की रचना है, जब दशा श्रुत स्वस्थ भद्रबाहु निर्मित है, तो कल्पसूत्र उसी का एक विभाग होने के कारण वह भद्रबाहु का हो निर्मित है, वा निर्यूठ है । यहाँ पर यह भी स्मरण रखना चाहिए कि श्रुतकेवली भद्रबाहु ने दशाभूतस्कन्ध आदि जो आगम लिखे है, वे कल्पना की उड़ान में नहीं लिखे है अपितु उन्होने दणाध तस्कध, निशीष, व्यवहार, और वृहत्कल्प से सभी आगम नौवें पूर्व के प्रत्यास्थान विभाग से उद्धृत किये हैं। पूर्व गणधरकृत है, तो ये आगम भी पूर्वो से नियूंढ होने के कारण एक दृष्टि से गणधरकृत ही है । ० दशा तस्कंध छेद सूत्र मे होने पर भी प्रायश्चित्त सूत्र नही है, किन्तु आचार सूत्र है एतदर्थं आचार्यों ने इसे चरणकरणानुयोग के विभाग में लिया है।" छेदसूत्रो मे दशाअतस्कघ को मुख्य स्थान दिया गया है। जब दशाध तस्कंध छेद सूत्रो मे मुख्य है, तो उसी का विभाग होने से कल्पसूत्र की मुख्यता स्वतः सिद्ध है । दशाश्रु तस्कंध का उल्लेख मूलसूत्र उत्तगध्ययन के इकतीसवें अध्ययन मे भी हआ है ।१३ १५ ७ इण्डियन एण्टीक्वेरी जि० २१० २१२-२१३ मंत्राधिराज चिन्तामणि जैन स्तोत्र स दोह, प्रस्तावना १० १२-१३ प्रकाशक- साराभाई मणिलाल नवाब अहमदाबाद सन् १९३६ । ९. (क) वंदामि भट्ट बाहू पाडणं चरिमसयलसुवणाणि तस्स कारमिसि दसासु कप्पे य बवहारे । (ख) तेग भगवया आयारपकप्प दसावयववहारा य नवमपुब्वनीस दभूतानिज्यूठा ११. इहं चरणकरणाणुओगेण अधिकारी । १२. इमं पुणच्छे मुहभूत | ११. पणवीसभावनाहिं, उसेसु - दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति मा० १ १०. कतरं सुतं ? दसा उकप्पो यवहारो य । कतराती उद्धृत ? उच्यते - पन्चक्खाणपुम्बाओ । दशाइणं । जे भिक्खु जयई निच्च से न अच्छाई मण्डले । । - पंचकल्पभाष्य गाथा २३ घूर्णि - दशाशुनस्कंध पूणि पत्र २ - दशाश्रुतस्कंध, चूर्णि पत्र २ - दशान स्कंध, चूर्णि पत्र २ - उत्तराध्ययन अ० ३१ गा० १७ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ नियुक्ति-पूर्णि कल्पसूत्र की सबसे प्राचीन व्याख्या नियुक्ति और चूर्णि है। नियुक्ति गाया रूप है और पूर्णि गद्य रूप है । दोनो की भाषा प्राकृत है । नियुक्ति के रचयिता द्वितीय भद्रबाहु हैं । चूर्णि के रचयिता के सम्बन्ध में अभी कोई निर्णय नहीं हो सका है। कल्पान्तa for नियुक्ति और कूणि के पश्चात् कल्पान्तवच्य प्राप्त होते है । ये व्याख्या ग्रन्थ नहीं हैं, अपितु वक्ता कल्पसूत्र का वाचन करते समय प्रवचन को रसप्रद बनाने के लिए अन्यान्य ग्रन्थों से जो नोट्स लेता था उन्हे ही कल्पान्तर्वाच्य की संज्ञा दी गयी है। यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि जितने कल्पान्त र्वाच्य प्राप्त होते है वे सभी एक को ही प्रतिलिपियां नहीं है, अपितु विविध लेखकों ने अपनी-अपनी दृष्टि से उनको तैयार किये हैं। कुछ लेखक तपागच्छीय, कुछ खरतरगच्छीय और कुछ अंचलगच्छीय रहे हैं। क्योकि साम्प्रदायिक मान्यताओं के वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है। एक कल्पान्तर्वाच्य को श्री सागरानन्द सूरि ने 'कल्प समर्थन' के नाम से प्रसिद्ध करवाया है । टीकाएँ - जैनाचार्यों ने संस्कृत वाङ् मय को अत्यधिक अभिवृद्धि देखकर आगमों पर भी संस्कृत भाषा में टीकाएँ लिखी। कहासूत्र को टीकाओं मे नियुक्ति और पूर्णि के प्रयोग के साथ ही अपनी ओर से लेखको ने उसमें बहुत कुछ नया संदर्भ मिलाया है। सन्देह विषौषधि कल्पपंजिका इस टीका के रचयिता 'जिनप्रभमूरि' है। बृहद्विपनिका के अभिमतानुसार टीका का रचना काल स ं० १३६४ है। श्लोक परिमाण २५०० के लगभग है। भाषा प्रौढ है, कही कही अनागमिक वर्णन भी आ गया है। १४ इन्होंने भगवान् महावीर के बटुकल्याणको की चर्चा भी की है। कल्प- किरणावली - इस टीका के निर्माता तपागच्छीय उपाध्याय श्री धर्मसागरजी हैं । विक्रम स० १६२८ मे इसका निर्माण हुआ है । श्लोक परिमाण ४८१४ है । इस टीका की परिसमाप्ति राधनपुर में हुई है । इतिवृत्त सम्बन्धी अनेक भूलें टीका मे दृष्टिगोचर होती हैं । इस पर सन्देहविषौषधी टीका का स्पष्ट प्रभाव भी परिलक्षित होता है । प्रदीपिका वृत्ति इसके टीकाकार पन्यास संघविजय है टीका का परिमार्जन उपाध्याय धनविजय जी ने १६८१ में किया था। श्लोक परिमाण ३२५० है टीका की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है कि लेखक खण्डन-मण्डन की प्रवृत्ति से अलग-थलग रहा है । पूर्वं टीकाओ की तरह इस टीका में भी कुछ स्थलो पर त्रुटियाँ अवश्य हुई हैं । कल्पदीपिका इस टीका के लेखक पं० पन्यास जयविजयजी है और संशोधन कर्ता हैं भाव विजयगणी । स ं० १६७७ के कार्तिक शुक्ला सप्तमी को यह टीका समाप्त हुई है । लेखक ने प्रशस्ति मे अपने गुरु का नाम उपाध्याय विमल हर्ष दिया है। श्लोक परिमाण ३४३२ है, भाषा प्राज्जल है। १४. प्रबन्ध पारिजात -मुनि कल्याण विजय, प० १५० Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ अपने मन्तब्यों के विरुद्ध विषयों का लण्डन भी किया है, पर मधुरता, शिष्टता एवं तर्क के साथ, जिससे पाठक को अखरता नही है । कल्प प्रदीपिका - इस टीका के रचयिता संघविजय है। विक्रम सं० १६७६ में यह टीकासमाप्त हुई है। कल्प सुबोधिका - इस टीका के लेखक उपाध्याय विनयविजय जी हैं। विक्रम सं० १६६६ मे यह टीका निर्मित की गयी है। पूर्व की सभी टीकाओ से प्रस्तुत टीका विस्तृत है। भाषा को सरलता एवं विषय की सुबोधता के कारण यह अन्य टीकाओं से अधिक लोकप्रिय हुई है। कल्प किरणावली और कल्प दीपिका टीकाओ का खण्डन भी यत्र-तत्र किया गया है, प्रशस्ति से स्पष्ट है कि टीका का स शोधन उपाध्याय भावविजय जी ने किया है। कल्प कौमुदी इस टीका के लेखक उपाध्याय शान्तिसागर जी है विक्रम सं० १७०७ मे उन्होने यह टीका पाटण मे लिखी । श्लोक संख्या ३७०७ है। टीका में उपाध्याय विनयविजय जो की कटु आलोचना की गई है । उपाध्याय जी ने सुबोधिका टीका में जो कल्प किरणावली टीका का खण्डन किया उसी का प्रत्युत्तर इसमें दिया गया है। 1 कल्प- व्याख्यान-पद्धति- इसके संकलनकार वाचक श्री हर्षसार शिष्य श्री शिवनिधान गणी है। इसमे पूर्ण कलासूत्र का अभाव है, मुनि श्री कल्याण विजय जी के अभिमतानुसार इसकी रचना १७ वी शताब्दी मे होनी चाहिए। कल्पद ्मम कलिका - इस टीका के रचयिता खरतरगच्छीय उपाध्याय लक्ष्मीवल्लभ है। टीका मे कही पर भी रचना काल का निर्देश नही किया गया है। भगवान पार्श्व की जीवनी में सर्पयुगल की घटना, तथा भगवान के मुखारविन्द से महामंत्र सुनाने की घटनाएं श्वेताम्बर चरित्र ग्रन्थों से विपरीत है । कल्पलता - इस टीका के रचयिता समयसुन्दर गणी है । विक्रम सं० १६६६ के आसपास उन्होने यह रचना की है । वृत्ति का ग्रन्थमान ७७०० श्लोक प्रमाण है । हर्षवर्धन ने इस टीका का संशोधन किया है । - कल्पसूत्र टिप्पनक — इसके रचयिता आ० पृथ्वीचन्दसूरि हैं। श्री पुण्यविजय जी के अभिमतानुसार वे चौदहवी शताब्दी मे होने चाहिए। श्लोक परिमाण ६८५ है । कल्पप्रदीप इस टीका के रचयिता संघविजय गणी है। कल्पसूत्रार्थ प्रबोधनी - इस टीका के रचयिता अभिघानराजेन्द्र कोष के सम्पादक श्री गजेन्द्र सूरि है टीका काफी विस्तृत है। इन टीकाओं के अतिरिक्त कल्पसूत्र वृत्ति उदयसागर कल्पदुर्गपदनिरुक्ति, पर्युषणा ष्टाहिका व्याख्यान पर्युषण पर्व विचार, कल्पमंजरी - रत्नसागर, कल्पसूत्र ज्ञान दीपिका - ज्ञानविजय, अवचूर्णि, अवचूरि, टब्बा बादि अनेक टीकाएं उपलब्ध होती हैं। डाक्टर हर्मन जेकोबी ने कल्पसूत्र का १५. लेखक का ग्रंथ - 'पार्श्वनाथः एक अध्ययन' देखें । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ इंग्लिश में अनुवाद प्रकाशित किया है और उस पर महत्त्वपूर्ण भूमिका भी लिखी है । स्थानकवासी मुनि उपाध्याय श्री प्यारचन्द जी म० ने मक्षिप्त हिन्दी अनुवाद सहित कल्पसूत्र प्रकाशित किया है । सुत्ता गमे के द्वितीय भाग में मुनि पुफ्फभिक्खुजी ने भी मूल कल्पसूत्र छापा है। पूज्य पं० मुनि श्री घासी लालजी म. ने भी नवीन मौलिक कल्पमूत्र का निर्माण किया है। इस प्रकार कल्पसूत्र पर विशाल व्याख्या साहित्य समय-समय पर निर्मित हुआ है, जो उसकी लोकप्रियता का ज्वलंत प्रमाण है। श्रमण भगवान महावीर डाक्टर विटरनिट्स के अभिमतानुसार कल्पसूत्र तीन भागो में विभक्त है, जिनचरित्र, स्थविरावली और समाचारी। जिनचरित्र में सर्वप्रथम श्रमण भगवान् महावीर को जीवन गाथा आयी है । भगवान् महादोर के गर्भ संक्रमण की घटना अत्यधिक विस्तार के साथ चित्रित की गई है। यह घटना बताती है कि श्रमण संस्कृति में ही क्या वैदिक संस्कृति मे भी क्षत्रियों को ही अध्यात्म-विद्या का गुरु माना है। दीघनिकाय में महात्मा बुद्ध ने कहा-"वाशिष्ठ । ब्रह्मा सनत्कुमार ने भी गाथा कही हैगोत्र लेकर चलने वाले जनो में क्षत्रिय श्रेष्ठ है । जो विद्या और आचारण से युक्त है, वह देव मानवों मे श्रेष्ठ है। वाशिष्ठ ! प्रस्तुत गाथा सनत्कुमार ने ठीक कही है, गलत नही । सार्थक कही है, निरर्थक नही, मैं भी इसका अनुमोदन करता हूँ।"१६ छान्दोग्योप िषद् में आरुणी के पुत्र श्वेतकेतु और प्रवाहण क्षत्रिय का मधुर संवाद है । संक्षेप मे सारांश यह है कि श्वेतकेतु सभा में जाता है । प्रवाहण उससे पाच प्रश्न करता है, किन्तु वह एक भी प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकता । तथा वह अपने विद्या गुरु पिता के पास जाता है और प्रवाहण के प्रानो नही जानता था । एतदर्थ वे राजा के पास गये और उनसे अपनी जिज्ञासा अभिव्यक्त की। तब राजा ने कहा-गौतम ! तुमने मुझसे कहा है, पूर्व-काल मे तुमसे पहले यह विद्या ब्राह्मणों के पास नही गई है । इसी से सम्पूर्ण लोको मे क्षत्रियो का ही (शिष्यो के प्रति) अनुशासन होता रहा है । तात्पर्य यह है कि क्षत्रियों की श्रेष्ठता रक्षात्मक शक्ति और आत्म-विद्या के कारण अत्यधिक मानी जाती थी। वृहदारण्यक उपनिषद् में भी राजा प्रवाहण ने आरुणी से कहा-इसके पूर्व यह अध्यात्म विद्या किसी ब्राह्मण के पास नही रही, वह मैं तुम्हें बसलाऊंगा। १६. दीघनिकाय ३।४, पृ० २४५ १७. यथेयं न प्राक् त्वत्तः पुरा विद्या ब्राह्मणान् गच्छति तस्मादुः सर्वेषु लोकेषु क्षत्रस्यैव प्रशासनमभूदिति तस्यै हो वाच-छान्दोग्योपनिषद् । ५।३।१-७० पृ० ४७२-४७६ । १८. यथेयंविद्येतः पूर्व न कश्मिश्चन ब्राह्मग उवास ता त्वहं तुभ्यं वक्ष्यामि । --वृहदारण्यकोपनिषद् ६।। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ विष्णु पुराण के अनुसार- प्रायः सभी मैथिल के राजा बात्म-विद्या को आश्रय देते थे । १४ ब्राह्मणों के ब्रह्मत्व पर करारा व्यंग करते हुए अजातशत्रु ने गार्ग्य से कहा - " ब्राह्मण क्षत्रिय की शरण में इस आशा से जाय कि वह मुझे ब्रह्म का उपदेश करेगा, यह तो विपरीत है, तथापि मैं तुम्हें उसका ज्ञान कराऊंगा ही । २० atitant बाह्मण २१, शतपथ ब्राह्मण २२ आदि ग्रन्थो मे भी ब्राह्मणों से क्षत्रिय श्रेष्ठ है, यह प्रतिपादित किया है। ब्राह्मण परम्परा में हिंसा का प्राधान्य था और क्षत्रिय परम्परा में अहिसा का अहिंसा प्रेमी होने के कारण क्षत्रिय अत्यधिक आदर की दृष्टि से देखा जाता था। 'संस्कृति के चार अध्याय' में रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं- "अवतारों मे वामन और परशुराम ये दो ही हैं, जिनका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था। बाकी सभी अवतार क्षत्रियों के वंश मे हुए है। वह आकस्मिक घटना हो सकती है, किन्तु इससे यह अनुमान आसानी से निकल आता है कि यज्ञों पर पलने के कारण ब्राह्मण इतने हिंसा प्रिय हो गए थे कि समाज उनसे घृणा करने लगा और ब्राह्मणो का पद उन्होने क्षत्रियों को दे दिया। प्रतिक्रिया केवल ब्राह्मण धर्म के प्रति ही नहीं, ब्राह्मणों के गढ कुरु पंचाल के खिलाफ भी जगी और वैदिक सभ्यता के बाद वह समय आ गया जब इज्जत कुरु पंचाल की नही, बल्कि मगध और विदेह की होने लगी। कपिल वस्तु में जन्म लेने के ठीक पूर्व जब तथागत स्वर्ग मे देवयोनि में विराज रहे थे, तब को कथा है कि देवताओं ने उनसे कहा कि अब दापका अवतार होना चाहिए। अतएव आप सोच लीजिए कि किस देव और किस कुल में जन्म ग्रहण कीजियेगा । तथागत ने सोच समझ कर बताया कि मगधदेश और क्षत्रियवंश ही हो सकता है।" महाबुद्ध के अवतार के योग्य तो "भगवान् महावीर वर्द्धमान भी पहले एक ब्राह्मणी के गर्भ मे आये थे। लेकिन इन्द्र ने सोचाइतने बडे महापुरुष का जन्म ब्राह्मणवंश मे कैसे हो सकता हैं ? अतएव उसने ब्राह्मणी का गर्म चुराकर उसे एक क्षत्रियाणी की कुक्षी मे डाल दिया। इन कहानियो का निष्कर्ष निकलता है कि उन दिनों यह अनुभव किया जाने लगा था कि अहिंसा धर्म का महाप्रचारक ब्राह्मण नही हो सकता, इसलिए बुद्ध और महावीर के क्षत्रिय वंश में उत्पन्न होने की कल्पना लोगो को बहुत अच्छी लगने लगी । २३ बृहदारण्यक उपनिषद में भी आया है कि "क्षत्रिय से उत्कृष्ट कोई नहीं है। राजसूय यज्ञ में ब्राह्मण नीचे बैठकर क्षत्रिय की उपासना करता है। वह क्षत्रिय मे ही अपने यश को स्थापित करता है | २४ १९. प्रायेणेत आत्मविद्याश्रयिणो भूपाला भवन्ति । २०. बृहदारण्यकोपनिषद् २।१।१५ ११. कौशीतकी ब्राह्मण २६०५ २२. शतपथ ब्राह्मण ११वी कण्डिका २३. संस्कृति के चार अध्याय पृ० १०-६-११० २४. बृहदारण्यकोपनिषद् १।४।११, पृ० २३६ - विष्णुपुराण ४।५।१४ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत कपन की तुलना श्रमण भगवान महावीर के जीवन के उस प्रसंग से की जा सकती है-जब भगवान समवसरण में स्फटिक सिंहासन पर बैठते हैं उनके प्रमुख शिष्य गौतमादि जो वर्ण से ब्राह्मण हैं, वे नीचे बैठकर उनकी उपासना करते हैं, ज्ञान का अलौकिक प्रकाश प्राप्त करते है ।२५ जिस प्रकार कल्पसूत्र में कहा है 'न ऐसा कभी हुआ है, न होता है और न होगा ही कि अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव अथवा वासुदेव अन्त-प्रान्त, सुच्छ, कृपण, भिक्षुक और ब्राह्मण कुलों मे जन्मे थे, जन्मे हैं और जन्मेगे । अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव उग्र. भोग, राजन्य, क्षत्रिय, हरिवंश कूल में या इसी प्रकार के उच्च कुल में जन्मे थे, जन्मे हैं और जन्मेगे । २६ इसी प्रकार बौद्ध ग्रन्थ ललित विस्तरा में भी कहा है-बोधि सत्व चाण्डाल कूल, वेणकार कुल, रथकार कुल, पुक्कस कुल जैसे होन कूलों में जन्म नहीं लेते। वे या तो ब्राह्मण कुल मे जन्म लेते है या क्षत्रिय कुल में। जब लोक ब्राह्मणप्रधान होता है तो ब्राह्मण कुल मे जन्म लेते है और जब क्षत्रिय-प्रधान होता है तब क्षत्रिय कूल में जन्म लेते हैं।२७ उपरोक्त चर्चा से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि भारतीय सस्कृति मे क्षत्रिय का महत्त्व अधिक रहा है। जैन संस्कृति के सभी तीर्थ कर क्षत्रिय रहे है, वे आत्म-विद्या के पुरस्कत्ता एवं अहिंसा के प्रबल प्रचारक रहे हैं। भगवान महावीर के जीवन की दिव्य एवं भव्य झाकी स्वयं सूत्रकार ने प्रस्तुत की है। अत. पाठकों से अनुरोध है कि वे उसका रसास्वादन मूल ग्रन्थ से ही करें। और विशेष जिज्ञासु लेखक का 'महावीर जीवन दर्शन' ग्रन्थ देखें। श्रमण भगवान महावीर के सम्बन्ध में यह एक भ्रान्त धारणा चल रही है कि उन्होंने सवंतंत्र स्वतंत्र धर्म की संस्थापना की थी, वे एक नये धर्म के प्रवर्तक थे,' पर यह बात सही नही है, उन्होने किमो नये धर्म की सस्थापना नही की, पर जो पूर्व तीर्थ करो की लम्बी परम्परा चली आ रही थी वे उसके उन्नायक थे, सुधारक थे, प्रचारक थे और उद्धारक थे। आचाराग में स्वयं भगवान ने कहा-जो अहंत हो चके हैं, जो वर्तमान में है और आगे होगे उन सबका यही निरूपण है कि किसी भी जीव की हिंसा न करो।२८ यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि देश-काल के अनुसार तीर्थ कर की शासन व्यवस्था में भेद भी होता है, पर सर्वथा ही भेद हो यह बात नहीं होती। भगवान् पाश्वं और महावीर की शासन व्यवस्था मे अनेक बातो में भेद रहा है, पर भेद मे भो अभेद अधिक था। २५. आवश्यक नियुक्ति । २६. कल्पसूत्र २७ ललित विस्तरा पृ० २२ २८. आचारांग ११४१ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्थ • डाक्टर हर्मन जेकोबी भगवान् पाश्व को ऐतिहासिक व्यक्ति मानते हैं। उन्होंने जैनागमों के साथ ही बौद्ध पिटकों के प्रमाणों के प्रकाश में यह सिद्ध किया कि भगवान् पाश्वं एक ऐतिहासिक पुरुष हैं। उनके इस कथन का समर्थन अन्य अनेक विद्वानो ने भी किया है। डाक्टर वासम के मन्तव्यानुसार 'भगवान् महावीर को बौद्ध पिटकों में बुद्ध प्रतिसाद्ध के रूप मे उहङ्कित किया है, एतदर्थं उनकी ऐतिहा सिकता असंदिग्ध है। भगवान् पार्श्वनाथ चौबीस तीर्थ करो मे से तेवीसवें तीर्थंकर के रूप मे विधुत हैं। १० भगवान् पा का अस्तित्व काल ईस्वी पूर्व दसवी वाताब्दी है। वे भगवान् महावीर के दो सौ पचास वर्ष पूर्व हुए थे। उनका जीवन काल सौ वर्ष का था। दिगम्बर आचार्य गुणभद्र के अभिमतानुसार भगवान् पाप के परिनिर्वाण के २५० वर्ष पश्चात् भगवान् महावीर का निर्वाण हुआ । २ यदि इस अभिमत को स्वीकार किया जाय तो पार्श्वनाथ का अस्तित्व ईस्वी पूर्व नौवी शताब्दी ठहरता है । जज कार्पेण्टियर का मन्तव्य है 'पार्श्व ऐतिहासिक पुरुष हैं और आज जैनधर्म के सच्चे स्थापनकर्ता के रूप में माने जाने लगे हैं। कहा जाता है कि महावीर से २५० वर्ष पूर्व उनका निर्वाण हुआ । वे संभवत: ईसा से पूर्व वी शताब्दी में रहे होगे 33 एच० सी० राय चोधरी ने लिखा है "जैन तीर्थंकर पार्व का जन्म ईसा पूर्व ८७७ और निर्वाण काल ईसा पूर्व ७७७ है। १४ ? That Parshva was a historical person, is now admitted by all as very probeble... .... — The Sacred Books of the East, Vol. XIV, Introduction p. 21. ३०. As he (Vardhamen Mahavira ) is referrd to in the Buddhist scriptures as one of the Buddha's chief opponents his historicity is beyond doubt......... Parshva was remembered as the twenty third of the twenty four great feachers or Tirthankaras "ford-makers' of the Jaina Faith The Wonder that was India (A. L Basham, B. A. Ph-D., F. R. A. S.) Reprinted 1956, pp. 287-88. -- आवश्यक नियुक्ति, मलयगिरिवृत्ति १०२४१ ३१ पायजणामो य होइ बोरजिणो । अड्डाज्जम गए चरिमो समुत्पन्नो । पार्श्वगतीर्थमनाने पंचाशदद्विशताब्दके । तदभ्यन्तरत्यु- महावीरोऽत्र जातवान् । - महापुराण (उत्तर पुराण) १ ७४ पृ० ४६२ प्रका० भारतीय ज्ञानपीठ काशी ३३ कैम्ब्रिज हिस्ट्री आव इण्डिया जिल्द १ पृ० १५३ मे 'द' हिस्ट्री आव जैनाज | ३४. पोलिटिकल हिस्ट्री ऑफ एन्मियन्ट इण्डिया पृ० १७ हमारी दृष्टि से भ० पाश्र्व के समय मे जो विद्वानों में मतभेद दृष्टिगोचर होता है उसका मूल कारण किसी ने भ० पार्श्व का निर्वाण भ० महावीर मे २५० वर्ष पूर्व माना है, किसी ने भ० पार्श्व के जन्म के २५० वर्ष पश्चात् महावीर का जन्म माना है और किमी ने भ० पार्श्व के जन्म के पश्चात् २५० वर्ष बाद भ० महावीर का निर्माण माना है । -- लेखक २१ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ 1 श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्परा के ग्रंथों के आधार से यह पूर्ण सिद्ध है कि भगवान पाव की जन्मभूमि सुप्रसिद्ध काशी राष्ट्र की राजधानी वाराणसी घी काशी नरेश अश्वसेन उनके पिता थे और वामा उनकी माता थी। पोष कृष्णा दशमी को उनका जन्म हुआ । ३५ आपके युग में तापस परम्परा का प्राबल्य था। अज्ञान तप का ही सच्चा और सही तप समझा जाता था । गृहस्थाश्रम में हो आपने पंचाग्नि तप करते हुए कमठ को अहिंसा का उपदेश दिया और पुनी में जलते हुए सर्प को नमस्कार महामंत्र सुनवाकर उसका उद्धार किया 135 संयम ग्रहण करने के पश्चात् उप्र साधना कर कैवल्यज्ञान प्राप्त किया। कुरु, कौशल, काशी, सुम्ह, अवन्ती, पुण्ड्र, मालव, अंग, बग कलिंग, पाचाल, मगध, विदर्भ, भद्र, दशार्ण, सौराष्ट्र, कर्णाटक' कोकण, मेवाड, लाट, द्राविड, काश्मीर कच्छ, शाक, पल्लव, वत्स, आभीर आदि प्रदेशों में परिभ्रमण कर विवेक मूलक धर्म साधना के मार्ग को बताया। भगवान् पार्श्वनाथ के आत्मा व्रत आदि तात्विक विषयों का जन मानस पर इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि वैदिक संस्कृति के उपासकों ने भी उसे अपनाया। भगवान पार्श्वनाथ के उपदेशो की स्पष्ट झांकी उपनिषदो मे भी आयी है। प्राचीनतम उपनिषद् भी पार के बाद के है । ३८ डाक्टर विमलाचरण लॉ के अभिमतानुसार 'भगवान पार्श्व के धर्म का प्रचार भारत के उत्तरवर्ती क्षत्रियों में था और उसका प्रमुख केन्द्र वैशाली था । वृतिगण के प्रमुख महाराजा पेटक भगवान पार्श्व के धर्म का पालन करने वाले थे ।४० भगवान महावीर के माता पिता पार्श्वनाथ की परम्परा के मानने वाले श्रमणोपासक थे । ४१ ३५. (क) पामनाह परियं देवभद्रसूरि (ख) पादवनाथ चरित्र भावदेव सूरि - ३६. तो भगवया नियमपुरिसवयण दवाविओ से पचणमोक्कारो पञ्चवखाणं व पडिद्रियं तेन । उप्पन्न महापुरिस चरियं पृ० २६२ - ३७. सकलकीर्ति, पार्श्वनाथ चरित्र, १५०७६-८५।२३।१७-१८ ३८. राधाकृष्णन् - इण्डियन फिलोसफी भाग ११० १४२ 'ऐतरेय, कौशीतकी, तैत्तिरीय, छान्दोग्य और वृहदारण्यक - ये सभी उपनिषद् प्राचीनतम हैं । ये बुद्ध के पूर्व के हैं। इनका काल मान ईसा पूर्व दसवी शताब्दी से तीसरी शताब्दी तक माना जा सकता है। राधाकृष्णन (ख) दी प्रिंसिपल उपनिषदाज् १० २२ (ग) पोलिटिकल हिस्ट्री ऑफ एन्सियन्ट इण्डिया, पृ० ५२, एच० सी० राय चौधरी (घ) दी वेदाज, प० १४६-१४८ एफ० मेक्समूलर, ३६. Kshatriya claus in Buddhist India p. 82 ४०. बेसालीए पुरीए सिरियासजिणेससामणसणाहो कुलसंभूओ बेडगनामानियोअसि || --उपदेशमाला श्लोक १२ ४१. समस्त नं भगवओ महावीरस्स बम्मापियरो पासावच्चिज्जा समणोवासना वाविहोत्या- आचारांग २, चूलिका ३ सू० ४०१ --- , - Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ सुप्रसिद्ध बौद्ध धर्मानुय यी और विद्वान धर्मानन्द कौशाम्बी कहते हैं कि तथागत बुद्ध ने अपने पूर्व जीवन मे पाश्र्वनाथ परम्परा का अनुसरण किया था। २ आठवीं सदी के दिगम्बराचार्य देवसेन के अभिमतानुसार महात्मा बुद्ध प्रारंभ में जैन थे। जैनाचार्य पिहितासब ने सरयूनदी पर अवस्थित पलाश नामक प्राम मे पाव के संघ में उन्हें दीक्षा दी थी और उनका नाम 'बुद्धकीति' रखा।४३ श्रीमती राइस डेविड्स के मन्तव्यानुसार बुद्ध सर्वप्रथम गुरु को अन्वेषणा मे वैशाली पहुंचे। वहां पर आचार और उदक से उनका सम्पर्क हुआ। उसके पश्चात उन्होंने जैन धर्म की तपविधि का अभ्यास किया। डाक्टर राधाकुमुद मुकर्जी का मानना है कि बुद्ध ने उस युग में प्रचलित दोनों साधनाओं का आत्मानुभव के लिए अभ्यास किया। आचार और उदक के निर्देश से ब्राह्मण मार्ग का फिर जैन मार्ग का और उसके पश्चात अपने स्वतन्त्र साधना मार्ग का ।४४ महात्मा बुद्ध ने जैन धर्म मे दीक्षा ग्रहण की या नहीं, इस प्रश्न को हम महत्त्व न भी दें तथापि यह स्पष्ट है कि उनके अहिंमा धर्म के उपदेश का मूल आधार भ० पार्श्वनाथ की परम्परा है, क्योंकि जिन शब्दो का प्रयोग किया है वे भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के अधिक सन्निकट है। महात्मा बुद्ध का मुख्य शिप्य मोद्गल्यायन भी पूर्व भगवान पार्श्वनाथ की शिष्य परम्परा में था।४५ कपिलवस्तु मे भी भगवान् पाश्र्व का धर्म फैला हुआ था। अंगुत्तर निकाय की अट्ठकथा के अनुसार गौतम बुद्ध के चाचा ‘वप्प' निर्गन्थ श्रावक थे।४६ न्यग्रोधाराम मे उनके साथ बुद्ध का संवाद हुआ था।४७ भगवान महावीर के शासन काल मे अनेक पापित्यीय श्रावक व श्राविका थे जिनका उल्लेख आगमो मे एवं व्याख्या ग्रन्थो मे मिलता है।४८ विस्तारभय से यहाँ उन सभी का उल्लेख नहीं किया जा ४२ भारतीय संस्कृति और अहिंसा, तथा 'पार्श्वनाथ चा चातुर्याम धर्म, पुस्तके ४३ सिरिपासणाहतित्थे, सरयूतीरे पलासणयरत्थो। पिहियासवस्स मिस्सो, महासुदो बुड्ढकिन्ति मुणी। -दर्शनसार ६ ४४. हिन्दु सभ्यता, पृ० २३६ ४५ धर्म परीक्षा, अध्याय १८ ४६. अंगुत्तर निकाय की अट्ठकथा, भाग २ पृ० ५५६ ४७. एक समयं भगवा सक्कसुविहरति कपिलवत्थुस्मि अथ वो वप्पो सक्को निगण्ठ सावगो इ०॥ --अगुत्तर निकाय, चतुष्कनिपात महावर्ग, वप्पसुत्त भाग० पृ. २१०-२१३ ४८, (क) भगवत्ती १ 16 (ख) भगवती ५/६ (ग) उत्तराध्यन २३ | २४ (ध। सूत्रकृताङ्ग २७ (च) आवश्यक नियुक्ति, वृत्ति पत्र २७८ ४६. विस्तार के लिए देखिए-भगवान् पाश्वः एक अध्ययन, लेखक का अन्य। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् परिष्टनेमि भगवान् अरिष्टनेमि वाईसवें तीर्थ कर थे। आधुनिक इतिहासकारो ने उनको ऐतिहासिक पुरुषों की पंक्ति मे स्थान नही दिया है, किन्तु जब वे कर्मयोगी श्री कृष्ण को ऐतिहासिक पुरुष मानते है तो अरिष्टनेमि भी उसी युग मे हुए थे। उनके निकट के पारिवारिक सम्बन्ध थे, अर्थात् श्री कृष्ण के पिता बसुदेव और अरिष्टनेमि के पिता समुद्रविजय दोनों सहोदर-सगे भाई थे । अतः उन्हें ऐतिहासिक पुरुष मानने में संकोच नही होना चाहिए। ऋग्वेद मे 'अरिष्टनेमि' शब्द चार बार प्रयुक्त हुआ है। "स्वस्ति नस्तायो अरिष्टनेमिः" (ऋग्वेद १३१४।८६।६) यहाँ पर अरिष्टनेमि शब्द भगवान् अरिष्टनेमि के लिए ही आया है ।५० छान्दोग्योपनिषद् मे भगवान् अरिष्टनेमि का नाम 'घोर आगिरस ऋषि' आया है। घोर आगिरस ने श्री कृष्ण को आत्म-यज्ञ की शिक्षा प्रदान की थी। उनकी दक्षिणा तपश्चर्या, दान, ऋजुभाव, अहिंसा, सत्यवचन रूप थी।५१ धर्मानंद कौशाम्बी का मानना है कि आगिरस भगवान् नेमिनाथ का ही नाम था। ५२ ऋग्वेद कार ने मगवान अरिष्टनेमि को ताक्ष्य अरिष्टनेमि भी लिखा है।५3 महाभारत मे भी 'ताक्ष्य' शब्द का प्रयोग हुआ है । जो भगवान् अरिष्टनेमि का ही अपर नाम होना चाहिए।१४ उन्होंने राजा सागर को मोक्षमार्ग का जो. उपदेश दिया है वह जैन धर्म के मोक्ष मन्तव्यों के अत्यधिक अनुकूल है। उसे पढते ही ऐसा ज्ञात होता है कि मोक्ष सम्बन्धी आगमिक वर्णन ही पढ़ रहे हैं। उन्होने कहा सागर । मोक्ष का सुख ही वस्तुत. सही सुख है, जो अहनिश धन-धान्य उपार्जन मे व्यस्त है, पुत्र और पशुओं मे ही अनुरक्त है वह मूर्ख है, उसे यथार्थ ज्ञान नही होता। जिसकी बुद्धि विषयो मे आमक्त है, जिसका मन अशान्त है, ऐसे मानव का उपचार कठिन है, क्यो कि जो राग के बंधन में बंधा हुआ है, वह मूढ हैं तथा मोक्ष पाने के लिए अयोग्य है । ५५ ५०. ऋग्वेद १।१४। ८६६ १। २४११८०।१० ३।४। ५३ । १७ १० । १२ । १७८ । १ ५१. अतः यत् तपोदानमाजवमहिसासत्यवचनमितिता अस्य दक्षिणा . - छान्दोग्य उपनिषद् ३३१७४ ५२. भारतीय संस्कृति और अहिंसा, पृ० ५७ ५३. त्यमू षु वाजिनं देवजूतं सहावानं तरुवारं रथानाम् अरिष्टनेमि पृतनाजमाशु स्वस्तये तायमिहाहुवेम । -ऋग्वेद १०११२११७८११ ५४. एवमुक्तस्तदा ताय. सर्वशास्त्रविदावरः । विबुध्य संपदं चाग्रयां सदाक्यमिदमबबीन । -महाभारत, शान्तिपर्व २८८४ ५५. महाभारत, शान्तिपर्व २८८।५,६ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ यजुर्वेद में अरिष्टनेमि का उल्लेख आया है। "अध्यात्म यज्ञ को प्रगट करने वाले, संसार के भव्य जीवों को सब प्रकार से यथार्थ उपदेश देने वाले और जिनके उरदेश से जीवो की आत्मा बलवान होती है उन सर्वज्ञ नेमिनाथ के लिए बाहुति समर्पित करता हूँ।" प्रभास पुराण में भी अरिष्टनेमि की स्तुति की गई है। *७ साम्प्रदायिक अभिनिवेश के कारण कई स्थलों पर स्पष्ट नाम का निर्देश होने पर भी टीकाकारों ने अर्थ में परिवर्तन किया है। अतः बाज मावश्यकता है तटस्थ दृष्टि से उस पर चिन्तन करने की । भगवान अरिष्टनेमि का नाम अहिंसा की अखण्ड ज्योति जगाने के कारण इतना अत्यधिक लोकप्रिय हुआ कि महात्मा बुद्ध के नामों की सूची में एक नाम अरिष्टनेमि भी है। इक्कीसवें तोर्थं कर नमि, बोसवें मुनिसुबत और उन्नीसवें मल्ली भगवती का वर्णन वैदिक और बौद्ध वाङ्मय मे नही मिलता । अठारहवें तीर्थ कर 'अर' का वर्णन अंगुत्तर निकाय में भी आता है। वहाँ पर महात्मा ने अपने से पूर्व जो सात तीर्थ कर हो गये थे उनका वर्णन करते हुए कहा कि उनमें से सातवे तीर्थं कर 'अरक' थे। ५६ 'अरक' तीर्थ कर के समय का निरूपण करते हुए कहा कि 'अरक तीर्थकर के समय मनुष्य की आयु ६० हजार वर्ष की होती थी। ५०० वर्ष की लड़की विवाह के योग्य समझो जाती थी । उस युग मे मानवो को केवल छह प्रकार का कष्ट था-- (१) शोत, (२) उष्ण, (३) भूख, (४) तृषा, (५) पेशाब, (६) मलोत्सर्ग इसके अतिरिक्त किसी भी प्रकार की पीड़ा और व्यापि नही थो । तथापि अरक ने मानवों को नश्वरता का उपदेश देकर धर्म करने का सन्देश दिया। उनके उस उपदेश की तुलना उत्तराध्ययन के दसवें अध्ययन से को जा सकती है । ५६. वाजस्य तु प्रसव आवभूर्वमाच विश्वा भुवनानि सर्वतः । स नेमिराजा परियाति विद्वान् प्रजा पुष्टि - यजुर्वेद, अध्याय 8 मंत्र २५ पृ० ४३ व मानोऽअस्मै स्वाहा । --- ५७. कैलाशे विमले रम्ये वृषभोऽयं जिनेश्वरः, चकार स्वावतारं च सर्वज्ञः सर्वगः शिवः । रेवताद्री जिनो नेमियुगादिविमलाचले, ऋषीणा या श्रमादेव मुक्तिमार्गस्य कारणम् ॥ - प्रभास पुराण ५८. बौद्ध धर्म दर्शन, पृ० १६२ 'मुगपक्स' ५९. भूतपुण्वं भिक्खवे सुनेसोनाम सत्या अहोसि तिस्थकरो कामेह वीतरागो .........अरनेमि" "कुद्दालक''''''''हत्यिपाल, “हत्थिपाल, जोतिपाल अरको नाम सत्या अहोति तित्मक कामेसु वीतरागो। अरकस्स खो पन, भिक्खने सत्युनो अनेकानि सावकसतानि बहेसु । — अंगुत्तरनिकाय, भाग हैं, पृ० ३५६-२५७ सं० भिक्षु, जगदीश कस्सपो, पालि प्रकाशन मण्डल बिहार राज्य Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ जैनागम के अनुसार भगवान् 'अर' की आयु ८४००० वर्ष हैं और उनके श्चात् होने वाली तीर्य कर मल्ली की आयु ५५००० वर्ष की है। इस दृष्टि से 'बरक' का समय 'भगवान 'अर' और भगवती मल्ली के मध्य में ठहरता है। यहाँ पर यह भी स्मरण रखना चाहिए कि 'अरक' तीथं कर से पूर्व बुद्ध के मत मे 'अरनेमि' नामक एक तीर्थंकर और हए है। बुद्ध के बताये हुए अरनमि और जैन तीर्थकर 'अर' संभवतः दोनों एक हों ! भगवान शान्ति भगवान् शान्तिनाथ सोलहवें तीर्थ कर हैं। वे पूर्वभव में जब मेघरथ थे तब कबूतर की रक्षा की, यह घटना वसुदेव हिंडी,१२ त्रिषष्टिशालाका पुरुष चरित्र३ आदि मे मिलती है। तथा शिवि राजा के उपाख्यान के रूप मे वैदिक ग्रंथ महाभारत में प्राप्त होती है और बौद्ध वाङमय मे 'जीमतवाहन, के रूप में चित्रित की गई है। प्रस्तुत घटना हमे बताती है कि जैन परम्परा केवल निवृत्ति रूप अहिंसा मे ही नही, पर मरते हुए की रक्षा के रूप मे-प्रवृत्ति रूप अहिंसा मे भी धर्म मानती है । सोरेन्सन ने महाभारत के विषेश नामो का कोष बनाया है । उस कोष मे सुपाश्वं, चन्द्र, और सुमति ये तीन नाम जैन तीर्थ करों के आये है। महाभारतकार ने इन तीनो को असुर बताया है । ६४ वैदिक मान्यता के अनुसार जैन धर्म असुरों का धर्म रहा है। यद्यपि असुर लोग आहंत धर्म के उपासक थे इस प्रकार का वर्णन जैन साहित्य मे नही मिलता, किन्तु विष्णु पुराण,६४ पद्म पुराण,६ मत्स्य पुराण,७ देवी भागवत और महाभारत आदि मे असुरों को अहंत या जैनधर्म का अनुयायो बताया है । अवतारो के निरूपण मे जिस प्रकार भगवान् ऋषभ को विष्णु का अवतार कहा है, वैसे ही सुपार्श्व को कुपथ नामक असुर का अशावतार कहा है तथा सुमति नामक असुर के लिए वर्णन मिलता है कि वरुणप्रासाद मे उनका स्थान दैत्यों और दानवों मे था । ६०. अप्पकं जीवितं मनुस्सानं परिन लहुक बहुदुक्खं 'बहुपायास मन्तयं बोद्धध्वं कतब्ब कुसलं, चरित्तम्व, ब्रह्मचरियं, नत्थि जातस्स अमरणं । -अंगुत्तर निकाय, अरकसुत्त भाग ३ पृ. २५७ सं० वही, प्रकाशन वही । ६१. बावश्यक नियुक्ति गाथा ३२५-२२७ ५६ ६२. वसुदेव हिही २१ लम्भक, ६३. त्रिषष्टि० श० पु० २४ ६४. जैन साहित्य का वृहद इतिहास, प्रस्तावना, पृ० २६ ६५. विष्णु पुराण ३॥१७१८ ६६. पद्म पुराण सष्टि खण्ड, अध्याय १३ श्लो० १७०-४१३ ६७, मत्स्य पुराण २४१४३-४६ ६८. देवी भागवत ॥१३॥५४-५७ ६६. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास पृ० २६ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ नामों की सूची मे 'श्रेयस' अनन्त, तीर्थंकर भी थे। हमारी दृष्टि से महाभारत में विष्णु और शिव के जो सहस्र नाम है उन धर्म, शान्ति और संभव ये नाम विष्णु के भी आये हैं जो जैन धर्म के इन तीर्थंकरों के प्रभावपूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व के कारण ही इनको वैदिक परम्परा ने भी विष्णु के रूप में अपनाया है । नाम साम्य के अतिरिक्त इन महापुरुषों का सम्बन्ध असुरो से जोडा गया है, क्योंकि वे वेद विरोधी थे। वेद विरोधी होने के कारण उनका सम्बन्ध भ्रमण परम्परा से होना चाहिए। यह बात पूर्ण रूप से सिद्ध है । भगवान प्रति बौद्ध थेरगाया मे एक गाया अजितबेर के नाम से आयी है। उस गाया की अट्ठ कथा मे बताया गया है ये अजित ११ कल्प से पूर्व प्रत्येक बुद्ध हो गये हैं। जैन साहित्य में अजित नाम के द्वितीय तीचं कर हैं और संभवतः बौद्ध साहित्य में उन्हें ही प्रत्येक बुद्ध अजित कहा गया हो, क्योंकि दोनों की योग्यता, पौराणिकता, एव नाम साम्य है। महाभारत मे अजित और शिव को एक चित्रित किया गया है। हमारी दृष्टि से जैन तीर्थंकर अजित ही वैदिक बौद्ध परम्परा मे भी पूजनीय रहे हैं और उनके नाम का स्मरण अपनी दृष्टि से उन्होने किया है । भगवान् ऋषभ श्रमण परम्परा का उद्गम भगवान् ऋषभदेव से हुआ है । जयघोष ब्राह्मण ने निर्ग्रन्थ विजय घोष से पूछा -- धर्म का मुख क्या है ? विजयघोष ने उत्तर दिया- धर्म का मुख काश्यप ऋषभ है ।१ श्रीमद् भागवन् के अनुसार भगवान् ऋषभ श्रमणों ऋषियों तथा ब्रह्मचारियों (ऊमन्थिनः ) का धर्म प्रकट करने के लिए शुक्ल-सत्यमय विग्रह से प्रकट हुए। ७२ भगवान् ऋषभ जैन संस्कृति की दृष्टि से प्रथम राजा, प्रथम जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर और प्रथम धर्म चक्रवर्ती थे । ७३ श्री मद्भागवत् से भी प्रस्तुत कथन का समर्थन होता है । वहाँ पर बताया गया है कि वासुदेव ने आठवाँ अवतार नाभि और मरुदेवी के वहाँ धारण किया। वे ऋषभ रूप में अवतरित हुए और उन्होंने सब आश्रमों द्वारा नमस्कृत मार्ग दिखलाया । ४ एतदर्थ ऋषभ को मोक्ष धर्म की विवक्षा से वासुदेवांश कहा है।७५ ७०. मरणे मे भयं नत्थि निकन्ति नत्थि जीविते । सन्देहं निक्खिपिस्सामि सम्पजानो परिस्सतो । - बेरगाथा | २० ७१. उत्तराध्ययन २५|१४|१६ ७२. धर्मान् दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणा नामृषीणामूर्ध्वमन्यिना शुक्लया तनुनावतार: । - श्रीमद्भागवत ५।३।२० ७३. उसके नाम अरहा कोसलिए पढमराया पढमजिणे पडमकेवली पढमतित्यकरे पढ मधम्मवरचक्कवट्टी, - जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति २।३० समुपज्जत्थे । ७४. अष्टमे मरुदेव्यां तु नाभेर्जात उतक्रमः । दर्शयन् वर्त्म धोरणां सर्वाश्रमनमस्कृतम् । ७५. तमाह वसुदेवांशं मोक्षधर्मविवक्षया । - श्रीमद्भागवत १।३।१३ वही ११।२।१६ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ भगवान् ऋषभ का एक नाम ब्रह्मा भी रहा है और हिरण्यगर्भ भी । ऋग्वेद के अनुसार हिरण्यगर्भ भूत जगत् का एक मात्र पति है । सायण के अनुसार वह देहचारी है।७३ महाभारत अनुसार हिरण्यगर्भ ही योग का पुरातन विद्वान् है, अन्य नहीं भगवान् ऋषभ को हिरण्यगर्भ कहने का कारण यह है कि जब वे गर्भ में आये तब कुबेर ने हिरण्य की कहा गया है।७६ दृष्टि की, एतदर्थं उन्हे हिरण्यगर्भ भी मि० बालिस का कहना है कि हिरण्यगर्भ शब्द लाक्षणिक है। यह विश्व की एक महान् शक्ति को सूचित करता है। श्रीमद् भागवतकार ने ऋषभ को योगेश्वर कहा है । ११ किया था । हठयोगियों ने भगवान् ऋषभ को हठयोग विद्या के है। जैनाचार्यों ने भी उन्हें योग विद्या का संस्थापक माना है। 'हिरण्यगर्भ' और ब्रह्मा आदि अनेक नामों से सम्बोधित किये गये है। ऋग्वेद में भगवान् ऋषभदेव को केशी भी कहा गया है। वहाँ पर वातरशन मुनि के उल्लेख के प्रकरण मे ही केशी की स्तुति आयी हैं । ५ जो ऋषभदेव की वाचक है । ऋग्वेद मे अन्यत्र केशी और ऋषभ का एक साथ उल्लेख भी मिलता है। मुद्गल ऋषि की ७६. हिरण्यगर्भः १ समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् । स सदाधार पृथिवीं द्यामुतेमा कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ - ऋग्वेद १०।१०।१२।१११ ७७. हिरण्यगर्भः हिरण्मयस्याण्डस्य गर्भभूत प्रजापतिहिरण्यगर्भ तथा च तैतिरीयकप्रजापनि हिरण्यगर्भः प्रजापतेरनुरूपाय ( तै० स० स० ५।५।१।२ यद्वा हिरण्यमयोऽअण्डो गर्भवद्यस्योदरे वर्तते सोऽमौ सूत्रात्मा हिरण्यगर्भ उच्यते । अग्रे प्रपञ्चोत्पत्तेः प्राक् समवर्तत मायाध्यक्षात् मिमृक्षोः परमात्मनः साकाशात् समजायत ।" सर्वस्य जगत् पतिरीश्वर आसीत् ... उन्होने नाना योग चर्चाओं का चरण उपदेष्टा के रूप मे नमस्कार किया इस प्रकार भ० ऋषभ आदिनाथ - तैत्तिरीयारण्यक, प्रपाठक १० अनुवाक ६२ सायणभाष्य ७८. हिरण्यगभ योगस्य, वेत्ता नान्यः पुरातनः । - महाभारत शान्ति पर्व ३४६।६५ ७६. सेवा हिरण्यमयी दृष्टिः धनेशेन निपातिता, विभोहिरण्यगर्भत्वमिव बोपयितु] जगत् ।। - महापुराण १२६५ (ख) गन्भट्ठिअस्स जस्स उ हिरण्णबुडी सकचणापडिया | तेणं हिरण्णगन्भो जयम्मि उवगिञ्जए उसभो - पउमचरिउ ३६८। विमलगणिरचित हिस्ट्री आफ प्रो० बुद्धिस्टिक इंडियन फिलोसफी डा० बालिम | ८१ भगवान् ऋषभदेवो योगेश्वरः ८० ८२. नानायोगचर्याचरणो भगवान् केवल्यपति ऋषभः श्री आदिनाथाय नमोस्तु तस्मै, येनोपदिष्टा हठयोगविद्या । ८३ ८४. योगिकल्पतरु नौमि देव-देवं वृषध्वजम् । ८५. केश्वरिन केसी विषं केशी विभत रोदशी । केशी विश्वं स्वहशे केसीदं ज्योति रुम्पते । 1 ८६. ककदेवें वृषभो युक्त आसीदवावचीत्सारथिरस्य केशी। दुपेयुक्तस्य द्रवतः सहानस ऋच्छन्ति ष्मा निष्पदो मुद्गलानीम् । श्रीमद् भागवत् ५४३ - श्रीमद् भागवत् ५।५।२५ - हठयोग प्रदीपिका -ज्ञानार्णव १२ -ऋग्वेद १०।११।१३६९ ऋग्वेद १०१९/१०२/६ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ मायें (इन्द्रियाँ) चुराई जा रही थीं तब ऋषि के सारथी केशी वृषभ के बचन से वे अपने स्थान पर लौट आयीं । अर्थात् वे इन्द्रियाँ ऋषभ के उपदेश से अन्तर्मुखी हो गई। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के अनसार भगवान् ऋषभ जब मुनि बने तब उन्होने चार मुष्टि केशलोच किया था। यों सामान्य परम्परा पंच मुष्टि केशलोच करने की है। जब भगवान् केशलोच कर रहे थे दोनों भागों का केश लोच करना अवशेष था, उसी समय देवगज शक्रन्द्र ने भगवान से नम्र प्रार्थना की -'इतनी रमणीय केशराशि को रहने दें। तब भगवान ने इन्द्र की प्रार्थना को स्वीकार कर वसे ही केश रहने दिये । यही कारण है कि केश होने के कारण से वे केशी या केशरिया जी कहलाये । जिस प्रकार सिंह अपने केशों के कारण केशरी कहलाता है. इसी प्रकार ऋषभदेव भी केशी, केशरी और केशरिया जी आदि नामो से पुकारे जाते हैं। ___ भगवान ऋषभदेव के व्यक्तित्व और कृतित्व के सम्बन्ध मे 'ऋषभदेव, एक परिशीलन' ग्रन्थ मे बिस्तार से पर्यालोचन किया गया है एतदर्थ उसके अवलोकन की सूचना के साथ-साथ मे विषय को सम्पन्न कर रहा हूँ। स्थविरावली जिनचरित के पश्चात् स्थविरावली मे देवद्धिगणी क्षमाश्रमण तक की परम्परा आयी है । देवद्धि गणी क्षमाश्रमण तक की परम्परा एक विशुद्ध परम्परा रही है। अभयदेव सूरि के शब्दों मे देखिये --'देवद्धिगणी क्षमाश्रमण तक को परम्परा को मैं भाव-परम्परा मानता हूँ। इसके बाद शिथिलाचारियों ने अनेक द्रव्य-परम्पराओ का प्रवर्तन कर दिया। स्थविगवली मे आये हुए स्थविरो की परिचय रेखा, तथा कूल, गण आदि का परिचय विवेचन में दिया है। समाचारो स्थविरावली के पश्चात् अन्तिम विभाग समाचारी का पाता है। ज्ञान का सार आचार है।८६ वह मुक्ति का साधन है । यहो कारण है कि जैनागमो में जहाँ दार्शनिक तत्त्वो की सूक्ष्म विवेचना की गई है नुग्रहं विधाय चाहिं अटठाहिं लोअ करेइ । वृति-तीयकृता पंचमूप्टि लोचसंभवेऽपि अस्य भगवतश्चतम ष्टिकलोचगोचर. श्री हेमाचार्यकृत ऋषभचरित्राद्यभिप्रायोऽयं प्रथममेकया मुट्या स्मश्र कूर्चयार्लोचे तिसभिश्च शिरोलोचे कृते एका मुष्टिमवशिष्यमाणा पवनान्दोलिता कनकावदातयो' प्रभुस्कन्धयोरुरि लुठन्ती मरकतोपमानबिभ्रती परमरमणीया वीक्ष्य प्रमोदमानेन शक्रण भगवन ! ध्रियतामियमित्थमेवेति विज्ञप्ते भगवतापि सा तथैव रक्षितेति, न ह्यकान्तभक्ताना याचा मनुग्रहीतार खण्डयन्तीनि । -जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, वक्षस्कार २ सू० ३० ८८. देवढिखमासमणजा, परपरं भावओ वियाणेमि । सिढिलायारे ठविया, दव्येण परंपरा बहुआ। -आगम अड्डुत्तरी गाथा १४ ८६. गाणस्स सार आयारो Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहां पर आचार का भी सूक्ष्मतम निरूपण किया है । सम्यक्-आचार ही समाचार, या समाचारी है। दिगम्बर ग्रन्थों में भी ये शब्द व्यवहृत हुए है और उसके चार अर्थ किये गये हैं : (१) समता का आचार (२) सम्यक् आचार (३) सम (तुल्य) आचार (४) समान (परिमाण युक्त) आचार. संक्षेप में समाचारी शब्द का अर्थ है-मुनि का आचार-व्यवहार, एव इतिकर्तव्यता । प्रस्तत परिभाषा के प्रकाश में श्रमण जीवन को वे सारी प्रवृत्तिया समाचारी मे आ जाती है जो वह महर्निश करता है। आवश्यक नियुक्तिकार भद्रबाहु ने समाचारी के तीन प्रकार बतलाये है-(१) ओघसमाचारी (२) दस-विध समाचारी, (३) पद विभाग समाचारी।" ओघ समाचारी का निरूपण 'ओघ नियुक्ति' में किया गया है। उसके (१) प्रतिलेखन, (२) पिण्ड, (३) उपधि-प्रमाण (०) अनायतन (अस्थान) वर्जन, (५) प्रतिसेवना-दोषाचरण, (६) आलोचना और विशोधि,६२ ये सात द्वार है। दसविध समाचारी का वर्णन भगवती ३ स्थानाग ४ उत्तराध्ययन५ आवश्यक नियुक्ति मादि में मिलता है । पद-विभाग समाचारी का वर्णन छेद सूत्रो में वर्णित है। कल्पसूत्र में जो समाचारी का वर्णन है वह पद-विभाग-समाचारी मे आता है। वादिबेतालशान्ति सरि ने उत्तराध्ययन को वृहदवृत्ति मे ओघसमाचारी का अन्तर्भाव धर्मकथानुयोग मे और पदविभाग समाचारी का अन्तर्भाव चरण करणानयोग में किया है। कल्पसूत्र की समाचारी चरण करणानयोग के अन्तर्गत है। राक्टर विन्टर नीटस ने भी समाचारी विभाग को कल्पसूत्र का प्राचीनतम भाग होने की सभावना की है, और अपने अनुमान की पुष्टि में उनका यह कहना है कि कल्पसूत्र का पूरा नाम 'पयुषणा कल्प' यह समाचारी विभाग के कारण ही है। ६०. समदा समाचारो, सम्माचारो समो व आचारो। सब्वेसि सम्माणं समाचारो हु आचागे॥ -मूलाचार गाथा १२३ ११. आवश्यक नियुक्ति, गाथा ६६५ १२. पडिलेहणं च पिण्डं, उवहिपमाण अणाययण वज्ज । पडिसेवणमालोअण, जह य विसोही सुविहियाणं । -ओधनियुक्ति , २ ६३. भगवती २५१७ १४. स्थानांग १०१७४६ १५. उत्तराध्ययन-अ०६६ मा० २-३-४ ६६. मावश्यक नियुक्ति (१) आवश्यकी, (२) नषेधिको, (६) आपृच्छा (४) प्रतिपृच्छा (५) वन्दना, (६) इच्छाकार, (७) मिच्छाकार, (८) तथाकार, () अभ्युत्थान (१०) उपसंपद । १७ हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर पृ० डा० विटरनीट्स लिखित Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निशीथ में पर्युषणा कल्प की सविस्तृत विधि दी है। पहले के युग में श्रमण ससुदाय रात्रि के प्रथम प्रहर में काल ग्रहण पूर्वक पयुषणा-कल्प (समाचारी) का श्रवण और पठन करते थे। किसी मी गृहस्थ या गृहस्थिनी के सामने. अन्य तीथिक के सामने, एव अवसन्नसयती के सामने उसे पढ़ने का निषेध था। क्योंकि उनके सामने पढ़ने से संवास दोष, संथाइया दोष, संमिश्रवास दोष, प्रभृति अनेक दोषों को लगने की संभावना होती है अतः उसे सभी के सामने पढ़ने का स्पष्ट निषेध किया गया। और पढ़ने वाले के लिए प्रायश्चित्त का विधान भी किया। सर्व प्रथम पयुषणा कल्पसूत्र का सभा के समक्ष पठन आनन्दपुर में राजा ध्रुवसेन के पुत्रशोक को नष्ट करने के लिए चैत्यवासी शिथिलाचारी श्रमणों ने चतुर्विध संघ के समक्ष किया । ध्रुवसेन नामक मैत्रक वंशीय वल्लभी में तीन राजा हुए हैं, जिनका अस्तित्व इस प्रकार है-प्रथम ध्रुवसेन (गु० सं० २००-२३० तक) ई० स० ५१६ से ५४६ । द्वि० ध्रुवसेन (गु० सं० ३०८ से ३२३) ई० सं० ६२७ से ६४२ । तृतीय ध्रुवसेन (गु० सं० ३३१ से ३३५) ई० स० ६५० से ६५४ ।। इन राजाओं की राजधानी वल्लभी मे भी थी। पर 'महास्थान' होने के कारण ये आनन्दपुर में भी रहते थे। पर अन्वेषणीय यह है कि किस राजा के समय इसका पठन किया गया। कल्पसूत्र की कहानी सुश्रावक गुलतानमलजी गका, श्री हस्तीमलजी एवं सुखराज जी जिनाणी प्रभृति सज्जनों का आग्रह था कि आप कल्पसूत्र का सम्पादन करें। प्रारम्भ मे मैं उनके प्रेम भरे आग्रह को टालता रहा पर अन्त मे उनकी उत्कृष्ट अभीप्सा से परम श्रद्धय गुरुदेव ने मुझे आदेश के स्वर मे कहा-यह कार्य तुझे करना है। 'आज्ञा गुरुणामविचारणीया' के अनुसार मैंने इसके सम्पादन का कार्य स्वीकार किया। ६८. पज्जोसवणाकप्पं, पज्जोसवणाईजो उ कडिढजा। गिहि-अन्नतिथि-ओसन्न-मजईणं च आणाई ॥१॥ पज्जोसवणा-पूव्ववन्निया । गिहित्थाणं अन्नतिस्थियाणं ति गिहत्थीणं अन्नतित्थियाणं ओसन्नाणं य संजईण य जो 'ए पज्जोसवेइ' एषामने पर्युषणावल्पं पठतीत्यर्थः तस्स चउगुरु' आणाईया या दोषा। गिहि अन्नतिथि-ओसन्नदुगं ते तग्गुणेहष्णुववेया । सम्मीसवास संकाइणो य दोसा समणिवग्गे ॥२॥ व्याख्या-गिहत्था गिहत्थीओ एगं दर्ग, अन्नतित्थिगा अन्नतिथिणीओ, अहवा ओसन्ना ओसन्नीओ । एए दुगा संजमगुहि अणुववेया, तेण तेसि पुरओ न कडिढज्जइ । अहवा एएहि सह संवासदोसो भवई । इत्थीसु य संकाइया दोसा भवति । संजईओ जइ वि सजमगुणेहि उववेयाओ तहावि सम्मीसवासदोसो सकासदोसो य भवई ।। -कल्पसूत्र पृथ्वीचन्द टिप्पण मे उद्धत ६६. कल्पसूत्र चूणि १००. कल्पसूत्र टीकाएं Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ सम्पादन कार्य सरल नही है, अपितु कठिन है और फिर प्राचीन ग्रन्थों के सम्पादन का तो कहना ही क्या? जिनकी भाषा और भावधारा वर्तमान युग की भाषा और भावधारा से अत्यधिक व्यवधान पा चुकी है। किन्तु जब सम्पादन का कार्य हाथ में लिया तो भन्डारों में से प्राचीन हस्तलिखित कल्पसूत्र की प्रतियों का अवलोकन करना प्रारभ किया, पर कोई भी प्रति पूर्ण शुद्ध नही मिली। मतः अन्त में हमने यही निर्णय लिया कि श्री पुण्यविजय जी म० के द्वारा सम्पादित कल्पसूत्र के पाठ को हो मूल आधार रखा जाय और वही हमने स्वीकार किया है। उपाध्याय पण्डित प्रबर श्रद्धय हस्ती. मल जी म. सम्पादित कल्पसूत्र की पाण्डुलिपि भी मेरे सामने रही है । अर्थ आदि की दृष्टि से उसका भी उपयोग किया गया है, तथा प्राचीन नियुक्ति, चूणि, पृथ्वीचन्द टिप्पण, व अनेक कल्पटीकामओ से उपयुक्त सामग्री भी मैंने ली है, इस प्रकार प्रस्तुत सम्पादन में अपनी ओर से कुछ न मिलाकर इधर-उधर से सामग्री बटोरकर व्यवस्थित रूप देने का कार्य मैंने किया है। उन सभी प्रथ और ग्रन्थकारों का मैं ऋणी है, जिनका प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किसी भी प्रकार का मुझे सहयोग मिला है। प्रन्थो की पूर्ण उपलब्धि न होने से तथा शीघ्रता के कारण, मैं जैसा चाहता था वैसा नही लिख सका हैं, अतः अपनी दुर्बलता के लिए प्रारम्भ मे ही क्षमा याचना कर लेता है, तथापि कुछ लिखा है, वह कैसा है यह निर्णय करना प्रबुद्ध पाठको का काम है । पूर्ण सावधानी रखने पर भी सम्भव है कही इधर-उधर लिखा गया हो, मूल भावनाएं पूर्ण स्पष्ट न हो सकी हो, विपर्यास भी हो गया हो तो उन सबके लिए मैं विज्ञो से यही नम्र निवेदन करूंगा कि वे मुझे आत्मीयता की परम पवित्र भावना के साथ त्रुटियों की ओर मेरा ध्यान केन्द्रित करें जिससे मैं उनका परिमार्जन कर सकू। परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य प्रसिद्धवक्ता गंभीर तत्वचिन्तक श्री पुष्कर मुनि जी म० का मुझे गुरुतर लेखन कार्य में सक्रिय योग, पथ प्रदर्शन, एवं प्रोत्माहन प्राप्त हुआ है, जिससे मेरी कार्य दिशाए सदा भालोकित रही है। उनकी अपार कृग के बिना यह कार्य कभी सुन्दर रीति से पूर्ण नही हो सकता था। उनकी विशाल ज्ञान राशि एवं गंभीर चिन्तन मे से मैं ज्ञान के ज्याति स्फुलिंग प्राप्त कर सका हूँ यह मेरा परम सौभाग्य है । मैं श्रद्धेय गुरुदेव के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन कर भारमुक्त बनू इसकी अपेक्षा मझे यही श्रेयस्कर लग रहा है कि उनके आशीर्वाद का शक्ति-सबल प्राप्त कर अधिक भारी बनू और नये शोधपूर्ण लेखन कार्य में दत्तचित से लग जाऊं । स्नेह-सौजन्यमूर्ति श्रीहीरामुनिजी, साहित्य रत्न, शास्त्री श्रीगणेश मुनिजी, जिनेन्द्रमुनि, गजेन्द्र मुनि और पुनीत मुनि प्रभृति मुनि-मण्डल का स्नेहास्पद व्यवहार भुलाया नही जा सकता और न श्रीचन्द जी सराणा 'सरस' का मुद्रण आदि की दृष्टि से किया गया मधुर व्यवहार व सफल प्रयास भी विस्मरण किया जा सकता, जिसके कारण ही ग्रन्थ छपाई सफाई आदि की दृष्टि से सुन्दर बना है। सेठ मेघजी थोमण जैन धर्म स्थान। १७०, कांदाबाड़ो, बम्बई । -देवेन्द्र मुनि Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क ल्प सूत्र का अनु क्रम ४१ ७७ . भगवान महावीर-चरित्र * उपक्रम * दस कल्प * प्रथम प्रवचन * भगवान महावीर के पूर्व भव * गर्भसंहरण * त्रिशला का स्वप्न दर्शन * स्वप्न-चर्चा * जन्म महोत्सव * अभिनिष्क्रमण * साधनाकाल * केवलज्ञान * तीर्थप्रवर्तन * परिनिर्वाण ६२ १३३ १६० १५६ १८६ १६६ ० भगवान महावीर की पूर्व परम्परा * पुरुषादानीय पार्श्व * अर्हत् अरिष्टनेमि २१२ २२६ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) २३६ * अर्हत् नमि से अर्हत् अजित् * भगवान ऋषभदेव * तीर्थङ्कर चरित्र सूचक पत्र (लेखा) २४७ २७६ २८१ स्थविरावली * गणधर चरित्र * आर्य जम्बू * आर्य भद्रबाहु * आर्य स्थूलिभद्र * विभिन्न शाखाएं २८६ २६२ २६८ ० समाचारी * वर्षावासकल्प * भिक्षाचरीकल्प * केशलुचन * क्षमापना * उपसंहार ३१७ ३२० ३५२ ३५४ ३५८ 0 परिशिष्ट (१ से ७) ० संक्षिप्त पारिभाषिक शब्दकोश ० सन्दर्भ ग्रन्थ सूचो ० शुद्धि-पत्रक Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कल्प सूत्र उपक्रम Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पः, कल्पो रसायनं सम्यक्, आचारात्तपसा कल्पः कल्पस । कल्पस्तत्त्वार्थ- दीपकः ॥ समर्थनम्, कल्पमहिमा श्लोक १ - कल्प Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपक्रम --.कल्प की परिभाषा और भेद कल्प का अर्थ है-नीति, आचार, मर्यादा, विधि भौर समाचारी। आचार्य उमास्वाति कहते है जो कार्य ज्ञान, शील, तप, का उपग्रह (वृद्धि) करता है और दोषों का निग्रह (शमन) करता है वह निश्चय दृष्टि से कल्प है और शेष अकल्प है।' कल्प सूत्र की टीका के अनुसार श्रमणो का आचार कल्प है।२ कल्प के आगम, भाष्य, नियुक्ति और चूणि साहित्य मे अनेक भेद, प्रभेद निरूपित हुए हैं। उन सभी की यहाँ चर्चा न कर केवल दस कल्पो अर्थात् कल्प के दस प्रकारों पर ही विचार किया जा रहा है । वे दस कल्प इस प्रकार हैं : (१) आचेलक्य, (२) औद्देशिक, (३) शय्यातर-पिण्ड, (४) राज-पिण्ड, (५) कृतिकर्म, (६) व्रत, (७) ज्येष्ठ, (८) प्रतिक्रमण, (६) मासकल्प, (१०) पर्युषणा-कल्प । आचेलक्य 'चेल' शब्द का अर्थ-वस्त्र है । न-चेल, अचेल है । 'अ' शब्द का एक अर्थ अल्प भी है । जैसे- अनुदरा। आचारांग के टीकाकार ने ईषत् (अल्प) अर्थ में नञ्-समास मान कर अचेल का अर्थ 'अल्पवस्त्र' किया है।" उत्तराध्ययन और कल्प सूत्र की टीकाओं मे भी यही अर्थ मान्य हुआ है। श्रमण संस्कृति में श्रमणों के लिए दो प्रकार के कल्प विहित हैं-जिनकल्प और स्थविरकल्प । नियुक्ति और भाष्य के अनुसार जिनकल्पी श्रमण वह होता है जो वजऋषभनाराच संहनन वाला हो, तथा कम से कम नव पूर्व की तृतीय आचार वस्तु का श्रु तपाठी हो और अधिक से अधिक कुछ कम दस पूर्व तक श्र तपोठी हो। जिनकल्पिक श्रमण भी पहले स्थविरकल्पी ही होता है। स्थविरकल्पिक श्रमण ही जिनकल्प को स्वीकारता है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र जिनकल्पिक श्रमण नग्न, निष्प्रतिकर्म और विविध अभिप्रहधारी होते हैं । उनके दो प्रकार हैं (१) पाणिपात्र - हाथ मे भोजन करने वाले । (२) पात्रधारी - पात्र में भोजन करने वाले । पाणिपात्र जिनकल्पिक श्रमण भी उपधि की दृष्टि से चार प्रकार के होते हैं । कितने ही श्रमण मुख- वस्त्रिका और रजोहरण - ये दो उपधि रखते हैं। कितने ही श्रमण मुख- वस्त्रिका, रजोहरण और एक चद्दर रखते है । कितने ही श्रमण मुख वस्त्रिका, रजोहरण और दो चद्दर रखते हैं, और कितने ही श्रमण मुख वस्त्रिका, रजोहरण तथा तीन चद्दर रखते हैं । पात्रधारी जिनकल्पिक श्रमण भी उक्त दो, तीन, चार, और पाँच उपकरणों के अतिरिक्त सात प्रकार के पात्र - निर्योग रखने से क्रमशः नौ, दस, ग्यारह, और बारह प्रकार की उपधि से उनके भी चार भेद होते हैं। इस प्रकार जिनकल्पिक श्रमणों के मुख्य दो, और उत्तर भेद आठ होते हैं । आगमानुसार स्थविरकल्पिक श्रमण के भी उपधि की दृष्टि से अनेक भेद किए जा सकते हैं। कितने ही श्रमण तीन वस्त्र और एक पात्र रखते थे। कितने ही श्रमण दो पात्र और एक वस्त्र रखते थे और कितने ही श्रमण एक पात्र और एक वस्त्र रखते 1 उपरोक्त चर्चा का सार यह है कि जिनकल्पिक हो या स्थविरकल्पिक, वे कम से कम मुख वस्त्रिका और रजोहरण ये दो उपकरण तो रखते ही हैं। अतः यहाँ पर आचेलक्य-कल्प का अर्थ संपूर्ण वस्त्रो का अभाव नही, किन्तु अल्प मूल्य वाले प्रमाणोपेत जीर्ण-शीर्ण वस्त्र धारण करना है । पूर्वाचार्य रचित कल्पसमर्थन में कहा है कि - प्रथम और अन्तिम तीर्थकर का धर्म (आचार) अचेलक है और बावीस तीर्थंकरो का धर्म ( आचार) सचेलक और अचेलक दोनों प्रकार का है ।" इसका अर्थ यह है कि भगवान् ऋषभदेव और भगवान् महावीर के श्रमणों के लिए यह विधान है कि वे श्वेत और प्रमाणोपेत वस्त्र रखे, पर बावीस तीर्थंकरों के श्रमणों के लिए प्रस्तुत विधान नही है । १० वे विवेक-निष्ठ और जागरूक साधक थे । अतः चमकीले रंगबिरंगे प्रमाण से अधिक वस्त्र भी रख सकते थे । उन बढिया वस्त्रों के प्रति उनके मन में आसक्ति नहीं होती थी । उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान् पार्श्वनाथ के श्रमण केशीकुमार और भगवान महावीर के प्रधान अन्तेवासी गणधर गौतम का मधुर संवाद है । केशीकुमार श्रमण ने गौतम से जिज्ञासा प्रस्तुत की, कि "भगवान् महावीर का धर्म अचेलक है और भगवान् पार्श्वनाथ का सचेलक है। क्या इस लिंग भेद को देख कर आपके मानस में शंका नहीं होती ?११ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपक्रम : बस कल्प समाधान करते हुए गौतम ने कहा--" विज्ञवर ! विज्ञान से तस्व को जानकर ही धर्म साधनों की आज्ञा दी गई है। लोक मे प्रतीति के लिए, संयम निर्वाह के लिए, ज्ञानादि गुण-ग्रहण के लिए, वर्षाकल्प आदि में सयम पालन के लिए ही वस्त्रादि उपकरणों की आवश्यकता है । वस्तुतः दोनो तीर्थकरो की प्रतिज्ञा (प्ररूपणा ) मोक्ष के सद्भूत साधन ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप ही है। उसमें कोई अन्तर नही है ।" १२ आगमानुसार सभी तीर्थंकर देवदूष्य वस्त्र के साथ प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं । १३ कुछ समय तक वे देवदृष्य वस्त्र को रखते हैं। 134 भगवान् श्री महावीर ने भी एक वर्ष तक देवदृष्य वस्त्र को धारण किए रखा था, उसके बाद वे पूर्ण अचेलक बने । १४ बावीस परीषहों मे छट्टा परीषह अचेल परीषह है ।" उसका भी अर्थ है- 'वस्त्रों के जीर्ण होने पर श्रमण यह चिन्ता न करे कि मैं वस्त्र रहित हो जाऊँगा, अथवा यह भी विचार न करे कि अच्छा हुआ वस्त्र जीर्ण हो गए हैं और अब मैं नये वस्त्रों से सचेलक हो जाऊँगा । सचेल और अचेल दोनो ही अवस्था में श्रमण खिन्न न हो । १६ हाँ तो आलक्य-कल्प का सक्षेप मे अर्थ हुआ - अल्प प्रमाणोपेत एवं श्वेत वस्त्र धारण करने की मर्यादा । • औद्द शिक free froर्थ है श्रमण को दान देने के उद्देश्य से, या परित्राजक, श्रमण, निर्ग्रन्थ आदि सभी को उद्देश्य कर निर्मित अशन, वसन, भवन आदि । १७ वह श्रमण के लिए अग्राह्य एव असेव्य है । यदि श्रमण को यह ज्ञात हो जाय तो वह स्पष्ट रूप से कहे कि यह अशनादि मुझे नहीं कल्पता । १८ प्रथम और अन्तिम तीर्थकरो के श्रमणों के लिए यह विधान है कि 'एक श्रमण को उद्देश्य करके निर्मित आहार आदि न उसे ग्रहण करना कल्पता है, और न अन्य श्रमणों को ही ग्रहण करना कल्पता है ।' किन्तु बावीस तीर्थकरो के समय में जिस श्रमण को उद्देश्य कर आहार आदि निर्मित किया गया हो वह उसे ग्रहण करना नही कल्पता, पर शेष श्रमणो के लिए वह ग्राह्य हो सकता है । १९ २१ दशवैकालिक, २० प्रश्नव्याकरण, सूत्रकृताङ्ग, २३ २२ उत्तराध्ययन, आचारांग, १४ और भगवती २" आदि आगमों में अनेक स्थलों पर औद्दे शिक आहार आदि ग्रहण करने का निषेध है, क्योंकि औद्दे शिक आदि ग्रहण करने से त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा का अनुमोदन होता है, २६ अतः वह श्रमण के लिए अग्राह्य है । २७ • शय्यातर - पिण्ड श्रमण को शय्या ( वसति - उपाश्रय) देकर संसार - समुद्र को तैरने वाला गृहस्थ शय्यार कहलाता है । २८ अर्थात् वह गृहपति जिसके मकान में श्रमण ठहरे हुए हों शय्यातर Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पसूत्र है । निशीथभाष्य के अभिमतानुसार स्वयं गृहपति या उसके द्वारा निर्दिष्ट कोई भी अन्य व्यक्ति शय्यातर होता है । 30 शय्यातर कब होता है ? इस पर आचार्यों के विभिन्न मत हैं। निशीथ भाष्य और चूर्णि में उन सभी मतों का निर्देश किया गया है, तथा भाष्यकार ने अपना स्पष्ट अभिमत इस प्रकार दिया है 'श्रमण जिस स्थान में रात्रि रहे, सोए, और चरमावश्यक कार्य करे उस स्थान का अधिपति शय्यातर होता है । १२ श्रमण के लिए शय्यातर के अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, आदि अग्राह्य हैं और तृण, राख, पाट बाजोट, आदि ग्राह्य हैं । सूत्रकृताङ्ग में शय्यातर के स्थान में "सागरिपिण्ड" लिखा है, ३४ पर उसका अर्थ भी टीकाकार ने शय्यातरपिण्ड किया है । 34 राज- पिण्ड मूर्धाभिषिक्त अर्थात् जिसका राज्याभिषेक हुआ हो वह 'राजा' कहलाता है । उसका भोजन राजपिण्ड है । 30 जिनदासगणी महत्तर के अभिमतानुसार सेनापति, अमात्य, पुरोहित, श्रेष्ठी और सार्थवाह सहित जो राजा राज्य का उपभोग करता है। उसका पिण्ड (भोजन) ग्रहण नही करना चाहिए। अन्य राजाओं के लिए नियम नही है । यदि दोष की सम्भावना हो तो ग्रहण नहीं करना चाहिए, और निर्दोष हो तो ग्रहण किया जा सकता है । ३७ राजपिण्ड का तात्पर्य - राजकीय भोजन है । राजकीय भोजन सरस, मधुर व मादक होता है । जिसके सेवन से रस- लोलुपता बढने की सम्भावना रहती है। साथ ही वह उत्तेजक भी होता है। इस प्रकार का सरस आहार सर्वत्र प्राप्त भी होना सम्भव नही, रस-लोलुप मुनि कही अनेषणीय आहार संग्रहण न करे, इस दृष्टि से राजपिण्ड का निषेध किया गया है । एषणाशुद्धि ही प्रस्तुत विधान की मूल दृष्टि है । ३ यदि कोई इस विधान को विस्मृत करके राजपिण्ड को ग्रहण करता है, या राजपिण्ड का उपयोग करता है तो उस श्रमण को चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है । 3 राजपिण्ड के निषेध के पीछे अन्य अनेक तथ्य रहे हुए है । ४० जिनका उल्लेख, निशीथभाष्य और चूर्णि में किया गया है। राजभवन में प्रायः सेनापति आदि का आवागमन रहता है। कभी शीघ्रतादि के कारण श्रमण के चोट लगने की और पात्रादि फूटने की सम्भावना भी रहती है। किसी कार्यवश जाते हुए साधु को देखने पर उसको वे अपशकुन भी समझ सकते हैं । ४१ इन कारणो से राजपिण्ड को अग्राह्य तथा अनेषणीय माना है तथा उसको ग्रहण करना अनाचार है । ४३ भगवान महावीर और श्री ऋषभदेव के श्रमणों के लिए ही राजपिण्ड का निषेध है, पर बावीस तीर्थंकर के श्रमणो के लिए नही । ४३ राजपिण्ड से अभिप्राय है चार प्रकार के आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण-ये आठ वस्तुएँ, और ये आठों अग्राह्य मानी हैं । ४४ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपक्रम : बस कल्प · कृतिकर्म कृतिकर्म का अर्थ है अपने से संयमादि में ज्येष्ठ व सद्गुणों में श्रेष्ठ श्रमणों का खड़े होकर हृदय से स्वागत करना। उन्हें बहुमान देना, उनकी हितशिक्षाओं को श्रद्धा से नतमस्तक होकर स्वीकार करना । ४५ चौबीस ही तीर्थंकरों के श्रमण अपने से चारित्र में ज्येष्ठ श्रमणों को वन्दननमस्कार करते हैं । यह कल्प सार्वकालिक हैं । ४६ व्रत व्रत का अर्थ है विरति । ४७ विरति असत् प्रवृत्ति की होती है । अकरण, निवृत्ति, उपरम और विरति ये एकार्थक शब्द हैं । ४८ व्रत शब्द का प्रयोग निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनो ही अर्थों में होता है । जैसे "वृषलान्तं व्रतयति" अर्थात् वह शूद्र के अन्न का परिहार करता है । "पयोव्रतयति" अर्थात् केवल दूध पीता है, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नही खाता । इसी तरह असत् प्रवृत्ति का परिहार और सत् में प्रवृत्ति इन दोनों अर्थों में व्रत शब्द का प्रयोग हुआ है । ४९ भगवान् श्री महावीर और ऋषभदेव के श्रमण पाँच महाव्रत रूप धर्म का पालन करते हैं और अन्य बावीस तीर्थंकरों के श्रमण चार यामों का । इसका क्या रहस्य है, यह प्रश्न भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के अन्तिम प्रतिनिधि केशीकुमार श्रमण के मन को कचोट रहा था। उन्होंने गौतम गणधर से पूछा। गौतम ने समाधान करते हुए कहा" विज्ञवर ! प्रथम तीर्थकर के श्रमण ऋजु जड़ होते हैं, अन्तिम तीर्थंकर के श्रमण वक्र जड़ होते हैं और मध्य के तीर्थकरों के श्रमण ऋजु -प्राज्ञ होते हैं। प्रथम तीर्थकर के मुनि कठिनता से समझते हैं और अन्तिम तीर्थंकर के शिष्यों को धर्मपालन करना कठिन होता है, किन्तु मध्यवर्ती युग के श्रमणो के लिए समझना और पालना सुलभ होता है । ५१ चातुर्याम और पंचयाम का जो भेद है वह भी बहिर्दृष्टि से है, न कि अन्तर्दृष्टि से । मध्यवर्ती श्रमण परिग्रह त्याग में ही चतुर्थव्रत का समावेश कर लेते थे । कञ्चन और कांता दोनों का वे अन्योन्याश्रय सम्बन्ध समझते थे । १२ स्त्री को भी परिग्रह में गिनते थे । कुछ आधुनिक चिन्तकों ने लिखा है कि वे कान्तायुक्त थे, पर उनकी यह कल्पना अनागमिक एवं असंगत है । • ज्येष्ठ जैन धर्म गुण प्रधान होने पर भी इसकी परम्परा पुरुष ज्येष्ठ रही है। सौ वर्ष की दीक्षिता साध्वी भी आज के दीक्षित श्रमण को श्रद्धा-भक्तिपूर्वक नमस्कार करती है 143 ज्येष्ठ कल्प का दूसरा अर्थ है -बावीस तीर्थंकरों के समय श्रमणों के सामायिक चारित्र ही होता है, पर प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के समय श्रमणों के सामायिक चारित्र Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र के साथ ही छेदोपस्थापनिक चारित्र भी होता है। उसके आधार से ही श्रमण ज्येष्ठ या कनिष्ठ होता है। आज के युग में सामायिक चारित्र के ग्रहण को लघु-दीक्षा और छेदोपस्थापनिक चारित्र के ग्रहण को बड़ी-दीक्षा कहते हैं।" ज्येष्ठ कल्प का तीसरा अर्थ है कि पिता-पुत्र, राजा-मन्त्री, सेठ-मुनीम, मातापुत्री आदि यदि एक ही साथ प्रवज्या ग्रहण करे तो पिता, राजा, सेठ, माता आदि ज्येष्ठ माने जाएं। यदि पुत्र आदि ने प्रथम सामायिक चारित्र आदि ग्रहण कर लिया है और फिर पिता आदि के अन्तर्मानस में प्रव्रज्या लेने की भावना उबुद्ध होती है तो चार-छह माह तक उसे छेदोपस्थापनिक चारित्र न दे। प्रथम पिता आदि को चारित्र देकर ज्येष्ठ बनावे । -.प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण जैन धर्म की साधना का प्रमुखतम अग है। प्रतिक्रमण का अर्थ है "प्रमादवश स्व-स्थान से च्युत होकर पर-स्थान को प्राप्त करने के पश्चात् पुनः स्व-स्थान को प्राप्त करना ।५६ अतिक्रमण का अर्थ समझने से प्रतिक्रमण का अर्थ-बोध स्पष्ट हो जायेगा। अतिक्रमण का अर्थ है सीमा को लाधना और तब प्रतिक्रमण का अर्थ हुआ पुनः अपनी सीमा में लौट आना। आत्मा निज स्वरूप से पर स्वरूप मे चला जाने पर उसे पुनः अपने स्वरूप में ले आने की क्रिया प्रतिक्रमण है। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, और अप्रशस्त योग ये चार दोष साधना के क्षेत्र मे बहुत ही भयकर माने गए हैं, अतः साधक को इन दोषों के परिहार हेतु प्रतिक्रमण करना चाहिए। मिथ्यात्व को त्याग कर, सम्यक्त्व को स्वीकार करना चाहिए। अविरति को छोड़ कर, व्रत अगीकार करना चाहिए। कषाय से मुक्त होकर, क्षमा, विनम्रता, सरलता, निर्लोभता धारण करना चाहिए। अप्रशस्त योगो को छोड़ कर प्रशस्त योगो मे रमण करना चाहिए।" बावीस तीर्थकरों के समय के साधक अतीव विवेकनिष्ठ एव जागरूक थे, अतः वे दोष लगने पर ही प्रतिक्रमण करते थे।"८ कुछ आचार्यों का अभिमत है कि देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक, इन पाच प्रतिक्रमणो मे से बावीस तीर्थंकरों के समय देवसिक और रात्रिक ये दो ही प्रतिक्रमण होते थे शेष नही ।५१ जिनदासगणी महत्तर ने स्पष्ट कहा है कि "प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के समय नियमित रूप से उभय काल प्रतिक्रमण करने का विधान है और साथ ही दोष काल में भी ईर्यापथ एवं भिक्षा आदि के रूप में तत्काल प्रतिक्रमण का विधान है। बावीस तीर्थकरों के शासन काल में दोष लगते ही शृद्धि करली जाती थी, उभय काल नियमेन प्रतिक्रमण का विधान नहीं था। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपलबस कल्प -मासकल्प श्रमण का आचार है कि वह एक स्थान पर स्थिर होकर नहीं रहता। चातुर्मास के सिवाय वह शीत (हेमन्त) और ग्रीष्म ऋतु मे विहार करता रहता है । १ भारण्डपक्षी की तरह अप्रमत्त होकर ग्रामानुग्राम विहार करता है । ६२ विहार की दृष्टि से काल को दो भागों में विभक्त किया गया है-वर्षाकाल और ऋतुबद्ध काल । वर्षाकाल में श्रमण चार मास तक एक स्थान पर स्थिर रह सकता है और ऋतुबद्ध काल में एक मास तक । वर्षाकाल का समय एक स्थान पर स्थिर रहने का उत्कृष्ट समय है। अतः उसे सवत्सर कहा है । ६३ बृहत्कल्प भाष्य में वर्षांवास का परमप्रमाण चारमास बताया है। और शेष काल का परम प्रमाण एक मास । १५ जिस स्थान पर श्रमण उत्कृष्ट काल रह चुका हो, अर्थात् जिस स्थान में वर्षा ऋतु में वर्षावास किया हो उस स्थान में दो चातुर्मास्य अन्यत्र किए बिना चातुर्मास्य न करे, और जिस स्थान पर मासकल्प किया हो उस स्थान पर दो मास अन्यत्र बिताए विना न रहे।६६ यद्यपि गाथा में तृतीय बार का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, किंतु स्थविर अगस्त्यसिंह के अभिमतानुसार चकार के द्वारा वह प्रतिपादित है ।१७ भगवान् ऋषभदेव और महावीर के श्रमणों के लिए ही मासकल्प का विधान है, शेष बावीस तीर्थङ्करो के श्रमणों के लिए नहीं । ६८ वे चाहें तो दीर्घकाल तक भी एक स्थान पर रह सकते हैं और चाहें तो शीघ्र ही एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्रस्थान कर जाते हैं। ---. पर्युषणाकल्प 'परि" उपसर्ग पूर्वक वस् धातु से "अन." प्रत्यय लगाकर पर्युषण शब्द बना है। जिसका अर्थ है आत्मा के समीप रहना, पर-भाव से हटकर स्व-भाव मे रमण करना। आत्म-मज्जन, आत्म-रमण या आत्मस्थ होना। आत्म-रमण का यह कार्य एक दिन सामूहिक रूप से मनाया जाता है और वह 'पर्व' कहलाता है। यह पवित्र पर्व आषाढ़ी पूर्णिमा से उनपचास अथवा पचासवें दिन मनाया जाता है। जिसे सवत्सरी महापर्व कहते है। पर्यषणा-कल्प का दूसरा अर्थ है एक स्थान पर निवास करना। वह सालंबन और निरालबन रूप दो प्रकार का है। सालबन का अर्थ है सकारण और निरालबन का अर्थ है कारण रहित । निरालंबन के भी जघन्य और उत्कृष्ट-रून दो भेद है। पर्युषणा के पर्यायवाची शब्द इस प्रकार बतलाए गए हैं-(१) परियाय बत्पवणा (२) पज्जोसमणा (३) पागइया (४) परिवसना (५) पज्जुसणा () वासावास (७) पढमसमोसरण (८) ठवणा और (8) जेट्टोग्गह। यद्यपि ये सब नाम एकार्थक है तथापि व्युत्पत्ति भेद के आधार पर उनमें किंचित् अर्थभेद भी हैं और यह अर्थ भेद पर्युषणा से सम्बन्धित विविध परम्पराओं, एवं उस नियत Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० कल्पसूत्र काल में की जाने वाली क्रियाओ का महत्त्वपूर्ण निदर्शन करता है । इन अर्थों से कुछ ऐतिहासिक तथ्य भी व्यक्त होते हैं । पर्युषणा काल के आधार से काल गणना करके दीक्षापर्याय को ज्येष्ठता व कनिष्ठता गिनी जाती है अर्थात् जितने पर्युषण- - उतनी ही दीक्षापर्याय ज्येष्ठ ! पर्युषणाकाल एक प्रकार का 'वर्षमान' गिना जाता रहा है। अतएव पर्युषणा को दीक्षापर्याय की व्यवस्था का कारण माना है । वर्षावास में भिन्न प्रकार के द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव सम्बन्धी कुछ विशेष पर्यायों ( क्रियाओं) का आचरण किया जाता है, इस कारण पर्युषण का दूसरा नाम “पज्जो समणा" है । गृहस्थ आदि सभी के लिए समानभावेन आराधनीय होने के कारण यह कल्प 'पागइया' (प्राकृतिक) कहलाता है। इस नियत अवधि में साधक आत्मा के अधिक निकट रहने का प्रयत्न करता है, अतः वह 'परिवसना' भी कहा जा सकता है। पज्जुसणा - का अर्थ सेवा भी है। इस काल में साधक आत्मा के ज्ञान, दर्शन आदि निज गुणों की सेवा - उपासना करता है, अत इसे 'गज्जुसणा' भी कहते हैं । इस कल्प में श्रमण एक स्थान पर वार मास तक निवास करता है, अतएव इसे 'वासावास - वर्षावास' कहा गया है । कोई विशेष कारण न हो तो प्रावृट् काल में ही चातुर्मास्य व्यतीत करने योग्य क्षेत्र मे प्रवेश किया जाता है, अतएव इसे 'पढमसमोसरण' (प्रथम समवशरण कहते हैं । ऋतुवद्ध काल की अपेक्षा इसकी मर्यादाएँ भिन्न होती हैं। अतएव यह 'ठवणा' है। ऋतुबद्ध काल में एक-एक मास का क्षेत्रावग्रह होता है, किन्तु वर्षाकाल मे चार मास का, अतएव इसे जेठ्ठोग्गह- ज्येष्ठावग्रह कहते हैं । ७१ अगर साधु आषाढी पूर्णिमा तक नियत स्थान पर आ पहुँचा हो और वर्षावास की जाहिरात करदी हो तो श्रावणकृष्णा पत्रमी से ही वर्षावास प्रारम्भ हो जाता है। उपयुक्त क्षेत्र न मिलने पर श्रावणकृष्णा दशमी को, फिर भी योग्य क्षेत्र की प्राप्ति न हो तो श्रावण मास की पंचदशमी (अमावश्या) का वर्षावास आरम्भ करना चाहिए। इतने पर भी योग्य क्षेत्र न मिले तो पाँच-पाँच दिन बढ़ाते हुए अन्ततः भाद्रपद शुक्ला पचमी तक तो प्रारम्भ कर देना अनिवार्य माना गया है। इस समय तक भी उपयुक्त क्षेत्र प्राप्त न हुआ हो तो अन्ततः वृक्ष के नीचे ही पर्युषणा कल्प करना चाहिए। पर इस तिथि का किसी भी स्थिति मे उल्लघन नहीं करना चाहिए । पंचमी, दशमी और पचदशमी, इन पर्वो में ही पर्युषणाकल्प करना चाहिए. अन्य तिथि - अपर्व में नही । इस प्रकार का सामान्य विधान होने पर भी विशिष्ट कारण से Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपक्रम : वस कल्प ११ आर्य कालक ने चतुर्थी तिथि में पर्युषणा की आराधना की थी, मगर उसे सामान्य नियम नहीं समझना चाहिए और वह किसी परम्परा के रूप में मान्य नहीं की जा सकती । ७२ वर्षावास मे भी विशेष कारण से श्रमण विहार कर सकता है। स्थानाङ्ग में पांच कारणों का निर्देश किया है । वे कारण ये हैं - (१) ज्ञान के लिए (२) दर्शन के लिए (३) वारित्र के लिए, (४) आचार्य और उपाध्याय के काल करने पर (५) आचार्य, उपाध्याय आदि की वैयावृत्य के लिए । ७३ कल्पसूत्र की टीकाओ मे कुछ अन्य कारण भी वर्षावास में विहार करने के बताये हैं। जैसे कि ' दुकाल के कारण भिक्षा की उपलब्धि न होने से, राज- प्रकोप होने से, रोग उत्पन्न होने से । जीव उत्पत्ति का आधिक्य होने से, आदि आदि ।७४ वर्षावास समाप्त होने पर श्रमण को विहार करना चाहिए। पर, यदि वर्षा का आधिक्य हो, वर्षा से मार्ग दुर्गम व भग्न हो गये हों, कीचड़ अधिक हो, बीमारी आदि कोई कारण हो तो वह अधिक भी ठहर सकता है । ७५ वर्षावास के लिए भी वही क्षेत्र उत्तम माना गया है, जहाँ पर तेरहगुण हों। वे गुण इस प्रकार है : - - ( १ ) जहाँ पर विशेष कीचड न हो, (२) अधिक जीवो की उत्पत्ति न हो, (३) शौच-स्थल निर्दोष हो, (४) रहने का स्थान शान्तिप्रद हो, (५) गोरस की उपलब्धि यथोचित होती हो, (६) जनसमूह विशाल और भद्र हो, (७) (८) औषध सुलभ हो, (६) गृहस्थ वर्ग धन धान्यादि से समृद्ध हो, (१०) हो, (११) श्रमण ब्राह्मण का अपमान न होता हो, (१२) भिक्षा सुलभ हो, पर स्वाध्याय के योग्य स्थान हो । ७६ भगवान् ऋषभदेव और महावीर के श्रमणो के लिए वर्षावास - पर्युषणा का पूर्ण विधान है, अर्थात् वे वारमास तक के नियत काल में एक ही क्षेत्र में वास करते हैं । शेष बावीस तीर्थङ्कर के श्रमणों के लिए ऐसा नही है । वे वर्षा प्रादि के कारण ठहरते भी थे और कारणाभाव में विहार भी कर जाते थे ७ ७ सुज्ञ वैध हो, राजा धार्मिक (१३) जहाँ इन दसकल्पो में (१) आवेलक्य, (२) औद्द शिक, (३) प्रतिक्रमण, (४) राजपिण्ड, (५) मासकल्प, (६) पर्युषणा कल्प, ये छह कल्प अस्थिर हैं । ७८ (१) शय्यातर पिण्ड, (२) चतुर्थ महाव्रत रूप धर्म, (३) पुरुषज्येष्ठ (४) कृतिकर्म ये चाकल्प अवस्थित हैं और चौबीस ही तीर्थङ्करो के शासन में मान्य होते हैं । ७९ ----• कल्प : तीसरी औषध दिया है । कल्प के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए पूर्वाचार्यों ने एक विचार प्रधान दृष्टांत क्षितिप्रतिष्ठ नगर था । जितशत्रु नामका राजा वहाँ राज्य करता था । चिरप्रतीक्षा के बाद, ढलती हुई आयु में उसे पुत्र रत्न की उपलब्धि हुई । पुत्र सदा स्वस्थ और Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ कल्प सूच प्रसन्न बना रहे एतदर्थ राजा ने अपने राज्य के तीन सुप्रसिद्ध वैद्यों को बुलाया और उनसे कहा—“वैद्यराज ! ऐसी औषध बतलाओ जिसके सेवन से मेरा पुत्र गुलाब के फूल की तरह सदा खिला रहे ।" उन वैद्यों में से प्रथम वैद्य ने कहा- " राजन् ! मेरी औषध में वह चमत्कार है। कि यदि शरीर में किसी भी प्रकार का कोई रोग हो तो सेवन करते ही नष्ट हो जायेगा और यदि शरीर मे रोग नही है तो रोग उत्पन्न हो जायेगा ।" राजा ने कहा - " वैद्यवर ! मुझे ऐसी औषध की आवश्यकता नही है । रोग का निमन्त्रण देने वाली यह औषध किस काम की !" दूसरे वैद्य ने कहा - "राजन् ! मेरी औषध में ग्रसित है तो व्याधि से मुक्त हो जायेगा, यदि शरीर में करेगी, न हानि ही करेगी ।" , अपूर्व शक्ति है । शरीर व्याधि से व्याधि नही तो औषध न लाभ राजा ने कहा- "वैद्यवर ! आपकी औषध तो राख में घी डालने के समान है । इस औषध की भी मुझे आवश्यकता नही है ।" तृतीय वैद्य ने कहा - "राजन् ! मेरी औषध विलक्षण गुणवाली है। यदि शरीर मे रोग है तो उससे मुक्ति मिल जायेगी, रोग नही, तो भविष्य में रोग उत्पन्न नही होगा । इसके सेवन से शरीर में अभिनव चेतना, तथा नवस्फूर्ति का संचार होगा । बल, वीर्य को वृद्धि होगी। शरीर सदा स्वस्थ और मन प्रसन्न रहेगा ।" राजा ने प्रसन्न होकर कहा - "वैद्यवर । तुम्हारी औषाध वस्तुत उत्तम है। राजकुमार के लिए यही उपयुक्त है ।" औषध के सेवन से राजकुमार स्वस्थ, सशक्त और तेजस्वी हो गया । आचार्यो ने प्रस्तुत दृष्टात के द्वारा यह भाव व्यक्त किया है कि कल्प का पालन भी तृतीय - औषध के समान हितावह है। दोष लगने पर भी और दोषमुक्त अवस्था मे भी । दोष लगा है तो शुद्धि हो जाती है और दोष नहीं लगा है तो सदा सावधानी और जागृति रखने से भूल की धूल नही लगती । इस प्रकार कल्प एक रसायन है, जो आत्मा के ज्ञान, दर्शन, वारित्र, तप आदि गुणों को परिपुष्ट करता है। • अस्थिर और अवस्थित कल्प क्यों ? एक जिज्ञासा हो सकती है कि सभी तीर्थङ्करों के श्रमणों का लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है, फिर प्रथम, अन्तिम और मध्य के बावीस तीर्थङ्करों के श्रमणों के आचार कल्प में यह अन्तर क्यो है ? अस्थिर और अवस्थित कल्प का भेद क्यों है ? समाधान है - प्रथम तीर्थङ्कर के श्रमण जड़ और सरल होते थे। अजित - आदि बावीस तीर्थङ्करों के काल में श्रमण विज्ञ और सरल होते थे । भगवान् महावीर के Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपक्रम : सकल्प श्रमण जड़ और वक्र होते थे, अतः उन्हें सुख-बोध्य एव सुपाल्य हो, इस दृष्टि से मोक्ष मार्ग एक होने पर भी आचार-कल्प मे अन्तर किया गया है। प्रथम तीर्थ ङ्कर के श्रमण जड़ होते थे, उनमे बावीस तीर्थङ्करों के श्रमणों जितनी प्रतिभा की तेजस्विता नही होती। वे किसी भी वस्तु के अन्तस्तल तक जल्दी नहीं पहुंच पाते, सरल होने के कारण वे भूल को सहज रूप में स्वीकार कर लेते थे। जैसे कि निम्न उदाहरण से स्पष्ट है एक बार भगवान् ऋषभदेव के श्रमण शौच के लिए गए। बहुत विलम्ब से लोटे। गुरू ने पछा- "इतना विलम्ब कैसे हुआ?" शिष्यो ने निवेदन किया-"गुरुदेव ! मार्ग में एक नट नृत्य कर रहा था, हम उसे देखने के लिए रुक गए।" गुरू ने उपालम्भ दत हुए कहा- "वत्स । श्रमणों को नट का नत्य नही देखना चाहिए।" "तहति" कहकर उन्होंने गुरू के आदेश को शिरोधार्य किया। ___ कुछ ही दिन व्यतीत हुए, एक दिन पुन: शिष्य विलम्ब से आये। गुरू ने कारण पूछा। उन्होने बताया, 'गुरुदेव । मार्ग में एक नटनी का मनोहर नत्य हो रहा था, उसे देखने के लिए हम रुक गये।' आज्ञा की अवहेलना करने के कारण गुरू ने विशेष उपालम्भ देते हुए कहा-जब नट का नत्य देखने का निषेध किया गया तो स्वतः ही नटनी के नृत्य का निषेध भी समझ लेना चाहिए। क्योंकि वह विशेष राग का कारण है। शिष्यों ने अपनी भूल स्वीकार की और भविष्य में सावधानी रखने का सकल्प किया। बावीस तीर्थरो के श्रमण मेधावी होते थे। उनके जीवन में भी ऐसा ही प्रसंग आया। गुरु ने नट-नृत्य का निषेध किया, उन्होंने बुद्धि की प्रखरता से नटनी आदि सभी प्रकार के नृत्यो का निषेध समझ लिया। महावीर के श्रमण जड और वक्र होते थे। उनके जीवन में जब ऐसा प्रसंग आया तो उन्होंने गुरु को उपालम्भ देते हुए कहा-'आपकी भूल है। आपने प्रथम स्पष्टीकरण क्यों नही किया कि 'नट का नत्य नहीं देखना और नटनी का भी नही देखना चाहिए। आपने ऐसा कहा नहीं, सिर्फ नट के नृत्य का निषेध किया, अतः हम नटनी का नृत्य देखने लग गए।' यह है जडता के साथ वक्रता का निदर्शन ! -- जड़ और सरल दूसरा दृष्टान्त देखिये-कोकण देश मे एक श्रेष्ठी रहता था। आचार्य के वैराग्यमय उपदेश को सुनकर उसे संसार से विरक्ति हुई। दीक्षा ग्रहण की। एक दिन ईर्यावही के कायोत्सर्ग में उसे अधिक समय लगा। गुरु ने पूछा-'वत्स ! इतने समय तक ध्यान में क्या चिंतन किया था ? शिष्य ने कहा-"गुरुदेव ! जीव दया का सूक्ष्म चिंतन कर रहा था। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ कल्पसूत्र गुरु ने पुनः पूछा-"बताओ किस प्रकार चितन कर रहे थे ?' शिज्य-"गुरुदेव ! मेरे घर खेती का धन्धा था। मैं खेत को रेशम की तरह मुलायम करता, वर्षा होने पर उसमे धान्य बोता, फिर उसमे घास आदि जो भी पैदा हो जाता उसे उखाड़ कर एक तरफ करता, और खेती की तल्लीनता से रक्षा करता। गाँध मे मेरी ही खेती सबसे बढिया होती थी। अब मेरे भोले-भाले लड़के क्या करते होंगे? यदि ध्यान नही रखेगे तो धान अच्छा नही पैदा होगा और विना घान के उनकी कैसी दयनीय दशा होगी?" गुरु ने कहा-"शिष्य । इस प्रकार का ध्यान धर्म-ध्यान नहीं, दुर्ध्यान है। अहिंसक ध्यान नही, हिंसक ध्यान है। भविष्य में इस प्रकार का ध्यान न करना।" शिष्य ने भूल स्वीकार की। यह है जड़ता के साथ सरल मानम का चित्रण । भगवान ऋषभदेव के शासन काल की सरल मनोवृत्ति का परिचय देने वाला एक उदाहरण है । एक शिष्य भिक्षा लेकर आया। गुरु ने भिक्षा पात्र खोला, पात्र मे एक ही बड़ा देखकर गुरू ने साश्चर्य मुद्रा में पूछा-'वत्म ' ऐसा कौन दाता मिला, जिसने एक ही बड़ा दिया ?' शिष्य ने विनम्र शब्दो मे निवेदन किया - "गुरुदेव ! गृहस्थ ने मुझे उदार भावना से बत्तीस गर्मागर्म बड़े दिए थे । मैने सोचा, ये सारे बड़े अकेले गुरूजी नही खायेगे। आधे मुझे भी देगे ही। फिर गर्मागर्म बडो को ठण्डा करने से लाभ क्या है ? मैंने अपने हिस्से के सोलह बड़े खा लिए। बड़े बहुत ही अच्छे लगे। फिर सोचा, सोलह बड़ों के भी तो दो विभाग किए जायेगे। यह सोच आठ ओर खा गया। पूर्ववत् विचार करता हुआ, चार और खा गया। फिर दो खा गया। फिर विभाग का विचार करता हुआ एक खा गया। इस प्रकार इकतीस बड़े मैंने खाये ।" गुरु ने कहा-'वत्स ! विना गुरूजी को खिलाए वे बड़े तुम्हारे गले के नीचे कैसे उतर गए ? ___ एक बड़ा जो पात्र में पड़ा था उसे मुंह में डालते हुए शिष्य ने कहा-'गुरूजी ! इस प्रकार वे गले के नीचे उतर गए।' शिष्य की सरलता देखकर गुरूजी की आँखों में मन्द-स्मित की रेखायें थिरक उठीं। गुरूजी ने समझाया-वत्स ! मार्ग में चलते हुए, तथा गुरुजी को विना दिग्वलाए खाना श्रमणाचार के विरुद्ध है।' शिष्य को अपनी भूल का परिज्ञान हुआ, भविष्य में ऐसी भूल न करने का वचन दिया। अब देखिए एक वक्र श्रेष्ठी पुत्र का उदाहरण भी। एक सेठ ने अपने वाचाल पुत्र को शिक्षा देते हुए कहा-'पुत्र ! बड़ों के सामने नहीं बोलना चाहिए।' Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपक्रम : बस कल्प १५ पुत्र ने सोचा - 'पिता को ऐसा छट्ठी का दूध पिलाऊँ जिससे पिता भी याद रखे । एक दिन सभी घर वाले बाहर गये हुए थे । वह अकेला ही घर में था। घर के सभी द्वार बन्द कर वह एक कमरे में बैठ गया । पिता लौटे, आवाज दी, पर वह न बोला और न द्वार ही खोला । सेठ ने सोचा, सम्भव है कुछ अनहोनी घटना घटित हो गई हो, चिन्तातुर दीवाल को लांघ कर अन्दर पहुँचा । लड़का अन्दर बैठा हुआ मन ही मन हंस रहा था । सेठ ने कहा 'अरे मूर्ख । इतनो आवाजे दी, बोला क्यों नहीं ? उसने खिलखिलाकर हसते हुए कहा- 'आपने ही तो कहा था कि बड़ों के सामने बोलना नही ।' आचार्यों ने इन उदाहरणों से प्रथम, अतिम एव मध्यम तीर्थङ्करों के युग का मनोविश्लेषण उपस्थित किया है कि तद्युगीन मनुष्यों की वृत्तियाँ एवं मन स्थिति किस प्रकार, ऋजुजड, वक्रजड एव ऋजु प्राज्ञ होती थी । • पर्युषण और कल्पसूत्र का महत्व भारतवर्ष पर्व प्रधान देश है । पर्वो का जितना सूक्ष्मविवेचन और विशद विश्लेषण भारतीय साहित्य में दृष्टिगोचर होता है उतना अन्य साहित्य में नही । यहाँ सात वार हैं तो नौ त्योहार । पर्व दो प्रकार के होते हैं, लौकिक तथा लोकोत्तर । लौकिक पर्व, आनन्द, भोग एवं खेल कूद से मनाये जाते हैं, किंतु लोकोत्तर पर्व - त्याग, तपस्या एव साधना के द्वारा । लोकोत्तर पर्वों मे भी पर्युषणपर्व का अपना विशिष्ट स्थान है । अपनी कुछ मौलिक विशेषताओ के कारण ही यह 'महापर्व' कहलाता है । जैसे - क्षीरो मे गोक्षीर, जलो मे गंगा नीर, पट सूत्रों में हीर, वस्त्रो मे चीर, अलकारो मे चूड़ामणि, ज्योतिष्को मे निशामणि, तुरङ्गी में पचवल्लभ किशोर, नृत्य मे मयूर नृत्य, गजो मे ऐरावत, दैत्यो मे वनो में नन्दन वन, काष्ठों से वन्दन, तेजस्वियो मे आदित्य, राजाओं में विक्रमादित्य, न्यायकर्त्ताओं में श्रीराम, रूप मे काम, सतियों मे राजीमती, शास्त्रों मे भगवती, वाद्यो मे भभा, स्त्रियों में रम्भा, सुगन्धों मे कस्तूरी, वस्तुओं मे तेजमतुरी, पुण्यधारियो मे नल, पुष्पों में कमल, वैसे ही पर्वों में पर्युषण पर्व है । पर्युषण पर्व के पुण्य-पलो मे साधक को बहिरात्मभाव से अधिकाधिक हटकर अन्तरात्मा मे रमण करना चाहिए। त्याग, वैराग्य और प्रत्याख्यान से जीवन को चमकाना चाहिए। रावण, पर्युषण मे जीवनोत्थान की मंगलमय प्रेरणा प्राप्त करने के लिए ही कल्पसूत्र के वाचन व श्रवण की परम्परा है । कल्पसूत्र दशाश्रुत स्कध का आठवाँ अध्ययन है । इसके तीन विभाग है । प्रथम विभाग में चौबीस तीर्थंकरों का पवित्र चरित्र है । द्वितीय विभाग में स्थविरावली है और तृतीय विभाग में समाचारी है । १ कल्पसूत्र महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए आचार्यों ने कहा है - कल्पसूत्र आचार और तप के महत्त्व का प्रतिपादन करने वाला महत्त्वपूर्ण सूत्र है । यह कल्पवृक्ष के Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समान मनोवांछित ऋद्धि, समृद्धि और आत्म-सुख का प्रदाता है । २ जो मानव जिनशासन की प्रभावना करता हुआ, जिन धर्म पर दृढ-निष्ठा रखता हुआ, एकाग्रचित्त से कल्पसत्र का श्रवण और पठन करता है वह शीघ्र ही ससार सागर से पार हो जाता है। 3 महापुरुषों के गुणानुवाद करने से कर्मों की निर्जरा होती है। सम्यग्दर्शन की विशद्धि होती है । ४ सम्यग्दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र का लाभ होता है । तथा इनके लाभ से जीव सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होता है । ५ .. . ....... . 40. का WAVAYAVAL ARANA Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हम् नमोऽत्थुणं समणस्स भगवओ वीरवद्धमाणसामिस्स चरिमसुयकेवलिसिरिभद्दबाहुसामिविरइय सिरिकप्पसुतं [ दमामुयक्खंधमुत्तस्स अट्ठमं अज्झयणं ] amadhan... AAAAAAAw मूल, अर्थ, विवेचन Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ नमः श्री सर्वज्ञाय॥ णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं णमो उवज्झायाणं णमोलोए सव्वसाहूणं एसो पंचनमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ॥१॥ अर्थ-अरिहन्तों को नमस्कार हो । सिद्धों को नमस्कार हो। आचार्यों को नमस्कार हो। लोक में स्थित सर्व साधुओं को नमस्कार हो । यह पंच नमस्कार सर्व पापों को नाश करने वाला और सर्वमंगलों में प्रथम मंगल है। विवेचन-नमस्कार महामन्त्र, जैन संस्कृति का एक सर्वमान्य प्रभाबशाली मन्त्र है। यह संसार के समस्त मन्त्रों में मुकुटमणि के समान है। कल्पतरु, चिंतामणि, कामकुम्भ और कामधेनु के समान समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। लोक में अनुपम है। आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक सभी प्रकार की बाधाओं को दूर करने वाला अमोघमन्त्र है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० कल्प सूत्र इसके जाप से पाप नष्ट होता है, बुद्धि की शुद्धि होती है, लक्ष्मी की वृद्धि होती है, सिद्धि की उपलब्धि होती है, आरोग्य की प्राप्ति होती है, चिन्ताएँ नष्ट होती हैं । भूत, प्रेत, राक्षस, पिशाच, डाकिनी शाकिनी आदि सभी प्रकार के उपद्रवों का उपशमन होता है । लौकिक और लोकोत्तर सभी प्रकार के सुख प्राप्त होते है । लिन से मलिन एवं पतित-से पतित आत्मा भी नमस्कार मंत्र के जाप से निर्मल तथा पवित्र हो जाता है । आचार्य कहते है — 'नमस्कार महामंत्र के एक अक्षर का ध्यान करने से भी सात सागरोपम काल में किए गए पाप नष्ट हो जाते हैं । सम्पूर्ण महामंत्र का ध्यान करने से पाँच सौ सागरोपम काल में मञ्चित पापों का विनाश होता है ।" जो नमस्कार महामंत्र का निष्कामभाव से विधिपूर्वक एक लाख बार जाप करता है, उसकी अर्चना करता है, वह तीर्थकरनामकर्म की उपार्जना करता है, वह शाश्वत धाम (मुक्ति) को प्राप्त होता है । जो भावुक भक्त आठ करोड़, आठ हजार, आठ सौ आठ बार नमस्कार महामन्त्र का जाप करता है वह तीसरे भव में मोक्ष प्राप्त करता है । जैन आगम व आगमेतर साहित्य में ऐसी अनेक कथाएँ विद्यमान हैं जिनमें नमस्कार महामन्त्र का अद्भुत प्रभाव प्रदर्शित किया गया है। महामंत्र के प्रबल प्रभाव से ही श्रेष्ठी सुदर्शन ने शूली को सिंहासन के रूप में परिणत किया था । नाग जैसे क्षुद्र जीव को भी धरणेन्द्र की पदवी प्राप्त हुई थी । सती सुभद्रा ने कच्चे धागों से छलनी को बाँध कर कुएँ मे पानी निकाला था और चम्पा के द्वार खोले थे। सती मीता ने अग्नि कुण्ड को जल-कुण्ड के रूप में बदल दिया था। आग की लपलपाती लपटें भी बर्फ-सी शीतल हो गई थी । मती श्रीमती ने भयंकर विषधर को सुमन-माला के रूप में परिवर्तित कर दिया था । इसी महामन्त्र के चमत्कार से ही श्रीपाल और मैना सुन्दरी का जीवन सुखी बना था । द्रौपदी का चीर बढ़ा था । विष को पीयूष, शत्रु को मित्र, अग्नि को पानी, दुःखी को मुखी बनाने वाला दिव्यप्रभावशाली यह महामन्त्र नमस्कार ही है । यह महामन्त्र अनादि है, भूतकाल में अनन्त तीर्थंकर हुए हैं, भविष्य " Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रवचन २१ में अनन्त तीर्थकर होंगे, पर कोई भी इस महामन्त्र की आदि नही जानता है । जिसकी आदि है नही, उसकी आदि जानी भी कैसे जा सकती है ? यह अनादि-निधन मन्त्र है | इस महामन्त्र में व्यक्ति-विशेष की उपासना नहीं, किन्तु गुणों की उपासना की गई है। आत्मिक गुणों को विकसित करने वाले जो महापुरुष हैं, उनको नमस्कार किया गया है । यह महामन्त्र पन्थ, परम्परा व सम्प्रदाय की परिधि से मुक्त है । अतः मानवमात्र की एक अनमोल निधि है, और सबके लिए समान भाव से सदा स्मरणीय है । मूल : तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पंच हत्थुत्तरे होत्था । तं जहा - हत्थुत्तराहिं चुए चइत्ता गब्भं वक्कंते १ हत्थुत्त राहिं Toभाओ गब्र्भ साहरिए २ हत्थुत्तराहिं जाए३ हत्थुत्तराहिं मुण्डे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए४ हत्थुत्तराहिं अनंते अणुत्तरे निव्वाधार निरावरणे कसिणे पडिपुन्ने केवलवरनाणदंसणे समुपपन्ने५ साइणा परिनिव्वुए भयवं ॥ १ ॥ अर्थ - उस काल उस समय भगवान् महावीर के पाँच [ कल्याण ] हस्तोत्तर [ उत्तराफाल्गुनी ] नक्षत्र में हुए । हस्तोत्तर नक्षत्र में भगवान् स्वर्ग से व्यवकर गर्भ में आये (१) । हस्तोत्तर नक्षत्र में भगवान् एक गर्भ से दूसरे गर्भ में संहरण किए गए ( २ ) । हस्तोत्तर नक्षत्र में भगवान् जन्मे ( ३ ) | हस्तोत्तर नक्षत्र में मुण्डित होकर गृहत्याग कर अनगारत्व स्वीकार किया (४) । हस्तोत्तर नक्षत्र में भगवान् को अनन्त, अनुत्तर, अव्याबाध, निरावरण समग्र और परिपूर्ण श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवल दर्शन उत्पन्न हुआ ( ५ ) । तथा स्वाति नक्षत्र में भगवान् परिनिर्वाण को प्राप्त हुए ( ६ ) ||१|| विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में तीन शब्द चिन्तनीय हैं। "समणे" "भगवं" और " महावीरे" । आचारांग और कल्पसूत्र में भगवान् महावीर के तीन नाम Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आए हैं, उनमें दूसरा नाम "समण" है। "समण" शब्द के 'समन' 'सुमनस्' और 'श्रमण' ये तीन संस्कृत रूप होते हैं । ___ सभी जीवों को आत्म-तुला की दृष्टि से तोलने वाला समतायोगी "समन" कहलाता है। राग द्वेष रहित मध्यस्थवृत्ति वाला 'समनस्' अथवा 'सुमनस्' कहलाता है। 'समनस्' के स्थान पर 'सुमनस्' का प्रयोग मिलता है, जिसका अर्थ है-'जिसका चित्त सदा कल्याणकारी कार्यों में लगा रहता हो, मन से कभी पाप का चिंतन न करता हो उसे 'समनस्' या 'सुमनस्' कहा जाता है।' तपस्या से खिन्न क्षीणकाय और तपस्वी 'श्रमण'' कहलाता है । समभाव प्रभृति सद्गुणों से सम्पन्न होने से भगवान् श्रमण कहलाते थे। भगवान में-"भग" शब्द का प्रयोग ऐश्वर्य, रूप, यश, श्री, धर्म और प्रयत्न इन छह अर्थो में होता है । जिसके यश आदि का महान विस्तार होता है उसे भगवान् कहते हैं।'' यजुर्वेद (१५। ३८) के प्रसिद्ध भाष्यकार आचार्य उव्वट ने भी 'भग' शब्द के ये ही अर्थ मान्य किए है । बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार भगवान् शब्द की व्युत्पत्ति यों है-जिसके राग, द्वेष, मोह एवं आश्रव भग्न-नष्ट हो गये हैं-वह भगवान् है ।'२ महावीर-यश और गुणों में महान् वीर होने से भगवान महावीर कहलाए। जो शूर-विक्रान्त होता है उसे वीर कहते हैं, कषायादि महान् शत्रुओं को जीतने से भगवान् महाविक्रांत-महावीर कहलाये ।१४ आचारांग मे कहा है-'भयंकर भय-भैरव तथा अचेलकता आदि कठिन तथा घोरातिघोर परीषहो को दृढ़तापूर्वक सहन करने के कारण देवों ने उनका नाम महावीर रखा।'५ ___ कल्पसूत्र के चूर्णिकार ने५६ और टिप्पणकार आचार्य पृथ्वीचन्द्र ने हस्तोत्तरा का अर्थ किया है “हस्त से उत्तर हस्तोत्तर है", अर्थात् उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र । नक्षत्रों की गणना करने से हस्त नक्षत्र जिसके उत्तर (पहले) आता है वह नक्षत्र, इसी नक्षत्र में भगवान महावीर के पाँच कल्याणक हुए। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका मल: तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भयवं महावीरे जे से गिम्हाणं चउत्थे मासे अहमे पक्खे आसाढसुद्धे तस्स णं आसाढसुद्धस्स छहीपक्खेणं महाविजयपुप्फुत्तरपवरपुंडरीयाओ महाविमाणाओ वीसं सागरोवमट्ठियाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता इहेव जम्बुद्दीवे दीवे भारहे वासे दाहिणद्धभरहे इमीसे ओसप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए विइक्कंताए सुसमाए समाए विइक्कंताए दुस्समसुसमाए समाए बहुविइक्कंताए सागरोवमकोडाकोडीए बायालीसवाससहस्सेहिं ऊणियाए पंचहत्तरीए वासेहिं अद्धनवमेहिं य मासेहिं सेसेहिं इक्कवीसाए तित्थयरेहिं इक्खागकुलसमुप्पन्नेहिं कासवगुत्त हिं दोहि य हरिवंसकुलसमुप्पन्नेहिं गोतमसगुत्तहिं तेवीसाए तित्थयरेहिं वीइक्कतेहिं समणे भगवं महावीरे चरिमे तित्थकरे पुव्वतित्थकरनिद्दिठे माहणकुण्डग्गामे नगरे उसभदत्तस्स माहणस्स कोडालसगुत्तस्स भारियाए देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगोत्ताए पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि हत्थुत्तराहिं नक्खतेणं जोगमुवागएणं आहारवक्कंतीए भववक्कंतीए सरीरवक्कंतीए कुच्छिसि गब्भत्ताए वक्कते ॥२॥ अर्थ-उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर ग्रीष्मकाल के चतुर्थमास और आठवें पक्ष अर्थात् आषाढ शुक्ल छ8 के दिन महाविजय पुष्पोत्तरप्रवर पुण्डरीक महाविमान से बीस सागरोपम की आयु, भव और स्थिति का क्षय करने के पश्चात् च्यवकर इसी जम्बूद्वीप के दक्षिणार्द्ध भरत में, इसी अवसर्पिणी काल में, जब सुषमासुषम, सुषम, सुषम-दुषम, नामक आरे Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यतीत हो चुके थे और दुषम-सुषम नामक आरा भी प्रायः समाप्त हो गया था, अर्थात् एक कोटाकोटी सागरोपम में बयालीस हजार वर्ष न्यून प्रमाणवाला दुषम सुषम-नामक आरे का बहुभाग व्यतीत हो गया था। केवल पचहत्तर (७५) वर्ष और साढ़े आठ माह शेष रह गये थे। इससे पूर्व ही इक्ष्वाकु कुल में जन्म ग्रहण किये हुए और काश्यपगोत्रीय इक्कीस तीर्थकर हो गये थे और हरिवंश कुल में जन्म पाये हुए गौतमगोत्र वाले दो तीर्थकर भी हो चुके थे। इस प्रकार तेवीस तीर्थकर हो चुकने पर 'श्रमण भगवान महावीर अन्तिम तीर्थंकर होंगे' इस प्रकार पूर्व-तीर्थंकरों द्वारा निर्दिष्ट भगवान महावीर माहणकुण्डग्राम नगर में कोडाल गोत्रीय ऋषभदत्त ब्राह्मण की पत्नी जालन्धर गोत्रीया देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में, अर्द्धरात्रि के समय, हस्तोत्तरा [ उत्तर-फाल्गुनी] नक्षत्र के योग में, देव सम्बन्धी आहार, भव और शरीर त्याग कर गर्भ रूप में उत्पन्न हुये। विवेचन-जैनागमों मे बीस कोटाकोटी सागरोपम परिमित समय को काल-चक्र कहा है। उसके दो विभाग हैं, अवसर्पिणी और उत्सपिणी । दस कोटाकोटी सागरोपम परिमित वह ह्रासकाल, जिसमें समस्त पदार्थो के वर्णादि गुणों की क्रमशः हानि होती है, अवसर्पिणी है और दस कोटाकोटी मागरोपम परिमित वह उत्क्रान्ति काल, जिसमें समस्त पदार्थों के वर्णादि गुणों की क्रमशः वृद्धि होती है, उमर्पिणी कहलाता है ।२० प्रत्येक काल-चक्रार्ध में छह-छह आरे होते हैं । २१ अवसपिणी काल के प्रथम आरे का नाम "सुषम-सुषम" है । यह चार कोटाकोटी सागरोपम प्रमाण हैं। उस समय हस्त-तल की भांति भूमि सम होती है। पंचवर्ण मणियों के समान सुन्दर तृणादि से युक्त पृथ्वी होती है। यत्र-तत्र उद्दाल, कोद्दाल, मोद्दाल, कृतमाल, नृतमाल, दंतमाल, नागमाल, श्रृंगमाल, शंखमाल और श्वेतमाल वृक्षों की छटादार छाया ही नहीं, अपितु उन वृक्षों में सुगन्धित पुष्प और मधुर फल लगे होते हैं। साथ ही भेरुतालवन, हेरुतालवन, मेरुतालवन, पमयालवन, सालवन, सरलवन, सप्तवर्णवन, पूगफलीवन, खजुरीवन, नारिकेलवन प्रभृति सघनवन२१ भी यत्र तत्र होते हैं। मानव, प्रकृति से सरल, मानस Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालचक २५ से कोमल और उपशान्त रागद्वेष वाले होते है। शरीर से सुन्दर एवं स्वस्थ होते हैं। उस समय मानव की उत्कृष्ट ऊंचाई तीन कोस की और उत्कृष्ट आयु तीनपल्योपम की होती है । ४ तीन दिन के पश्चात् उन्हे क्षुधा लगती हैं। तब वे अरहर की दाल के बराबर मात्रावाला अल्पतम भोजन करते हैं ।२५ दस प्रकार के कल्पवृक्षों से मनोवांछित सुखसाधनों की उपलब्धि होती है। इस युग में मानव सुखी ही नही, परमसुखी तथा सतुष्ट होता है। द्वितीय आरे का नाम 'सुषम' है। यह तीन कोटाकोटी सागरोपम प्रमाण होता है। पूर्वापेक्षया वर्ण, गंध, रस और स्पर्श की उत्कृष्टता का ह्रास हो जाता है। इस आरे के प्रारम्भ मे मानव की आयु दो पल्योपम की होती है और आरे के अन्त के ममय एक पल्योपम की। ऊँचाई भी प्रारम्भ में दो कोस की और अन्तिम समय एक कोस की। पूर्ववत् इनकी भी इच्छाएँ कल्पवृक्षों से पूर्ण होतो हैं : तृतीय आरे का नाम 'सुषम-दुषम' है। यह दो कोटाकोटी सागरोपम प्रमाण है। इस आरे के प्रारम्भ में मानव की ऊंचाई एक कोस की और उतरते आरे पाँच सौ धनुष्य की होती है। आयुष्य आदि में एक पल्योपम का और उतरते आरे करोड पूर्व का होता है। इस आरे के एक पल्योपम का आठवाँ भाग जब शेष रहता है तब प्रथमकुलकर का जन्म होता है और चौरासी लाख पूर्व, तीन वर्ष व साढ़े आठ माह शेष रहने पर प्रथम तीर्थंकर का जन्म होता है। चतुर्थ आरे का नाम 'दुषम-सुषम' है। यह बयालीस हजार वर्ष न्यून एक कोटाकोटी सागरोपम का होता है। प्रारम्भ में मानव की ऊँचाई पाँच सौ धनुष्य की और उतरते आरे सात हाथ की होती है। प्रारम्भ में करोड पूर्व की आयु और अन्त में सौ वर्ष से कुछ अधिक उम्र होती है। इस आरे में तेवीस तीर्थकर, ग्यारह चक्रवर्ती, नौ वासुदेव तथा बलदेव होते हैं ।२७ पंचम आरे का नाम 'दुषम' है। यह इक्कीस हजार वर्ष का होता है । इसमें मानव की आयु प्रारम्भ में एक सौ से कुछ अधिक वर्षों की होती है और Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ कल्प सूत्र अन्त में बीस वर्ष की । प्रारम्भ में सात हाथ की ऊँचाई होती है" और बाद धीरे धीरे कम होते हुए एक हाथ की रह जाती है । इस आरे में जन्म ग्रहण किया हुआ व्यक्ति मोक्ष नहीं पाता । मानव स्वभाव अमर्यादित व उच्छृङ्खल होता है । छट्ट आरे का नाम 'दुषम-दुषम' है । यह भी इक्कीस हजार वर्ष का होता है । इस आरे के प्रारम्भ में मानव की उत्कृष्ट आयु बीस वर्ष की और अन्तिम समय सोलह वर्ष की होती है । प्रारम्भ में एक हाथ की ऊँचाई और धीरे-धीरे मुण्ड हाथ की । इस आरे में पृथ्वी अङ्गारे के समान तप्त होती है । मानव कुरूप, निर्लज्ज, कपटो और अमर्यादित स्वभाव वाले होते हैं । वे बहत्तर प्रकार के बिलों में निवास करते हैं । इस प्रकार अवसर्पिणी काल के छह आरे समाप्त होने पर उत्सर्पिणी काल प्रारम्भ होता है । उसमें दुषम-दुषम, दुषम, दुषम- सुषम, सुषम-दुषम सुषम, और सुषम - सुषम आरे होते हैं । उत्सर्पिणी काल में क्रमश अधिकाधिक सुख आदि की अभिवृद्धि होती है । 1 0 प्रत्येक कालचक्रार्ध में चौबीस तीर्थकर होते है । भगवान् श्री महावीर के पूर्व तेबीस तीर्थकर हो चुके थे । उनमें से भगवान् श्रीमुनिसुव्रत और नेमिनाथ ये दो तीर्थंकर हरिवंश में उत्पन्न हुए थे और शेष, इक्कीस तीर्थकर काश्यप गोत्रीय (इक्ष्वाकुवंशीय ) थे ।" काश्य का अर्थ इक्षु-रम है, उसका पान करने के कारण भगवान् ऋषभ काश्यप कहलाये। भगवान् ऋषभदेव के गोत्र में उत्पन्न होने से अन्य तीर्थंकर भी काश्यप गोत्रीय कहलाये | 3 काश्य का दूसरा अर्थ क्षत्रियतेज है और उस क्षत्रिय तेज की रक्षा करने वाले को काश्यप कहा है । ३४ १२ 33 भगवान् श्री महावीर के लिए प्रस्तुत सूत्र में 'पूर्वनिर्दिष्ट ' विशेषण आया है । उसका तात्पर्य भगवान् श्री ऋषभदेव आदि पूर्ववर्ती तेवीस तीर्थंकरों की भविष्यवाणी से है । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगवान के पूर्वमव २७ - भगवान महावीर के पूर्वभव जैनधर्म अवतारवादो नहीं, किंतु उत्तारवादो है। उसक यहा सुनिश्चित मन्तव्य है कि कोई भी आत्मा या सत्पुरुष ईश्वर या ईश्वर का अंश नहीं होता। पूर्ण शुद्धस्थिति प्राप्त करने के पश्चात् पुनः अशुद्धस्थिति में नहीं आ सकता। अवतार का अर्थ है ईश्वरत्व से नीचे उतर कर मानव बनना। और उत्तार का अर्थ है मानव से भगवान् बनना । जैनधर्म के तीर्थकर नित्यबुद्ध व नित्यमुक्त रूप में रहने वाले ईश्वर नहीं हैं और न वे ईश्वर के अवतार या अंश ही है। उनकी जीवन गाथाओं से स्पष्ट है कि उनका जीवन भी प्रारम्भ में हमारी ही तरह राग-द्वेष आदि से कलुषित था । परन्तु संयमसाधना एवं तपः आराधना करके उन्होंने जीवन को निखारा था। एक जीवन की माधना से नही, अपितु अनेक जन्मों को माधना-आराधना से वे तीर्थकर बने। आवश्यकनियुक्ति, आवश्यकचूणि, त्रिषष्टि-शलाकापुरुषचरित्र, महावीरचरियं, और कल्पसूत्र की विभिन्न टीकाओं में महावीर के सत्ताईस पूर्व भवों का वर्णन है और दिगम्बराचार्य गुणभद्र रचित उत्तरपुराण में तेतीस भवों का निरूपण है । इसके अतिरिक्त नाम, स्थल तथा आयु आदि के सम्बन्ध मे भी दोनों परम्पराओं में अन्तर है३६ किंतु इतना तो स्पष्ट है कि उनका तीर्थकरत्व अनेक जन्मों की साधना का निश्चित परिणाम था । प्रश्न हो सकता है-सत्ताईस पूर्वभवों का ही निरूपण क्यों किया गया है ? उत्तर है-किसी भी जीव के भवभ्रमण की आदि नही है, अतएव पूर्वभवों की गणना करना भी सम्भव नहीं है, तथापि जिस पूर्वभव से मोक्षमार्ग की आराधना का आरम्भ होता है, उसी भव से पूर्वभवों की गणना की जाती है। इम दृष्टि से उमी भव एवं उसी जन्म का महत्व है जिस भव तथा जिस जन्म में मोक्षमार्ग के प्रथम चरण रूप सम्यग्दर्शन, अथवा सदबोधि की प्राप्ति होती है। महावीर के जीव ने नयमार के भव में ही सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन प्राप्त किया था, अतः उसी भव से उनके पूर्वभवों की परिगणना की गई है। यहाँ एक बात स्मरण रखना चाहिए कि सत्ताईस भवों की जो गणना है, वह भी क्रमबद्ध नहीं है। इन भवों के अतिरिक्त अनेक बार उन्होंने नरक, देव आदि के भव भी Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रहण किये हैं, पर, उन क्षुद्रभवों का नाम निर्देश नहीं है। वहाँ आचार्य "संसारे कियन्तमपि कालमटित्वा"3" अर्थात् कुछ काल पर्यन्त संसार-भ्रमण करके, ऐसा लिखकर आगे बढ़ गये हैं । सत्ताईस भवों की परिगणना के भी दो प्रकार ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं । आवश्यकनियुक्ति, चूणि, मलयगिरिवृत्ति, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, कल्पसूत्र की टीकाओं और पुरातत्त्ववेत्ता श्री कल्याणविजयजी के मन्तव्यानुसार सत्ताईसवाँ भव देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में जन्म होना है जब कि समवायाङ्ग सूत्र तथा उसकी वृत्ति के अनुसार छब्बीसवाँ भव देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में जन्म ग्रहण करने का है और सत्ताईसवाँ भव त्रिशलारानी के गर्भ में आने का । श्री महावीर के उन भवों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है(१) नयसार अपरमहाविदेह के महावप्र विजयक्षेत्र की जयन्ती नगरो के शत्रुमर्दन नामक सम्राट थे ।“ प्रस्तुत प्रान्त के पुरप्रतिष्ठान ग्राम में भगवान् महावीर का जीव उस समय नयसार नामक ग्रामचिन्तक बना।३९ सम्राट को नव्य-भव्य प्रासाद हेतु काष्ठ की आवश्यकता हुई।० सम्राट के आदेशानुमार नयमार अनेक गाड़ियों को लेकर अरण्य में पहुँचा। भोजन तैयार करके जीमने को बैठने का विचार कर ही रहा था कि सार्थ (समूह) से परिभ्रष्ट और मार्गविस्मृत, क्षुधा और पिपासा से पीडित तपस्वी मुनि उधर निकल आये। नयसार के पूछने पर उत्तर देते हुए मुनियों ने कहा-"भद्र ! हमने सार्थवाह के साथ प्रस्थान किया था, सार्थवाह ने विश्राम लिया और हम निकटस्थ ग्राम में भिक्षा हेतु गये । पुनः अपने विश्राम स्थल पर गये तो देखा कि-सार्थवाह पूर्व ही प्रस्थान कर गया था, अब हम मार्ग भूलकर जंगल में इधर उधर घूम रहें हैं।" नयसार ने भक्ति-भावना से विभोर होकर वह निर्दोष आहार मुनिजनों को प्रदान किया, मार्ग बताया, मुनियों ने भी उपदेश देकर उसे मोक्ष का मार्ग बतलाया। नयसार सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ.२ और परित-संसारी (अल्पसंसारो) बना। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान के पूर्वमय २६ (२) प्रथम देवलोक नयसार वहां से आयु पूर्णकर सौधर्मकल्प में एक पल्योपम की स्थिति वाला महर्दिक देव बना। (३) मरीचि [त्रिदण्डी] नयसार का जीव स्वर्ग से आयु पूर्ण होने पर तृतीय भव में चक्रवर्ती सम्राट् भरत का पुत्र मरीचि के रूप में उत्पन्न हुआ। वहां भगवान् श्री ऋषभदेव के प्रथम प्रवचन को श्रवण कर श्रमणत्व स्वीकार किया।" पर एक बार भीष्म-ग्रीष्म के आतप से प्रताडित होकर मरीचि साधना के कठोर कंटकाकोर्ण महामार्ग से विचलित हो गया। उसके अन्तर्मानस में ये विचार लहरियाँ तरगित हुई कि “मेरु पर्वत सदृश यह संयम का गुरुतर भार मैं एक मुहूर्त भी सहन करने में असमर्थ हूँ। क्या मुझे पुनः गृहस्थाश्रम स्वीकार करना चाहिए ? नहीं, कदापि नहीं। किन्तु जबकि संयम का विशुद्धता से पालन नही कर पाता, तब फिर श्रमण वेष को छोड़कर नवीन वेष-भूषा अपनाना ही उचित है।"४ उसने सकल्प किया-"श्रमण संस्कृति के श्रमण त्रिदण्ड-मन,वचन काय के अशुभ व्यापारों से रहित होते हैं, इन्द्रिय-विजेताहोते हैं, पर मैं त्रिदण्ड से युक्त हूँ और अजितेन्द्रिय हूँ अतः इसके प्रतीक रूप में त्रिदण्ड धारण करूंगा।"४७ "श्रमण द्रव्य और भाव से मुण्डित होते हैं, सर्वप्राणातिपातविरमण महाव्रत के धारक होते है, पर मैं शिखा सहित हूँ, क्षुरमुडन कराऊंगा और स्थूल प्राणातिपात का विरमण करूँगा।" श्रमण अकिंचन तथा शील की सौरभ से सुरभित होते हैं, पर मैं वैसा नहीं हूँ, मैं सपरिग्रह रहकर शील की सौरभ के अभाव में चन्दनादि की सुगन्ध से सुगन्धित रहूँगा।"४९ "श्रमण निर्मोही होते हैं, पर मैं मोह-ममता के मरुस्थल में घूम रहा हैं। इसके प्रतीक रूप मैं छत्र धारण करूँगा । श्रमण नंगे पैर होते हैं पर मैं उपानह (काष्ट पादुका) पहनूगा।"५० Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० "श्रमण जो स्थविरकल्पी हैं, वे श्वेतवस्त्र धारण करते हैं और जिनकल्पी निर्वस्त्र होते हैं, पर, मैं कषाय से कलुषित हूँ अतः उसके प्रतीक स्वरूप काषायवस्त्र धारण करूंगा।'५१ "श्रमण पाप भीरु और बहुत जीवों की घात करने वाले आरम्भ-परिग्रह से मुक्त होते है । सचित्त जल का प्रयोग नहीं करते। पर मैं वैसा नही कर पाता अतः परिमित जल, स्नान और पीने के लिए ग्रहण करूँगा।"५२ ।। , इस प्रकार मरीचि ने अपनी नवीन परिकल्पना से परिव्राजक-परिधान एवं मर्यादा का निर्माण किया । और भगवान् के साथ ही ग्राम, नगर आदि में विचरने लगा । ५४ भगवान् के श्रमणों से मरीचि की पृथक् वेष-भूषा को देख कर जन-जन के मानस में कुतूहल उत्पन्न होता। जिज्ञासु बनकर वे उसके पास पहुँचते ।५५ मरीचि प्रतिबोध देकर उन्हें भगवान् का शिष्य बनाता ।"५६ एक समय सम्राट भरत ने भगवान् श्री ऋषभ देव से जिज्ञासा की-"प्रभो! क्या इस परिषद् में कोई व्यक्ति ऐसा है जो आपके सदृश ही भरत क्षेत्र में तीर्थ कर बनेगा ?"५७ जिज्ञासा का समाधान करते हुए भगवान ने कहा- 'स्वाध्याय ध्यान से आत्मा को ध्याता हुआ तुम्हारा पुत्र मरीचि परिव्राजक भविष्य मे वर्धमान (महावीर) नामक अन्तिम तीर्थकर होगा। इससे पूर्व वह पोतनपुर का अधिपति त्रिपृष्ट वासुदेव बनेगा और विदेहक्षेत्र की मूकानगरी मे तुम्हारे जैसा ही प्रियमित्र नामक चक्रवर्ती बनेगा।८ इस प्रकार तीन विशिष्ट उपाधियों को वह अकेला ही प्राप्त करेगा।" भगवान् की भविष्यवाणी को श्रवण कर सम्राट भरत भगवान् को वन्दन कर मरीचि परिव्राजक के पास पहुँचे और भगवान् की भविष्यवाणी सुनाते हुए बोले-“हे मरीचि [त्रिदण्डी] परिव्राजक! तुम अन्तिम तीर्थंकर बनोगे, अत मैं तुम्हारा अभिनन्दन करता हूँ। ५९ साथ ही वासुदेव व चक्रवर्ती भी होओगे।" यह सुनकर मरीचि की हत्तत्री के सुकुमार तार झनझना उठे । “मैं वासुदेव बनूगा, मैं चक्रवर्ती पद प्राप्त करूँगा और तीर्थकर होऊँगा ! • मेरे पिता चक्रवर्ती हैं, मेरे पितामह तीर्थंकर है और मैं अकेला ही तीन पदवियों को धारण करूँगा,' मेरा कुल कितना महान है, कितना उत्तम है ?" यों कहता हुआ मारे खुशी के वह बाँसो उछलने लगा। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान के पूर्वमव एक दिन मरीचि का स्वास्थ्य बिगड गया। कोई उसकी सेवा करने वाला था नहीं, सेवा करने वाले के अभाव में क्षुब्ध होकर मरीचि के मानस में ये विचार उठे कि "मैंने अनेकों को उपदेश देकर भगवान् का शिष्य बनाया, पर, आज मैं स्वयं सेवा करने वाले शिष्य से वंचित हूँ, स्वस्थ होने पर मैं स्वयं अपना शिष्य बनाउंगा।"६२ वह स्वस्थ हुआ। राजकुमार कपिल धर्म की जिज्ञासा से उसके पास आया । उमने आहती दीक्षा की प्रेरणा दी। कपिल ने प्रश्न किया-"आप स्वयं आहत धर्म का पालन क्यों नहीं करते ?' उत्तर में मरीचि ने कहा-“मैं उसे पालन करने में असमर्थ हूँ।" कपिल ने पुन. प्रश्न किया-"क्या आप जिस मार्ग का अनुसरण कर रहे है, उसमें धर्म नही हैं" इस प्रश्न ने मरीचि के मानम मे आत्मसम्मान का संघर्ष पैदा करदिया और कुछ क्षण रुककर उसने कहा-“यहां पर भी वही है जो जिनधर्म में है।"६३ कपिल मरीचि का शिष्य बना और मिथ्यामत की संस्थापना की, जिसके कारण वह बहु-संसारी बना और कोटाकोटी सागरोपम प्रमाण संसार भ्रमण करना पहा । " कृत-दोषों की आलोचना किए बिना ही उसने आयुपूर्ण किया। (४) ब्रह्मदेवलोक चौरामी लक्षपूर्व की आयु पूर्ण कर मरीचि का जीव ब्रह्मदेव लोक में दस सागर की स्थिति वाला देव हुआ।१५ (५) कौशिक वहाँ से च्यवकर कोल्लाकसन्निवेश में अस्सी लाख पूर्व की आयु वाले कौशिक ब्राह्मण के रूप में जन्म लिया। (६) पुष्पमित्र कौशिक का आयु पूर्ण करके वह स्थूणा नगरी में पुष्पमित्र नामका ब्राह्मण हुआ। उसकी बहत्तर लाख पूर्व की आयु थी। अन्त समय में त्रिदण्डी परिव्राजक बना। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ (७) सौधर्म देवलोक वहाँ से आयु पूर्णकर सौधर्मकल्प में मध्यमस्थिति वाला देव बना । (८) अग्निद्योत कल्प वहाँ से च्यवकर वह चैत्यसन्निवेश में अग्निद्योत नामक ब्राह्मण हुआ । उसकी आयु चौसठ लाख पूर्व की थी । अन्त में त्रिदण्डी परिव्राजक हुआ । (e) ईशान देवलोक वहां से आयु पूर्णकर ईशान देवलोक में मध्यमस्थिति वाला देव बना । (१०) अग्निभूति तत्पश्चात् मन्दिर नामक सन्निवेश में अग्निभूति नामक ब्राह्मण के रूप में जन्म लिया । उसकी आयु छप्पनलाख पूर्व की थी। जीवन की सांध्यवेला में वहां भी वह त्रिदण्डी परिव्राजक बना । (११) सनत्कुमार देवलोक वहाँ से आयु पूर्ण कर सनत्कुमारकल्प में मध्यमस्थिति वाला देव हुआ । (१२) भारद्वाज सनत्कुमारकल्प से आयुपूर्ण कर श्वेताम्बिका नगरी में भारद्वाज नाम का ब्राह्मण हुआ । उसकी आयु चवालीस लक्ष पूर्व की थी । अन्तिम समय में त्रिदण्डी परिव्राजक बना । (१३) माहेन्द्र देवलोक ६८ वहां से आयु पूर्णकर वह माहेन्द्रकल्प में मध्यम स्थिति वाला देव बना ।' (१४) स्थावर ब्राह्मण देवलोक से व्यवकर और कितने ही काल तक संसार में परिभ्रमण कर, वह राजगृह नगर में स्थावर नामक ब्राह्मण हुआ। वहां पर उसकी आयु चौतीस लक्ष पूर्व की हुई । जीवन के प्रान्त भाग में त्रिदण्डी परिव्राजक बना । (१५) ब्रह्म देवलोक पन्द्रहवें भाव में वह ब्रह्म देवलोक में मध्यमस्थिति वाला देव हुआ । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान के पूर्वभव ३३ (१६) विश्वभूति देवलोक की आयु पूर्ण होने पर लम्बे समय तक संसार में परिभ्रमण करने के पश्चात् वह राजगृह नगर में विश्वनन्दी राजा के भ्राता तथा युवराज विशाखभूति का पुत्र विश्वभूति हुआ । राजा विश्वनन्दी के पुत्र का नाम विशाखनन्दी था । एक समय विश्वभूति पुष्प करंडक उद्यान में अपनी पत्नियों के साथ उन्मुक्त-क्रीडा कर रहा था। महारानी की दासियां उस उद्यान में पुष्प आदि लेने के लिए आयी, उन्होंने विश्वभूति को यों सुख के सागर में तैरता हुआ देखा तो ईर्ष्या से उनका मुख म्लान हो गया, उन्होंने राजरानी से कहा"महारानीजी ! सच्चा सुख तो विश्व भूति कुमार भोगता है। विशाखनन्दी को राजकुमार होने पर भी विश्वभूति की तरह सुख कहां है ? कहलाने को आप भले ही अपना राज्य कहें, पर सच्चा राज्य तो विश्वभूति का है।" दासियों के कथन से रानी के हृदय में ईर्ष्याग्नि भड़क उठी। वह आपे से बाहर हो गई। राजा ने उसको शान्त करने का प्रयास किया, पर वह कड़क कर बोली-"जब आपके रहते यह स्थिति है तो बाद में क्या होगा ?" राजा ने समझाया-"यह हमारी कुल-मर्यादा के प्रतिकूल है, जब तक प्रथम पुरुष अन्तःपुर सहित उद्यान में है तब तक द्वितीय पुरुष उसमें प्रवेश नही कर सकता।" अन्त में अमात्य ने प्रस्तुत समस्या को सुलझाने के लिए अज्ञात मनुष्यों के हाथ राजा के पास कृत्रिम लेख पहुँचाया । लेख पढ़ते ही राजा ने युद्ध की उद्घोषणा की। रणभेरी बज गई । वह यात्रा के लिए प्रस्थान करने लगा। विश्वभूति को यह सूचना मिलते ही वह उद्यान से निकलकर राजा के पास पहुँचा । राजा को रोककर स्वयं युद्ध के लिए चल दिया। युद्ध के मैदान में किसी भी शत्रु को न देखकर वह पुनः दलबल सहित लौट आया। इधर विश्वभूति के जाने के पश्चात् राजकुमार विशाखनन्दी ने अन्तःपुर सहित उद्यान में अपना डेरा डाल दिया। विश्वभूति उद्यान में प्रवेश करने लगा तो दण्डधारी द्वारपालों ने रोक दिया। कहा-अन्दर सपत्नीक विशाख Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र ३४ नन्दी राजकुमार हैं । यह सुनकर विश्वभूति को सारे रहस्य का परिज्ञान हो गया कि युद्ध के बहाने मुझे यहां से निकाला गया है। उसने कुपित होकर वहीं पर कपित्थ ( कैथ) के वृक्ष पर एक जोरदार प्रहार किया, जिससे सारे कपित्थ के फल भूमि पर गिर पड़े। उसने द्वारपालों को ललकारते हुए कहा" इसी प्रकार मैं तुम्हारे सिर को नष्ट कर सकता हूँ, पर राजा के गौरव की रक्षा के लिए ऐसा नहीं करता । मुझसे मांगकर यह उद्यान लिया जा सकता था । परन्तु इस प्रकार छल-छद्म करना अनुचित है ।" विश्वभूति को इस अपमान से बड़ा आघात लगा । संसार से विरक्ति हो गई । उसने आर्य संभूति स्थविर के पास संयम ग्रहण कर लिया । उत्कृष्ट तप से आत्मा को भावित करते हुए अनेक लब्धियाँ प्राप्त की । १७ ६८ एक समय विहार करते हुए विश्वभूति अनगार मथुरा नगरी में आये । इधर विशाखनन्दी कुमार भी वहाँ की राजकन्या से विवाह करने बहाँ आया और मुख्य मार्ग पर स्थित राजप्रासाद में ठहरा। विश्वभूति अनगार मासिकव्रत के पारणा हेतु घूमते हुए उधर निकल आये । विशाखनन्दी के अनुचरों ने मुनि को पहचान कर उसे संवाद सुनाया। मुनि को देखते ही उसके अन्तमनस में क्रोध की आँधी उठी। सरोष नेत्रों से वह मुनि को देख ही रहा था कि सद्यःप्रसूता गाय की टक्कर से विश्वभूति अनगार पृथ्वी पर गिर पडे । गिरे हुए मुनि का उपहास करते हुए, विशाखनन्दी कुमार ने कहा- "तुम्हारा वह पराक्रम, जो कपित्थ को तोड़ते समय देखा था, आज कहाँ गायब हो गया है ?" और वह खिलखिला कर हँस पड़ा ।" विश्वभूति अनगार ने भी आवेश में आकर गाय के श्रृङ्गों को पकड़ कर, चक्र की तरह घुमाकर आकाश में उछाल दिया और कहा - "क्या दुर्बल सिंह शृगाल से भी गया गुजरा होता है ? यह दुरात्मा आज भी मेरे प्रति दुर्भावना रखता है ? यदि मेरे तप-जप व ब्रह्मचर्य का फल हो तो आगामी भव में अपरिमित बल वाला बनु । ७० इस प्रकार निदान कर इस दोष की आलोचना किये बिना ही उन्होंने आयु पूर्ण की। (१७) महाशुक्र देवलोक वहाँ से आयुपूर्णकर महाशुक्र कल्प में उत्कृष्ट स्थिति वाला देव हुआ । " Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान के पूर्व भव (१८) त्रिपृष्ठ देवलोक की आयु पूर्ण होने पर वह पोतनपुर नगर में प्रजापति राजा की महारानी मृगावती की कुक्षि में उत्पन्न हुआ । १२ माता ने सात स्वप्न देखे । जन्म होने पर पुत्र के पृष्ठ भाग में तीन पसलिएँ होने के कारण उसका "त्रिपृष्ठ " नाम रखा । यौवनावस्था प्राप्त की । ३५ राजा प्रजापति प्रतिवासुदेव अश्वग्रीव के माण्डलिक थे । एक बार प्रतिवासुदेव ने निमित्तज्ञ से यह जिज्ञासा प्रस्तुत की कि मेरी मृत्यु कैसे होगी ? निमित्तज्ञ ने बताया कि " जो आपके चण्डमेघ दूत को पीटेगा, तुङ्गगिरि पर रहे हुए केसरी सिंह को मारेगा उसके हाथ से आपकी मृत्यु होगी ।" यह सुनकर अश्वग्रीव भयभीत हुआ । उसने सुना - प्रजापति राजा के पुत्र बड़े ही बलवान् है | परीक्षा करने चण्डमेघ दूत को वहाँ प्रेषित किया । राजा प्रजापति अपने पुत्र तथा सभासदों के साथ राजसभा में बैठा था । संगीत की भंकार से राजसभा झंकृत हो रही थी । सभी तन्मय होकर नृत्य और संगीत का आनन्द लूट रहे थे । ठीक उसी समय अभिमानी दूत ने विना पूर्व सूचना दिये ही राजसभा में प्रवेश किया। राजा ने संभ्रान्त हो दूत का स्वागत किया । संगीत और नृत्य का कार्य स्थगित कर उसका सन्देश सुना । त्रिपृष्ठ को रंग में भंग करने वाले दूत की उद्दण्डता अखरी । उन्होंने अपने अनुचरों को यह आदेश दिया कि जब यह दूत यहाँ से रवाना हो तब हमें सूचित करना । राजा ने सत्कारपूर्वक दूत को विदा किया। इधर दोनों राजकुमारों को सूचना मिली । वे जंगल में दूत को पकड़ कर बुरी तरह पीटने लगे । दूत जो भी साथी - सहायक थे वे सभी भाग छूटे, दूत की खूब पिटाई हुई । जब प्रजापति को यह वृत्तान्त ज्ञात हुआ तो वे चिन्तातुर हो गए । दूत को पुनः अपने पास बुलाकर अत्यधिक पारितोषिक प्रदान किया और कहा कि"पुत्रों की यह भूल अश्वग्रीव से न कहना ।" दूत ने स्वीकार कर लिया, पर, उसके साथी जो पहले पहुँच चुके थे, उन्होंने सारा वृतान्त अश्वग्रीव को बता Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पसूत्र ३६ दिया था । अश्वग्रीव अत्यधिक क्रुद्ध हुआ । दोनों राजकुमारों को मरवाने का उसने निश्चय किया । अश्वग्रीव ने तुङ्गग्रीव क्षेत्र में शालिधान्य की खेती करवायी, और कुछ समय के बाद प्रजापति के पास दूत भेजा । दूत ने आदेश सुनाया कि “शालि के खेतों में एक क्रूर सिंह ने उपद्रव मचा रखा है, वहाँ रखवाली करने वालों को उसने मार डाला, पूरा क्षेत्र भयग्रस्त है, अतः आप जाकर सिंह से शालिक्षेत्र की रक्षा कीजिए ।" प्रजापति ने पुत्रों से कहा - " तुमने दूत के साथ जो व्यवहार किया उसीके फलस्वरूप वारी न होने पर भी यह आज्ञा आई है । " प्रजापति स्वयं शालिक्षेत्र की ओर प्रस्थान करने लगा । पुत्रों ने प्रार्थना की - 'पिताजी ! आप ठहरिये ! हम जायेंगे ।' वे गये, और वहाँ जाकर खेत के रक्षकों से पूछा- अन्य राजा यहाँ पर किस प्रकार और कितना समय रहते हैं ? उन्होंने निवेदन किया- "जब तक शालि - (धान्य) पक नही जाता है, तब तक चतुरंगिनी सेना का घेरा डालकर यहां रहते हैं और सिंहसे रक्षा करते हैं । ७४ त्रिपृष्ठ ने कहा- मुझे वह स्थान बताओ जहाँ वह नवहत्था केसरीसिंह रहता है । रथारूढ होकर सशस्त्र त्रिपृष्ठ वहाँ पहुँचा । सिंह को ललकारा । सिंह भी अंगड़ाई लेकर उठा और मेघ - गम्भीर-गर्जना से पर्वत की चोटियों को कंपाता हुआ बाहर निकल आया त्रिपृष्ठ ने सोचा "यह पैदल है और हम रथारूढ़ हैं । यह शस्त्र रहित है और हम शस्त्रों से सज्जित हैं। इस प्रकार की स्थिति में आक्रमण करना उचित नहीं ।" ऐसा विचार कर वह रथ से नीचे उतर गया, और शस्त्र भी फेंक दिए । ७५ । सिंह ने सोचा " यह वज्र - मूर्ख है । प्रथम तो एकाकी मेरी गुफा पर आया है, दूसरे रथ से भी उतर गया है, तीसरे शस्त्र भी डाल दिये हैं । अब एक झपाटे में ही इसे चीर डालू ।” ऐसा सोचकर वह त्रिपृष्ठ पर टूट पड़ा । त्रिपृष्ठ ने भी उछलकर पूरी शक्ति के साथ ( पूर्वकृत निदान के अनुसार ) उसके जबड़ों को पकड़ा और पुराने वस्त्र की तरह उसे चीर डाला । यह देख दर्शक आनन्द विभोर हो उठे। सिंह विशाखनन्दी का जीव था । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान के पूर्व मन त्रिपृष्ठ सिंह-चर्म लेकर अपने नगर आया । आने के पूर्व उसने कृषकों से कहा - 'घोटकग्रीव से कह देना कि वह अब निश्चिन्त रहे ।' जब उसने यह बात सुनी तो वह अधिक क्रुद्ध हुआ । अश्वग्रोव ने दोनों राजकुमारों को बुलवाया । वे जब न गये तब अश्वग्रोव ने ससैन्य पोतनपुर पर चढाई करदी । त्रिपृष्ठ भी अपनी सेना के साथ देश की सीमा पर आ गया । भयंकर युद्ध हुआ । त्रिपृष्ठ को यह संहार अच्छा न लगा । उसने अश्वग्रीव से कहा - ' निरपराध सैनिकों को मारने से लाभ क्या है ? अच्छा हो, हम दोनों ही युद्ध करें ।' अश्वग्रीव ने प्रस्ताव स्वीकार किया। दोनों में तुमुल युद्ध हुआ । अश्वग्रीव के सभी शस्त्र समाप्त हो गये । उसने चक्र रत्न फेंका । त्रिपृष्ठ ने उसे पकड़ लिया और उसी से अपने शत्रु के सिर का छेदन कर डाला । तभी दिव्यवाणी से नभोमण्डल गूँज उठा--" त्रिपृष्ठ नामक प्रथम वासुदेव प्रकट हो गया । "७: ३७ । एक बार संध्या की सुहावनी वेला थी । सूर्य अस्ताचल की ओर पहुँच गया था । उस समय त्रिपृष्ठ वासुदेव के पास कुछ संगीतज्ञ आये । उन्होंने संगीत की सुमधुर स्वरलहरी से वातावरण को मुखरित कर दिया । निद्रा आने का समय होने पर वासुदेव ने शय्यापालकों से कहा- जब मुझे निद्रा आ जाय उस समय तुम गायकों को रोक देना । शय्यापालकों ने 'तथास्तु' कहा । कुछ ही समय में सम्राट् निद्राधीन हो गये शय्यापालक संगीत पर इतना अधिक मुग्ध हो गया कि संगीतज्ञों को उसने विसर्जित नहीं किया। रात भर संगीत चलता रहा । ऊषा की सुनहरी किरणें मुस्कराने वाली थी कि सम्राट् की निद्रा टूटी । सम्राट् ने पूर्ववत् ही संगीत चालू देखा । शय्यापालक से पूछाइन्हें विसर्जित क्यों नही किया ? उसने नम्र निवेदन किया- 'देव ! श्रवण के सुख में अनुरक्त हो जाने से इनको नहीं रोका। यह सुन त्रिपृष्ठ को क्रोध भडक आया । अपने सेवकों को बुलाकर कहा - " - " आज्ञा की अवहेलना करने वाले एवं संगीत लोभी इस शय्यापालक के कर्ण-कुहरों में गर्मागर्म शीशा उड़ेल दो ।" सम्राट् की कठोर आज्ञा से शय्यापालक के कानों में शीशा उंड़ेला गया । भयंकर वेदना से छटपटाते हुए उसने प्राण त्याग दिये ।" त्रिपृष्ठ ने सत्ता के मद में उन्मत्त बनकर इस क्रूरकृत्य के कारण निकाचित कर्मों का '७७ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ कल्प सूत्र बन्धन किया। महारंभ और महापरिग्रह में मशगूल बनकर चौरासी लाख वर्ष तक राज्य श्री का उपभोग करता रहा । (१६) सातवीं नरक त्रिपृष्ठ वासुदेव आयु पूर्णकर सातवें तमस्तमा नरक के अप्रतिष्ठान नारकावास में नरयिक रूप में उत्पन्न हुआ। ८० (२०) सिंह वहां से निकलकर वह केसरीसिंह बना। (२१) चतुर्थ नरक वहां से आयु पूर्णकर वह चतुर्थ नरक में गया ।' नरक से निकलने के पश्चात् उसने अनेक भव तिर्यञ्च और मनुष्य के किये । २ आवश्यक नियुक्ति, आवश्यक मलयगिरिवृत्ति, त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र और "श्रमण भगवान् महावीर" में बावीसवां भव मानव का लिखा है। पर उसके नाम, आयुष्य आदि का उल्लेख नहीं है और न यह उल्लेख ही है कि चक्रवर्ती के योग्य पुण्य उपार्जन किन शुभ कृत्यों से किया था। समवायाङ्ग सूत्र में और उसकी वृत्ति में महावीर के प्रथम छह भव दिये है। बावीसवां भव मानव का मानने पर, समवायाङ्ग का क्रम नही बैठता है। अतः हमने यहां बावीसवां भव मानव का नही लिखा है। (२२) प्रियमित्र चक्रवर्ती वहां से वह आयु समाप्त कर महाविदेह क्षेत्र की मूका नगरी में धनजय राजा की धारणी रानी से प्रियमित्र चक्रवर्ती हुआ। 3 पोट्टिलाचार्य के पावन प्रवचन रूपी पीयूष का पान कर मन में वैराग्य की ज्योति प्रज्ज्वलित हुई । दीक्षा ग्रहण की । एक करोड़ वर्ष तक संयम की कठोर साधना की ।" समवायाङ्ग सूत्र में श्रमण भगवान् श्री महावीर ने तीर्थंकर के भवग्रहण से पूर्व छट्ठा पोट्टिल का भव ग्रहण किया और एक करोड़ वर्ष तक श्रमण पर्याय का पालन किया । ८५ नवाङ्गी टीकाकार आचार्य अभयदेव ने प्रस्तुत Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाले भगवान के पूर्वमय सूत्र पर टीका करते हुए भगवान् पोट्टिल नामक राजपुत्र हुए लिखा है । भगवान् के जीव ने दो बार पोट्टिलाचाय के पास प्रव्रज्या ग्रहण की, पर स्वयं का नाम पोट्टिल था, यह समवायाङ्ग के अतिरिक्त आवश्यक नियुक्ति, चूर्णि आदि में नही मिलता । संभव है कि पोट्टिलाचार्य के पास प्रव्रज्या ग्रहण करने के कारण प्रियमित्र चक्रवर्ती ही पोट्टिल कहे गये हों। या प्रियमित्र का ही अपर नाम पोटिल हो, पर गुरु शिष्य का एक नाम होने से भ्रम न हो जाय, इस दृष्टि से नियुक्तिकार आदि ने यह नाम न दिया हो। हमारी दृष्टि से प्रियमित्र ही पोटिल होना चाहिए, क्योंकि वे ही छ? भव में आते हैं । और प्रियमित्र व पोट्टिल दोनों की श्रमण-पर्याय एक वर्षकोटि की है, जो यह सिद्ध करती है कि वे दोनों पृथक्-पृथक् नही थे। (२३) महाशुक्र __ वहां से आयु पूर्णकर वह महाशुक्र कल्प के सर्वार्थ विमान में समुत्पन्न हुए । समवायाङ्ग में महाशुक्र के स्थान पर सहस्रार कल्प के सर्वार्थविमान का उल्लेख है । आचार्य अभयदेव ने नाम निर्देश नहीं किया हैं। उत्तरपुराणकार ने भी समवायाङ्ग की तरह ही सहस्रारकल्प का निर्देश किया है। नियुक्तिकार ने महाशुक्र का नाम न देकर "सव्व?" ही लिखा है।" आचार्य जिनदास महत्तर व आचार्य मलयगिरि ने महाशुक्रकल्प का अर्थ सर्वार्थविमान किया है । सतरह सागरोपम तक वहाँ देव सम्बन्धी सुखों का उपभोग करते रहे। (२४) नन्दन वहाँ से च्यवकर भरत क्षेत्र की छत्रानगरी में जितशत्रु सम्राट की भद्रा महारानी की कुक्षि में उत्पन्न हुए। नन्दन नाम रखा गया।९२ पच्चीस लक्ष वर्ष की उम्र हुई। चौबीस लक्ष वर्ष तक गृहवास में रहे एक लक्ष वर्ष अवशेष रहने पर पोट्टिलाचार्य के पाम संयम ग्रहण किया।९४ एक लाख वर्ष तक निरन्तर मास खमण की तपस्या की ।१५ ग्यारह लाख साठ हजार मास खमण हुए, और तीन हजार तीन सौ तेतीस वर्ष तीन मास उनतीस दिन Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम सूत्र पारणा के हुए । बीस स्थानकों की आराधना करके तीर्थकर नामकर्म उपार्जित किया और अन्त में मासिक संलेखना करके आयु पूर्ण किया। (२५) प्राणत देवलोक वहाँ से आयु पूर्ण होने पर वह प्राणत देवलोक के पुष्पोत्तरावतंसक विमान में बीस सागर की स्थिति वाले देव हुए । (२६) देवानन्दा के गर्भ में स्वर्ग से च्यवन कर वह ब्राह्मण कुण्ड-ग्राम में कोडालसगोत्रीय सोमिल नामक ब्राह्मण की पत्नी देवानन्दा के गर्भ में पुत्र रूप में उत्पन्न हुए ।“ मरीचि के भव में जाति व कुल की श्रेष्ठता के दर्प के सर्प ने जो डसा था, उसका विष अभी तक उतरा नहीं था, उसी के फलस्वरूप यहाँ देवानन्दा के गर्भ में आना पड़ा । और बयासी रात्रि तक उस गर्भ में रहें। (२७) वर्धमान महावीर तिरासीवीं रात्रि को शक्रेन्द्र की आज्ञा से हरिणगमेषी देव ने उनको सिद्धार्थ राजा की रानी त्रिशला क्षत्रियाणी के उदर में प्रस्थापित किया और वहीं जन्म लेकर वर्धमान महावीर के नाम से प्रसिद्ध हुए । - गर्भ संहरण उपर्युक्त सत्ताईस भवों के निरूपण का सारांश यह है कि प्रथम तीर्थंकर ऋषभ देव ने अनेक भवों पूर्व मरीचि तापस को लक्ष्य करके जो कहा था-'यह अन्तिम तीर्थंकर महावीर होगा।' वही मरीचि का जीव छब्बीसवें भव में देवा नन्दा के गर्भ में आया और वहाँ से संहरित होकर त्रिशला रानी के गर्भ से वर्धमान के रूप में अवतरित हुआ। मूल समणे भयवं महावीरे तिण्णाणोवगए आवि होत्था-चईस्सामि त्ति जाणइ, चयमाणे न जाणइ, चुए मित्ति जाणइ ॥३॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भ संहरण अर्थ-श्रमण भगवान महावीर तीन ज्ञान [मति, श्रुत और अवधि से युक्त थे । 'मैं देव भव से चऊँगा' ऐसा वे जानते थे, 'वर्तमान में च्यवमान हूँ' यह नहीं जानते थे, और 'देव भव से च्यव गया हूँ' ऐसा वे जानते थे। विवेचन-जो देव भावी जन्म में तीर्थकर बनने वाले होते हैं वे तीर्थङ्करत्व के वैशिष्ट्य के कारण जीवन के अन्तिम समय तक भी अधिक कान्तिमान और प्रसन्न रहते हैं, पर अन्य देव छह माह पूर्व से ही च्यवन के भय से भयभीत बन जाते हैं । मुरझाये हुए फूल की तरह म्लान हो जाते हैं । ९५ सूत्र में "चयमाणे न जाणइ" जो पाठ आया है इसके रहस्य का उद्घाटन करते हुए-चूर्णिकार और टिप्पणकार ने कहा है कि-एक समय में उपयोग नही लगता। छद्मस्थ जीवों का उपयोग अन्तरमुहूर्त का होता है। किन्तु च्यवनकाल एक समय का ही होता है। अतः च्यवन काल के अत्यंत सूक्ष्म समय को छद्मस्थ जीव च्यवन कर रहा हूँ, ऐसा नहीं जान पाते। तीन ज्ञान होने से मैं च्यवगया हूँ यह जानते हैं ।'' -. देवानंदा के गर्भ में मल: जं रयणि च णं समणे भगवं महावीरे देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगोत्ताए कुच्छिसि गब्भत्ताए वक्कते तं रयणि च णं सा देवाणंदा माहणी सयणिज्जंसि सुत्तजागरा ओहीरमाणी ओहीरमाणी इमेयारूवे ओराले कल्लाणे सिवे धन्न मंगल्ले सस्सिरीए चोइस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा ॥४॥ अर्थ-जिस रात्रि में श्रमण भगवान महावीर जालंधर गोत्रीया देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में गर्भ रूप में अवतरित हुए, उस रात्रि को देवानन्दा ब्राह्मणी अर्धनिद्रावस्था में थी। उस समय उसने उदार, कल्याण, शिव, धन्य व मंगलरूप तथा सोभा युक्त चौदह महास्वप्न देखे और फिर जागी। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र विवेचन-निद्रा दर्शनावरणीय कर्म का उदय है। उसके पांच भेद हैं(१) निद्रा, (२) निद्रा-निद्रा, (३) प्रचला, (४) प्रचला-प्रचला (५) और स्त्यानद्धि-निद्रा। इन पाँच निद्रा मे से तृतीय प्रचला निद्रा-अवस्था में देवानन्दा चतुर्दश स्वप्न देखती है ।' ०२ यहाँ उदार का अर्थ प्रधान, कल्याण का अर्थ आरोग्यकर, शिव का अर्थ उपद्रवों को शमन करने वाला, धन्य का अर्थ धन (अच्छाई को धारण करने वाला, मंगल का अर्थ पवित्र, श्रीयुक्त का अर्थ शोभा से मनोहर है।'.3 मूल : तंजहा गय वसह सीह अभिसेय, दाम ससि दिणयरं झयं कुभं । पउमसर सागर विमाण, भवण रयणुच्चय सिहिं च ॥५॥ अर्थ--उन चौदह महास्वप्नों के नाम इस प्रकार है-(१) हस्ती, (२) वृषभ, (३) सिंह, (४) लक्ष्मी-देवी का अभिषेक, (५) पुष्प माला, (६) चन्द्र (७) सूर्य, (८) ध्वजा, (९) कुम्भ, (१०) पद्म सरोवर, (११) सागर, (१२) देव-विमान अथवा भवन (१३) रत्न राशि (१४) निर्धू म अग्नि । मूल : तए णं सा देवाणंदा माहणी इमेतारूवे ओराले कल्लाणे सिवे धन्न मंगल्ले सस्सिरीए चोहस महासुमिणे पासित्ता गं पडिबुद्धा समाणी हहतुद्दचित्तमाणंदिया पीइमणा परमसोमणसिया हरिसवसविसप्पमाणहियया धाराहयकलंबुयं पिव समुस्ससियरोमकूवा सुमिणोग्गहं करेइ, सुमिणोग्गहं करित्ता सयणिज्जाओ अब्भुतुइ, सयणिज्जाओ अब्भुत्ता अतुरियमचवलमसंभंताए राइहंससरिसीए गईए जेणेव उसभदत्त माहणे तेणेव उवागच्छइ, Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ सहरण उवागच्छत्ता उसभदत्तं माहणं जाणं विजएणं वद्धावेइ, वडावित्ता भद्दा सणवरगया आसत्था वीसत्था करयल परिग्गहियं सिरसावत्तं दसनहं मत्थए अंजलि कटु एवं क्यासी एवं खलु अहं देवाप्पिया ! अज्ज सयणिज्जंसि सुत्तजागरा ओहीरमाणी ओहरमाणी इमे यावे ओराले जाव सस्सिरीए चोइस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा तं जहा -गय जाव सिहिं च । एएसि णं देवाणुप्पिया ! ओरालाणं जाव चोदसण्हं महासुमिणाणं के मन्न कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ ? ॥६॥ अर्थ - उस समय देवानन्दा ब्राह्मणी इस प्रकार उदार कल्याण, शिव, --- धन्य, मंगल व श्रीयुक्त चौदह महास्वप्नों को देखकर जागृत हुई, हर्षित एवं तुष्ट होकर आनन्दित व प्रीतिमना हुई । परम सौमनस्य को प्राप्त हुई । उसका हृदय हर्ष से प्रफुल्लित हो गया । जैसे कदम्बपुष्प मेघ की धाराओं से खिल जाता है, उसके काँटे खड़े हो जाते हैं, उसी प्रकार देवानंदा के रोम खड़े हो गये । स्वप्नों को स्मरण कर वह अपनी शय्या से उठी, और शनैः शनैः अचपलगति से राजहंस की तरह चलती हुई जहाँ पर ऋषभदत्त ब्राह्मण है वहां आती है और ऋषभदत्त ब्राह्मण की "जय हो, विजय हो" इस प्रकार प्रशस्ति करती है । भद्रासन पर बैठकर आश्वस्त और विश्वस्त होने पर हाथों को जोड़कर मस्तिष्क पर अंजलि घुमाकर इस प्रकार बोली- 'निश्चय ही हे देवानुप्रिय ! मैं आज अर्धनिद्रावस्था में शय्या पर सोई हुई थी, उस समय इस प्रकार उदार व शोभायुक्त चौदह महास्वप्न देखकर जागृत हुई । वे स्वप्न इस प्रकार हैं-गज से लेकर निघू म अग्नि तक । हे देवानुप्रिय ! उन उदार यावत् चौदह महास्वप्नों का क्या कल्याणमय फल विशेष होगा ? : मूल : तणं से उस दत्त माहणे देवाणंदाए माहणीए अंतिए एयम सोच्चा निसम्म हहतुट्ठ जाव हियए धाराहय कलंबुयं पिव Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूच समुस्ससियरोमकूवे सुमिणोग्गहं करेइ, करित्ता ईहं अणुपविसइ, ईहं अणुपविसित्ता अप्पणो साभाविएणं मइपुव्वएणं बुद्धि विन्नाणेणं तेसिं सुमिणाणं अत्थोग्गहं करेइ, २ करेत्ता देवानंदां माहणि एवं वयासी ॥७॥ jojo अर्थ - उसके पश्चात् वह ऋषभदत्त ब्राह्मण देवानन्दा ब्राह्मणी से इस बात को श्रवण कर एवं धारण कर हर्षित व तुष्ट हुआ, अत्यन्त आह्लाद को प्राप्त हुआ । जैसे मेघ की धारा से सिंचित होने पर कदम्ब - पुष्प खिल उठता है वैसे ही उसको रोमाञ्च हो गया । वह स्वप्नों को अवग्रहण कर उनके फल के अनुसंधान में विचार करने लगा, अपनी स्वाभाविक मनन युक्त बुद्धि विज्ञान से उन स्वप्नों का अर्थ अवधारण कर देवानन्दा ब्राह्मणी से इस प्रकार बोला । मूल :-- ओराला गं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिट्ठा, कल्लाणा ० सिवा धन्ना मंगल्ला सस्सिरीया आरोग्गतुट्टिदीहाउकल्लाणमंगल्लकारगाणं तुमे देवाणुपिए ! सुमिणा दिट्ठा । तं जहाअत्थलाभ देवाणुप्पिए ! भोग लाभो देवाणुप्पिए ! पुत्त लाभो देवाप्पिए! सोक्खलाभो देवाणुप्पिए! एवं खलु तुमं देवाणुप्पिए ! नवहं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्टमाणं राइंदियाणं विड़क्कंताणं सुकुमालपाणिपायं अहीणपडिपुन्नपंचिंदियसरीरं लक्खणवंजण गुणोववेयं माणुम्माणपमाणपडिपुण्णं सुजायसव्वंगसुदरंग ससिसोमाकार कंतं पियदसणं सुरूवं देवकुमारोवमं दारयं पयाहिसि ॥ ८ ॥ अर्थ - हे देवानुप्रिये ! निश्चय ही तुमने उदार (विशिष्ट) स्वप्न देखे | कल्याणकारी, शिवरूप, धन्य और मंगलरूप स्वप्न देखे हैं। तुमने आरोग्यवर्धक Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भ संहरण दीर्घायुप्रदाता कल्याण करने वाले, मंगल करने वाले, स्वप्न देखे हैं । हे देवाप्रिये ! इन स्वप्नों का विशेष फल तुम्हें अर्थलाभ, भोगलाभ, पुत्रलाभ और सुखलाभ रूप होगा । हे देवानुप्रिये ! निश्चय ही नवमास और साढ़े सात रात्रि व्यतीत होने पर तुम पुत्र रत्न को जन्म दोगी। वह पुत्र हाथ पैरों से बड़ा ही सुकुमाल, हीनता रहित पांचों इन्द्रियों से परिपूर्ण शरीर वाला होगा, शुभलक्षणों, शुभ व्यजनो और श्रेष्ठ गुणो वाला होगा, मान, उन्मान एवं प्रमाण से युक्त, सर्वाङ्ग सुन्दर, चन्द्र की तरह सौम्य, कान्त, प्रिय, देवकुमार सदृश होगा । ४५ विवेचन - भारतीय सामुद्रिक शास्त्र में मानव शरीर के लक्षण, व्यंजन और हस्तरेखाओं के सम्बन्ध मे बहुत विस्तार के साथ विवेचन किया गया है । लक्षणमानव के व्यक्तित्व और कृतित्व के प्रतीक हैं । तीर्थकर व चक्रवर्ती सम्राट् के शरीर पर एक हजार आठ लक्षण होते हैं । वासुदेव के एक सौ आठ तथा सामान्य प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति के बत्तीस लक्षण होते हैं । बत्तीस लक्षण की गणना के अनेक प्रकार हैं। एक गणना इस प्रकार हैं(१) छत्र, (२) कमल, (३) रथ, (४) वज्र, (५) कूर्म, (६) अंकुश, (७) वापिका, ८) धनुष्य, ( ९ ) स्वस्तिक, (१०) तोरण ( बन्दरवार ), (११) सरोवर, (१२) सिंह, (१३) रुद्र, (१४) शंख, (१५) चक्र, (१६) हस्ती, ( १७ ) समुद्र, (१८) कलश, (१६) महल, (२०) मत्स्य, (२१) यव, (२२) यज्ञस्तम्भ, (२३) स्तूप, (२४) कमण्डलु, (२५), पर्वत, (२६) चामर, (२७) दर्पण, ( २८ ) वृषभ, (२९) पताका, (३०) लक्ष्मी, (३१) माला, (३२) मयूर । १४ भाग्यशाली मानव के ये लक्षण हाथ या पैर आदि में होते है। द्वितीय गणना इस प्रकार है (१) नाखून, (२) हाथ, (३) पैर ( ४ ) जिह्वा, (५) ओष्ठ, (६) तालु, (७) नेत्र के कोण ये सात रक्त हों, (८) कक्षा, (९) हृदय ( वक्ष:स्थल ) (१०) ग्रीवा, (११) नासिका, (१२) नाखून, (१३) मुख, ये छह अग उन्नत हों, (१४) दाँत, (१५) त्वचा, (१६) केश, (१८) नाखून ये पांच बारीक - छोटे हों, (१९) नेत्र, ( २० ) हृदय, (२१) नासिका, (२२) हनु (ढोडी), (२३) भुजाएँ पांच अंग लम्बे हों, (२४) ललाट, (१७) उंगलियों के पर्व, Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ (२५) छातो, (२६) मुख ये तीन विशाल हों, (२७) ग्रीवा, (२८) जडा, (२९) पुरुष चिह्न ये तीन लघु हो, (३०) सत्व, (३१) स्वर, (३२) और नाभि ये तोन गंभीर हों। इन बत्तीस लक्षणो से युक्त व्यक्ति आकृति से भव्य और प्रकृति से सौम्य और भाग्यशाली होता है। व्यञ्जन का अर्थ-मस तिल आदि है। पुरुष के दाहिने भाग में यदि ये चिह्न होते है तो उत्तम फल प्रदाता माने गये हैं और बॉयें भाग मे होने पर मध्यम फलदाता। महिलाओं के बायीं ओर श्रेष्ठ माने गये हैं। हस्तरेखा के द्वारा भी मानव के भाग्य और व्यक्तित्व का पता लगता है । सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार माना जाता है कि जिसके हाथ में अत्यधिक रेखाएँ होती हैं, या बहुत ही कम रेखाएँ होती है वह दुःखी होता है । जिस व्यक्ति के अनामिका अंगुली के प्रथम पर्व से कनिष्ठिका अगुली बडी होती है, वह धनवान होता है। मणिबन्ध से जो रेखा चलती है वह पिता की रेखा है । करभ से कनिष्ठिका अगुली के मूल की ओर से जो रेखाएं चलती है वे वैभव और आयु की प्रतोक हैं। ये तीनों ही रेखाएँ तर्जनी और अंगूठे के बीच जा मिलती है । जिसको ये तीनों रेखाएँ पूर्ण और दोष वजित हों वह धन धान्य से समृद्ध होता है। पूर्ण आयु का उपभोग करता है। जिसके दाहिने हाथ के अँगूठे में यव का चिह्न होता है उसका जन्म शुक्ल पक्ष का तथा वह यशस्वी होता है। जल से सम्पूरित बर्तन मे एक पुरुष प्रवेश करे। उस समय जो पानी बर्तन में से बाहर निकले यदि वह पानी द्रोण (बत्तीस मेर) प्रमाण हो तो वह पुरुष मानयुक्त कहलाता है। तराजू में तोलने पर यदि पुरुष अर्धभार (प्राचीन तोल विशेष) प्रमाण हो तो उन्मान युक्त माना जाता है। आत्माङ्गल से शरीर का नाप-प्रमाण कहलाता है । आत्माङ्गल से नापने पर एक सौ आठ अंगुल ऊँचाई वाला होने पर उत्तम पुरुष, छयानवें और चौरासी अंगुल वाला मध्यम पुरुष कहा जाता है, किन्तु तीर्थंकर का देह सर्वोत्तम होता है। वे सभी उचित लक्षण, व्यंजन, मान, उन्मान और प्रमाण से युक्त होते हैं। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भसंहरण ४७ मूल : सेवि य णं दारए उम्मुक्कबालभावे विन्नायपरिणयमित्ते जोव्वणगमणपत्ते रिउव्वेय जउव्वेय सामवेय अथव्वणवेय इतिहासपंचमाणं निघंटुद्वाणं संगोवंगाणं सरहस्साणं चउन्हं वेयाणं सारए पारए धारए सडंगवी सद्वितंतविसारण संखाणे सिक्खाणे सिक्खाकप्पे वागणे बंदे निरुत्ते जोइसामयणे अण्णेसु य बहुसु भन्नएस परिव्वायएस नए परिनिट्ठिए यावि भविस्स ॥ ६ ॥ अर्थ- वह बालक बालवय से उन्मुक्त होने पर, समझदार एवं समझ में पक्का होने पर यौवन वय को प्राप्त करेगा । तब वह सांगोपांग तथा रहस्य युक्त ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद का, पाँचवे (वेद) इतिहास का तथा छट्ट निघण्टु ( शब्द कोष ) का ज्ञाता होगा। चारों वेदो के विस्मृत विषय को स्मरण करने वाला, चारों वेदों के रहस्य का पारगामी तथा चारों वेदो का धारक होगा । षडङ्ग ज्ञाता, षष्ठितंत्र विशारद, सांख्य, गणित, आचार शास्त्र, व्याकरण, छन्द व्युत्पत्तिशास्त्र, ज्योतिषचक्र और अन्य अनेकों ब्राह्मण सम्बन्धी एवं परिव्राजकशास्त्रों में परिनिष्णात होगा । मूल : तं ओराला गं तुमे देवाणुपिए! सुमिणा दिट्ठा जाव आरोग्गतुट्ठिदी हाउय मंगलकल्लाणकारगा णं तुमे देवाणुप्पिए । सुमिणा दिट्ठा ॥१०॥ अर्थ - इस कारण हे देवानुप्रिये ! तुमने जो उदार स्वप्न देखे है, वे आरोग्य वर्धक, सतोषप्रदाता, दीर्घायु, मंगल व कल्याण कारक हैं । मूल -! तणं सा देवानंदा माहणी उसभदत्तस्स माहणस्स यंतिए Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ कल्प सूत्र एयमट्ठे सोच्च णिसम्म हट्ठतुट्ठ जाव हियया करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्टु उसभदत्तं माहणं एवं वयासी ॥११॥ अर्थ - उसके पश्चात् वह देवानन्दा ब्राह्मणी ऋषभदत्त ब्राह्मण से स्वप्न - के फलों को सुनकर और समझकर प्रसन्न हुई. हृष्ट-तुष्ट यावत् दशनाखूनों को साथ मिलाकर आवर्त करती हुई अर्थात् मस्तिष्क पर अंजलि चढांकर ऋषभदत्त ब्राह्मण से इस प्रकार बोली । मूल : एवमेयं देवा णुपिया ! तहमेयं देवाणुप्पिया ! अवितहमेयं देवाप्पिया ! असंदिद्धमेयं देवापिया ! इच्छियमेयं देवाणुपिया ! पडिच्चियमेयं देवाणुपिया ! इच्चियपडिच्चियमेयं देवाणुपिया ! सच्चे णं एसमट्ठे से जहेयं तुम्भे वयह त्ति कट्टु ते सुमिणे सम्मं पडिन्छह, ते सुमिणे सम्मं पडिच्छित्ता उसभदत्तेणं माहणेणं सद्धिं ओरालाई माणुस्साई भोगभोगाई भुजमाणी विहरइ ॥१२॥ अर्थ- 'हे देवानुप्रिय ! आपने जिन स्वप्नों का अर्थ प्रतिपादन किया है वह सर्वथा सत्य है, अवितथ (सही) है, असंदिग्ध है, इच्छित ( चाहने योग्य) है, प्रतीच्छित है और इच्छित प्रतीच्छित है । हे देवानुप्रिय ! यह अर्थ सत्य है जो आप कहते हैं, मैं उन स्वप्नों के फल को मान्य करती हूँ ।' उसके पश्चात् वह देवानंदा ऋषभदत्त ब्राह्मण के साथ मानव सम्बन्धी श्रेष्ठ सुखोपभोग करती हुई विचरने लगी । शक्र की विचारणा मूल : ते काणं तेण समएणं सक्के देविंदे देवराया वज्जपाणी Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्न सहरण : शक की विचारणा पुरंदरे सतक्कतू सहस्सक्खे मघवं पाकसासणे दाहिणलोगाहिबई बत्तीसविमाणसयसहस्साहिवई एरावणवाहणे सुरिंदे अरयंबरवत्थधरे आलइयमालमउडे नवहेमचारुचित्तचंचलकुडलविलिहिज्जमाणगंडे भासुरबोंदी पलंबवणमालधरे सोहम्मकप्पे सोहम्मवडिंसए विमाणे सुहम्माए सभाए सक्कंसि सीहासणंसि निसण्णे ॥१३॥ ___ अर्थ-उस काल उस समय शक्र, देवेन्द्र, देवराज, वज्रपाणि, परंदर, शतक्रतु, सहस्राक्ष, मघवान्, पाकशासन, दक्षिणार्धलोकाधिपति, बत्तीस लाख विमानों का स्वामी, ऐरावत नामक हाथी पर बैठने वाला सुरेन्द्र, रज रहित श्रेष्ठ-उत्तम वस्त्रों को धारण करने वाला, माला और मुकुट से सुललित शरीर वाला जिसके कोमल कपोल नवनिर्मित सुन्दर चंचल चित्र-विचित्र एवं चलायमान स्वर्णमय कुण्डल युगल की प्रभा से प्रदीप्त हैं । जो विराट् ऋद्धि व द्युति को धारण करने वाला है, महाबली महायशस्वी है, जिसके गले में लटकती हुई सुन्दर वन माला है, जो सौधर्म देवलोक के सौधर्मावतंसक विमान की सुधर्मा सभा में शक नामक सिंहासन पर बैठा है। विवेचन-भारतीय साहित्य में इन्द्र के सहस्र नाम प्रसिद्ध हैं। जैन, बौद्ध और वैदिक इन तीनों ही परम्पराओं में इन्द्र के सम्बन्ध में चर्चाएँ हैं । प्रस्तुत सूत्र में इन्द्र के अनेक नामों में से कुछ विशिष्ट नामों का उल्लेख यहाँ पर हुआ है। शक्र नामक सिंहासन पर बैठने के कारण या सामर्थ्यवान होने से वह शक्र कहलाता है । देवताओं के मध्य परम ऐश्वर्ययुक्त होने के कारण वह इन्द्र के नाम से पहचाना जाता है। देवताओं का राजा होने से देवराज है। हाथ में वज्र नामक शस्त्र को धारण करने से वज-पाणि है। शत्रुओं के नगरों (पुरों) को नष्ट करने के कारण वह पुरन्दर है। कार्तिक श्रेष्ठी के भव में सौ बार श्रावक की पांचवी प्रतिमा अर्थात् अभिग्रह विशेष को धारण करने के कारण वह शतक्रतु कहलाता है । वैदिक परम्परा के अनुसार शतक्रतु का अर्थ सौ यज्ञ करने वाला होता है। सुधर्म देव लोक का इन्द्र पूर्वभव में पृथ्वी भूषण नगर में कार्तिक नामक Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठ था । वीतराग धर्म पर उसकी अविचल आस्था थी। उसकी रग-रग, में मन के अणु-अणु में वीतराग धर्म रमा हुआ था। उसने सौ बार श्रावक की पांचवीं पडिमा (प्रतिज्ञा) तक की आराधना की। एक बार नगर में गैरिक नामक एक उग्र तपस्वी (तापस) आया। उसके कठोर तप की महिमा जन-जन की जिह्वा पर नाचने लगी। जन समूह दर्शनार्थ उमड़ा, तपस्वी ने विराट् जन-समूह को देखकर गर्व के साथ पूछा'क्या अब भी नगर में ऐसा कोई व्यक्ति है जो मेरे दर्शन के लिए नहीं आया ?' एक भक्त ने निवेदन किया 'प्रभो ! कार्तिक श्रेष्ठी को छोड़कर अन्य सभी, राजा से रंक तक आपके दर्शनार्थ आ चुके हैं।' __क्रोध और अहंकार के वश तपस्वी ने अभिग्रह किया-“अच्छा ! तो लो मैं कार्तिक श्रेष्ठी की ही पीठ पर थाली रखकर पारणा करूँगा, अन्यथा नही ।" तपस्वी को तप करते हुए एक माह पूरा हो गया, किंतु कार्तिक श्रेष्ठी कभी उसके पास नही आया। राजा ने पारणा करने के लिए प्रार्थना की तब तपस्वी ने अभिग्रह की बात दोहराई। राजा ने श्रेष्ठी को बुलाया। गर्मागर्म खीर तैयार की गई। राजा के आदेश से सेठ झुका, और तपस्वी ने क्रूरतापूर्वक सेठ की पीठ पर वह गर्म थाली रखी, चमड़ी जलने लगी, तपस्वी नाक पर अंगुली रखकर सेठ से कहने लगादेखो, तुम मुझे वन्दन करने नही आए । अन्त में मैंने तुम्हारा नाक काट ही दिया। सेठ मन में सोचने लगा-यदि मैं इसके पूर्व ही प्रवजित हो जाता तो आज यह दशा नहीं होती। उसने समभावपूर्वक यह भयंकर कष्ट सहन किया । धीरे-धीरे उपचार से चमड़ी ठीक हुई। वैराग्य उद्बुद्ध हुआ, एक हजार आठ श्रेष्ठी पुत्रों के साथ मुनिसुव्रत स्वामी के पास संयम ग्रहण किया। द्वादशाङ्गी का अध्ययन कर उत्कृष्ट तप करता हुआ आयुष्यपूर्ण कर सौधर्म देवलोक का इन्द्र बना । गैरिक तापस भी वहाँ से आयु पूर्ण कर इसी इन्द्र का ऐरावत हाथी हुआ। इन्द्र को अपने ऊपर बैठा देखकर घबराया, रूप बदला। इन्द्र ने भी अवधिज्ञान से पूर्वभव देख उसे डांटा-फटकारा, वह शान्त हो गया। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मर्म संहरण : शक की विचारणा ५१ हजार नेत्र होने से इन्द्र का एक नाम सहस्राक्ष है । जैनाचार्यों का यह मन्तव्य है कि इन्द्र के पांच सौ मंत्री हैं, उनके परामर्श से ही वह शासन सूत्र का संचालन तथा राज्य व्यवस्था करता है | आलंकारिक भाषा में मंत्री राजा की आँख होती है इस दृष्टि से पांच सौ मंत्री होने से इन्द्र 'सहस्राक्ष' कहलाता है । वैदिक परम्परा के अनुसार एक बार इन्द्र गौतमऋषि की पत्नी अहिल्या पर आसक्त हुआ, ऋषि ने सहस्रभग होने का श्राप देना चाहा । पर अभ्यर्थना करने पर उसने सहस्राक्ष होने का श्राप दिया, जिससे वह सहस्राक्ष कहलाया । ऋग्वेद में भी इन्द्र को सहस्राक्ष कहा है । " १०५ महामेघ ( वृष्टि आदि का स्वामी) उसके वश में होने से वह मघवा कहलाता है । 'पाक' नामक एक बलवान दैत्य पर शासन करने से वह पाकशासन कहलाया । दक्षिणार्ध भरत का अधिपति होने से दक्षिणार्धपति है । बत्तीस लक्ष विमानों का स्वानी है । ऐरावत हाथी का उपयोग करने से ऐरावतअधिपति है ।" १०६ मूल : से णं तत्थ बत्तीसार विमाणावाससयसाहस्सीणं, चउरासीए सामाणियसाहस्सीणं, तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं, चउन्हं लोगपालाणं, अट्ठण्हं अग्गमहिसीणं, सपरिवाराणं तिन्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, उन्हं चउरासीए आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अण्णेसिं च बहूणं सोहम्मकप्पवासीर्ण वेमाणियाण देवाणं देवीण य आहेवच्च पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्त महत्तरगत्तं आणाईसर सेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे महयाहयनट्टगीयवाइयतं तीतलताल तुडियघणमुइंगपडुपडहवाइयरवेणं दिव्वाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरह ॥ १४ ॥ अर्थ- वह इन्द्र वहाँ बत्तीस लाख विमानों का, चौरासी हजार सामानिक Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (इन्द्र तुल्य ऋद्धि वाले) देवों का, तेतीस त्रायस्त्रिशक देव (मंत्री तुल्य देवों का, प्रायस्त्रिंशक देवों को इन्द्र के पूज्यस्थानीय देव भी कहे जाते हैं।).०७ चार लोकपालों (सोम, यम, वरुण, कुबेर) का, परिवार सहित अष्ट अग्रमहिषियों (पमा, शिवा, शची, अजु,अमला, अप्सरा, नवमिका, रोहिणी) का, तीन परिषदों (बाह्य, मध्यम और आभ्यन्तर) का, सप्त सैन्य (गन्धर्व, नाटक, अश्व, गज, रथ, सुभट-पदाति और वृषभ) सप्त सेनापतियों, चार चौरासी सहस्र (तीन लाख छत्तीस हजार) अङ्गरक्षक देवों और अन्य अनेक सौधर्मस्थ देव-देवियों का आधिपत्य करता था। वह सभी में अग्रसर था। स्वामी के समान वह प्रजा का पालन पोषण करता था और गुरु के समान महामान्य था । इन सभी देवों के ऊपर अपने द्वारा नियुक्त देवों द्वारा दिये गये अपने आदेश को प्रदर्शित करने वाला था। वह निरन्तर उच्च ध्वनि वाले नाट्य संगीत, मुखरित वीणा, करताल, त्रुटित, अन्य वाद्य यत्र, मेघ गंभीर रव करने वाला मृदग श्रेष्ठ शब्द करने वाला पटह, इन सभी के मधुर शब्दों को श्रवण करता हुआ आनन्द से रहता है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में इन्द्र के विराट् वैभव का वर्णन है। इन्द्र के आमोद प्रमोद हेतु नाट्य, संगीत व विविध वाद्य यत्र प्रयुक्त होते थे ।B१०८ मल: इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विउलेणं श्रोहिणा आभोएमाणे २ विहरइ, तत्थ णं समणं भगवं महावीरं जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे दाहिणड्डभरहे माहण कुडग्गामे नगरे उसभदत्तस्स माहणस्स कोडालसगोत्तस्स भारियाए देवाणंदाए माहणीए जालं. धरसगोत्ताए कुच्छिमि गम्भत्ताए वक्तं पासइ, पासित्ता हतु चित्तमाणदिए गदिए परमाणदिए पीइमणे परमसोमणसिए हरिसवसविसप्पमाणहियए धाराहयनीवसुरहिकुसुमचंचुमालइयऊससियरोमकूवे वियसियवरकमलनयणवयणे पयलियवरकडगतुडियकेऊर Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भ संहरण : शक की विचारणा मउडकुडलहारविरायंतवच्छे पालंबपलबमाणघोलंतभूसणधरे ससंभम तुरियं चवलं सुरिंदे सीहासणाओ अब्भुठेह, सीहासणाओ अब्भुटिठत्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ, २ वेरुलियव रिट्ठरिट्ठअंजणनिउणोवियमिसिमिसितमणिरयणमंडियाओ पाउयातो ओमुयइ, २ओमुइत्ता एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ,एगसाडियं उत्तरासंगंकरिता अंजलिमउलियग्गहत्थे तित्थयराभिमुहे सत्तट्ठ पयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता वामं जाणु अंचेइ. वामं जाणु २ त्ता दाहिणं जाणं धरणितलंसि साहटु तिखुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि निवेसेइ, तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि निवेसित्ता ईसिं पच्चुण्णमइ, पच्चुण्णमित्ता कडगतुडियर्थभियाओ भुयाओ साहरइ, कड० २ त्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं दसनहं मत्थए अंजलि कटु एवं वयासी ॥१५॥ ___ अर्थ-वह इन्द्र अपने विपुल अवधिज्ञान से सम्पूर्ण जम्बूद्वीप की ओर देखता है। उस समय वह श्रमण भगवान महावीर को जम्बूद्वीपस्थ भारतवर्ष के दक्षिणार्धभरत के ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर में कोडालगोत्रीय ऋषभदत्त ब्राह्मण की भार्या जालंधर गोत्रीया देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में गर्भ रूप में उत्पन्न हुए देखता है। उसका हृदय हृष्ट, तुष्ट, आनन्दित, परमानन्दित, व प्रीतियुक्त होता है । परम सौमनस्य को प्राप्त करता है। हर्ष से उसका हृदय फूल उठता है। मेघधारा से सिचित कदम्ब वृक्ष के सुगन्धयुक्त विकसित कुसुमों की तरह रोमांचयुक्त हो जाता है। प्रफुल्लित उत्तम कमल की तरह नेत्र व मुख खिल उठते हैं । श्रेष्ठ कड, पुहची, के यूर (बाजूबंध) मुकुट [सिर का आभूषण] कुण्डल (कान का भूषण) पहने हुए, तथा हार से सुशोभित बक्षस्थल वाला, लम्बे लटकते हुए पुन: पुन. दोलायमान आभूषणों को धारण किया हुआ, सुरेन्द्र ससंभ्रम-सहसा शीघ्र ही सिहासन से उठकर खड़ा हुआ।०१ पादपीठ से नीचे Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पसूत्र उतरा, नीचे उतरकर उत्तम वैडूर्य, वरिष्ठ, अरिष्ट अञ्जन आदि रत्नों से युक्त, कुशल कारीगरों द्वारा निर्मित चमचमाते हुए मणि- मुक्ताओं से मण्डित पादुका ( खड़ाऊ - जूतों) को उतारकर, दुपट्टे से उत्तरासन करके (मुंह की यतना करके) अंजिल से मुकुलित अग्र हाथवाला वह इन्द्र तीर्थंकर के सम्मुख सातआठ कदम आगे चलकर दाहिने घुटने को ऊंचा करके, बांये घुटने को भूमि पर रखकर तीन बार मस्तिष्क को पृथ्वी पर लगाकर किञ्चित् ऊँचा हाता है और सीधा होकर कड़े और त्रुटिन से युक्त भुजा को संकुचित करता है, दोनों भुजाओं को संकुचित कर दसनाखून एक दूसरे से संयुक्त रहे इस प्रकार सम्मिलित करके मस्तिष्क पर अंजलि करता हुआ इस प्रकार बोला RY मूल :-- नमोत्थूणं अरहंताणं भगवंताणं ॥ १॥ आइगराणं तित्थगराणं सयंसंबुद्धाणं ॥ २॥ पुरिसुत्तमाणं पुरिससीहाणं पुरिसवरपुंडरियाणं पुरिसवरगंधहत्थीणं ||३|| लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोगहियाणं लोगपईवाणं लोगपज्जोयगराणं ॥४॥ अभयदयाणं चक्खुदयाणं मग्गदयाणं सरणदयाणं जीवदयाणं बोहिदयाणं ॥ ५ ॥ धम्मदयाणं धम्मदेसयाणं धम्मनायगाणं धम्मसारहीणं धम्मवरचाउरंत कवट्टीणं ॥ ६॥ दीवो ताणं सरणं गई पहट्ठा, (णं) अप्पडि हयवरना णदंसणधराणं वियदृछउमाणं ||७|| जिणाणं जावयाणं तिन्नाणं तारयाणं बुद्धाणं बोहयाणं मुत्ताणं मोयगाणं ॥ ८॥ सव्वन्नणं सव्वदरिसीणं सिवमयलमरुयमणंतमक्खयमव्वावाहमपुणरावित्ति सिद्धिगहनामधेयं ठाणं संपत्ताणं नमो जिणाणं जियभयाणं ॥ ६ ॥ नमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्म आदिगरस्स चरिमतित्थयरस्स पुव्वतित्थयरनिद्दिट्ठस्स जाव संपाविउकामस्स, वंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगये पासउ मे भगवं तत्थगए Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भ संहरण : शक की विचारणा इहगर्य,ति कटु समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, २ सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे सन्निसन्ने ॥१६॥ अर्थ-"अरिहन्त भगवान् को नमस्कार हो (अरिहन्त भगवान् कैसे हैं?) धर्म की आदि करने वाले,धर्म तीर्थ की स्थापना करने वाले,अपने आप ही सम्यक्बोध को पाने वाले, पुरुषों में श्रेष्ठ, पुरुषों में सिंह, पुरुषों में श्रेष्ठ श्वेत-कमल के समान, पुरुषों में श्रेष्ठ गंधहस्ती के समान,लोक में उत्तम,लोक के नाथ,लोक के हितकर्ता, लोक मे दोपक तुल्य, लोक में उद्योत करने वाले, अभयदान देने वाले, ज्ञान रूपी नेत्र के देने वाले, मोक्ष मार्ग का उपदेश देने वाले, शरण के देने वाले, संयम जीवन को देने वाले, सम्यक्त्वरूपी बोधि के देने वाले, धर्म के देने वाले, धर्म के उपदेशक, धर्म के नेता, धर्म-रथ के सारथी हैं। चार गति का अन्त करने वाले, श्रेष्ठ धर्म के चक्रवर्ती हैं । भवसागर में द्वीप रूप, रक्षा रूप, शरण रूप, आश्रय रूप और आधार रूप हैं । अप्रतिहत एवं श्रेष्ठ ज्ञान दर्शन के धारण करने वाले, प्रमाद से रहित, स्वयं रागद्वेष को जीतने वाले, दूसरों को जिताने वाले, स्वयं संसार सागर से तिरे हुए और दूसरों को तारने वाले हैं। स्वयं बोध पा चुके हैं, दूसरों को बोध देने वाले हैं। स्वयं कर्म से मुक्त है दूसरों को मुक्त कराने वाले हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं तथा शिवरूप (मंगलमय) है । अचलस्थिर-रूप अरुज-रोगरहित, अनन्त-अन्त रहित, अक्षय-क्षय रहित, अव्याबाधबाधा पीड़ा रहित, अपुनरावृत्ति-जहाँ से पुन: लौटना नहीं पड़ता ऐसी सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त कर चुके हैं, भय को जीतने वाले हैं, रागद्वेष को जीतने वाले हैं । उन जिन भगवान् को मेरा नमस्कार हो। नमस्कार हो श्रमण भगवान महावीर को, जो धर्मरूप आदि के करने वाले, चरम तीर्थंकर, पूर्व तीर्थकरों द्वारा निर्दिष्ट और अपुनरावृत्ति-सिद्धिगति को पाने की अभिलाषा वाले हैं । यहाँ (स्वर्ग) में रहा हुआ मैं वहाँ (देवानन्द के गर्भ में) रहे हुए भगवान् को वन्दना करता हूं। वहां रहे हुए भगवान् यहाँ रहे हुए मुझे देखें । इस प्रकार भावना व्यक्त करके देवराज देवेन्द्र श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन व नमन करता है और अपने श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्व दिशा की ओर मुंह करके बैठता है। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पसूत्र विवेचन प्रस्तुत सूत्र के तीन नाम उपलब्ध होते है । कल्पसूत्र, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि आगमों में शकेन्द्र द्वारा वन्दन प्रयुक्त होने से यह 'शक्रस्तव' के नाम से प्रसिद्ध है । अनुयोगद्वार सूत्र के आदानपद नाम के उल्लेखानुसार इस स्तुति का 'नमुत्थुणं' नाम प्रारंभिक पद के ऊपर से चल पड़ा है । "योगशास्त्र " स्वोपज्ञवृत्ति, प्रतिक्रमणवृत्ति आदि ग्रन्थों में इसका नाम प्रणिपात सूत्र ( नमस्कार सूत्र ) दिया है । ५६ यह स्तुति अत्यन्त प्रभावशाली है । इसके एक-एक अक्षर में भक्तिरस कूट-कूटकर भरा है । इस स्तुति में तीर्थंकरों के आध्यात्मिक गुणों का उत्कीर्तन सर्वत्र मुखरित हुआ है । आध्यात्मिक उत्कर्ष के लिए, साधक को इसे प्रतिदिन एकसौ आठ बार श्रद्धा के साथ स्मरण करना चाहिए। जो साधक भक्तिभावना से विभोर होकर इसका प्रतिदिन नियमित जाप करता है उसके चरणों में अखिल संसार का भौतिक और आध्यात्मिक वैभव अपने आप आकर उपस्थित हो जाता है । उसके अन्तर्मानस में किसी प्रकार की निराशा नहीं रहती, वह सदा-सर्वदा सुख व आनन्द को प्राप्त करता है । ------ मूल तए णं तस्स सक्क्स्स देविंदस्स देवरन्नो अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकष्पे समुप्पज्जित्थान एवं भूयं, न एयं भव्वं, न एयं भविस्सं, जं नं अरहंता वा चक्कवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा अंतकुलेसु वा पंतकुलेसु वा तुच्छकुलेसु वा दरिद्दकुलेसु वा किविणकुलेसु वा भिक्खायकुलेसु वा माहणकुलेसु वा आयाइंसु वा आयाइंति वा आयाइति वा एवं खलु अरहंता वा चक्कवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा उग्गकुलेसु वा भोगकुलेसु वा राइष्णकुलेसुवा इक्खागकुलेसु वा खत्तियकुलेसु वा हरिवंसकुलेसु वा अन्नतरेसु वा तहप्पगारेसु विसुद्ध जातिकुलवंसेसु आयाइंसुवा आयाइंति वा आयाइस्संतिव ।। १७ । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ ei सहरण: शक की विचारणा अर्थ - तत्पश्चात् उस शक्र देवेन्द्र देवराज को इस प्रकार का अध्यवसाय, चितन रूप तथा अभिलाषा रूप में, मनमें जागृत हुआ, संकल्प उत्पन्न हुआ कि ऐसा न कभी पूर्व हुआ है, न वर्तमान में होता ही है और न भविष्य में होगा ही'अरिहन्त [ तीर्थंकर ] चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव अन्त्यकुल में, प्रान्तकुल में अधमकुल में, तुच्छकुल में, दरिद्रकुल में, कृपणकुल में, भिक्षुककुल में, अथवा ब्राह्मण कुल में जन्मे हों, जन्मते हों अथवा जन्मेंगे । इस प्रकार निश्चय ही अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव ये उग्रकुल में, भोगकुल में, राजन्यकुल में, इक्ष्वाकुकुल में, क्षत्रियकुल में, हरिवंशकुल में तथाप्रकार के अन्य भी विशुद्ध जाति कुल वाले वंशों में जन्मे थे, जन्मते हैं और जन्मेंगे | विवेचन-- उग्रकुल, भोगकुल, राजन्यकुल और क्षत्रियकुल इन कुलों की स्थापना भगवान् ऋषभदेव ने की थी। राज्य की सुव्यवस्था के लिए आरक्षक दल बनाया, जिसके अधिकारी दण्ड आदि धारण करने से 'उग्र' कहलाये। मंत्रीमण्डल बनाया जिसके अधिकारी गुरु स्थानीय थे वे 'भोग' नाम से प्रसिद्ध हुए। राजा के समीपस्थ जन, जो समान वय वाले मित्र रूप में परामर्श प्रदाता थे वे 'राजभ्य' के नाम से विख्यात हुए। शेष अन्य राजकुल में उत्पन्न क्षत्रिय नाम से पहचाने गये । ११० भगवान् ऋषभदेव एक वर्ष से कुछ कम के थे तब नाभिराजा की गोद में बैठे हुए क्रीड़ा कर रहे थे । उस समय शक्रेन्द्र हाथ में इक्षु लेकर आए, भगवान् ने हाथ आगे बढ़ाया । "" तब इन्द्र ने सोचा भगवान् इक्षु की इच्छा कर रहे हैं, अतः इनका वंश इक्ष्वाकु हो, इस प्रकार ने की ।११३ इक्ष्वाकुवंश की स्थापना इन्द्र हरिवर्ष क्षेत्र से लाये गये युगल से हरिवंश उत्पन्न हुआ । ११३ 993 तथाप्रकार के अन्य विशुद्ध जाति कुल वंश से तात्पर्य है - महान् शक्ति व तेजः सम्पन्न योद्धा जैसे मल्लवी तथा लिच्छवी राजवंश के राजागण, युवराज, मधिक राजागण जिनके तेजस्वी व्यक्तित्व पर प्रसन्न होकर पुरस्कार प्रदान किया जाय वैसे वीर, सन्निवेश नायक, कुटुम्ब के नायक आदि । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ मूल • वस आश्चर्य ---- कल्प सूत्र अस्थिपुण एसे वि भावे लोगच्छेरयभूए अनंताहि ओसप्पिणीउस्सप्पिणीहि वीइक्कंताहिं समुप्पज्जति, ( प्र ० १०० ) नामगोत्तस्सवा कम्मस्स अक्खीणस्स अवेइयस्स अणिज्जिण्णस्स उदपणं जन्न अरहंता वा चक्क्वट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा अंतकुलेसु वा पंतकुलेसु वा तुच्छकुलेसु वा, दरिद्दकुलेसु वा भिक्खागकुलेसु वा किविणकुलेसु वा माहणकुलेसु वा, आयाइंसु वा आयइति वा आया इस्संति वा कुच्छिसि गव्भत्ताए वक्कमिंसु वा वक्कमति वा वक्कमिस्संति वा, नो चेव णं जोणीजम्मणनिक्खhi निक्ख मंस वा निक्खमंति वा निक्खमिस्संति वा ॥ १८ ॥ " अर्थ - किन्तु लोक में इस प्रकार का आश्चर्यभूत कार्य भी अनन्त अवसर्पिणी उत्सर्पिणी व्यतीत होने के पश्चात् होता है, जब कि अरिहन्त भगवान चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, उस प्रकार के नाम गोत्र कर्म के क्षीण नही होने से ( स्थिति क्षय के अभाव मे ) रस - विपाक द्वारा कर्म के नही भोगे जाने से, कर्म की निर्जरा नही होने से एवं उस कर्म के उदय से वे अन्त्यकुल में, प्रान्तकुल में, तुच्छकुल में, दरिद्र कुल में, कृपण कुल में, भिक्षुक कुल में, ब्राह्मण कुल में अतीत काल में आये है, वर्तमान में आते हैं और भविष्य में आयेंगे, कुक्षि मे गर्भ रूप में अतीत काल में उत्पन्न हुए है, वर्तमान में होते है और भविष्य में भी उत्पन्न होगे, परन्तु अतीत काल में भी उन्होंने वहाँ पर जन्म नही लिया है, वर्तमान में भी नहीं लेते है और न भविष्य में ही जन्म लेगे । विवेचन - आगम के समर्थ टीकाकार आचार्य अभयदेव ने कहा है " जो बात अभूतपूर्व व अलौकिक हो, जिसे देखकर मन में विस्मय उत्पन्न हो वह आश्चर्य है ।०४ आश्चर्य और असभव शब्दोंके अर्थ में बहुत अन्तर है । असभव का अर्थ है जो कभी हो न सकता हो, पर आश्चर्य असंभव नहीं है, केवल विरल घटना है । यहाँ पर विश्व के अन्य आश्चर्यों का वर्णन न कर केवल जैनागमों में Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भ संहरण: शक्र की विचारणा ५८ आए हुए आश्चर्यो का विश्लेषण करना है। जैनागमों में जिस प्रकार आश्चर्यों का वर्णन है वैसा बौद्ध और वैदिक साहित्य में दृष्टिगोचर नहीं होता । इसका अर्थ यह नहीं कि उन परम्पराओं में आश्चर्य जनक घटनाएं नहीं हैं। घटनाएँ तो अनेक हो सकती है पर उन्होंने उनका इस शैली से निरूपण नहीं किया । स्थानाङ्ग, ११६ ११५ प्रवचन सारोद्धार, एवं कल्पसूत्र की विभिन्न टीकाओं में दस आश्चर्यो का उल्लेख है । ( १ ) उपसर्ग, (२) गर्भापहरण, (३) स्त्रीतीर्थ, (४) अभावितपरिषद् ( अयोग्य परिषद्), (५) कृष्ण का अपरककागमन, (६) चन्द्र सूर्य का आकाश से उतरना, (७) हरिवंश कुल की उत्पत्ति, (८) चमरेन्द्र का उत्पात, (६) उत्कृष्ट अवगाहना के एक सौ आठ सिद्ध, (१०) असंयत पूजा । इनका सक्षिप्त विवरण यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है । ( १ ) उपसर्ग - एक समय आर्यावर्त के महामानव भगवान् महावीर धर्मोपदेश करते हुए श्रावस्ती के उद्यान में पधारे । गणधर गौतम भिक्षा के लिए नगरी में गए। उन्होंने सुना - गोशालक अपने आपको जिन व सर्वज्ञ सर्वदर्शी कहता है । गौतम ने महावीर से निवेदन किया। महावीर ने कहा- 'गौतम ! मंखलीपुत्र गोशालक मेरा कुशिष्य है । वह जिन नहीं पर 'जिन' का प्रलाप करने वाला है । महावीर का प्रस्तुत कथन श्रावस्ती में प्रसारित हो गया । गोशालक ने भी सुना। उसने छट्ट के पारणा हेतु गये हुए महावीर के शिष्य आनन्द से कहा"हे आनन्द ! धन प्राप्त करने की लालसा से कुछ वणिक् अशन-पान की व्यवस्था कर भाण्ड आदि लेकर विदेश चले । भयंकर अरण्य में पहुंचने पर साथ का जल समाप्त हो गया । तृषा से छटपटाने लगे, जल की अन्वेषणा करते हुए उन्हें चार बांबी दृष्टिगोचर हुई । प्रथम बांबी खोली । अमृत-सा मधुर जल निकला, जिसे प्राप्त कर सभी आनन्द-विभोर हो गये । दूसरी बाँबी खोली तो चमचमाता हुआ स्वर्ण निकला, तीसरी बांबी खोली तो अमूल्य मणि-मुक्ताएँ उपलब्ध हुईं । ज्यों ही वे चौथी बांबी खोलने के लिए उधर कदम बढ़ाने लगे त्यों ही एक सुबुद्धि वणिक् ने रोका । पर उन्होंने नहीं माना । खोलते ही उसमें से दृष्टि विष सर्प निकला, जिसकी विषैली फूत्कार से वे सब वहीं पर भस्म हो गये । प्रस्तुत रूपक तुम्हारे धर्माचार्य महावीर Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प ६० पर भी घटित होता है । उन्हें भी सभी वस्तुएँ प्राप्त हो गई हैं, पर खेद है कि उन्हें अब भी सन्तोष नहीं है । वे मुझे 'मंखलिपुत्र' 'छद्मस्थ' और अपना 'कुशिष्य' कहते हैं । तू जाकर उन्हें सावधान करदे, अन्यथा मैं स्वयं आकर उनकी दशा 'दुर्बुद्धि वणिक्पुत्रों से समान कर दूँगा ।' आनन्द मुनि भगवान् के पास पहुँचा । गोशालक का धमकी भरा कथन निवेदन किया । सर्वज्ञ सर्वदर्शी भगवान् तो पूर्व ही जानते थे । भगवान् ने कहा"आनन्द, तुम जाओ और गौतमादि श्रमणों को सूचित कर दो कि गोशालक यहाँ आ रहा है, कोई भी श्रमण उससे सम्भाषण न करे ।” गोशालक महावीर के पास पहुँचा और बोला - " हे काश्यप ! तुम्हारा शिष्य मंखली पुत्र तो मर गया है। वह अन्य था, मैं अन्य हूँ। उसके शरीर को परीषह सहन करने में सुदृढ़ समझ कर मैंने उसमें प्रवेश किया है।" महावीर ने कहा - 'गोशालक ! जैसे कोई तस्कर छिपने का स्थान प्राप्त न होने पर तृण की ओट में छिपने का प्रयास करता है, वैसे ही तुम भी अन्य न होते हुए भी अपने आप को अन्य बता रहे हो ?' भगवान् श्री महावीर के सत्य कथन को श्रवण कर गोशालक स्तम्भित एवं अवाक् था । वह मन ही मन तिलमिला उठा। वह अपने आपको छिपाने की दृष्टि से अनर्गल प्रलाप करने लगा। महावीर के समक्ष अनर्गल बोलते हुए देखकर भगवान् के अन्तेवासी शिष्य 'सर्वानुभूति' और 'सुनक्षत्र' अनगार ने कहा - ' है गोशालक, तुम्हें अपने धर्माचार्य के प्रति इस प्रकार अशिष्टता प्रदर्शित नहीं करनी चाहिए ।' ११७ गोशालक ने क्रुद्ध होकर उन दोनों अनगारों को तेजोलेश्या से वहीं पर भस्म कर दिया। दोनों आयु पूर्ण कर आठवें और बारहवें देवलोक में उत्पन्न हुए । भगवान् के द्वारा प्रतिबोध देने पर भी गोशालक न समझा । पयःपानं भुजङ्गानां केवलं विषवर्धनम् की उक्ति के अनुसार उसने भगवान् श्री महावीर पर भी तेजोलेश्या फेंकी । पर वह तेजोलेश्या भगवान् के इर्दगिर्द चक्कर काटती हुई ऊपर आकाश में उछली और पुनः गोशालक के शरीर में प्रविष्ट हो गई । अपनी तेजोलेश्या से भगवान् को भस्म हुआ न देखकर गोशालक Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भ संहरण : शक्र की विचारणा आकुल-व्याकुल हो गया। वह बोला-'हे काश्यप ! तू छह मास में पित्त व दाह-ज्वर से पीड़ित होकर मर जायेगा।' महावीर ने गंभीर गर्जना करते हुए कहा-'गोशालक ! मैं तो अभी सोलह वर्ष तक गंधहस्ती की तरह इस महीतल पर विचरण करूंगा, परन्तुस्मरण रखना, तू स्वयं सात रात्रि में पित्त-ज्वर से पीड़ित होकर छद्मस्थावस्था में ही काल करेगा। भगवान् की यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। तेजोलेश्या के प्रभाव से भगवान् महावीर को भी छहमास तक पित्त-ज्वर व रक्तातिसार हो गया था।१८ केवलज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् तीर्थकर का यह अतिशय होता है कि वे जहाँ भी रहते हैं वहाँ और उसके आस पास सौ योजन तक किसी भी प्रकार का वैरभाव, मृगी, रोग एवं दुर्भिक्ष आदि उपद्रव नहीं होता, पर भगवान महावीर को केवलज्ञान होने के पश्चात् और उन्हीं के समवसरण में यह उपसर्ग हुआ जो एक आश्चर्य है । (२) गर्भापहरण-द्वितीय आश्चर्य गर्भापहरण हैं। तीर्थकरों के गर्भ का अपहरण नही होता, पर श्रमण भगवान महावीर का हुआ। दिगम्बर परम्परा प्रस्तुत घटना को मान्य नही करती, पर श्वेताम्बर परम्परा के माननीय आगमों में इसका स्पष्ट उल्लेख है। आचाराङ्ग'२० समवायाङ्ग२१ स्थानाङ्ग'२२ आवश्यक नियुक्ति' २३ प्रभृति में स्पष्ट वर्णन है कि श्रमण भगवान महावीर बयासी [८२] रात्रिदिवस व्यतीत होने पर एक गर्भ से दूसरे गर्भ में ले जाये गये। भगवती सूत्र में देवानन्दा ब्राह्मणी का परिचय देते हुए भगवान महावीर ने गौतम से कहा-'हे गौतम ! देवानन्दा ब्राह्मणी मेरी माता है।' २४ जैनागमों की तरह वैदिक परम्परा में भी गर्भ परिवर्तन-विधियों का उल्लेख है । कंस जब वसुदेव की सन्तानों को समाप्त कर देता था,तब विश्वात्मा योगमाया को यह आदेश देता है कि वह देवकी का गर्भ रोहिणी के उदर में रखे। विश्वात्मा के आदेश व निर्देश से योगमाया देवकी का गर्भ रोहिणी के Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र ६२ उदर में रख देती है । तब पुरवासी अत्यन्त दुःख के साथ कहने लगते हैं 'हाय बेचारी देवकी का यह गर्भ नष्ट हो गया । २५ आज का युग वैज्ञानिक युग है। वैज्ञानिकों ने अनेक स्थलों पर यह परीक्षण कर प्रमाणित कर दिया है कि गर्भ-परिवर्तन असम्भव नही है । इस सम्बन्ध में 'गुजरात वर्नाक्यूलर सोसायटी' द्वारा प्रकाशित 'जीवन-विज्ञान' ( पृष्ठ ४३ ) में एक वर्णन प्रकाशित हुआ है, वह द्रष्टव्य है । 'एक अमरीकन डाक्टर को एक भाटिया स्त्री के पेट का आपरेशन करना था । समस्या यह थी कि स्त्री गर्भवती थी । अत डाक्टर ने एक गर्भिणी बकरी का पेट चीरकर उसके पेट का बच्चा बिजली-चालित एक डिब्बे में रखा और उस स्त्री के पेट का बच्चा बकरी के पेट में । आपरेशन कर चुकने के बाद डाक्टर ने पुनः स्त्री का बच्चा स्त्री के पेट में और बकरी का बच्चा बकरी के पेट में रख दिया । कालान्तर में स्त्री और बकरी ने जिन बच्चों को जन्म दिया वे स्वस्थ और स्वाभाविक रहे ।' २८ (३) स्त्रीतीर्थ - तीर्थङ्कर पुरुष ही होते है, १२६ स्त्री नही, परन्तु प्रस्तुत अवसर्पिणी काल में उन्नीसवें तीर्थङ्कर मल्लि भगवती स्त्री हुई हैं । २७ मल्लि भगवती का जीव पूर्व भव में अपर विदेह के सलिलावती विजय में महाबल राजा था । उन्होंने अपने छह मित्रों सहित दीक्षा ग्रहण की। महाबल मुनि के अन्तर्मानस में यह विचार उबुद्ध हुआ कि यहाँ मैं अपने छहों साथियों का नेता हूँ । यदि मैं इनके साथ ही समान जप-तप करता रहूंगा तो भविष्य मे इनसे ज्येष्ठ व श्रेष्ठ नही बन सकूंगा । इस प्रकार विचार कर महाबल मुनि पारणा के समय बहानाबाजी कर उग्र तप करने लगे । तपादि के प्रभाव से तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया ।१२९ और माया के कारण सम्यक्त्व से च्युत होकर स्त्री वेद का । जिससे वे स्त्री तीर्थङ्कर हुए । ' यह भी एक आश्चर्य है । ३० 939 (४) अभावित परिषद् - तीर्थङ्कर का प्रथम प्रवचन इतना प्रभाव पूर्ण Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संहरण: श की विचारणा ६१ होता है कि उसे श्रवणकर भौतिकता में निमग्न मानव भी त्याग मार्ग को स्वीकार कर लेते हैं । भगवान् श्री महावीर को जृ भिका गाँव के बाहर ऋजु बालिका नदी के किनारे शाल वृक्ष के नीचे केवलज्ञान - केवलदर्शन उत्पन्न हुआ । देवों ने केवलज्ञान महोत्सव किया। समवसरण की रचना हुई भगवान् ने यह जान कर कि यहाँ कोई भी चारित्र धर्म अगीकार करने वाला नही है, अतः एक क्षण तक प्रवचन किया । 32 पर किसीने भो चारित्र स्वीकारनही किया 1233 एतदर्थ ही प्रथमपरिषद् को अभावित कहा है। तीर्थंकर का प्रवचन पात्र की अपेक्षा से निष्कल गया, यह भी एक आश्चर्य है । २ १३४ (५) कृष्ण का अपरकंका गमन - सतीशिरोमणि द्रौपदी के रूप लावण्य की प्रशमा सर्वत्र फैल चुकी थी। नारद ऋषि ने भी सुनी और वह उसे निहारने के लिये राजप्रासाद में पहुँचे । दृढधर्मा द्रौपदी ने गुरु बुद्धि से नारद को नमस्कार नहीं किया । नारद ऋषि ने अपना अपमान समझा और वे कुपित हो गए। द्रौपदी को इस अपमान का फल चखाने के लिए नारद ने उपाय सोचा । धातकीखण्ड द्वीप के अपरककाधीश पद्मनाभ को जो परदार- लुब्ध था, द्रौपदी का रूप वर्णन करते हुए कहा-पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी इतनी सुन्दर हैं, मान चांद का टुकडा हो । यदि तुम उसे प्राप्तकर सको तो तुम्हारे रणवास में चार-चांद लग जाएँगे ।" पद्मनाभ ने अपने मित्र देव की सहायता से सोई हुई द्रौपदी को अपने राजप्रासाद मे मंगवा लिया । द्रौपदी से भोग की भाषा में अभ्यर्थना की, पर पतिव्रता द्रौपदी ने उसे विवेकपूर्वक समझाकर रोका। द्रोपदी को राजप्रासाद में न पाकर पाण्डव चिन्तित हुए । यत्र-तत्र सर्वत्र खोज की, परन्तु द्रौपदी का कही अता-पता न लगा । द्वारिकाधीश श्री कृष्ण से निवेदन किया । कृष्ण ने उपहास करते हुए कहा - ' खेद है तुम पांच पति होते हुए भी द्रौपदी की रक्षा नहीं कर सके ।' फिर श्रीकृष्ण ने नारद ऋषि से पता पा लिया कि वह अपरकंका में है । पाण्डवों सहित श्रीकृष्ण वहाँ पहुँचे । नृसिह रूप बना श्रीकृष्ण ने पद्मनाभ को पराजित किया और वापस Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लौटते हुए विजय शंख बजाया,जिसका गंभीर रव तीर्थकर मुनिसुव्रत के पीयूषवर्षी प्रवचनों का पान करते हुए धातकीखण्डस्थ भरत क्षेत्र के वासुदेव श्री कपिल ने सुना । श्रीकृष्ण से मिलने के लिये वे द्रुतगति से चले, पर श्रीकृष्ण तो पूर्व ही वहां से प्रस्थान कर चुके थे। दूर से ही रथ की ध्वजा को निहार कर कपिल वासुदेव ने शखनाद किया और उसके प्रत्युत्तर में श्रीकृष्ण ने भी। यह नियम है कि वासुदेव व चक्रवर्ती सम्राट अपनी सीमा से बाहर अन्य सीमा में नहीं जाते, पर श्री कृष्ण गए, यह एक आश्चर्य है ।१३५ (६) चन्द्र सूर्य का आकाश से उतरना-एक समय श्रमण भगवान् श्री महावीर छद्मस्थावस्था में कौशाम्बी में विराज रहे थे। उस समय भगवान् के दर्शन हेतु सूर्य और चन्द्र दोनों अपने शाश्वत विमानों के साथ उपस्थित हुए।६ सूर्य और चन्द्र तीर्थकरों के दर्शनहेतु आते हैं, पर शाश्वत विमानों में नहीं। फिर भी आये, यह आश्चर्य है। इस सम्बन्ध में एक भिन्न मान्यता यह भी है-चन्द्र सूर्य का आगमन महावीर के समवसरण में हुआ। उस समय सती मृगावती भी वहीं बैठी थी, रात होने पर भी अंधकार न हुआ। चन्द्र सूर्य गए, अंधकार हुआ। मृगावती अपने स्थान पर गई, अग्रणी सती चन्दनबाला ने अकाल-वेला करने पर उलाहना दिया तब आत्मालोचन करते करते मृगावती को केवलज्ञान होगया। ३७ यह घटना महावोर के २४वें वर्षावास की है। (७) हरिवंश कुल की उत्पत्ति-कौशाम्बी के 'सम्मुख' नामक सम्राट् ने एक बार वीरक की पत्नी वनमाला को देखा। यौवन के मद में मदमाती वनमाला के सौन्दर्य ने सम्राट को उन्मत्त बना दिया। सम्राट के अनुनयविनय से वह भी अपने धर्म से च्युत हो वीरक की झोंपड़ी छोड़कर वह गगन चुम्बी राजप्रासाद में पहुँची। वीरक उसके वियोग से व्यथित होकर पागल हो गया वर्षा की सुहावनी वेला थी। आकाश में उमड़-घुमड़कर घनघोर घटाएँ आ रही थी। चारु-चपला चमक रही थी। वनमाला के साथ सम्राट आमोदप्रमोद में तल्लीन था। पीक थूकने के लिये गवाक्ष से ज्योंही मुह निकाला Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्न बहरण : सक को विधारणा त्योंही नीचे खड़े वीरक की दयनीय दशा देखकर उसका हृदय द्रवित हो गया। सोचा-'धिक्कार है हमें! हम वासना के कीड़े हैं।' यह विवेक का प्रकाश जगा ही था कि आकाश से बिजली गिरी और देखते-ही-देखते दोनों के प्राण-पखेरू उड़ गये । वीरक ने जब यह सुना तो उसका मस्तिष्क स्वस्थ हो गया और संसार के विनश्वर स्वभाव को समझकर वह एक एकान्त शान्त कानन में तप करने लगा। प्रशस्त भावना से सम्मुख और वनमाला वहां से हरिवर्ष क्षेत्र में युगलिये बने और वीरक भी तप के प्रभाव से आयु पूर्णकर सौधर्म कल्प में त्रिपल्योपम की स्थितिवाला किल्विषिक देव हुआ ।' ३८ उस युगल को कीड़ा में निमग्न देखकर उस देव का पूर्व वैर उबुद्ध हो गया। उसने सोचा-यहाँ भी ये सुख के सागर पर तैर रहे हैं और यहां से देवलोक मे जायेंगे, वहां भी इसी तरह आनन्द करेंगे। अतः ऐसा प्रयत्न करूँ जिससे इनका भावी जीवन दुःखमय बने । देव-शक्ति से दो कोस की ऊंचाई को सौ धनुष्य की करदी । १३९ वहां से दोनों को उठाकर भरतक्षेत्र की चम्पानगरी में लाया। वहां के इक्ष्वाकुकुल सम्राट का निधन हो गया था अतः वह 'हरि' वहां का सम्माननीय सम्राट् बना और हरिणी राजमहिषी । कुसंगति से दोनों ने सप्त व्यसनों का सेवन किया। जिससे वे वहा से मरकर नरक में गए। यौगलिक व्यसनों का सेवन नहीं करते और नरक में नही जाते पर वे गये, अतः यह आश्चर्य है। (८) चमरेन्द्र का उत्पात-असुरराज चमरेन्द्र पूर्व भव में "पूरण' नाम का एक बाल-तपस्वी था वह छट्ठ-छ? का तप करता और पारणा के दिन काष्ठ के चतुष्पुट पात्र में भिक्षा लाता। प्रथम पुट की भिक्षा पथिकों को प्रदान करता, द्वितीय पुट की भिक्षा पक्षियों को चुगाता, तृतीय पुट की भिक्षा जलचरों को देता और चतुर्थ पुट की भिक्षा समभाव से स्वयं ग्रहण करता। द्वादश वर्ष तक इस प्रकार घोर तप किया और एक मास के अनशन के पश्चात् आयु पूर्णकर चमरचंचा राजधानी में इन्द्र बना। इन्द्र बनते ही उसने अवधिज्ञान से अपने ऊपर सौधर्मावतंसक विमान में शक नामक सिंहासन पर शकेन्द्र को दिव्य भोग भोगते हुए देखा। अन्तर्मानस में विचार किया-"यह मृत्यु को चाहने वाला, अशुभ लक्षणोंवाला, लज्जा Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ कल्पसूत्र और शोभा रहित चतुर्दशी को जन्म लेने वाला, हीन पुण्य कौन है ? मैं इसकी शोभा को नष्ट करदू । पर मुझमें इतनी शक्ति कहा है?' वह असुरराज सुसुमारपुर नगर के निकटवर्ती उपवन में अशोक वृक्ष के नीचे जहाँ भगवान महावीर छद्मस्थावस्था के बारहबे वर्ष में ध्यानस्थ खड़े थे, वहाँ आया। उसने भगवान् महावीर की शरण ग्रहणकर शक्रेन्द्र और उनके देवोंको त्रास देनेके लिए विराट् एवं विद्रूप का विकुर्वणा की और सीधा सुधर्मासभा के द्वार पर पहुँचकर डराने धमकाने लगा । शकेन्द्र ने भी कोप करके अपना वज्रायुध उसकी तरफ फेंका। आग की चिनगारियाँ उगलते हुए वज्र को देखकर चमरेन्द्र जिस मार्ग से आया था उसी मार्ग से पुन: लौट गया । शक्रेन्द्र ने अवधिज्ञान से देखा तो पता चला कि यह श्रमण भगवान् महावीर की शरण लेकर यहाँ आया है और पुनः वही भागा जा रहा है | कही यह वज्र भगवान् महावीर को कष्ट न दे ! तदर्थ वह शीघ्र ही उसे लेने के लिए दौड़ा । चमरेन्द्र ने अपना सूक्ष्म रूप बनाया और महावीर के चरणारविन्दों में आकर छिप गया । वज्र महावीर के निकट तक पहुँचने से पूर्व ही इन्द्र ने वज्र को पकड़ लिया और चमरेन्द्र को महावीर का शरणागत होने से क्षमा कर दिया । अमुरराज सौधर्मसभा में कभी जाते नही है किन्तु अनन्तकाल के पश्चात् वे अरिहंत की शरण लेकर गये, यह भी एक आश्चर्य है । | ४१ (e) उत्कृष्ट अवगाहना के एक सौ आठ सिद्ध - भगवान् श्री ऋषभदेव व उनके निन्यानवें पुत्र ( भरत को छोड़कर) और भरत के आठ पुत्र इस प्रकार पांच सौ धनुष्य की उत्कृष्ट अवगाहना वाले एक सौ आठ सिद्ध एक ही समय में हुए । उत्कृष्ट अवगाहना वाले एक साथ दो सिद्ध होते हैं, एक सौ आठ सिद्ध एक साथ नही होते, ऐसा शाश्वत नियम है " पर वे हुए, अतः आश्चर्य हुआ । आवश्यक नियुक्ति १४३ आदि में दस सहस्र मुनियों के साथ भगवान् श्री ऋषभदेव की निर्वाणप्राप्ति का उल्लेख है । वह पृथक्-पृथक् समय और न्यूनाधिक अवगाहना की दृष्टि से है । एक समय में एक सौ आठ से अधिक सिद्ध नहीं होते । १४४ 62 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भ संहरण : हरिभेगमेवी को माह्वान (१०) असंयत पूजा-संयत सदापूजनीय और वन्दनीय होते हैं। किन्तु संयत की तरह असंयत की पूजा होना एक महार आश्चर्य है। प्रस्तुत अवसर्पिणी काल में भगवान् सुविधिनाथ के तीर्थ में ऐसा समय आया जिस समय श्रमण व श्रमणियां नहीं रहीं और असंयतियों की ही पूजा हुई। यह भी आश्चर्य माना गया।'४५ ये दस आश्चर्य निम्न तीर्थंकरों के समय में हुए हैं:-(१) भगवान् ऋषभ के समय उत्कृष्ट अवगाहना वाले एक सौ आठ मुनि मोक्ष गये । (२) भगवान् शीतलनाथ के समय हरिवश की उत्पत्ति हुई। (३) भगवान् अरिष्टनेमि के समय श्रीकृष्ण अपरकका गये । (४) मल्लि भगवती स्वयं स्त्री तीर्थकर हुई। (५) भगवान् सुविधिनाथ के तीर्थकाल में असंयत की पूजा हुई। शेष पाँच आश्चर्य (६) गर्भापहरण । (७) चमरेन्द्र का उत्पात (८) अभावित परिषद् (8) सूर्य चंद्र का आकाश से उतरना (१०) और अरिहंत को उपसर्ग ये भगवान् श्री महावीर के समय में हुए ।१४ मूल: अयं च णं समणे भगवं महावीरे जंबुद्दीवे दीवे भारहेवासे माहणकुडग्गामे नयरे उसभदत्तस्स माहणस्स कोडालसगोत्तस्स भारिआए देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छिसि गम्भताए वकते ॥१६॥ अर्थ-(शकेन्द्र विचार करता है) ये श्रमण भगवान महावीर जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, ब्राह्मण कुण्डग्राम नामक नगर में कोडालगोत्रीय ऋषभदत्त ब्राह्मण की पत्नी जालन्धर गोत्रीया देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में गर्भरूप में आये हैं। - हरिणंगमेषी को आह्वान मूल : तं जीयमेयं तीयपच्चुप्पण्णमणागयाणं सक्काणं देविंदाणं Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ कल्पसूत्र ० देवराईणं अरहंते भगवंते तहप्पगारेहिंतो अंतकुलेहिंतो वा पंत० तुच्छ० दरि६० भिक्खाग० किविणकुलेहिंतो वा तहप्पगारेसु उग्गकुलेसु वा भोगकुलेसु वा राइन्नकुलेसु वा नाय० खत्तिय• हरिवंस अण्णतरेसु वा तहप्पगारेसु विसुद्धजातिकुलवंसेसु वा साहरावित्तए । तं सेयं खलु ममवि समणं भगवं महावीरं चरिमतित्थयरं पुव्वतित्थयरनिट्ठि माणकु डग्गामाओ नयराओ उसभदत्तस्स माहणस्स कोडालसगोत्तस्स भारियाए देवानंदाए माहणीए जालंधरसगोत्ताए कुच्छीओ खत्तियकु डग्गामे नयरे नायाणं खत्तियाणं सिद्धत्थस्स खत्तियस्स कासवगोत्तस्स भारियाए तिसलाए खत्तियाणीए वासि - सगोत्ताए कुच्छिसि गन्भत्ताए साहरावित्तए, जे वि य णं से तिस लाए खत्तियाणीए गन्भे तं पि य णं देवाणंदाए माहणीए, जालंधरसगोत्ताप कच्छिसि गन्भत्ताए साहरावित्ताए त्ति कट्टु एवं संपेs, एवं संपेहित्ता हरिणेगमेसिं पायत्ताणियाहिवरं देवं सहावे, हरिणेगमेसि० देवं सद्दावित्ता एवं वयासी ॥ २० ॥ अर्थ - अतीतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यत्काल के देवेन्द्र देवराज शक्रेन्द्र का यह जीताचार है कि अरिहत भगवान् को तथा प्रकार के अन्तकुल, प्रान्तकुल, तुच्छकुल, दरिद्रकुल, भिक्षुककुल, कृपणकुल, में से लेकर उग्रकुल, भोगकुल, राजन्यकुल, ज्ञातकुल, क्षत्रियकुल, हरिवंशकुल एव तथाप्रकार के अन्य भी विशुद्ध जाति कुल वंशों में संहरित करना । तो मेरे लिये श्रेयस्कर है कि श्रमण भगवान् महावीर चरम तीर्थंकर को, पूर्व तीर्थकरों द्वारा निर्दिष्ट ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर से कोडालगोत्रीय ऋषभदन ब्राह्मण की पत्नी जालंधर गोत्रीया देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि से क्षत्रिय कुण्डग्राम नगर के ज्ञातवंशीय क्षत्रियों में से काश्यपगोत्रीय सिद्धार्थ क्षत्रिय की भार्या वासिष्ठ गोत्रीय त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में गर्भ रूप मे Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भ संहरण : हरिर्णगमेथी को आह्वान ६८ परिवर्तन करना, और जो उस त्रिशला क्षत्रियाणी का गर्भ है, व उस जालंधर गोत्रीया देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में गर्भरूप में स्थापित करना । शक्रेन्द्र ने इस प्रकार विचार किया और विचार करके पदातिसेना के अधिपति हरिणगमेषी १४७ देव को बुलाता है और बुलाकर हरिणगमेषी देव से इस प्रकार आदेश करता है । मूल ---- एवं खलु देवाणुप्पिया ! न एयं भूयं न एयं भव्वं, न एवं भविस्सं जन्नं अरहंता वा चक्कवट्टी वा, बलदेवा वा, वासुदेवा वा, अंतकुलेसु वा पंत० किविण० दरिद्द ० तुच्छ० भिक्खागकुलेसु वा आयाइंसु वा३ एवं खलु अरहंता वा चक्क० बल० वासुदेवा वा उग्ग कुलेसु वा भोगकुलेसु वा राइन ० नाय ० खत्तिय ० इक्खाग ० हरिवंसकुले वा अन्नयरेसु वा तहप्पगारेमु विसुद्धजाइकुलवंसेसु आयाई सुवा३ ॥२१॥ अर्थ – हे देवानुप्रिय । इस प्रकार निश्चय ही अतीतकाल में न ऐसा हुआ, न वर्तमान काल मे ऐसा होता है और न भविष्य काल में ऐसा होगा ही कि अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, अन्तकुल, प्रान्तकुल, कृपणकुल, दरिद्र कुल, तुच्छकुल, भिक्षुककुल- आदि मे अतीतकाल मे आये थे, वर्तमान में आते है अथवा भविष्य में आयेगे ही। निश्चय ही इस प्रकार अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव, वसुदेव उग्रकुल में, भोगकुल मे राजन्यकुल में, ज्ञातृकुल में, क्षत्रियकुल में, इक्ष्वाकुकुल में हरिवंशकुल मे तथाप्रकार के विशुद्ध जाति कुल वशों में अतीतकाल में आये थे, वर्तमान में आते हैं और भविष्य में आयेंगे । मूल : - अस्थि पुण एस भावे लोगच्छेरयभूए अणंताहिं ओसप्पि - णि उस्सप्पिणीहिं विक्कताहिं समुप्पज्जति, नामगोत्तरस वा कम्म Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्स अक्खीणस्स अवेइयस्स अणिज्जिन्नस्स उदएणं जन्नं अरहंता वा चक्कवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा अंतकुलेसु वा पंतकुलेसु वा तुच्छकुलेसु वा किविणकुलेसु वा दरिद० भिक्खागकुलेसु वा आयाइंसु वा३, नो चेव णं जोणीजम्मणनिक्खमणेणं निक्खमिसु वा ३ ॥२२॥ अर्थ:- किन्तु यह भाव भी लोग में आश्चर्यभूत है। ऐसी घटना अनन्त अवसपिणी, उत्सर्पिणी व्यतीत होने पर होती है जब नाम गोत्र कर्म क्षीण नहीं होता, उसका पूर्ण वेदन नही होता, पूर्ण निर्जीर्ण नहीं होता, प्रत्युत जिसके उदय मे आ गया है वे अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव वासुदेव, अन्तकुल मे, प्रांत कुल में, भिक्षुककल में अतीत में आये थे, वर्तमान में आते हैं और भविष्य मे आयेंगे । किन्तु उन्होने वहां पर अतीतकाल मे जन्म नहीं लिया, वर्तमान में वे जन्म नहीं लेते और भविष्य में जन्म नही लेंगे। मल: अयं च णं समणे भगवं महावीरे जंबुद्दीवे दीवे भारहेवासे माहणकुडग्गामे नयरे उसभदत्तस्स माहणस्स कोडालसगोत्तस्स भारियाए देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगोत्ताए कुच्छिसि गम्भताए वकते ॥२३॥ अर्थ-(किन्तु) ये श्रमण भगवान महावीर जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भारतवर्ष क्षेत्र में ब्राह्मण कुण्ड ग्राम नामक नगर में कोडाल गोत्रीय ऋषभदत्त ब्राह्मण की पत्नी जालंधर गोत्रीया देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि से गर्भरूप में उत्पन्न हुए हैं। मल: तं जीयमेयं तीयपच्चुप्पण्णमणागयाणं सक्काणं देविंदाणं Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भ संहरण : हरिगंगमेषी को आह्वान ७१ देवराईणं अरहते भगवते तहप्पगारेहितो वा अंत० पंत० तुच्छ० किविण० दरिद्द ० वणीमग जाव माहणकुलेहितो तहप्पगारेसु वा उम्गकुलेसु वा भोगकुलेसु वा राइनः नाय० खत्तिय० इक्खाग० हरिवंस० अण्णयरेसु वा तहप्पगारेसु विसुद्धजाति कुलवंसेसु माहरावित्तए ॥२४॥ अर्थ- तो अतीतकाल के, वर्तमानकाल के और भविष्यकाल के देवेन्द्र देवराज शकेन्द्र का यह कर्तव्य (कुलपरम्परा-कुलाचार) होता है कि वे अरिहंत भगवंत को तथाप्रकार के अंतकुल, प्रांतकुल, तुच्छकुल कृपणकुल, दरिद्रकुल भिक्षुककुल यावत् ब्राह्मणकुलों में से उन उग्रवंश के कुलों में भोगबश के कुलों में राजन्यवंश के कुलों में ज्ञातृवंश के कुलों में क्षत्रियवंश के कुलों में इक्ष्वाकु वंश के कुलों मे ह िवंश के कुलों में तथाप्रकार के अन्य भी विशुद्ध जाति कुल वाले वंशों में परिवर्तित कर देते है। मूल: तं गच्छ णं तुम देवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीर माहणकुडग्गामाओ नयराओ उसभदत्तस्स माहणस्स कोडालसगोतस्स भारियाए देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगोत्ताए कुच्छिीओ खत्तियकुंडग्गामे नयरे नायाणं खत्तियाणं सिद्धत्थस्स खत्तियस्स कासवसगोत्तस्स भारियाए तिसलाए खत्तियाणीए वासिट्ठ मगोत्ताए कुच्छिसि गन्भत्ताए साहराहि, साहरित्ता मम एयमाणत्तियं खिप्पमेव पच्चप्पिणाहि ॥२५॥ अथ-(हरिणगमैषी को आदेश देते हुए) हे देवानुप्रिय ! तो तुम जाओ, श्रमण भगवान महावीर को ब्राह्मणकुण्ड ग्राम नगर से कोडाल गोत्रीय ऋषभदत्त ब्राह्मण की पत्नी जालंधर गोत्रीया देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में से क्षत्रिय कुण्ड ग्राम नगर के ज्ञातवंशीय क्षत्रियों के काश्यप गोत्रीय सिद्धार्थ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ क्षत्रिय की वासिष्ठगोत्रीया त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में करो, और गर्भरूप में स्थापित करके पुनः मेरी आज्ञा मुझे मुझे सूचित करो । मूल कल्पसूत्र गर्भरूप में स्थापित अर्पित करो अर्थात् तए णं से हरिणेगमेसी पायत्ताणियाहिवई देवे सकेणं देविंदेणं देवरन्ना एवं वृत्ते समाणे हट्ठे जाव हयहियए करयल जाव त्ति कट्टु एवं जं देवो आणवेह त्ति आणाए विणणं वयणं पडिसुणेइ, वयणं पडिणित्ता सक्करस देविंदस्स देवरन्नो अंतियाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता उत्तरपुराच्छिमदिसीभागं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता वेडव्वियसमुग्धाएणं समोहणइ, वेडव्वियसमुघाणं समोहणइत्ता, संखेज्जाई जोयणाई दंडनिसिरह । तंजहारयणाणं वयराणं वेरुलियाणं लोहियक्खाणं मसारगल्लाणं हंसगभाणं पुलयाणं सोगंधियाणं जोइरसाणं अंजणाणं अंजणपुलयाणं रययाणं जायरूवाणं सुभगाणं अंकाणं फलिहाणं रिट्ठाणं अहाबायरेपोग्गले परिसाडेइ, २ त्ता अहासुहुमे पोग्गले परियादियति ॥ २६ ॥ अर्थ-उसके पश्चात् पादति सेना का सेनापति हरिणगमेषी देव देवेन्द्र देवराज शक्रेन्द्र की आज्ञा श्रवणकर प्रसन्न हुआ । यावत् हर्षित हृदय से दोनों हाथों को सम्मिलित कर अंजलिबद्ध हो, "देव की जिस प्रकार की आज्ञा है" इस प्रकार वह आज्ञा-वचन को विनय पूर्वक स्वीकार करता है और स्वीकार करके देवेन्द्र देवराज शकेन्द्र के पास से निकलता है, निकलकर के उत्तर पूर्व दिशा की ओर अर्थात् ईशानकोण में जाता है । वहाँ जाकर के वैकियसमुद्घात से स्वशरीर में स्थित आत्म-प्रदेशों के व कर्म पुलों के समूह को संख्यात योजन विस्तृत लम्बे दण्डे के आकार का बाहर निकालता है । भगवान् को एक Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहरण : गर्म से दूसरे गर्भ में स्थापित करने के लिए, अपने शरीर को अत्यन्त निर्मल बनाने के लिए, शरीरस्थ स्थूल पुद्गल-परमाणुओं को बाहर निकालता है जैसे कि रत्न के, वज्र के, गैड़र्य के, लोहिताक्ष के, मसारगल्ल के, हँसगर्भ के, पुलक के, सौगन्धिक के, ज्योतिरस के, अंजन के, अञ्जन-पलक के, रजत के, जातरूप के, सुभग के, अङ्क के, स्फटिक के, और अरिष्ट आदि सभी जाति के, रत्नों के, स्थूल पुद्गल होते हैं वैसे ही अपने शरीर में जो स्थूल पुद्गल हैं उनको निकालता है और उनके बदले में सूक्ष्म और सार रूप पुद्गों को ग्रहण करता है। मल: परियादित्ता दोच्चं पि वेउव्वियसमुग्याएणं समोहणइ, समोहणित्ता उत्तरवेउब्वियं रूवं विउव्वइ, उत्तरवेउब्वियं रूवं विउव्वित्ता ताए उक्किहाए तुरियाए चवलाए चंडाए जयणाए उद्ध् याए सिग्याए दिव्वाए देवगईए वीयीवयमाणे वीती २ तिरियमसंखेज्जाणं दीवसमुदाणं मझमझणंजेणेव जंबुद्दीवे दीवे जेणेव भारहे वासे जेणेव माहणकुंडग्गामे नयरे जेणेव उसमदत्तस्स माहणस्स गिहे जेणेव देवाणंदा माहणी तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता आलोए समणस्स भगवओमहावीरस्स पणामं करेइ, करिता देवाणंदाए माहणीए सपरिजणाए ओसोवणिं दलयइ, ओसोवणि दलइत्ता असुहे पोग्गले अवहरइ, अवह रित्ता सुहेपोग्गले पक्खिवइ, सुहे पोग्गले पक्खिवइत्ता 'अणुजाणउ मे भगवं!' ति कटु समणं भगवं महावीरं अव्वाबाहं अव्वाबाहेणं करयलसंपुडेणं गिण्हइ, समणं भगवं महावीरं अव्वावाहं० २ ता जेणेव खत्तियकुंडग्गामे नयरे, जेणेव सिद्धत्थस्स खत्तियस्स गिहे, जेणेव तिसला खत्तियाणी तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता तिसलाए Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प न खत्तियाणीए सपरिजणाए ओसोवणिं दलयइ. ओसोवणिं दलयित्ता असुहेपोग्गले अवहरइ, असुहेपोग्गले अवहरित्ता सुहेपोग्गले पक्खिवइ, सुहेपोग्गले पक्खिवइत्ता समणं भगवं महावीरं अव्वाबाहं अव्वाबाहेणं तिसलाए खत्तियाणीए कुच्छिसि गब्मत्ताए साहरइ । जे वि य णं ते तिसलाए खत्तियाणीए गब्भे तं पि य णं देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगोत्ताए कुच्छिसि गब्भत्ताए साहरइ, साहरित्ता जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए ॥२७॥ अर्थ-इस प्रकार वह (हरिणगमेषी) भगवान के पास में जाने के लिए अपने शरीर को श्रेष्ठ बनाने हेतु सूक्ष्म और शुभ पुद्गलो को ग्रहणकर पुनः दूसरी बार भी वैक्रिय समुद्घात करता है । अपने मूल शरीर से पृथक् द्वितीय उत्तर वैक्रिय शरीर बनाता है। बनाकर उस उत्कृष्ट त्वरायुक्त चपल, अत्यन्त तीव्र गतिवाली प्रचण्ड, अत्यन्त बेगवाली प्रचण्ड-पवन-प्रताड़ित धूम्र की तरह तेज वेगवाली, शीघ्र दिव्य देवगति से चलता है। चलकर तिरछे असख्य द्वीप समुद्रों के मध्य में होता हुआ जहाँ जम्बूद्वीप है, जहाँ भारतवर्ष है, जहाँ ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर है, जहाँ पर ऋषभदत्त ब्राह्मण का घर है, जहाँ पर देवानन्दा ब्राह्मणी है, वहां आता है। आकर के श्रमण भगवान महावीर को (गर्भस्थ) देखते ही प्रणाम करता है। प्रणाम करके देवानन्दा ब्राह्मणी को और सब परिजनों को अवस्वापिनी निद्रा (बेसुध करने वाली निद्रा) दिलाता है अर्थात् सुला देता है। अवस्वापिनी निद्रा देकर के अशुभ पुदगलों को दूर हटाता है, दूर हटाकर शुभ पुद्गलों को प्रक्षिप्त करता है। शुभ पद्गलों को प्रक्षिप्त करके 'हे भगवन् । आपकी आज्ञा हो" इस प्रकार कहकर श्रमण भगवान् महावीर को किञ्चित् भी कष्ट न हो, इस तरह अंजलि (दोनो हाथों) में ग्रहण करता है। श्रमण भगवान महावीर को ग्रहण करके जहां क्षत्रियकुण्ड - ग्राम नगर है, जहाँ सिद्धार्थ क्षत्रिय का घर हैं, जहां त्रिशला क्षत्रियाणी हैं, वहाँ आता है । वहां आकर के त्रिशला क्षत्रियाणी को सपरिवार अवस्वापिनी निद्रा दिलाता है। अवस्वापिनी निद्रा में सुलाकर अशुभ व अस्वच्छ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नसहरण : त्रिशला की कुक्षि में ७५ पुद्गलों को दूर करता है और शुभ पुद्गलों को प्रक्षिप्त करता है । शुभ पुद्गलों को प्रक्षिप्त करके श्रमण भगवान महावीर को सुखपूर्वक बाधारहित त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में गर्भरूप में प्रस्थापित करता हैं।' और जो त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में गर्भ था उसे जालंधर गोत्रीया देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में गर्भरूप में स्थापित करता है। स्थापित करके जिस दशा से वह आया था उसी दिशा में पुनः चला गया ।'४८ मल: उकिट्ठाए तुरियाए चवलाए जइणाए उद्ध् याए सिग्घाए दिवाए देवगईए तिरियमसंखेज्जाणं दीवसमुदाणं ममं मज्झणं जोयणसाहस्सीएहिं विग्गहेहिं उप्पयमाणे २ जेणामेव सोहम्मेकप्पे मोहम्मवडिसए विमाणे सक्कंसि सीहासणंसि सक्के देविंदे देवराया तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सकस्स देविंदस्स देवरनो एयमाणत्तियं खिप्पामेव पच्चप्पिणइ ॥२८॥ अर्थ-(तब वह) उत्कृष्ट, त्वरित (शीघ्रतायुक्त) चपल, (स्फूतियुक्त) वेगयुक्त ऊपर की ओर जाने वाली शीघ्र दिव्य देवगति से तिरछे असंख्यात द्वीप समुद्रों के बीचो-बीच होकर और हजार-हजार योजन के विराट पदन्यास (कदम) भरता हुआ ऊपर चढता है, ऊपर चढ़कर के जिस ओर सौधर्म नामक कल्प में, सौधर्मावतंसक विमान में, शक्र नामक सिहासन पर देवेन्द्र देवराज शक्रन्द्र बैठा है वहां आता है। आकर के देवेन्द्र देवराज शक्र को उसकी आज्ञा शीघ्र ही समर्पित करता है अर्थात् आज्ञानुसार कार्य कर देने की सूचना देता है। मल: - तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे तिण्णाणोवगए यावि होत्था, साहरिज्जिस्सामि ति जाणइ, साहरिज्जमाणे नो जाणइ, साहरिए मि त्ति जाणइ ॥२६॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-उस काल उस समय श्रमण भगवान महावीर तीन ज्ञान से युक्त थे। मुझे यहां से संहरण किया जाएगा, यह वे जानते थे, संहरण करते हुए नहीं जानते थे, किन्तु 'संहरण' हो गया, यह जानते थे ।१४९ मूल: - तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जे से वासाणं तच्चे मासे पंचमे पक्खे आसोयबहुले तस्स णं आसोय बहुलस्स तेरसीपक्खेणं बासीइराइंदिएहिं विइक्कतेहिं तेसीइमस्स राइंदियस्स अंतरा वट्टमाणे हियाणुकंपएणं देवेणं हरिणेगणेसिणा सकवयणसंदि?णं माहणकुडग्गामाओ नयराओ उसभदत्तस्स माहणस्स कोडालसगोत्तस्स भारियाए देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगोत्ताए कुच्छीओ खत्तियकुडग्गामे नयर नायणं खत्तियाणं सिद्धत्थस्स खत्तियस्स कासवसगोत्तस्स भारियाए तिसलाए खत्तियाणीएवासिट्ठसगोत्ताए पुज्वरत्तावरत्तकालसमयसि हत्थुत्तराहि नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं अब्वाबाहं अव्वाबाहेणं कुञ्छिसि साहरिए ॥३०॥ __ अर्थ-उस काल उस समय जब बर्षाऋतु चलती थी और बर्षाऋतु का वह प्रसिद्ध तृतीय मास और पांचवां पक्ष चलता था अर्थात् आश्विन कृष्णा त्रयोदशी के दिन भगवान को स्वर्ग से च्युत हुए और देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्म में आये हुए बयासी रात्रि दिन व्यतीत हो गये थे, और तिरासीवां दिन चल रहा था, तब त्रयोदशी के दिन मध्यरात्रि के समय, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का योग आते ही हितानुकम्पी हरिणगमेषी देव ने शक की आज्ञा से माहणकुण्ड ग्राम नगर में से कोडालगोत्रीय ऋषभदत्त ब्राह्मण की भार्या जालंधर गोत्रीया देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षि से क्षत्रियकुण्डग्राम नगर के ज्ञातृक्षत्रिय, काश्यपगोत्रीय सिद्धार्थ क्षत्रिय की भायाँ वासिष्ठगोत्रीया त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में अपने दिव्य प्रभाव से सुख पूर्वक संस्थापित किया। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिशला का स्वप्न-दर्शन ७७ मूल :समणे भगवं महावीरे तिण्णाणोवगए आवि होत्या, साहरिज्जिस्सामि त्ति जाणह, साहरिज्जमाणे नो जाणह, साहरिए, मित्ति जाण ॥३१॥ अर्थ - श्रमण भगवान महावीर ( उस समय ) तीन ज्ञान से युक्त थे, "मेरा यहां से संहरण होगा" यह जानते थे, 'संहरण हो रहा है' यह नहीं जानते थे, 'सहरण हो गया है' यह जानते थे । मूल : जं रयणि चणं समणे भगवं महावीरे देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगोत्ताए कुच्छीओ तिसलाए खत्तियाणीए वासिसगोताप कुच्छिसि भत्ताए साहरिए तं स्यणिं च णं सा देवानंदा माहणी सयणिज्जंसि सुत्तजागरा ओहीरमाणी ओहीरमाणी swara ओराले कल्लाणे सिवे धन्ने मंगल्ले सस्सिरीए चोइस महासुमि तिसलाए खत्तियाणीए हडे त्ति पासित्ता णं पडिबुद्धा । तं जहा - गयउसह० गाहा ||३२|| अर्थ - जिस रात्रि को श्रमण भगवान महावीर जालंधर गोत्रीया देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षि में से वासिष्ठ गोत्रीया त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में गर्भरूप मे संस्थापित किए गए उस रात्रि में वह देवानंदा ब्राह्मणी अपनी शय्या में अर्ध निद्रावस्था मे थी, उस समय उसने स्वप्न देखा कि मेरे उदार, कल्याणरूप, शिवरूप, धन्य, मंगलरूप श्रीयुक्त चौदह महास्वप्न त्रिशला क्षत्रियाणी हर लिए हैं। ऐसा देखकर वह जागृत हुई । वे चौदह महास्वप्न हैं हाथी वृषभ आदि । • त्रिशला का स्वप्न-दर्शन मूल : जं रयणि चणं समणे भगवं महावीरे देवाणंदाए माहणीए Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूच जालंधरसगोत्ताए कुaीओ तिसलाए खत्तियाणीए वासिसगोare कुच्छिसि गन्भत्ताए साहरिए तं रयणिं च णं सा तिसला खत्तियाणी तंसितारिस गंसि वासघरंसि भितरओ सचित्तकम्मे बाहिरओ दूमियघट्टमट्ठे विचित्तउल्लोयतले मणिरयणपणासियंधयारे बहुसमसुविभत्तभूमिभागे पंचवण्णसर ससुर हिमुक्कपुप्फपु' जोवयारकलिए कालागरुपवरकु दुरुक्कतुरुक्कडज्यंतधूवमघमघें तगंधुद्ध याभिरामे सुगंधवरगंधगंधिए गंधवट्टिभूए तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि सालिंगण वट्टिए उभओ बिब्बोयणे उभओ उन्नये मज्के णयगंभीरे गंगापुलिनवालुउद्दालसालिसए तोयवियखोमि यदुगुल्लपट्टपडिच्छन्न सुविरहयरयत्ताणे रत्तंसुयसंवुए सुरम्मे आयीणगरूयवूरनवणीयतूल फासे सुगंधवरकुसुमचुण्णसयणोवयारकलिए पुव्वरत्त वरत्तकालसमयंमि सुत्तजागरा ओहीरमाणी ओहीरमाणी इमेयारूवे ओराले चोइस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा |३३| ७८ अर्थ -- जिस रात्रि में श्रमण भगवान् महावीर जालंधरगोत्रीया देवानंदा ब्राह्मण की कुक्षि से वासिष्ठगोत्रीया त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में गर्भरुप में संस्थापित किए गए, उस रात्रि में वह त्रिशला क्षत्रियाणी भव्य भवन में प्रचला निद्रा ले रही थी । उस वासगृह का आभ्यंतरीय भाग चित्रों से चित्रित था, बाह्यभाग चूने से पोता हुआ था और घिसकर चिकना व चमकदार बनाया हुआ था। ऊपर छत में विविध प्रकार के चित्र बनाए हुए थे । मणि रत्नों की जगमगाहट ज्योति से वहां का अन्धकार नष्ट हो गया था, तल-भाग ( भूमि भाग - फर्श ) सम और सुरचित था, उस पर पाँच वर्णों के सरस-सुरभित- सुमन यत्र तत्र बिखरे हुए थे । वह वासगृह काले अगर, उत्तम कुन्दरु, लोमान, आदि विविध प्रकार की धूप से महक रहा था । अन्य भी सुगन्धित पदार्थों के सौरभ से वह सुरभित था। गंध द्रव्य की गुटिका की तरह वह सुगन्धित था । ऐसे श्रेष्ठ वासगृह में वह उस प्रकार के पलंग पर प्रसुप्त थी जिस पर प्रमाण Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिशला का स्वाम-दर्शन युक्त उपधान (तकिया) था, शिर और पैर के दोनों ओर उपधान रखे हुए थे। वह शय्या दोनों ओर से उन्नत और मध्य में नीची थी। गंगा नदी के तट की रेती के समान वह मुलायम थी। स्वच्छ अलसी के वस्त्र से वेष्टित थी। रजस्त्राण से आच्छादित थी। उस पर रक्तवस्त्र की मच्छरदानी लगी हुई थी। वह मृगचर्म, बढियारुई, बूर वनस्पति, मक्खन, आक की हुई, आदि कोमल वस्तुओं की तरह मुलायम थी। तथा शय्या सजाने की कला के अनुसार वह सजाई हुई थी, उसके सन्निकट सुगन्धित पुष्प और सुगन्धित चूर्ण बिखरा हुआ था। उस शय्या पर अर्धनिद्रावस्था में प्रसुप्त (त्रिशला क्षत्रियाणी ने), पश्चिम रात्रि में इस प्रकार के उदार चौदह महास्वप्नों को देखा और देख कर जागृत हुई ।'५० मल: तं जहागय वमह मीह अभिसेय, दाम ससि दिणयरं मय कुंभ । पउमसर सागर विमाण भवण रयणुच्चय सिहिं च ॥१॥ अर्थ-वे चौदह महास्वप्न ये हैं. (१) गज, (२) वृषभ, (३) सिंह, (४) लक्ष्मी, (५) पुष्पमाला, (६) चन्द्र, (७) सूर्य, (८) ध्वजा, (६) कुम्भ, (१०) पद्मसरोवर, (११) समुद्र, (१२) विमान, (१३) रत्न-राशि, (१४) निर्धूम अग्नि । मल: तए णं सा तिसला खत्तियाणी तप्पढमयाए तओयचउद्दतमूसियगलियविपुलजलहरहारनिकरखीरसागरससंककिरणदगरयरययमहासेलपंडरतरं समागयमहुयरसुगंधदाणवासियकवोलमूलं देवरायकुंजरंवरप्पमाणं पेच्छइ, सजलघणविपुलजलहरगज्जियगंभीरचारघोसं इमं सुभं सव्वलक्खणकयंबियं वरोरु १ ॥३४॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-वह त्रिशला क्षत्रियाणी सर्व प्रथम स्वप्न में हाथी को देखती है। वह हाथी चार दाँत वाला और ऊ चा था, तथा वह बरसे हुए मेघ की तरह श्वेत, सम्मिलित मुक्ताहार की तरह उज्ज्वल, क्षीरसमुद्र की तरह धवल, चन्द्र किरणों की तरह चमकदार, पानी की बूद की तरह निर्मल, और चांदी के पर्वत की तरह श्वेत था। उसके गंडस्थल से मद चू रहा था। सौरभ लेने के लिए भ्रमर मंडरा रहे थे। वह हाथी शकेन्द्र के ऐरावत हाथी को तरह उपत था, सजल व सधन मेघ की तरह गम्भीर गर्जना करने वाला था, वह अत्यन्त शुभ तथा शुभ लक्षणों से युक्त था। उसका उरु भाग विशाल था। ऐसे हाथी को त्रिशला प्रथम स्वप्न में देखती है।'५' मल: तओ पुणो धवलकमलपत्तपयराइरेगरूवप्पमं पहासमुदओवहारेहिं सव्वओ चेव दीवयंतं अइसिरिभरपिल्लणाविसप्पंतकंतसोहंतचारुककुहं तणुसुइसुकुमाललोमनिद्धच्छवि थिरसुबद्धमंसलोवचियलहसुविभत्तसुंदरंगं पेच्छइ, घणवट्टलहउकिडविसिहतुप्पग्गतिक्खसिंगं दंतं सिवं समाणसोभंतसुद्धदंतं वसभं अमियगुणमंगलमुहं २॥३५॥ अर्थ उसके पश्चात् त्रिशला माता वृषभ को देखती है। वह वृषभ श्वेत कमल की पखुडियों के समूह से भी अधिक रूप की प्रभावाला था। कांतिपुञ्ज की दिव्य प्रभा से सर्वत्र प्रदीप्त था। उसका विराट् स्कंध अत्यन्त उभरा हुआ व मनोहर था, उसके रोम सूक्ष्म व अति सुन्दर थे, व सुकोमल थे । उसके अंग स्थिर, सुगठित, मांसल व पुष्ट थे। उसके शृंग वर्तुलाकार, सुन्दर धी जैसे चिकने व तीक्ष्ण थे। उसके दांत अक्रूर, उपद्रव रहित, एक सदृश, कान्तिवाले, प्रमाणोपेत तथा श्वेत थे। वह वृषभ अगणित गुणों वाला और मांगलिक मुखवाला था। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिशला का स्वप्न-दर्शन ----- तओ पुणो हारनिकरखीरसागरससंक किरणद गरयरययमहासेल पंडरगोरं रमणिज्जपेच्छणिज्जं थिरलट्ठपउट्ठे वट्टपीवर सुसिलिविसिद्धतिक्खदाढा विडंबिय मुहं परिकम्मियजच्चकमलकोमलभाइयसो तल उट्ठ रत्तोप्पलप तम उयसुकुमालतालु निल्लालियग्गजीहं मूसागयपवरकणगतावियआवत्तायंत वट्टविमल डिस रिसनयणं विसालपीवरवरोरु पडिपुन्नविमलखंधं मिउविसयसु हुमलक्खणपसत्यविच्छिन्नकेसराडोवसोहिय ऊसियसुनिम्मियसुजायअप्फोडियनंमूलं सोम्मं सोम्माकारं लीलायंतं नहयलाओ ओवयमाणं नियगवयणमइवयंतं पेच्छइ सा गाढतिक्खनहं सीहं वयणसिरीपल्लवपत्तचारुजीहं ३ ॥३६॥ मूल अर्थ -- उसके पश्चात् त्रिशला क्षत्रियाणी स्वप्न में सिंह देखती है। वह सिंह हार-समूह, क्षीर सागर, चन्द्र किरणें, जल-कण एवं रजत-पर्वत के समान अत्यन्त उज्ज्वल था, रमणीय था, दर्शनीय था, स्थिर और दृढ पंजों वाला था । उसकी दांठें गोल, अनीव पुष्ट एवं अन्तर-रहित, श्रेष्ठ व तीक्ष्ण थीं, जिन से उसका मुंह सुशोभित हो रहा था । उसके दोनों ओष्ठ स्वच्छ, उत्तम कमल की तरह कोमल, प्रमाणोपेत व सुन्दर थे । उसका तालु रक्तकमल की तरह लाल व सुकोमल था । उसकी अग्र-जिह्वा लपलपा रही थी । उसके दोनों नेत्र सुवर्णकार के पात्र में रखे हुये तप्त गोल स्वर्ण के समान चमकदार और विद्य की तरह चमकीले थे । उसकी विशाल जंघाएँ अत्यन्त पुष्ट व उत्तम थी । उसके स्कंध परिपूर्ण और निर्मल थे। उसकी दीर्घ केसर ( अयाल ) कोमल, सूक्ष्म, उज्ज्वल, श्रेष्ठ लक्षणयुक्त व विस्तृत थी । उसकी उन्नत पूंछ कुण्डलाकार एवं शोभायुक्त थी । उसके नाखून अतीव तीक्ष्ण थे, उसकी आकृति बड़ी ही सौम्य थी, और नवीन पल्लव की तरह फैली हुई मनोहर जिह्वा थी। ऐसे सिंह को आकाश से जीला पूर्वक, नीचे उतरते और मुंह में प्रवेश करते देखती है । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ मल: तओ पुणो पुण्णचंदवयणा उच्चागयठाणलट्ठसंठियं पसत्थरूवं सुपइट्ठियकणगकुम्भसरिसोवमाणचलणं अच्चुन्नयपीणरइयमंसलउन्नयतणुतंबनिद्धनहं कमलपलाससुकुमालकरचरणकोमलवरंगुलिं कुरुविंदावत्तवट्टाणुपुब्बजंघं निगूढजाणु गयवरकरसरिसपीवरोरु चामीकररइयमेहलाजुत्तकंतविच्छिन्नसोणिचक जच्चंजणभमरजलयपकरउज्जुयसमसंहियतणुयआदेज्जलडहसुकुमालमउयरमणिज्जरोमराई नाभीमंडलविसालसुदरपसत्थजघणं करयलमाइयपसस्थतिवलीयमझ नाणामणिरयणकणगविमलमहातवणिज्जाहारणभूसणविराइयंगमंगिं हारविरायंतकुदमालपरिणद्धजलजलिंतथणजुयलविमलकलसं आइयपत्तियविभूमिएण य सुभगजालुज्जलेण मुत्ताकलावएणं उरत्थदीणारमालियविरइएणं कंठमणिसुत्तएण य कुंडलजुयलुल्लसंतअंसोवसत्तसोभतसप्पभेणं सोभागुणसमुदएण आणणकुडुबिएण कमलामलविसालरमणिज्जलोयणं कमलपज्जलंतकरगहियमुकतोयं लीलावायक्यपक्खएणं सुविसयकमिणघणसपहलवंतकेसहत्थं पउमदहकमलवासिणि सिरिं भगवई पिच्छइ हिमवंतसेलसिहरे दिसागइंदोरुपीवरकराभिसिच्चमाणिं ४ ॥३७॥ अर्थ-उसके पश्चात् पूर्ण चन्द्रवदना त्रिशला क्षत्रियाणी स्वप्न में लक्ष्मी देवी को देखती है । वह लक्ष्मी समुन्नत हिमवान् पर्वत पर उत्पन्न हुए श्रेष्ठ कमल के आसन पर संस्थित थी। प्रशस्त रुपवती थी, उसके चरण-युगल सम्यक् प्रकार से रक्खे हुए सुवर्णमय कच्छप के समान उन्नत थे। उसके भंगुष्ठ उभरे हुए और पुष्ट थे। उसके नाखून रंग से रंजित न होने पर भी रजित प्रतीत हो रहे थे, तथा मांस-युक्त, उभरे हुए, पतले ताम्र की तरह रक्त Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निशाला का स्वप्म-दर्शन और स्निग्ध थे। उसके हाथ और पैर कमल-दल के समान कोमल थे। उसकी अंगुलियां भी सुकोमल व श्रेष्ठ थी। पिंडलियाँ-जंघाएँ कुरुवृन्द (नागरमोथा) के आवर्त के समान अनुक्रम गोल थीं। उसके दोनों घुटने शरीर पुष्ट होने से बाहर दिखलाई नहीं दे रहे थे। उसकी जंघाएँ उत्तम हाथी की सूड की तरह पुरिपुष्ट थी। उसका कटि तट कान्त और सुविस्तृत कनकमय कटि-सूत्र से युक्त था। उसकी रोमराजि श्रेष्ठ अञ्जन, भ्रमर व मेघ समूह के समान श्याम वर्णवाली तथा सरस सीधी, क्रमबद्ध, अत्यन्त पतली, मनोहर, पुष्पादि की तरह मृदु और रमणीय थी । नाभिमण्डल के कारण उसकी जंघाएं सरस, सुन्दर और विशाल थी। उसकी कमर मुट्ठी में आ जाय इतनी पतली और मुन्दर त्रिवली से युक्त थी। उसके अङ्गोपाङ्ग अनेक विध मणियों, रत्नों, स्वर्ण तथा विमललाल सुवर्ण के आभूषणों से सुशोभित थे। उसके स्तनयुगल सुवर्ण कलश की तरह गोल व कठिन थे तथा वक्षस्थल मोतियों के हार से और कुन्द पुष्पमाला से देदीप्यमान था । उसके गले में नेत्रों को प्रिय लगे इस प्रकार के हार थे, जिनमें मोतियों के झुमके लटक रहे थे। सुवर्णमाला भी विराज रही थी और मणिसूत्र भी। उसके दोनों कानों में चमकदार कुण्डल पहने हुए थे और वे स्कन्ध तक लटक रहे थे। मुख से अभिन्न शोभा गुण के कारण वह अतीव सुशोभित थी। उसके विशाल लोचन कमल के समान निर्मल एवं मनोहर थे। उसके दोनों करो में देदीप्यमान कमल थे। जिनमें से मकरन्द की बूंदे टपक रही थी। वह आनन्द के लिए (गर्मी के अभाव में भी) बीजे जाते पँखे से सुशोभित थी । उसका केशपाश पृथक-पृथक् व गुच्छे रहित तथा काला, सघन, सुचिक्कण और कमर तक लम्बायमान था । उसका निवास पद्मद्रह के कमल पर था। उसका अभिषेक हिमवन्त पर्वत के शिखर पर स्थित दिग्गजों की विशाल और पुष्ट शुण्ड से निकलती हुई जलधारा से हो रहा था । ऐसी भगवती लक्ष्मी देवी को त्रिशला माता ने स्वप्न में देखा। मुल: तओ पुणो सरसकुसुममंदारदामरमणिज्जभूयं चंपगासोग Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्णागनागपियंगुसिरीसमोग्गरगमल्लियाजाइजूहियंकोल्लकोजकोरिंटपत्तदमणयणवमालियबउलतिलयवासंतियपउमुप्पलपाडलकुदाइमुत्तसहकारसुरभिगंधि अणुवममणोहरेणं गंधेणं दस दिसाओ वि वासयंत सब्बोउयसुरभिकुसुममल्लधवलविलसंतकंतबहुवनभत्तिचित्तं छप्पयमहुयरिभमरगणगुमुगुमायंतमिलतगुजंतदेसभागं दाम पेच्छह नभंगणतलाओ अोवयंतं ५ ॥३८॥ अर्थ-उसके पश्चात् त्रिशला क्षत्रियाणी ने स्वप्न में आकाश में से नीचे उतरती हुई सुन्दर पुष्पों की माला देखी । वह माला मन्दार के ताजा फूलों से गुंथी हुई बड़ी रमणीय थी। उस माला में चम्पक, अशोक, पुन्नाग, नागकेसर, प्रियंगु, शिरीष, मोगरा, मल्लिका, जाई, जूही, अंकोल, कोज्ज, कोरंट, दमनकपत्र नवमल्लिका, वकुल, तिलक, वासन्ती, सूर्य विकासी और चन्द्र विकासी कमल, पाटल, (गुलाब) कुन्द, अतिमुक्तक, और सहकार के फूल गुथे हुए थे, जिससे उसकी मधुर सौरभ से दशों दिशाएँ महक रही थीं। सर्व ऋतुओं में खिलने वाले पुष्पों से वह निर्मित थी। उस माला का रंग मुख्यतः श्वेत था और यत्रतत्र विविध रंगों के पुष्प भी गुथे हुए थे, जिससे वह बहुत ही मनोहर और रमणीय प्रतीत हो रही थी। विविध रंगों के कारण वह आश्चर्य उत्पन्न करती थी। उसके ऊपर-मध्य और नीचे सर्वत्र भोरे गुजार करते हुए मडरा रहे थे । ऐसी माला को त्रिशला माता ने देखा । मल: ससि च गोखीरफेणदगरयरययकलसपंडरं मुभं हिययनयणकंतं पडिपुन तिमिरनिकरघणगहिरवितिमिरकर पमाणपक्खं. तरायलेहं कुमुदवणविबोहयं निसासोभगं सुपरिमट्टदप्पणतलोवम हंसपडुवन्न जोइसमुहमंडगं तमरिपु मयणसरापूरं समुहदगपूरग दुम्मणं जणं दतियवज्जियं पायएहिं सोसयंतं पुणो सोम्मचाररूवं Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिला का स्वप्न-वर्शन पेच्छह सा गगणमंडल विसालसोम्मचकम्ममाणतिलगं रोहिणिमणहिययवल्लहं देवी पुनचंदं समुल्लसंतं ६ ॥३॥ __अर्थ-उसके पश्चात् छठे स्वप्न में त्रिशला माता चन्द्र को देखती है । वह चन्द्र गोदुग्ध, पानी के झाग, जलकण, एवं रजत-घट की तरह शुभ्र था, शुभ था,और हृदय व नयनों को अत्यन्त प्रिय था, परिपूर्ण था,गहनतम अन्धकार को नष्ट करने वाला था। पूर्णिमा के चन्द्र की तरह पूर्णकला युक्त था । कुमुदवनों को विकसित करने वाला था, रात्रि की शोभा को बढ़ाने वाला था। वह स्वच्छ किए हुए दर्पण ने समान चमक रहा था। हंस के समान श्वेत था। वह तारागण और नक्षत्रों में प्रधान था। उनकी श्री की अभिवृद्धि करने वाला था। वह अन्धकार का शत्रु था। अनङ्गदेव के बाणों को भरने वाला तरकस था, समुद्र के पानी को उछालने वाला था, विरहिणियों को व्यथित करने वाला था, वह सौम्य और सुन्दर था, विराट् गगन मण्डल में अच्छी तरह से परिभ्रमण करने वाला था, मानो वह आकाश मण्डल का चलता फिरता तिलक हो। वह रोहिणी के मन को आल्हादित करने वाला उसका पति था। इस प्रकार समुल्लिसित पूर्णचन्द्र को त्रिशला माता देखती है। मूल : तओ पुणो तमपडलपरिप्फुडं चेव तेयसा पज्जलंतरूवं रत्तासोगपगासकिमयसुगमुहगुंजद्धरागसरिसं कमलवणालंकरणं अंकणं जोइसस्स अंबरतलपईवं हिमपडलगलग्गहं गहगणोस्नायगं रत्तिविणासं उदयत्थमणेसु मुहुत्तसुहृदंसणं दुनिरिक्खरूवं रत्तिमुद्धायंतदुप्पयारपमदणं सीयवेगमहणं पेच्छइ मेरुगिरिसययपरियट्टयं विसालं सूरं रस्सीसहस्सपयलियदित्तसोहं ७ ॥४०॥ __अर्थ-उसके पश्चात् त्रिशलामाता स्वप्न में सूर्य को देखती है। वह सूर्य अंधकार के समूह को नष्ट करने वाला और तेज से जाज्वल्यमान था। रक्त अशोक, विकसित किंशुक, तोते की चोंच, चिर्मी के अर्ध लाल भाग के Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ समान वह रक्त वर्ण वाला था । कमल वनों को सुशोभित करने वाला, ज्योतिषचक्र पर संक्रमण करने के कारण उसके लक्षणों को बताने वाला था । वह आकाश का प्रदीप, हिम को नष्ट करने वाला, ग्रहमण्डल का मुख्य नायक, रात्रि को नष्ट करने वाला, उदय और अस्त के समय ही थोड़ी देर सुखपूर्वक देखा जा सकने योग्य, अन्य समयमे नही देखने योग्य, निशा मे विचरण करने वाले जारों व तस्करों का प्रमर्दक, शीत-हर्ता, मेरुपर्वत की प्रदक्षिणा करने वाला, अपनी सहस्रकिरणों से चमकते हुए चाँद और तारागणों की शोभा को नष्ट करने वाला था । ऐसे सूर्य को त्रिशलामाता देखती है । : मूल तओ पुणो जच्चकणगलट्ठिपइट्ठियं समूहनीलरत्तपीयसुकिल्लसुकुमालुल्लसियमोरपिंछकयमुद्धयं फालियसंखंककु ददगरयरययकलसपंडरेण मत्थयत्थेण सीहेण रायमाणेणं रायमाणं भेत्त गगणतलमंडलं चैव ववसिएणं पेच्छइ सिवमउयमाख्यलयाहयपकँपमाणं अतिप्पमाणं जणपिच्छणिज्जरूवं ८ ॥४१॥ अर्थ — उसके पश्चात् त्रिशलामाता स्वप्न में ध्वजा देखती है । वह ध्वजा श्रेष्ठ सुवर्ण की यष्टि पर प्रतिष्ठित थी । वह नील, रक्त, पीत, श्वेत आदि विविध रंगों के वस्त्रों से निर्मित थी। हवा से लहराती हुई वह ध्वजा मयूरपंख के समान शोभित हो रही थी । वह ध्वजा अत्यधिक शोभा-सुन्दरता युक्त थी । उस ध्वजा के ऊर्ध्व भाग में श्वेत वर्ण का सिंह चित्रित था जो स्फटिक, टूटे शंख, अंक- रत्न, मोगरा, जल-कण एवं रजत-कलश के समान उज्ज्वल था । पवन प्रताड़ित ध्वजा इधर-उधर डोलायमान हो रही थी। जिससे यह प्रतीत होता था कि सिंह आकाशमण्डल को भेदन करने का उद्यम कर रहा हैं। वह ध्वजा सुखकारी मन्द मन्द पवन से लहरा रही थी, वह अतिशय उन्नत थी, मनुष्यों के लिए दर्शनीय थी, ऐसी ध्वजा त्रिशलामाता देखती है । --- मूल तओ पुणो जच्चकंचणुज्जलंतरूवं निम्मलजलपुन्नमुत्तमं Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशला का स्वप्न-वर्शन दिप्पमाणसोहं कमलकलावपरिरायमाणं पडिपुण्णसव्वमंगलभेयसमागर्म पवररयणपरायतकमलट्ठियं नयणभूसणकरं पभासमाणं सव्वओ चेव दीवयंत सोमलच्छीनिभेलणं सव्वपावपरिवज्जियं सुभं भासुरं सिम्खिरं सब्वोउयसुरभिकुसुमआसत्तमल्लदामं पेच्छइ सा रययपुन्नकलसं ६ ॥४२॥ अर्थ-उसके पश्चात् त्रिशलामाता कलश का स्वप्न देखती है। वह कलश विशुद्ध सुवर्ण की तरह चमक रहा था। निर्मल नीर से परिपूर्ण था, देदीप्यमान था, चारों ओर कमलोंसे परिवेष्टित था, सभी प्रकार के मंगल-चित्र उस पर चित्रित होने से वह सर्व मंगलमय था । श्रेष्ठ रत्नों से निर्मित कमल पर वह कलश सुशोभित था जिसे निहारते ही नेत्र आनन्द विभोर हो जाते थे। उसकी प्रभा चारों दिशाओं में फैल रही थी। जिससे सभी दिशाए आलोकित थी। लक्ष्मी देवी का वह प्रशस्त घर था । सभी प्रकार के दूषणों से रहित, शुभ और चमकदार व उत्तम था। सर्व ऋतुओं के सुगन्धित सुमनों की मालाएं कलश के कंठ पर रखी हुई थी, ऐसे चाँदी के पूर्ण कलश को त्रिशला माता स्वप्न में देखती है। मल: तओ पुणो रविकिरणतरुणबोहियसहस्सपत्तसुरहितरपिंजरजलं जलचरपहगरपरिहत्थगमच्छपरिभुज्जमाणजलसंचयं महंतं जलंतमिव कमलकुवलयउप्पलतामररसपुंडरीयउरुसप्पमाणसिरिसमुदएहिं रमणिज्जरूवसोभं पमुइयंतभमरगणमत्तमहुकरिगणोकरोलिब्भमाणकमलं कादंबगबलाहगचक्काककलहंससारसगव्वियसउणगणमिहुणसेविज्जमाणसलिलं पउमिणिपत्तोवलग्गजलबिंदुमुत्तचित्तं च पेच्छइ सा हिययणयणकंतं पउमसरं नाम सरं सररुहाभिरामं १० ॥४३॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भयं-उसके पश्चात् त्रिशलामाता स्वप्न में पद्मसरोवर को देखती है। बह पपसरोवर प्रातःकालीन सूर्य रश्मियों से विकसित सहस्र पंखुड़ियों वाले कमल के सौरभ से सुगन्धित था। उसका पानी कमल पराग के गिरने से रक्त और पीतवर्ण का दृष्टिगोचर हो रहा था। उसमें जलचर जीवों का समूह इतस्ततः परिभ्रमण कर रहा था। मत्स्यादि उसके मधुर जल का पान कर रहे थे । वह सरोवर अत्यन्त महरा और लम्बा चौड़ा था। सूर्य विकासी कमल, चन्द्र विकासी कमल, रक्त कमल, बड़े कमल, श्वेत कमल, इन सभी प्रकार के कमलों से वह शोभायुक्त था। वह अतीव रमणीय था । प्रमोद युक्त भ्रमर और मत्त मधुमक्षिकाएं कमलों पर बैठकर उनका रसपान कर रही थीं। उस सरोवर पर मधुर कलरव करने वाले कलहंस, बगुले, चक्रवाक, राजहंस, सारस, आदि विविध पक्षियों के युगल जल-क्रीड़ा कर रहे थे। उसमें कमलिनी दल पर गिरे हुए जल-कण सूर्य की किरणों से मुक्ता की तरह चमक रहे थे। वह सरोवर हृदय और नेत्रों को परम शान्ति प्रदाता था और कमलों से रमणीय था। ऐसे सरोवर को त्रिशला माता स्वप्न में देखती है । मल: तओ पुणो चंद किरणरासिसरिससिरिवच्छसोहं चउगमणपवढमाणजलसंचयं चवलचंचलुच्चायप्पमाणकल्लोललोलतोयपडुपवणाहयचालियचवलपागडतरंगरंगंतभंगखोखुब्भमाणसोभंतनिम्मलउक्कडउम्मीसहसंबंधधावमाणोनियत्तभासुरतराभिरामं महामगरमच्छतिमिरतिमिगिलनिरुद्धतिलितिलियाभिधायकप्परफेणपसरमहानईतुरियवेगसमागयभमगंगावत्तगुप्पमाणुच्चलंतपच्चोनियत्तभममाणलोलसलिलं पेच्छइ खीरोयसागारं सरयरयणिकरसोम्मवयणा ११ ॥४४॥ अर्थ-उसके पश्चात् वह त्रिशला माता स्वप्न में क्षीर सागर को देखती है। इस क्षीर सागर का मध्य भाग चन्द्र किरणों के समूह की तरह शोभायमान Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FNAI का स्नान ८४ था और अत्यन्त उज्ज्वल था। चारों ओर प्रवर्धमान पानी से अत्यन्त गहरा था, उसकी लहरें चंचल थीं। वे अधिक उछल रही थीं, जिससे उसका पानी तर गित था। पवन से प्रताड़ित होने पर वह बार-बार शीघ्र तरगित ही नहीं हो रहा था अपितु ऐसा लग रहा था कि तट से टकराकर दौड़ रहा हो। उस समय वे लहरें नृत्य करती हुई-सी और भय-विह्वल हुई-सी अतिशय क्षुब्ध प्रतीत हो रही थीं। वे उद्धत एवं सुहावनी उमियाँ कभी इस प्रकार ज्ञात होती थी मानो अभी-अभी तट को उल्लंघन कर जायेंगी और कभी पुनः लौटती हुई ज्ञात होती थीं। उसमें स्थित विराट मकरमच्छ, तिमिमच्छ, तिमिङ्गलमच्छ, निरुद्ध, तिलतिलय आदि जलचर अपनी पूछ को जब पानी पर फटकारते थे तब उनके चारो ओर कपूर जैसे उज्ज्वल फेन फैल जाते थे। महा नदियों के प्रबल प्रवाह गिरने से उसमें गगावर्त नामक भंवर (चक्र) उत्पन्न होते थे। उन भंवरों में पानी उछलता, पुनः वही गिरता तथा चारों ओर चक्कर लगाता हआ चंचल प्रतीत होता था। ऐसे क्षोर समुद्र को शरद्ऋतु के चन्द्र समान सौम्य मुख वाली त्रिशला माता ने देखा। मल: तओ पुणो तरुणसूरमंडलसमप्पभं उत्तमकंचणमहामणिसमूहपवरतेयअट्ठसहस्सदिपंतनभप्पईवं कणगपयरपलंबमाणमुत्तासमुज्जलं जलंतदिव्वदाम ईहामिगउसभतुरगनरमगरविहगवालगकिनररुरुसरभचमरसंसत्तकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं गंधब्बोपवज्जमाणसंपुण्णघोस निच्चं सजलघणविउलजलहरगज्जियसदाणुणादिणा देवदुदुहिमहारवेणं सयलमविजीवलोयं पपूरयंतं कालागरुपवर कुदुरुकतुरुक्कडझतधूवमघमधितगंधुद्धयाभिरामं निच्चालोयं सेयं सेयप्पभं सुरवराभिरामं पिच्छा सा सातोवभोगं विमाणवरपुंडरीयं । १२॥४५॥ अर्थ-उसके पश्चात् त्रिशलामाता स्वप्न में श्रेष्ठदेव विमान देखती है । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह देवविमान नवोदित सूर्य-बिम्ब के सदृश प्रभा वाला-देदीप्यमान था। उसमें स्वर्ण निर्मित और महामणियों से जटित एक सहस्र अष्ट स्तम्भ थे, जो अपने अलौकिक आलोक से आकाश मण्डल को आलोकित कर रहे थे। उसमें स्वर्ण पत्रों पर जड़े हुए मुक्ताओं के गुच्छे लटक रहे थे। इस कारण उसमें आकाश अधिक चमकीला लग रहा था । दिव्य मालाएँ भी लटक रही थीं। उस विमान पर वृक, वृषभ, अश्व, नर, मकर, विहग, सर्प, किन्नर, रुरुमृग, शरभ, (अष्टापद) चमरीगाय, तथा विशेष प्रकार के जगली पशु, हस्ती, वनलता, पद्मलता, आदि के विविध प्रकार के चित्र चित्रित थे। उसमें गन्धर्व मधुर गीत गा रहे थे, वाद्य बज रहे थे जिससे वह गर्जता हुआ प्रतीत हो रहा था। उसमे देवदुन्दुभि का घोष हो रहा था जिससे वह विपुल मेघ की गम्भीर गर्जना की तरह सम्पूर्ण देवलोक को शब्दायमान करता हुआ-सा लगता था। कालागरु, श्रेष्ठकुन्दरुक, तुरुष्क (लोमान) तथा जलती हुई धूप से वह महक रहा था और मनोहर लग रहा था । उस विमान में नित्य प्रकाश रहता था, वह श्वेत और उज्ज्वल प्रभा वाला था। देवों से सुशोभित सुखोपभोग रूप श्रेष्ठ पुण्डरीक के सदृश विमान को माता त्रिशला देखती है ।१५३ मल:- तओ पुणो पुलगवेरिंदनीलसासगकक यणलोहियक्खमरगयमसारगल्लपवालफलिहसोगंधियहंसगब्भअंजणचंदप्पभवररयणमहियलपइट्ठियं गगणमंडलं तं पभासयंत तुगं मेरुगिरिसन्निगासं पिच्छइ सा रयणनियररासिं। १३ ॥४६॥ अर्थ-उसके पश्चात् त्रिशलामाता ने स्वप्न में रत्नराशि देखी। वह रत्नराशि भूमि पर रखी हुई थी, पर उसकी चमक-दमक गगन मण्डल के अन्तिम छोर तक परिव्याप्त थी, उसमें पुलक, वज्र, इन्द्रनील, सासक, कर्केतन, लोहिताक्ष, मरकत, मसारगल्ल, प्रवाल, स्फटिक, सौगन्धिक, हंसगर्भ, अंजन, चन्द्रप्रभ, प्रभृति श्रेष्ठ रत्न प्रभास्वर हो रहे थे। वह रत्नों का समूह मेरुपर्वत, के समान उच्च प्रतीत हो रहा था। ऐसी रत्न राशि माता ने स्वप्न में देखी। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निशाला का स्वप्नान मूल: सिहिं च सा विउलुज्जलपिंगलमहुघयपरिसिच्चमाणनि- . मधगधगाइयजलंतजालुज्जलाभिरामं तरतमजोगेहिं जालपयरेहि अण्णमण्णमिव अणुपइण्णं पेच्छइ जालुज्जलणग अंबरं व कथइपयंतं अइवेगचंचल, सिहि । १४ ॥४७॥ ___अर्थ - उसके पश्चात् त्रिशला माता स्वप्न मे निषूम अग्नि देखती है । उस अग्नि की शिखाएं ऊपर की ओर उठ रही थी। वह उज्ज्वल घृत और पीत मधु से परिसिंचित होने के कारण निर्धूम देदीप्यमान उज्ज्वल ज्वालाओं से मनोहर थीं। वे ज्वालाएं एक दूसरे से मिली हुई प्रतीत होती थीं। उनमें कुछ ज्वालाएँ छोटी थी और कुछ ज्वालाएँ बड़ी थीं, वे इस प्रकार ज्ञात हो रही थी कि मानो आकाश को पकड़ रही हैं। वे ज्वालाएँ अतिशय वेग के कारण अत्यधिक चंचल थीं। इस प्रकार चौदहवें स्वप्न में त्रिशला माता निर्धूम प्रज्ज्वलित अग्नि शिखा देखती है। मल: एमेते एयारिसे सुभे सोमे पियदसणे सुरूवे सुविणे दळूण मयणमज्झे पडिबुद्धा अरविंदलोयणा हरिसपुलइयंगी। एए चोइस सुमिणे सव्वा पासेइ तित्थयरमाया। जं रयणिं वक्कमई, कुच्छिसि महायसो अरहा। १॥४८॥ अर्थ-इस प्रकार के इन शुभ, सौम्य प्रियदर्शन एवं सुरूप स्वप्नों को निहारकर अरविन्द के समान विकसित नयन वाली माता त्रिशला के शरीर के रोम-रोम प्रसन्नता से पुलकित हो गए । वह अपनी शय्या पर जागृत हुई। जिस रात्रि को महायशस्वी तीर्थकर माता की कुक्षि में आते हैं, उस रात्रि में प्रत्येक तीर्थकर की माताएं इन चौदह स्वप्नों को देखती हैं । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --. सिद्धार्थ से स्वप्न-चर्चा मल:... तए णं सा तिसला खत्तियाणी इमेयारूवे ओराले चोदस महासुमिणे पासित्ता गं पडिबुद्धा समाणी हट्ट जाव हयहियया धाराहयकलंबपुष्फर्ग पिव समूससियरोमकूवा सुमिणोग्गहं करेइ, सुमिणोम्गहं करित्ता सयणिज्जाओ अब्भुढेइ, सयणिज्जाओ अन्भुद्वित्ता पायपीढातो पच्चोरुहइ, पच्चोरुहिता अतुरियं अचवलमसंभताए अविलंबियाए रायहंससरिसीए गईए जेणेव सयणिज्जे जेणेव सिद्धत्थे खत्तिए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सिद्धत्यं खत्तियं ताहिं इट्टाहिं कताहिं पियाहि मणुनाहिं मणामाहिं ओरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धन्नाहिं मंगल्लाहिं सस्सिरियाहिं हिययगमणिज्जाहिं हिययपल्हायणिज्जाहिं मियमहुरमंजुलाहिं गिराहिं संलवमाणी संलवमाणी पडिबोहेइ ॥४॥ . अर्थ-उसके पश्चात् वह त्रिशला क्षत्रियाणी इस प्रकार पूर्वोक्त चौदह महास्वप्नों को देखकर जागृत हुई । हर्षित और सन्तुष्ट हुई यावत् मेघधारा से आहत कदम्ब पुष्प के समान उसके रोम-रोम पुलकित हो गए। वह स्वप्नों को स्मरण करती है, स्मरण करके शय्या से उठती है और उठकर पादपीठ पर उतरती है और उतरकर अ-त्वरित,(धीमे-धीमे) अचपल, असंभ्रान्त,(धैर्यपूर्वक) अविलम्ब राजहसी-सी मन्द-मन्द गति से चलकर जहां पर सिद्धार्थ क्षत्रिय का शयन कक्ष है और जहां पर सिद्धार्थ क्षत्रिय सुखपूर्वक सोया है, वहाँ माती है। आकर सिद्धार्थ क्षत्रिय को इष्ट, कान्त, प्रिय मनोज्ञ, मनोहर, उदार, कल्याणरूप, शिवरूप, धन्य, मंगलकारी, शोभायुक्त हृदय को रुचिकर और हृदय को आल्हादकारी मित, मधुर एवं मञ्जुल शब्दों से जगाती है। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेर्चा ८३ मूल : तर f सा तिसला खत्तियाणी सिद्धत्थेणं रन्ना अव्भणुन्नाया समाणी नाणामणिरयणभत्तिचित्तंसि भद्दारुणंसि निसीयह, निसीइत्ता आसत्या वीसत्या सुहासणवरगया सिद्धत्थं खत्तियं ताहिं इठाहिं जाव संलवमाणी संलवमाणी एवं वयासी ॥ ५० ॥ अर्थ-उसके पश्चात् वह त्रिशला क्षत्रियाणी सिद्धार्थ राजा की आज्ञा प्राप्त कर विविध मणि-रत्नों से रचित भद्रासन पर बैठती है । बंठकर चलने के श्रम को दूर कर, क्षोभ रहित होकर सिद्धार्थ क्षत्रिय को इष्ट यावत् हृदय को आह्लादित करने वाली वाणी से संलाप करती - करती वह इस प्रकार बोली: मूल : एवं खलु अहं सामी ! अज्ज तंसि तारिसयंसि सर्याणिज्जंसि वन्नओ जाव पडिबुद्धा । तं जहा गयवसह० गाहा । तं एतेसिं सामी ! ओरालाणं चोदनहं महासुमिणाणं के मन कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सह १ ॥ ५१ ॥ अर्थ - इस प्रकार हे स्वामिन् ! मैं आज उस रमणीय शयनीय कक्ष में शय्या पर सोई हुई थी ( जिसका वर्णन पूर्व किया जा चुका है) यावत् प्रतिबुद्ध हुई । वे चौदह महास्वप्न गज, वृषभ, आदि जो थे देखे । हे स्वामिन्! उन उदार चौदह महास्वप्नों का क्या कल्याण रूप फल विशेष होगा ? मूल : तणं से सिद्धत्थे राया तिसलाए खत्तियाणीए प्रतिए एयमट्ठे सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठचित्ते आनंदिए पीइमणे परमसोमणसिए हरिसवसविसप्पमाण हियए धारा हयनीवसुरहिदु सुमचु चुमालइयरोमकूवे ते सुमिणे ओगिण्हति, ते सुमिणं ओगिण्हित्ता ईहं Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुपविसइ, ईहं अणुपविसित्ता अप्पणो साहाविएणं मइपुव्वएणं बुद्धिविन्नाणेणं तेसिं सुमिणाणं अत्थोग्गहं करेइ, अत्थोग्गहं करित्ता सलाखत्तियाणी ताहि इहाहिं जाव मंगल्लाहिं मियमहुरंसस्सिरीयाहि वग्गूर्हि संलवमाणे संलवमाणे एवं वयासी ॥५२॥ अर्थ-उसके पश्चात् वह सिद्धार्थ राजा त्रिशला क्षत्रियाणी से इस अर्थ . को श्रवण कर और हृदय में विचारकर हर्षित और सन्तुष्ट चित्तवाला हुआ। आनन्दित हुआ। मन में प्रीति समुत्पन्न हुई। उसका मन अत्यधिक आह्लादित हआ। हर्ष से उसका हृदय फूलने लगा। मेघ की धारा से आहत कदम्ब पुष्प की तरह उसके रोम-रोम उल्लसित हो गए। वह उन स्वप्नों को ग्रहण करता है | ग्रहण करके उन पर सामान्य विचार करता है और सामान्य विचार करने के पश्चात् पुनः उन स्वप्नों का पृथक पृथक रूप से विशिष्ट विचार करता है । विशिष्ट विचार करके अपनी स्वाभाविक प्रज्ञा सहित बुद्धि विज्ञान से उन स्वप्नों का विशेष फल पृथक-पृथक रूप से निश्चय करता है। विशेष प्रकार से निश्चय करके इष्ट यावत् मंगलरूप परिमित मधुर एवं शोभायुक्त वाणी से त्रिशला क्षत्रियाणी को इस प्रकार बोला:मल:* ओराला णं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिहा, कल्लाणा णं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिवा, एवं सिवा धन्ना मंगल्ला सस्सिरीया आरोग्गतुठ्ठिदीहाउयकल्लाणमंगल्लकारगा गं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिहा! तं जहा-अत्थलाभो देवाणुप्पिए ! भोगलाभो देवाणुप्पिए ! पुत्तलाभो देवाणुप्पिए ! सोक्खलामो देवाणुप्पिए ! रज्जलाभो देवाणुप्पिए! एवं खलु तुमं देवाणुप्पिए! नवग्रह मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाण य राईदियाणं विइताणं अम्हं कुलके अम्हं कुलदीवं कुलपव्वयं कुलबडिंसयं कुलतिलयं कुलकित्तिकरं कुलवित्तिकरं Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धार्थ से थप्न चर्चा कुलदिणयरं कुलआहारं कुलनंदिकरं कुलजसकरं कुलपायवं कुलविवर्द्धणकरं सुकुमालपाणिपायं अहीणसंपुन्नपंचेंदियसरीरं लक्खणवंजणगुणोववेयं माणुम्माणपमाणपडिपुन्नसुजायसव्वंगसुदरंगं ससिसोमाकारं कंतं पियं सुदंसणं दारयं पयाहिसि ॥ ५३ ॥ 战 १४ अर्थ - हे देवानुप्रिये । तुमने उदार, कल्याणकारी, शिवरूप, मगलकारी, शोभायुक्त, अरोग्यप्रद " तुष्टिप्रद, दीर्घायुप्रद, कल्याणप्रद स्वप्न देखे हैं । हे देवानुप्रिये ! तुमने जो स्वप्न देखे है उनसे अर्थलाभ, भोगलाभ, पुत्रलाभ, सुख लाभ, और राज्यलाभ होगा । हे देवानुप्रिये ! तुम परिपूर्ण नो मास और साढ़े मात अहोरात्रि के व्यतीत होने पर हमारे कुलमें केतु रूप ( ध्वजा के समान) कुलप्रदीप, कुलपर्वत, ( कुल में पर्वत के समान उच्च) कुलावतंसक, ( मुकुट के समान) कुलतिलक, कुलकीर्तिकर, कुलवृत्तिकर, कुल दिनकर, कुलाधार, कुल में आनन्द करने वाला, कुल यशस्कर, कुल पादप ( वृक्ष के समान सब को आश्रय दाता ) कुल विवर्धक, सुकोमल हाथ पैर वाले, सम्पूर्ण पंचेन्द्रिय शरीर वाले, लक्षणो (स्वस्तिक आदि चिन्ह ) व्यंजनों (मष तिल आदि ) एवं गुणो से युक्त मान, उन्मान, प्रमाण से परिपूर्ण, शोभायुक्त, सर्वाङ्ग सुन्दर शरीर वाले, चन्द्र के समान सौम्याकार कान्त, प्रियदर्शी एव सुरूप बालक को जन्म दोगी । १५७ १५६ मूल :-- सेवियां दारए उम्मुक्कबालभावे विन्नायपरिणयमित्ते जोव्वणगमणुप्पत्ते सूरे वीरे विक्कते विच्छिन्नविउल बलवाहणे रज्जवई राया भविस्सइ, तं जहा ओराला गं तुमे जाव दोच्चं पि तच्च पि अणुवूहइ ॥ १४ ॥ अर्थ-- और वह बालक बालभाव ( बचपन ) से उन्मुक्त होकर समझदार तथा कलादि में कुशल बनकर युवावस्था को प्राप्त करने पर दान में शूर, संग्राम Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ མ में वीर-पराक्रमी होगा। उसके पास विपुल बल, वाहन (सेना आदि) होंगे । वह राज्य का अधिपति राजा होगा । हे देवानुप्रिये ! तुमने जो महास्वप्न देखे हैं, वे उत्तम है", इस प्रकार सिद्धार्थ राजा त्रिशला रानी से दूसरी और तीसरी वार कहकर उसके चित्त को बढ़ावा देकर प्रफुल्लित करता है । --- मूल तणं सा तिसला खत्तियाणी सिद्धत्थस्स रन्नो अंतिए एयम सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठा जाव हियया करयलपरिग्गा हयं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्टु एवं वयासी ।। ५५ ।। अर्थ - उसके पश्चात् वह त्रिशला क्षत्रियाणी सिद्धार्थ राजा से इस प्रकार स्वप्न का अर्थ श्रवणकर हृदय में धारण कर हर्षित सन्तुष्ट यावत् प्रसन्न चित्तवाली होती हुई दोनों हाथ जोड़ कर, दस नख सम्मिलित करके मस्तिष्क पर शिरसावर्त युक्त अजलि करके इस प्रकार बोली -- मूल एवमेयं सामी ! तहमेयं सामी ! अवितहमेयं सामी ! असंदिद्धमेय सामी ! इच्छियमेयं सामी ! पडिच्छियमेयं सामी ! इच्छियपडिच्छियमेय' सामी! सच्चे णं एसमट्ठे से जहेयं तुब्भे वयह ति कट्टु ते सुमि सम्मं पडिच्छइ, ते सुमिणे सम्मं पडिच्छित्ता सिद्धत्थेणं रन्ना अन्भणुन्नायासमाणी नाणामणिरयणभत्तिचिताओ भासणाओ अब्मुट्ठेइ, अब्भुट्ठित्ता अतुरियमचवलमसंiताए अविलंबिया रायहंससरिसीए गईए, जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता एवं वयासी ॥ ५६ ॥ अथ - - ' हे स्वामिन् ! यह ऐसा ही है । जैसा आपने कहा है वैसा ही है । आपका कथन सत्य है । यह सन्देह रहित । यह इष्ट है । यह पुनः पुनः इष्ट है । हे स्वामिन ! यह इष्ट और अत्यधिक इष्ट है । आपने स्वप्नों का जो फल · Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षिा से स्वर्ग बताया है वह सत्य है।' इस प्रकार कहकर वह स्वप्नों के अर्थ को सम्यक् प्रकार से स्वीकार करती है तथा सिद्धार्थ राजा की आज्ञा प्राप्त करके विविध प्रकार के रत्नादि से जड़े हुए भद्रासन से खड़ी होती है। खडी होकर शनैः शनैः, अचपल, शीघ्रता रहित, अविलम्ब, राजहंसी के समान मंद गति से चल कर जहाँ पर अपनी शय्या है, वहाँ आती है। वहाँ आकर इस प्रकार मन-ही-मन बोली अर्थात् मन में विचार करने लगी। मूल : __मा मे ते उत्तमा पहाणा मंगल्ला महासुमिणा अन्नोहिं पावसुमिणेहिं पडिहम्मिस्संति ति कट्टु देवयगुरुजणसंबद्धाहिं पसत्थाहिं मंगल्लाहिं धम्मियाहि लढाहिं कहाहिं सुमिणजागरियं जागरमाणी पडिजागरमाणी विहरइ ॥५७॥ __ अर्थ-मेरे वे उत्तम, प्रधान, मंगल रूप, महास्वप्न अन्य स्वप्नों से प्रतिहत निष्फल न हो जाएँ, एतदर्थ मुझे जागृत रहना चाहिए। ऐसा विचार करके देव-गुरुजन सम्बन्धी प्रशस्त, मांगलिक, धार्मिक रसप्रद कथाओं के अनुचिन्तन से अपने महास्वप्नों की रक्षा के लिए अच्छी तरह जागृत रहने लगी। मल: तए णं सिद्धत्ये खत्तिए पच्चूसकालसमयसि कोड बियपुरिसे सहावेइ कोडुबियपुरिसे सहावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अज्ज सविसेसं बाहिरिज्जं उवट्ठाणसालं गंधोदयसित्तसम्मज्जिवलित्तं सुगंधवरपंचवन्नपुप्फोवयारकलियं कालागरुपवरकुंदुरुक्कतुरुकडज्मंतधूवमघमघेतगंधुद्धयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूयं करेह, कारवेह, करेत्ता कारवेत्ता य सीहासणं रयावेह, सीहासणं रयावित्ता ममेयमाणत्तियं खिप्पामेव पच्चप्पिणह ॥५॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दे . अर्थ-अनन्तर सिद्धार्थ क्षत्रिय प्रभात काल होने पर कौटुम्बिक पुरुषों की बुलवाता है। बुलवाकर के इस प्रकार कहता है-हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही आज बाहर की उपस्थानशाला (राज-सभा भवन) को विशेष रूप से सुगन्धित जल से सिंचन करो। साफ करके उसका (गोबर आदि से) लेपन करो, स्थानस्थान पर श्रेष्ठ सुगन्धित पञ्चवर्णों के पुष्प समूह से सुशोभित करो । काले अगर, उत्तम-कुन्दरु तुर्की धूप से सुगन्धित बनाओ। यत्र-तत्र सुगन्धित चूर्णो को छिटककर सुगन्धित गुटिका के समान बनाओ। स्वयं करो, दूसरों से करवाओ, और करके तथा करवाकरके, वहाँ पर एक सिंहासन रक्खो, सिंहासन रखकर (कार्य सम्पन्न करके) मुझे मेरी आज्ञा पुन. शीघ्र ही लौटाओ अर्थात् सूचित करो। मल: तए णं ते कोडुबियपुरिसा सिद्धत्येणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ट जाव हियया करयल जाव कटु ‘एवं सामि !' त्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणंति, एवं सामि ! त्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणित्ता सिद्धत्थस्स खत्तियस्स अंतियाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता खिप्पामेव सविसेसं बाहिरियं उवट्ठाणसालं गंधोदयसित्त जाव सीहासणं रयावेंति, सीहासणं रयावित्ता जेणेव सिद्धत्ये खत्तिए तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु सिद्धत्थस्स खत्तियस्स तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति ॥५६॥ . अर्थ-अनन्तर वे कौटुम्बिक पुरुष सिद्धार्थ राजा के द्वारा इस प्रकार आदेश देने पर अत्यन्त प्रसन्न हुए, यावत् उल्लसित ह्दय से पूर्व की भांति मस्तिष्क पर अञ्जलि करके "हे स्वामिन् जैसी आपकी आज्ञा है" इस प्रकार कहकर आज्ञा को विनयपूर्वक वचन से स्वीकारते हैं। विनयपूर्वक स्वीकार Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धार्थ से स्वप्न-चर्चा करके सिद्धार्थ क्षत्रिय के पास से बाहर निकलते हैं। बाहर निकल करके जहां पर बाह्य उपस्थानशाला है, वहाँ आते है । आकर के शीघ्र ही उपस्थानशाला को सुगन्धित जल से सिंचन कर यावत् सिंहासन सजाते हैं। सिंहासन सजाकर जहा पर सिद्धार्थ क्षत्रिय है वहां पर आते हैं । आ करके करतल परिगृहीत दश नखों से मस्तिष्क पर शिरसावर्त के साथ अंजलिबद्ध होकर सिद्धार्थ क्षत्रिय की आज्ञा को पुनः समर्पित करते हैं । मूल : तए णं सिद्धत्थे खत्तिए कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिल्लियम्मि अह पंडरे पहाए रत्तासोयपगासकिसुयसुयमुहगुजद्धरागसरिसे कमलायरसंडबोहए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते य सयणिज्जाओ अब्भुटेइ ॥६०॥ ___ अर्थ-अनन्तर वह सिद्धार्थ क्षत्रिय प्रातःकाल के समय (उषः काल में) जब उत्पल कमल-विकसित होने लगे हैं, हरिणों के कोमल नेत्र खुलने लगे हैं, उज्ज्वल प्रभात होने लगा है, और रक्त अशोक के प्रभा-पुञ्ज सदृश, किंशुक के रंग के समान, तोते की चोंच और चिर्मी के अर्ध-लाल रंग के समान आरक्त बड़े बड़े जलाशयों में समुत्पन्न कमलों को विकसित करने वाला, सहस्ररश्मि, तेज से प्रदीप्त दिनकर उदित हुआ, तब शयनासन से उठते हैं अर्थात शयनकक्ष से बाहर आते हैं। सयणिज्जाओ अमुठित्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ, पायपीढाओ पच्चोरुहिता जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता अट्टणसालं अणुपविसइ, अट्टणसालं अणुपविसित्ता अणेगवायामजोगवग्गणवामद्दणमल्लजुद्धकरणेहिं संते परिस्सते Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० 'सयपाग सहस्सपागेहिं सुगंधवरतेल्लमाइएहिं पीणणिज्जेहि जिंघणिज्जेहिं दीवणिज्जेहिं दप्पणिज्जेहिं मयणिज्जेहिं विहणिज्जेहिं सविदियगायपल्हायणिज्जेहिं अभंगिए समाणे तेल्लचम्मसि णिउणेहिं पडिपुनपाणिपायसुकुमालकोमलतलेहिं पुरिसेहिं अभंगणपरिमदणुव्वलणकरणगुणनिम्माएहिं छेएहिं दक्खेहिं पठेहिं कुसलेहिं मेधावीहिं जियपरिस्समेहिं अटिठसुहाए मंससुहाएतयासुहाए रोमसुहाए चउविहाए सुहपरिकम्मणाए संवाहिए समाणे अवगयपरिस्समे अट्टणसालाओ पडिनिक्खमइ ॥६१॥ ___ अर्थ-महाराज सिद्धार्थ शयन आसन से उठते हैं, पादपीठिका से नीचे उतरते हैं, पादपीठिका से उतरकर जहां व्यायामशाला थी वहाँ आते हैं, वहां आकर के व्यायामशाला में प्रवेश करते हैं। प्रवेश करके व्यायाम करने के लिए श्रम करते हैं (१) योग्या (शस्त्रों का अभ्यास), (२) वल्गन-कूदना, (३) व्यामर्दन-एक दूसरे की भुजा, आदि अंगो को मरोडना, (४) मल्लयुद्ध-कुश्ती करना, (५) करण-पद्मासन आदि विविध आसन करना। इन व्यायामों को करने से जब वे परिश्रान्त हो गये तब थकान को दूर करने के लिए विविध औषधियों के संमिश्रण से सौ बार पकाये गये अथवा सौ मुद्राओ के व्यय से बने हुए ऐसे शतपाकतल से, एवं जो हजार बार पकाया गया हो, या जिसको पकाने में हजार मोहरें लगी हो ऐसे सहस्रपाक आदि सुगन्धित तेलों से मर्दन किया ।" वे तैल अत्यन्त गुणकारी रसरुधिर आदि धातुओं की वृद्धि करने वाले, क्षुधा को दीप्त करने वाले, बल, मांस और तेजस को बढ़ाने वाले, कामोद्दीपक, पुष्टिकारक और सब इन्द्रियों को सुखदायक थे। अंगमर्दन करने वाले भी सम्पूर्ण उँगलियों सहित सुकुमार हाथ पैर वाले, मर्दन करने में प्रवीण, स्फूति से मर्दन करने वाले, मर्दन कला के विशेषज्ञ, बोलने में चतुर, शरीर के संकेत समझने में कुशल, बुद्धिमान तथा परिश्रम से हार नहीं मानने वाले थे। ऐसे मालिश करने वाले पुरुषों ने अस्थि के सुख के लिए, मांस के सुख के लिए, त्वचा के । सुख के लिए, रोमराजि के सुख के लिए, इस प्रकार चार प्रकार की सुखदायक Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिडा से स्वप्न-पर्चा १०१ अंगशुश्रूषा वाली मालिश की। मालिश से जब थकान नष्ट हो गई, तब क्षत्रिय सिद्धार्थ व्यायामशाला से बाहर निकला। मूल : __ अट्टणसालाओ पडिनिक्खमित्ता जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता मज्जणघरं अणुपविसइ, अणुप्पविसित्ता समुत्तजालकलावाभिरामे विचित्तमणिरयणकोट्टिमतले रमणिज्जेण्हाणमंडवंसि नाणामणिरयणभत्तिचित्तं सि कहाणपीढंसि सुहनिसन्न पुप्फोदएहि य गंधोदएहि य उण्होदएहि य सुहोदएहि य सुद्धोदएहि य कल्लाणकरणपवरमज्जणविहीए मज्जिए, तत्य कोउयसएहिं बहुविहेहिं कल्लाणगपवरमज्जणावसाणे पम्हलमुकुमालगंधकासातियलूहियंगे अहयसुमहग्घदूसरयणसुसंवुए सरससुरहिगोसीसचंदणाणुलित्तगत्ते सुइमालावन्नगविलेवणे आविद्धमणिसुवन्न कप्पियहारदहारतिसरयपालंबपलंबमाणकडिसुत्तयकयसोहे पिणद्धगोविज्जे अंगुलिज्जगललियकयाभरणे वरकडगतुडियथंभियभुए अहियरूवसस्सिरीए कुंडलउज्जोइयाणणे मउडदित्तसिरए हारोत्थयसुकयरइयवच्छे मुहियापिंगलंगुलीए पालंबपलंबमाणसुकयपडउत्तरिज्जे नाणामणिकाणगरयणविमलमहरिहनि उणोवियमिसिमिसितविरइयसुसिलिहविसिहलट्ठआविद्धवीरवलए । किं बहुणा ? कप्परुक्खते चैव अलंकियविभूसिए नरिंदे सकोरिंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामराहिं उद्धुव्वमाणीहिं मंगलजयसबक्यालोए अणेगगणनायगदंडनायगराईसरतलवरमाडंबियकोडुबियमंतिमहामंतिगणगदोवारियअमच्चचेडपीढमहण Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र गरनिगमसेद्विसेणावइसत्थवाहदूयसंधिपालसद्धि संपरिवुडे धवलमThe frore इव गगणदिप्पंतरिक्खतारागणाणमज्झे ससि व्व पियदंसणे नरवई मज्जणघराओ पडिनिक्खमइ ॥ ६२ ॥ १०२ १५८ अर्थ - (सिद्धार्थ ) व्यायामशाला से बाहर निकल कर जहां पर मज्जनगृह ( स्नानगृह ) है वहां पर आते है। वहां आकर के मज्जनगृह में प्रवेश करते हैं । प्रवेश करके मुक्ताओं के समूह से रमणीय, विविध मणियों तथा रत्नों से जटित भाग वाले सुन्दर स्नान - मण्डप में विविध मणि रत्नादि की कलापूर्ण कारीगरी से निर्मित अद्भुत स्नान- पीठ पर सुखपूर्वक बैठते हैं । वहाँ सिद्धार्थ क्षत्रिय को पुष्पोदक, गधोदक, उष्णोदक, शुभोदक, शुद्धोदक से कल्याणकारक विधि से स्नान विधि विशेषज्ञों द्वारा स्नान कराया गया । तथा स्नान करते समय बहुत प्रकार के सैकड़ों कौतुक उनके शरीर पर किए गये | कल्याणप्रद श्रेष्ठ स्नान विधि पूर्ण होने पर रोएंदार, मुलायम, सुगन्धित रक्त वस्त्र (अंगोछा ) से शरीर को पोछा गया । अनन्तर श्रेष्ठ नवीन एवं बहुमूल्य वस्त्र धारण किये । १५९ शरीर पर सरस सुगंधित गोशीर्ष चन्दन से लेप किया । पवित्र माला पहनी । शरीर पर केसर मिश्रित सुगंधित चूर्ण का छिटकाव किया । मणियों से जड़े हुए स्वर्ण आभूषण पहने | अठारह, नौ, तीन, और एक लड़ी के हार गले में धारण किए । लम्बा लटकता हुआ कटिसूत्र ( करघनी ) धारण कर सुशोभित लगने लगे । और कंठ को शोभित करने वाले विविध प्रकार के भूषण धारण किए । अँगुलियों में अंगूठियां पहनीं । रत्न जटित स्वर्ण के कड़े से और भुजबंध से राजा सिद्धार्थ की दोनों भुजाएँ प्रभास्वर हो उठी । इस प्रकार वह सिद्धार्थ राजा शरीर सौन्दर्य की अदभुत प्रभा से दिव्य लगने लगा। कुण्डल पहनने से उसका मुख चमक रहा था, और मुकुट धारण करने से मस्तक आलोक से जगमगाने लगा था । हृदय हारों से आच्छन्न होने पर दर्शनीय बन गया । अंगूठियों से अंगुलियों की आभा दमक उठी। अनन्तर लम्बे लटकते हुए बहुमूल्य वस्त्र का उत्तरासन धारण किया । निपुण कलाकारों द्वारा निर्मित विविध मणि रत्नों से जटित श्रेष्ठ बहुमूल्य प्रभासमान सुन्दर वीर-वलय पहने। अधिक वर्णन क्या किया जाए ! मानो वह सिद्धार्थ क्षत्रिय साक्षात् कल्पवृक्ष ही हो, इस प्रकार अलंकृत Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धार्थ से स्वप्न-चर्चा और विभूषित हुआ। ऐसे सिद्धार्थ राजा के सिर पर छत्र धारकों ने कोरंट के पुष्पों की मालाएँ जिसमें लटक रही थीं, ऐसा छत्र धारण किया। श्वेत व उत्तम चामरों से बींजन किया गया। उन्हें निहारते ही जनता के मुख से 'जय हो, जय हो, इस प्रकार का मंगलनाद झंकृत होने लगा। इस प्रकार अलंकृत होकर अनेक गणनायकों, (गण के स्वामियों) दण्डनायकों (तन्त्र का पालन करने वालों और अपने राष्ट्र की चिन्ता करने वालों) राइसरों (युवराज) तलवरों (प्रसन्न होकर राजा ने जिन्हें पट्टबंध से विभूषित किया हो) माडम्बिको (जिसके चारों ओर आधे योजन तक ग्राम न हो उसे मडम्ब कहते है। और मडम्ब के स्वामी माडम्बिक कहलाते है) कौटुम्बिकों (कतिपय कुटुम्बों के स्वामी) मंत्रियों (राज्य के अधिष्ठायक सचिव) महामत्रियों (मंत्रिमण्डल के प्रधान) गणकों (ज्योतिषी) दौवारिकों (द्वारपाल) अमात्यो (प्रधान) तथा चेट (दास) पीठमर्दक (निकट में रहकर सेवा करने वाले) नागर (नगर निवासी) निगम (व्यापार करने वाले) श्रेष्ठी (नगर के मुख्य व्यवसायी) सेनापति (चतुरग सेनाधिपित) सार्थवाह (सार्थ का मुखिया) दूत (दूसरो को राज्यादेश का निवेदन करने वाले) मन्धिपाल (सन्धि की रक्षा करने वाले) आदि से घिरा हुआ सिद्धार्थ जैसे श्वेत महामेघ से चन्द्र निकलता है, वैसे ही निकला । जैसे ग्रह, नक्षत्र, और तारागणों के मध्य चन्द्र शोभता है, वैसे ही वह शोभायमान हो रहा था । चन्द्र की तरह वह प्रियदर्शी नरपति मज्जन गृह से बाहर निकला। मल: मज्जणघराओ पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवहाणसाला तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता सीहासणंसि पुरत्थाभिमुहे निसीयइ, निसीइत्ता अप्पणो उत्तरपुरथिमे दिसीमाए अहमदासणाई सेयवत्थपच्चत्थुयाई सिद्धत्थयकयमंगलोवयाराई रयावेइ, रयावित्ता अप्पणो अदूरसामंते नाणामणिरयणमंडियं Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ अहियपेच्छणिज्जं महग्यवरपट्टणुग्गयं सहपट्टभत्तिसतचित्तमाणं ईहामियउसहतुरगनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरखणलयपउमलयभत्तिचित्तं अभितरियं जवणियं अंछावेइ, अंछावेत्ता नाणामणिरयणभत्तिचित्तं अत्थरयमिउमसूरगोत्थयं सेयवस्थपच्चत्थुयं सुमउयं अंगसुहफरिसगं विसिहतिसलाए खत्तियाणीए भदासणं स्यावेइ ॥६३॥ ___ अर्थ-मज्जनगृह से बाहर निकलकर (सिद्धार्थ) जहां बाह्य उपस्थान शाला है, वहां पर आते हैं । वहां आकर के सिंहासन पर पूर्व दिशा की ओर मुंह कर बैठते हैं । बैठकर अपने से उत्तर पूर्व दिशा में (ईशान कोण में) श्वेत वस्त्र से आच्छादित और जिन पर सरसों आदि से मांगलिक उपचार किए गये हैं ऐसे आठ भद्रासन लगवाए । लगवाकर के अपने पास से न अतिसन्निकट और न अतिदूर विविध मणिरत्नों से मण्डित, बहुत दर्शनीय, व महामूल्यवाली, बड़े और प्रतिष्ठित नगर में निर्मित पारदर्शक पट्टसूत्र पर सैकड़ों चित्रों से चित्रित की हुई, ईहामृग, वृषभ, अश्व, मनुष्य, मगर, पक्षी सर्प, किन्नर, रुरु (मृग विशेष), अष्टापद, चमरीगाय, हस्ती, वनलता, पद्मलता आदि के चित्र खिचे हुए ऐसी अन्त:पुर में लगाने योग्य यवनिका (पर्दा) लगवाता है । यवनिका के अन्दर के भाग में विविध मणि-रत्नों से जटित, चित्रविचित्र, तकियेवाला, मलायम गद्दीवाला, श्वेत वस्त्र से आच्छादित, अत्यधिक मृदु, शरीर के लिए सुखकारी स्पर्शवाला विशिष्ट प्रकार का भद्रासन त्रिशला क्षत्रियाणी के लिए लगवाता है । - स्वप्न-पाठक को बुलाना मूल : भद्दासणं रयावित्ता कोड बियपुरिसे सहावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अटुंगमहानिमित्तसुत्तस्थपारए विविहसत्थकुसले सुविणलक्खणपाढए सदावेह ॥६॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पन-पाठकको बुलाना अर्थ-भद्रासन लगवा करके राजा सिद्धार्थ कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाता है । बुलाकर उन्हें इस प्रकार कहता है-हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही अष्टाङ्गमहानिमित्त के सूत्र व अर्थ के पारगामी, विविधशास्त्रों में कुशल ऐसे स्वप्न-लक्षणपाठकों-स्वप्नशास्त्रियों को बुलाके लाओ ! मूल : तए णं ते कोडुबियपुरिसा सिद्धत्थेणं रना एवं वुत्ता समाणा हट्ठा जाव हयहियया करयल जाव पडिसुर्णेति पडिसुणित्ता सिद्धत्थस्स खत्तियस्म अंतियात्रो पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता कुडग्गामं नगरं मझ मज्झेणं जेणेव सुमिणलक्खणपाढगाणं गिहाई तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता सुविणलक्खणपाढए सदाविति ॥६५॥ अर्थ-अनन्तर वे कौटुम्बिक पुरुष सिद्धार्थराजा के द्वारा इस प्रकार कहने पर प्रसन्न हुए, यावत् उनका हृदय आनन्दित हुआ। वे दोनों हाथों को जोड़कर राजाज्ञा को विनययुक्त वचन से स्वीकार करते हैं। स्वीकार करके सिद्धार्थ क्षत्रिय के पास से निकलते है । निकल करके वे कुण्डग्राम नगर के बीचोंबीच होकर जहाँ स्वप्न-लक्षण-पाठकों के गृह हैं, वहां आते हैं। वहां आकर के स्वप्न-लक्षण पाठकों को बुलाते है । मल: ___ तए णं ते सुविणलक्खणपाढगा सिद्धत्थस्स खत्तियस्स कोड बियपुरिसेहिं सहाविया समाणा हट्टतुट्ठ जाव हियया पहाया क्यबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाई मंगलाई वत्थाई पवराई परिहिया अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरा सिद्धत्थकहरियालियकयमंगलमुद्धाणा सरहिंसरहिं गेहेहितो निग्गच्छति।६६।। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१०६ अर्थ-तदनन्तर सिद्धार्थक्षत्रिय के कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा बुलाये गये वे स्वप्नलक्षण पाठक हर्षित एवं तुष्ट हुए, यावत् प्रसन्नचित्त हुए। उन्होंने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक (कपाल में तिलक आदि) तथा सरसों, दही, अक्षत, दूर्वादि मंगलों से मांगलिक कृत्य (दुष्टस्वप्न आदि के फल को निष्फल करने के लिए प्रायश्चित्त रूप कृत्य) किया। १६० राज्य सभा में जाने योग्य शुद्ध मंगलरूप उत्तम वस्त्रों को धारण किया। अल्प (भार) किंतु बहमूल्य आभरणों से शरीर को अलंकृत किया, मस्तिष्क पर श्वेतसरसों और और अक्षत आदि मंगल हेतु लगाये, और वे अपने-अपने गृह से निकले। मल : निग्गच्छित्ता खत्तियकुडग्गामं नगरं मझ मज्भेणं जेणेव सिद्धत्थस्स रन्नो भवणवरवडिंसगपडिदुवारे तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवागच्छित्ता भवणवरवडिसगपडिदुवारे एगयओ मिलंति,एगयओ मिलित्ताजेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव सिद्धत्थे खत्तिएतेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करतलपरिग्गहियं जाव कटु सिद्धत्यं खत्तियं जएण विजएणं वद्धाविति ॥६७॥ अर्थ-बाहर निकलकर क्षत्रिय कुण्डग्राम नगर के मध्य मे होते हुए जहां सिद्धार्थराजा के उत्तम भवन का प्रधान प्रवेशद्वार है, वहां आते हैं। वहा आकरके इकट्ठे होते है । इकट्ठ होकर जहां बाह्य उपस्थापनशाला है और जहां सिद्धार्थ क्षत्रिय है, वहां आते है। वहाँ आकरके हाथ जोड़कर मस्तिष्क पर अंजलि कर 'जय हो, विजय हो' इस प्रकार आशीर्वाद वचनों से बधाते हैं। मूल : तए णं ते सुविणलक्खणपाढगा सिद्धत्येणं रन्ना वंदियपूइयसक्कारियसम्माणिया समाणा पत्तेयं पत्तेयं पुवण्णत्थेसु भदासणेसु निसीयंति ॥६॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-अनन्तर सिद्धार्थराजा ने स्वप्न-लक्षण पाठकों को वन्दन किया, उनकी अर्चना की, सत्कार और सम्मान किया। फिर वे (स्वप्न पाठक) पृथकपृथक पूर्व स्थापित भद्रासनों पर बैठ जाते हैं । मल: तए णं सिद्धत्थे खत्तिए तिसलं खत्तियाणि जवणियंतरियं ठावेइ, ठावित्ता पुप्फफलपडिपुनहत्थे परेणं विणएणं ते सुमिणलक्खणपाढए एवं वयासि-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अज्ज तिसला खत्तियाणी तंसि तारिसगंसि जाव सुत्तजागरा ओहीरमाणी ओहीरमाणी इमेयारूवे ओराले जाव चोदस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा । तं जहा-गय उसभ० गाहा । तं एतेसिं चोदसण्हं महासुमिणाणं देवाणुप्पिया ! ओरालाणं जाव के मण्णे कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ ? ॥६॥ अर्थ-तदनन्तर सिद्धार्थ क्षत्रिय त्रिशला क्षत्रियाणी को यवनिका (पर्दे) के पीछे बिठाता है। बैठाकर हाथ में फल-फूल लेकर विशेष विनय के साथ स्वप्न-लक्षण पाठको को इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! निश्चय ही आज त्रिशला क्षत्रियाणी ने तथा प्रकार की उत्तम शय्या पर शयन करते हुए अधंनिद्रावस्था में इस प्रकार के उदार, चौदह महान् स्वप्न देखे, स्वप्न देखकर जागृत हुई । वे स्वप्न हैं--गज, वृषभ आदि । हे देवानुप्रियो ! उन उदार चौदह महास्वप्नों का क्या कल्याणकारी फल विशेष होगा ? --. स्वप्न-फल कथन मल: तए णं ते सुमिणलक्खणपाढगा सिद्धत्थस्स खत्तियस्स अंतिए एयम8 सोच्चा निसम्म हट्ट जाव हियया ते सविणे ओगिण्हंति, ओगिण्हित्ता ईहं अणुपविसंति, ईहं २ ता अन्नमनणं Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ कल्प म सद्धि संलाविंति संलाविता तेसिं सुमिणाणं लद्धट्ठा गहियट्ठा पुच्छिया विणिच्छियठा अहिगयटठा सिद्धत्थस्स रनो पुरओ सुमिणसत्थाई उच्चारेमाणा उच्चारेमाणा सिद्धत्थं खत्तियं एवं वयासी ॥७०॥ अर्थ - उसके पश्चात् वे स्वप्न - लक्षण - पाठक सिद्धार्थ क्षत्रिय से प्रस्तुत वृत्त को जानकर एवं समझकर, अत्यन्त प्रफुल्लित हुए। उन्होंने प्रथम उन स्वप्नों पर सामान्य रूप से विचार किया। उसके पश्चात् स्वप्नों के अर्थ पर विशेष रूप से चिन्तन करने लगे। उस सम्बन्ध मे वे एक दूसरे से परस्पर संलापविचार-विनिमय करने लगे । इस प्रकार वे स्वयं चिन्तन एवं विचार-विनिमय के द्वारा स्वप्नों के अर्थ को जान पाये । उन्होंने उस विषय में परस्पर एक दूसरे का अभिप्राय पूछा और तदनन्तर निश्चितमत निर्धारण किया । जब वे सभी एकमत हो गये तब सिद्धार्थराजा के समक्ष स्वप्न शास्त्रों के अनुसार वचन बोलते हुए इस प्रकार कहने लगे । विवेचन - भारतीय साहित्य मे स्वप्न के सम्बन्ध में गहराई से चिन्तन किया गया है । वहाँ स्वप्न आने के नौ निमित्त बताये गए हैं । (१) जिन वस्तुओं का अनुभव किया हो (२) जिनके सम्बन्ध में श्रवण किया हो (३) जो वस्तु देखी हो ( ४ ) वात, पित्त अथवा कफ की विकृति के कारण ( ५ ) स्वप्निल प्रकृति के कारण (६) चित्त- चिन्ता युक्त होने के कारण (७) देवता आदि का सान्निध्य होने पर (८) धार्मिक-स्वभाव होने पर ( ६ ) अतिशय पाप का उदय होने पर | स्वप्न आने के इन नौ प्रकारों में से प्रथम छह प्रकार के स्वप्न शुभ और अशुभ दोनों होते हैं, पर उनका कोई फल नही होता । तीन प्रकार के अन्तिम स्वप्न सत्य होते हैं और उनका शुभ एवं अशुभ फल निश्चित मिलता है । १६१ स्वप्न शास्त्र की एक यह भी धारणा है कि रात्रि के प्रथम पहर में जो स्वप्न दीखता है उसका फल बारह मास में प्राप्त होता है । द्वितीय पहर में जो स्वप्न देखे जाते हैं, उनका फल छह मास में प्राप्त होता है । तृतीय प्रहर में Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वप्नफल कथन १०६ देखे गए स्वप्न का फल तीन मास में प्राप्त होता है और चतुर्थ पहर में जो स्वप्न दीखते हैं उनका फल एक मास में प्राप्त होता हैं । सूर्योदय से दो घड़ी पूर्व जो स्वप्न देखे जाते हैं उनका फल दस दिन में प्राप्त होता है और सूर्योदय के समय देखे जाने वाले स्वप्न का फल शीघ्र ही प्राप्त होता है ।' १६२ भारत की प्राचीन स्वप्न शास्त्र सम्बन्धी मान्यता का कुछ दिग्दर्शन नीचे कराया जाता है - जो व्यक्ति एक स्वप्न के पश्चात् दूसरा स्वप्न देखता हो, मानसिक अथवा शारीरिक व्याधि से ग्रसित होकर स्वप्न देखता हो, मलसूत्र की रुकावट के कारण स्वप्न देखता हो उसका स्वप्न निरर्थक होता है ।' १६३ जो व्यक्ति धर्मनिष्ठ है, जिसके शरीर की धातुएँ सम है, चित्त स्थिर है जो इन्द्रिय विजेता है, संयमी और दयालु है, उसका स्वप्न यथेष्ट फल प्रदाता होता है। यदि किसी को किसी प्रकार का दुस्वप्न आ जाए तो, उसे किसी भी अन्य व्यक्ति के सामने नहीं कहना चाहिए। न कहने से देता । यदि दुःस्वप्न आने के पश्चात् नींद आ जाय तो नष्ट हो जाता है । वह स्वप्न फल नहीं दुःस्वप्न का फल भी किसी ने उत्तम स्वप्न देखा हो तो उस स्वप्न को गुरु या योग्य व्यक्ति के सामने कहना चाहिए । यदि योग्य व्यक्ति का अभाव हो तो गाय के कान में ही कह देना चाहिए | उत्तम स्वप्न देखकर पुन: नहीं सोना चाहिए, क्योकि सोने से उसका फल नष्ट हो जाता है । अतः शेष रात्रि धर्म ध्यान व भगवत् - स्मरण में ही व्यतीत करनी चाहिए । जो मानव प्रथम अशुभ स्वप्न देखता है और उसके पश्चात् शुभ-स्वप्न देखता है, उसको शुभ स्वप्न का ही फल प्राप्त होता है। जो प्रथम शुभ स्वप्न देखता है और पश्चात् अशुभ स्वप्न देखता है उसको अशुभ स्वप्न का फल प्राप्त होता है । जो मनुष्य स्वप्न में सिंह, तुरङ्ग, हस्ती वृषभ और गाय से युक्त (जुते हुए) रथ पर स्वयं को आरूढ़ देखता है. वह राजा बनता है । जो स्वप्न मे हस्ती, वाहन, आसन, गृह या वस्त्र आदि का अपहरण होता देखता है उस पर राजा की शंका होती है । बन्धुओं से विरोध, और धन की हानि होती है । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो स्वप्न में सूर्य, चन्द्र को निगलता है, वह दरिद्र होने पर भी राजा बनता है। जो स्वप्न में शस्त्र, मणि-मुक्ता, स्वर्ण, रजत आदि का अपहरण होते देखता है, उसके धन की हानि होती है, अपमान होता है, और वह मृत्यु को प्राप्त करता है। जो मानव स्वप्न में गजारूढ होता है, सरिता के सुन्दर तट पर चावल का भोजन करता है, वह धर्मनिष्ठ और धनवान होता है । जो स्वप्न में दाहिनी भूजा को श्वेत सर्प से दंसित देखता हैं, उसको पाँच ही रात्रि में एक हजार स्वर्ण मुद्राएं प्राप्त होती हैं। जो स्वप्न में किसी मानव के मस्तिष्क का भक्षण करता हुआ देखता है उसे राज्य प्राप्त होता है। जो पैर का भक्षण करता है उसे सहस्र स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त होती हैं । जो भुजा का भक्षण करता है उसे पाँच सौ मुद्राएँ प्राप्त होती हैं । जो स्वप्न में सरोवर, समुद्र, जल-परिपूरित सरिता, और मित्र मरण देखता है, वह अकस्मात् ही अत्यधिक धन प्राप्त करता है। जो स्वप्न में हँसता है वह शोकाकुल होकर रोता है, जो स्वप्न में नृत्य करता है, वह वध और बन्धन को प्राप्त करता है । स्वप्न में गाय, वृषभ, तुरङ्ग, राजा और हस्ती के अतिरिक्त कोई काली वस्तु देखना अशुभ है। कपास और नमक के अतिरिक्त अन्य श्वेत वस्तु देखना शुभ है। जो मानव स्वप्न में स्वयं से सम्बन्धित कोई वस्तु देखता है उसका शुभाशुभ उसे ही मिलता है, यदि दूसरे के लिए देखता है तो उसे मिलता है। जो स्वप्न में घृत, मधु, और पय-कुम्भ को सिर पर लेता है वह उसी भव में मोक्ष प्राप्त करता है । जो स्वप्न में स्वर्ण राशि, रत्न-राशि, रजत-राशि, तथा सीशे की राशि पर बैठता है वह सम्यक्त्व को प्राप्त कर मोक्ष जाता है। मल: एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं सुमिणसत्थे बायालीस सुविणा तीसं महासुमिणा बाहत्तर सव्वसुमिणा दिठा, तत्थ णं Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ देवाणुप्पिया ! अरहंतमातरो वा चकवट्टिमायरो वा अरहंतसि वा चकहरंसि वो गन्भं वक्कममाणंसि एतेसिं तीसाए महासुमिणाणं इमे चोदस महासुमिणे पामित्ता णं पडिबुझति, तं जहा-गय गाहा ॥७॥ __ अर्थ-हे देवानुप्रिय ! निश्चित रूप से हमारे स्वप्न-शास्र में बयालीस स्वप्न (सामान्य फल वाले) कहे है, और तीस महास्वप्न (विशेष फल वाले) बताए हैं । इस प्रकार बयालीस और तीम कुल मिलाकर बहत्तर स्वप्न बतलाए गए हैं। उनमें से हे देवानुप्रिय । अरिहन्त को माता, और चक्रवर्ती की माता जब अरिहन्त या चक्रवर्ती गर्भ मे आते है तब वह तीस महास्वप्नों में से इन चौदह महास्वप्नों को देखकर जागृत होती है। जैसे कि हाथी, वृषभ आदि ।'६" मल : वासुदेवमायरो वा वासुदेवंसि गम्भं वकममाणं सिं एएसि चोद्दसण्हं महासुमिणाणं अण्णतरे सत्त महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुझंति ॥७२॥ अर्थ-वासुदेव की माताए वासुदेव के गर्भ में आने पर इन चौदह महा स्वप्नो में से कोई सात महास्वप्नो को देखकर जागृत होती है। मल: बलदेवमायरो वा बलदेवंसि गम्भं वकममाणंसि एएसिं चोददसण्हं महासुमिणाणं अन्नयरे चत्तारि महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुज्झति ॥७३॥ . अर्थ-बलदेव की माताएँ, जब बलदेव गर्भ में आते है तब इन चौदह महास्वप्नों में से कोई भी चार महास्वप्नों को देखकर जागृत होती हैं। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ मूल : मंडलियमायरो वा मंडलियंसि गर्भ वकते समाणे एएसि चोदसण्हं महासुमिणाणं अन्नयरं एगंमहासुमिणं पासित्ता णं पडिबुज्झति ॥७॥ अर्थ-माण्डलिकराजा की माताएँ जब माण्डलिक गर्भ में आते हैं, तब इन चौदह महास्वप्नों में से कोई एक महास्वप्न देखकर जागृत होती हैं। मूल : इमे य णं देवाणुप्पिया! तिसलाए खत्तियाणीए सुमिणा दिहा, जाव मंगल्लकारगा णं देवाणुप्पिया ! तिसलाए खत्तियाणीए सुमिणा दिहा, तं जहा-अत्थलाभो देवाणुप्पिया! भोगलाभो देवाणुप्पिया! पुत्तलाभो देवाणुप्पिया ! सुक्खलामो देवाणुप्पिया ! रज्जलाभो देवाणुप्पिया !, एवं खलु देवाणुप्पिया! तिसला खत्तियाणीया नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाण य राइंदियाणं विइकताणं तुम्हें कुलकेउ कुलदीवं कुलपव्वयं कुलवडिंसयं कुलतिलकं कुलकित्तिकरं कुलनंदिकरं कुलजसकरं कुलाधारं कुलपायवं कुल विविद्धिकरं सुकुमालपाणिपायं अहीणपडिपुन्नपंचिंदियसरीरं लक्खणवंजणगुणोववेयं माणुम्माणप्पमाणपडिपुन्नसुजायसव्वंगसुदरंगं ससिसोमाकारं कंतं पियदंसणं सुरूवं दारयं पयाहिइ ॥७॥ ___ अर्थ हे देवानुप्रिय ! त्रिशला क्षत्रियाणी ने जो ये चौदह महास्वप्न देखे हैं । वे मंगलकारी हैं । हे देवानुप्रिय ! त्रिशला क्षत्रियाणी ने ये जो स्वप्न Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ देखे हैं, वे अर्थ का लाभ करने वाले । भोग का लाभ करने वाले है । पुत्र का लाभ करने वाले हैं, सुख का लाभ करने वाले हैं, राज्य का लाभ करने वाले हैं । हे देवानुप्रिय ! निश्चित ही त्रिशला क्षत्रियाणी नौ मास और साढ़े सात दिन व्यतीत होने पर, तुम्हारे कुल में ध्वजा के समान, कुल में दीपक के समान, कुल में पर्वत के समान, कुल में मुकुट के समान, कुल में तिलक के समान और कुल की कीर्ति बढानेवाला, कुल को समृद्धि करने वाला, कुल के यश का विस्तार करनेवाला, कुल के आधार के समान, कुल में वृक्ष के समान, कुल की विशेष वृद्धि करनेवाला, हाथ पैर मे सुकुमार, हीनता रहित, पांच इंद्रियों लक्षणों, व्यंजनों और गुणों से युक्त, मान, उन्मान, प्रमाण से प्रतिपूर्ण, सुजात, सर्वाङ्ग-सुन्दर चन्द्र के समान, सौम्य आकृतिवाला, कान्त प्रियदर्शी और सुरूप पुत्र को जन्म देगी । वाला, स्वप्न फल कथम विवेचन – स्वप्न पाठको ने स्वप्न शास्त्र के अनुसार व्याख्या करके चौदह महास्वप्नों का पृथक्-पृथक् अर्थ भी बतलाया । १ चार दांत वाले हाथी को देखने से वह चार प्रकार के धर्म (साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप ) का कहने वाला होगा । २ वृषभ को देखने से भरत क्षेत्र मे बोधि-बीज का वपन करेगा । ३ सिंह को देखने से कामदेव आदि विकार रूप उन्मत्त हाथियो से नष्ट होते भव्यजीव रूप वन का संरक्षण करेगा । ४ लक्ष्मी को देखने से वार्षिक दान देकर तीर्थंकर पद के अपार ऐश्वर्य का उपभोग करेगा । ५. माला को देखने से तीन भुवन के मस्तक पर धारण करने योग्य अर्थात् त्रिलोकपूज्य होगा । ६ चन्द्र को देखने से भव्य जीवरूप चन्द्रविकासी कमलो को विकसित करने वाला होगा, अथवा चन्द्रमा के समान शान्ति दायी क्षमाधर्म का उपदेश करेगा । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ सूर्य को देखने से अज्ञानरूप अन्धकार नाश करके ज्ञान का उद्योत फैलाएगा। ८ ध्वजा-दर्शन से अर्थ है धर्म रूप-ध्वजा को विश्व क्षितिज पर लहरायेगा, या ज्ञात-कुल में ध्वजा रूप होगा। ९ कलश देखने से कुल या धर्म रूपी प्रासाद के शिखर पर यह कलशरूप होगा। १० पद्मसरोवर को देखने से देव-निर्मित स्वर्णकमल पर उनका आसन लगेगा। ११ समुद्र को देखने से समुद्र को तरह अनन्त ज्ञान-दर्शन रूप मणिरत्नों का धारक होगा। १२ विमान को देखने से वैमानिक देवताओं का पूज्य होगा। १३ रत्नराशि को देखने से मणि-रत्नों से विभूषित होगा। १४ नि म अग्नि को देखने से धर्मरूप सुवर्ण को विशुद्ध व निर्मल करने वाला होगा। मूल: से वि य णं दारए उम्मुक्कबालभावे विणणायपरिणयमेत्ते जोव्वणगमणुप्पत्ते सुरे वीरे विक्कते विच्छिण्णविपुलबलवाहणे चाउरंतचक्कवट्टी रज्जवई राया भविस्सइ जिणे वा तिलोक्कनायए धम्मवरचक्कवट्टी, तं ओराला णं देवाणुप्पिया ! तिसलाए खत्तियाणीए सुमिणा दिहा जाव आरोग्गतुहिदीहाउकल्लाणमंगलकारगा णं देवाणुप्पिया! तिसलाए खत्तियाणीए सुमिणा दिहा ॥७६॥ अर्थ-और वह पुत्र भी बाल्यावस्था पूर्णकर, पढ़ लिखकर जब पूर्ण ज्ञान वाला होगा, यौवन को प्राप्त करेगा तब वह शूर, वीर और अत्यन्त परा Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वप्न-फल कपन ११५ कमी होगा। उसके पास विराट सेना व वाहन होगे। चतुर्दिक समुद्र के अन्त पर्यन्त भूमण्डल का स्वामी चक्रवर्ती सम्राट् होगा। अथवा तीन लोक का नेता धर्म चक्रवर्ती, धर्मचक्र प्रवर्तन करने वाला जिन नीर्थकर बनेगा। इस प्रकार हे देवानुप्रिय ! त्रिशला क्षत्रियाणी ने उदार स्वप्न देखे हैं, यावत् हे देवानुप्रिय ! त्रिशला क्षत्रियाणी ने जो स्वप्न देखे है वे आरोग्य करने वाले, तुष्टि करने वाले, दीर्घ आयुष्य के सूचक. कल्याण और मंगल करने वाले है। मल : तए णं से सिद्धत्थे राया तेसिं सुविणलक्खणपाढगाणं अंतिए एयमह सोच्चा निसम्म हद्वतुह जाव हियए करयल जाव ते सुमिणलक्खणपाढगे एवं वयासी ॥७७॥ अर्थ-उसके पश्चात् वह सिद्धार्थ राजा स्वप्न-लक्षणपाठको से यह वृत्त सुनकर, समझकर, अत्यन्त प्रमन्न हुआ, अत्यधिक तुष्ट हुआ। प्रसन्नता से उसका हृदय फूलने लगा। उमने हाथ जोडकर स्वप्नलक्षणपाठकों से इस प्रकार कहा - मूल : एवमेयं देवाणुप्पिया ! तहमेयं देवाणुप्पिया ! अवितहमेयं देवाणुप्पिया ! इच्छियमेयं देवाणुप्पिया ! पडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया ! इच्छियपडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया ! सच्चे णं एसम8 से जहेयं तुम्भे वयह त्ति कटु ते सुमिणे सम्मविणएणं पडिच्छइ, ते सुमिणे २ ता ते सुमिणलक्खणपाढए णं विउलेणं पुष्पगंधवत्थमल्लालंकारेणं सरकारेइ सम्माणेइ, सस्कारिता सम्माणित्ता विपुलं जीवियारिहं पीइदाणं दलपति, विपुलं जीवयारिहं पीइदाणं दलइत्ता पडिविसज्जेइ ॥७॥ अर्थ-हे देवानुप्रियो ! आपने जो कहा है वह इसी प्रकार है । हे देवा Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प पून नुप्रियो ! आपने जो कहा है वह अन्यथा नहीं है। आपका कथन यथार्थ है। आपका यह कथन हमें इष्ट है, स्वीकृत है, मन को पसन्द है। हे देवानुप्रियो ! यह कथन सत्य है जो आपने कहा है। इस प्रकार वे उन स्वप्नों को विनय के साथ स्वीकार करते हैं। स्वीकार कर स्वप्नलक्षणपाठकों को विपुल पुष्प-सुगन्धित चूर्ण, वस्त्र, मालाएं, आभूषण आदि प्रदान कर उनका अत्यन्त सत्कार सम्मान करते है। सत्कार-सम्मानकर उनके सम्पूर्ण जीवन के योग्य प्रीतिदान देते हैं । इस प्रकार प्रीतिदान देकर उन्होंने स्वप्नलक्षण-पाठकों को सम्मान पूर्वक विदा किया। विवेचन-प्रीतिदान का भावात्मक अर्थ है-दाता प्रसन्न होकर अपनी इच्छा से जो दान देता है। जिस दान में अर्थी की ओर से याचना या प्रस्ताव रखा जाता है और उस पर मन नहीं होते हुए भी दाता को देना पड़ता है वह प्रीतिदान नहीं है। प्रीतिदान का व्यावहारिक अर्थ है-इनाम या पुरस्कार, पारितोषिक।१४ मूल : तए णं से सिद्धत्थे खत्तिए सीहासणाओ अब्भुहोइ, सीहासणाओअन्मुहित्ता जेणेव तिसला खत्तियाणीजवणियंतरिया तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता तिसलं खत्तियाणि एवं वयासी ॥७॥ अर्थ-उसके पश्चात् सिद्धार्थ क्षत्रिय अपने सिंहासन से उठते है । सिंहा सन से उठकर जहां त्रिशला क्षत्रियाणी पर्दे के पीछे थीं वहाँ आते हैं, वहाँ आकर त्रिशला क्षत्रियाणी को इस प्रकार कहते हैंमूल : एवं खलु देवाणुप्पिए ! सुविणसत्थंसि बायालीसं सुमिणा जाव एगं महासुमिणं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुझति ॥२०॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ--हे देवानप्रिये ! इस प्रकार निश्चय ही रवप्नशास्त्र में बयालीस स्वप्न कहे हैं-'तीर्थकर, चक्रवर्ती, माण्डलिक राजा आदि जब गर्भ में आते हैं तब उनकी माता तीस महास्वप्नों में से कोई भी एक महास्वप्न देखकर जागृत होती है, वहां तक सम्पूर्ण वृत्त, जो स्वप्नलक्षणपाठकों ने कहा था, त्रिशला क्षत्रियाणी को सुनाते हैं। मूल: इमे य णं तुमे देवाणुप्पिए ! चोइस महासुमिणा दिठा, तं० ओराला णं तुमे जाव जिणे वा तेलोक्कनायए धम्मवरचक्कवट्टी॥१॥ ___अर्थ-हे देवानुप्रिये ! तुमने जो ये चौदह महास्वप्न देखे हैं, वे सभी बहुत ही श्रेष्ठ हैं, यहां से लेकर तुम तीन लोक के नायक, धर्मचक्र का प्रवर्तन करने वाले, जिन बनने वाले पुत्र को जन्म प्रदान करोगी, यहाँ तक का सम्पूर्ण वृत्त त्रिशला क्षत्रियाणी को सुनाते हैं। मल: तए णं सा तिसला खतियाणी सिद्धत्थस्स रन्नो अंतिए एयमढं सोच्चा निसम्म हट्तुट्ठा जाव हियया करयल जाव ते सुमिणे सम्म पडिच्छइ ॥२॥ अर्थ-उसके पश्चात् वह त्रिशला क्षत्रियाणी सिद्धार्थ से यह वृत्त सुनकर, समझकर बहुत प्रसन्न हुई, अत्यधिक सन्तोष को प्राप्त हुई । अत्यन्त प्रसन्न होने से उसका हृदय विकसित हुआ। वह दोनों हाथ जोड़कर स्वप्नों के अर्थ को सम्यक प्रकार से स्वीकार करती है। मल: सम्म पडिच्छित्ता सिद्धत्थेणं रन्ना अन्भणुन्नाया समाणी नाणामणिरयणभत्तिचित्ताओ भद्दासणाओ अब्भुठेइ अब्भुद्वित्ता Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ कल्पसूत्र अतुरियं अचवलं असंभंताए अविलंबियाए रायहंससरिसीए गईए जेणेव सते भवणे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता सयं भवणं अणुपविट्ठा ॥ ८३॥ अर्थ - स्वप्नों के अर्थ को सम्यक् प्रकार से स्वीकार करने के पश्चात् सिद्धार्थ राजा की आज्ञा पाकर वह विविध मणि-रत्नों की रचना से चमचमाते हुए भद्रासन से खड़ी होती है। खड़ी होकर शीघ्रता रहित, चपलता रहित, गरहित, अविलम्ब राजहंसी जैसी गति से चलकर जहाँ अपना भवन है, वहा आकर अपने भवन में प्रविष्ट हुई । :-- मूल जप्पभिई च णं समणे भगवं महावीरे तं नायकुलं साहरिए तप्पभिरं च णं बहवे वेसम णकुडधारिणो तिरियजंभगा देवा सक्कवयणेणं से जाई इमाई पुरापोराणाई महानिहाणाइं भवंति तं जहा - पहीण सामियाइं पहीणसेउयाइं पहीणगोत्तागाराई उच्छन्नसामियाइं उच्छन्नसेउकाई उच्छन्नगोत्तागाराई गामाऽऽगरनगरखेड कव्वडमडंबदोण मुहपट्टणासमसंवाहसन्निवेसेसु सिंघाडएस वा तिरसु वा चउक्केसु वा चच्चरेसु वा चउम्मुहेसु वा महापहेसु वा गामट्टासु वा नगरट्ठाणेसु वा गामनिद्धमणेसु वा नगरनिद्धमणेस वा आवणेसु वा देवकुलेसु वा सभासु वा पवासु वा आरामेसु वा उज्जाणेसु वा वणेसु वा वणसंडेसु वा सुसाणसुन्नागारगिरिकंदरसंतिसेलोवट्ठाणभवणगिहेसु वा मन्त्रिक्खित्ताडं चिट्ठति नाइं सिद्धत्थरायभवसि साहरंति || ४ || अर्थ-जब से श्रमण भगवान् महावीर ज्ञातकुल में संहरित हुए तब से वैश्रमण ( कुबेर) के अधीनस्थ तिर्यक् लोक में निवास करने वाले, बहुत से जृम्भकदेव इन्द्र की आज्ञा से जो अत्यन्त प्राचीन महानिधान थे उन्हें लाकर Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धार्थ राजा के भवन में एकत्रित करने लगे। प्राप्त होने वाले उन प्राचीन महानिधानों (धन भण्डारों) का परिचय इस प्रकार है: उन धन भण्डारों का वर्तमान में कोई भी अधिकृत अधिकारी नहीं रहा, उसमें कोई भी वृद्धि करने वाला नही रहा, उन धन भण्डारों के जो स्वामी थे उनके गोत्र मे भी कोई नहीं रहा। उन धन भण्डारों के अधिकारियों का भी उच्छेद हो गया, और अधिकारियों के गोत्रस्थ व्यक्तियों का भी उच्छेद हो गया, उन घरों का नाम निशान भी अवशेष नहीं रहा। ऐसे धनभण्डार जहां कही भी ग्रामों में, (जहां पर कर आदि नही लगता) आगरखदानों में, नगरों में, खेटकों में (धूली से निर्मित गढवाले ग्रामों मे) नगर की पंक्ति में न शोभित हों ऐसे ग्रामों मे, जिन ग्रामों के सन्निकट चारों तरफ दो-दो कोस तक ग्राम न हों, ऐसे मडम्बों में, जल और स्थल इन दोनों मार्गों से जहाँ जाया जा सके ऐसे द्रोणमुखों में, जल और स्थल मार्ग में से जहाँ केवल एक मार्ग से जाया जाए ऐसे पत्तनों में, तीर्थस्थल या तापसो के निवासस्थल आश्रमों में, सम-भूमि में जहां किसान कृषि करके धान्य की रक्षा हेतु धान्य रखता है ऐसे संवाहों में, सेनाएँ, सार्थवाह और पथिक जहा ठहरते हैं ऐसे सन्निवेशों में अर्थात् पड़ावों में, या सिंघाड़े की तरह तीन मार्ग एकत्रित होते है वहां तिराहे, पर, चारमार्ग एकत्रित होते है वहां चौराहे पर, या अनेक मार्ग एकत्रित होते है वहां पर, राजपथ मे, देवालयों में, ग्राम अथवा नगर के उच्च स्थानों में निर्जन गाँव और नगर के स्थलों मे, नालियों मे, बाजार और दुकानें जहाँ हो, ऐसे स्थलों में, देवगृह, चौराहा, प्याऊ और उद्यानों में, उजामण (गोठ) करने के स्थलों में, वन में, वन खण्डों मे, श्मशान में, शून्यगृहों में, पर्वत की गुफाओं में, शान्ति गृहों में, (जहां पर बैठकर शान्ति कर्म किया जाता है) पर्वत को कुरेद कर बनाए गए गृहों में, सभास्थलों में, किसान जहां रहते हों ऐसे घरों में, भूमि में, जहाँ पर गुप्त रूप से रवखे हुए धन भण्डार है, उन्हें लाकर वे जम्भकदेव सिद्धार्थ राजा के भवन में स्थापित करते हैं। मूल : जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे नायकुलंसि Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० साहरिए तं रयणि च णं नायकुलं हिरण्णणं वढित्था सुवण्णेणं वढित्था धणेणं धन्नेणं रज्जेणं रट्टेणं बलेणं वाहणेणं कोसेणं कोठागारेणं पुरेणं अंतेउरेणं जणवएणं जसवाएणं वढित्था, विपुलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरयणमाइएणं संतसारसावएज्जेणं पीइसक्कारसमुदएणं अईव अईव अभिवढित्था ।।८५॥ अर्थ-जिस रात्रि में श्रमण भगवान् महावीर ज्ञातृकुल में लाये गये उस रात्रि से ही सम्पूर्ण ज्ञातृकुल चाँदी से, स्वर्ण से, धन-धान्य से, राज्य से, राष्ट्र (जनपद) से, सेना से, वाहन से, कोश से, कोष्ठागार (धान्यगृह) से, नगर से, अन्तःपुर से, जनपद से, यश और कीर्ति से वृद्धि प्राप्त करने लगा। ___ उसी प्रकार विपुल धन (गोकुल), स्वर्ण, रत्न, मणि, मुक्ता, दक्षिणावर्त शंख, राजपट्ट, प्रवाल, पद्मराग, माणिक, आदि सारभूत सम्पत्ति से भी ज्ञातृकुल की वृद्धि होने लगी । ज्ञातृकुल के लोगों में परस्पर प्रीति, आदर और सत्कार-सद्भाव बढ़ने लगा। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में जो धन शब्द व्यवहृत हुआ है, उम धन के चार प्रकार है (१) गणिम-जो वस्तु गिनकर दी जाए, जैसे फल-फूल आदि । (२) धरिम-जो वस्तु तोलकर दी जाए-जैसे शक्कर गुड़ आदि। (३) मेयजो वस्तु माप करदी जाए जैसे कपडा आदि । (४) परिच्छेद्य-जो वस्तु परख कर दी जाए जैसे हीरा पन्ना आदि जवाहरात। धान्य शब्द के अन्तर्गत चौबीस प्रकार के धान्यों को लिया गया है, वे धान्य यों है: (१) गेहूं, (२) जो, (३) जुवार, (४) बाजरी, (५) डांगेर (शाल) (६) वरी, (७) बंटी (वरटी), (८) बाबटी, (६) कांगनी, (१०) चिण्योझिण्यो, (११) कोदरा, (१२) मक्का । इन बारह की दाल न बनने के कारण ये 'लहा' धान्य कहलाते है। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) मंग, (१४) मोठ, (१५) उड़द, (१६) तुवर, (१७) झालर काबली चने, (१८) मटर, (१९) चंवले, (२०) चने, (२१) कुलत्थी, (२२) कांग, (राजगरे के समान एक जाति का अन्न), (२३) मसुर, (२४) अलसी इन बारह की दाल बन सकने के कारण ये 'कठोल' कहे जाते है। मल : तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अम्मापिऊणं अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था-जप्पभिई च णं अम्हं एस दारए कुच्छिसि गब्भत्ताए वक्ते तप्पभिई च णं अम्हे हिरण्णेणं वड्ढामो सुवन्नणं वडढामो, धणेणं धन्नणं रज्जेणं रहणं बलेणं वाहणेणं कोसेणं कोडागारेणं पुरेणं अंतेउरेणं जणवएणं जसवाएणं वड्ढामो, विपुलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरयणमाइएणं संतसारसावएज्जेणं पिइसकारसमुदएणं अतीव अतीव अभिवड्ढामो तं जया णं अम्हं एस दारए जाए भविस्सइ तया णं अम्हे एयस्स दारगस्स एयाणुरूवं गोन्नं गुणनिप्फन नामधिज्ज करिस्सामो 'वद्धमाणों त्ति ॥८६॥ अर्थ-उसके पश्चात् श्रमण भगवान महावीर के माता-पिता के मानस में इस प्रकार चिन्तन, अभिलाषा रूप मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि जब से यह हमारा पुत्र कुक्षि में, गर्भ रूप से आया है तब से हमारो हिरण्य से, सुवर्ण से, धन से, धान्य से, राज्य से, राष्ट्र से, सेना से, वाहनों से, धन-भण्डार से, पुर से, अन्तःपुर से, जनपद से, यशःकीर्ति से वृद्धि हो रही है। तथा धन, कनक, रत्न, मणि, मुक्ता, शंख, शिला, प्रवाल और माणिक आदि निश्चय ही हमारे यहाँ अत्यधिक रूप से बढ़ने लगे है तथा हमारे सम्पूर्ण ज्ञातृकुल में परस्पर अत्यन्त प्रीति बढ़ने लगी है, एवं अत्यधिक आदर-सत्कार भी बढ़ने Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ लगा है, अतएव जब हमारा यह पुत्र जन्म लेगा तब हम इस पुत्र का इसके अनुरूप गुणों का अनुसरण करने वाला, गुण निष्पन्न 'वर्तमान' नाम रखेंगे । ---• गर्भ की स्थिरता पर शोक मूल : तए णं समणे भगवं महावीरे माउअणुकंपट्ठाए निच्चले निप्पंदे निरयणे अल्लीणपल्लीणगुत्ते या वि होत्था ॥७॥ ___अर्थ-उसके पश्चात् श्रमण भगवान महावीर माता के प्रति अनुकम्पा करने के लिए अर्थात् 'गर्भ में हलन-चलन करूंगा तो माता को कष्ट होगा' यह सोचकर निश्चल हो गये, उन्होंने हिलना-डुलना बन्द कर दिया, अकम्प बन गये, अपने अङ्गोपाङ्ग को सिकोड़ लिए, इस प्रकार माता की कुक्षि में हलनचलन रहित हो गए। मूल : तए णं तीसे तिसलाए खत्तियाणीए अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जिथा-'हडे मे से गब्भे, मड़े मे से गन्भे, चुए मे से गम्भे, गलिए मे से गम्भे एस मे गम्भे पुबि एयति इयाणिं नो एयति त्ति कटु ओहतमणसंकप्पा चिंतासोगसायरं संपविट्ठा करयलपल्हस्थमुही अट्टज्माणोवगया भूमिगयदिट्ठीया मियायइ। तं पि य सिद्धत्थरायभवणं उवरयमुइंगतंतीतलतालनाडइज्जजणमणुज्जंदीणविमणं विहरह ॥८॥ ___ अर्थ-तब त्रिशला क्षत्रियाणी के मन में इस प्रकार का यह विचार आया कि-मेरा यह गर्भ हरण कर लिया गया है, मेरा गर्भ मर गया है, मेरा यह गर्भ च्युत हो गया है, मेरा गर्भ पहले हिलता-डुलता था, अब हिलताडुलता नहीं है। इस प्रकार विचार कर वह खिन्न मन वाली होकर चिन्ता और शोक के मागर में निमग्न हो गई। हथेली पर मुह रखकर आर्तध्यान Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्ष को स्थिरता पर शोक १२३ करने लगी। भूमि की ओर दृष्टि केन्द्रित कर चिन्ता करने लगी। उस समय सिद्धार्थ राजा का सम्पूर्ण घर शोकाकुल हो गया। जहां पर पहले मृदङ्ग, वीणा आदि वाद्य बजते थे, रास क्रीड़ाएँ होती थी, नाटक होते थे जय-जयकार होता था, वहाँ सर्वत्र शून्यता व्याप्त हो गई, उदासी छा गई। विवेचन-माँ वात्सल्य को अमरमूर्ति है। उसकी ममता निराली है। संसार की कोई भी शक्ति उस ममता की होड़ नही कर सकती। पुत्र, मों की ममता का मेरु है, हृदय है, प्राण है ! उसके लिए वह स्वयं कष्ट की धधकती ज्वालाओं में झुलसती है, पर प्यारे लाल को तनिक भी कष्ट में देखना नहीं चाहती। उसका तनिक कष्ट भी उसके लिए असह्य है। भगवान महावीर ने मातृस्नेह के कारण ज्योंही हिलना-डुलना बन्द किया, त्योंही माता त्रिशला अकल्पनीय कल्पना के प्रवाह में बहकर फूट-फूटकर रोने लगी। दारुण-विलाप करने लगी। "हाय ! यह क्या हो गया। मेरा गर्भस्थ बालक हिलता-डुलता क्यो नही है ? क्या उसका अपहरण हो गया है ? क्या वह नष्ट हो गया है ? क्या किसी ने मेरे पुत्र-रत्न को छीन लिया है ?" "हे भगवन् ! ऐसा मैंने कौन-सा भयकर पाप किया था जिसके कारण ऐसा अनर्थ हुआ है । हे भगवन् ! क्या मैंने पूर्वभव में किसी का गर्भ गिराया ? क्या मैने किसी माँ से प्यारे लाल का बिछोह कराया? क्या मैंने किन्हीं पक्षियों के अण्डे नष्ट किये ? क्या मैंने चूहों के बिलो में गर्म पानी डालकर उनके बच्चों का घात किया ? हाय प्रभो ! अब यह करुण कहानी किसे सुनाऊँ ? हे भगवन् ! मैं वस्तुतः पापिनी हूँ ! अभागिनी हूँ !" महारानी त्रिशला के करुण-क्रन्दन को सुनकर दासियां दौड़ आयीं । वाणी में मिश्री घोलती हई बोली-"रानीजी । आप क्यों रो रही हैं ? आपका मुख कमल क्यों मुरझा गया है ? आपका देह तो स्वस्थ है न ? आपका गर्भस्थ बालक तो सकुशल है न ? रानी ने निश्वास डालते हुए कहा-"क्या कहूँ ! हृदय फट रहा है, मन Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदना से विदीर्ण हो रहा है । प्यारा लाल"....कहते कहते गला रुध गया। आँखों से आंसुओं की वर्षा होने लगी, रानी मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ी । महारानी की यह अवस्था देखकर दासियाँ घबरा गई, वे पखे से हवा करने लगी, सारे अन्तःपुर में शोक की लहर व्याप्त हो गई। महाराज सिद्धार्थ ने सुना, वह भी दौड़कर महल में आये । महारानी की यह दयनीय दशा देखकर उनके आंखों से भी आंसू छलक पड़े। तथापि धैर्य बटोर कहा-"रानी ! घबराओ मत, धैर्य रखो। सब कुछ ठीक हो जायेगा, अधीर मत बनो।” मल : तए णं समणे भगवं महावीरे माऊए अयमेयारूवं अभथियं पत्थियं मणोगयं संकप्पं समुप्पण्णं विजाणित्ता एगदेमेणं एयइ ॥८६॥ अर्थ-तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर माता के मन मे उत्पन्न हुए इस प्रकार के विचार, चिन्तन अभिलाषा रूप मनोगत सकल्प को जानकर अपने शरीर के एक भाग को हिलाते हैं। विवेचन-भगवान ने अवधिज्ञान से माता पिता और परिजनो को शोक विह्वल देखा । मोचा कि कुर्म. ? कस्य वा मो?, मोहस्य गतिरोशी । दुषेर्षातोरिवास्माकं, गोवनिष्पत्तये गुणः ॥ 'अरे ! यह क्या हो रहा। मैंने तो माता के सुख के लिए यह कार्य किया था पर यह तो उल्टा उनके दुःख का कारण बन गया। मोह की गति बड़ी विचित्र है। जैसे दुष् धातु से गुण करने से 'दोष' की निष्पत्ति होती हैं वैसे ही मैंने सुख के लिए जो कार्य किया उससे उल्टा दुःख ही निष्पन्न हुआ।' ऐसा विचार कर उन्होंने अपने शरीर के एक भाग को हिलाया। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भ की स्थिरता पर शोक १२५ मूल : तए णं सा तिसला खत्तियाणी हट्टतुट्ठ जाव हियया एवं क्यासिनो खलु मे गब्भे हडे जाव नो गलिए, मे गब्भे पुब्बि नो एयइ इयाणिं एयइ त्ति कटु हठतुठ जाव एवं वा विहरइ ॥१०॥ अर्थ--उसके पश्चात् वह त्रिशला क्षत्रियाणी परम प्रसन्न हुई, तुष्ट हुई। प्रसन्नता से उसका हृदय विकसित हुआ। प्रसन्न होकर वह इस प्रकार सोचने लगी-"निश्चय ही मेरे गर्भ का हरण नहीं हुआ है और न मेरा गर्भ गला ही है। मेरा गर्भ पहले हिलता नहीं था, अब हिलने लगा है।" इस प्रकार सोचकर वह अत्यन्त प्रसन्न हुई, सन्तोष को प्राप्त हुई और अतीव आह्लाद पूर्वक रहने लगी। -. अभिग्रह मल: तए णं समणे भगवं महावीरे गब्भत्थे चेव इमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ नो खलु मे कप्पइ अम्मापिएहिं जीवंतेहिं मुंडे भवित्ता अगारवासाश्रो अणगारियं पब्बइत्तए ॥६१॥ अर्थ-उसके पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने गर्भ में रहते ही इस प्रकार अभिग्रह (नियम संकल्प) स्वीकार किया- "जब तक मेरे माता पिता जीवित रहेगे तब तक मैं मुण्डित होकर गृहवास का त्याग कर दीक्षा अंगीकार नही करूंगा।" विवेचन-श्रमण भगवान महावीर ने सोचा "अभी तो मै गर्भ में हूँ, मां ने मेरा मुह भी नही देखा है तथापि माता का इतना मोह है, तो जन्म के पश्चात् कितना मोह होगा ? माता पिता की विद्यमानता में यदि मैं संयम लूगा तो उन्हें बहुत ही कष्ट होगा, अतः मातृ-स्नेह के वश सातवें महीने में उन्होंने उपर्युक्त प्रतिज्ञा ग्रहण को ।'६६ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ---, गर्म परिपालना मल: तए णं सा तिसला खत्तियाणी ण्हाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सवालंकारभूसिया तं गभं नाइसीएहिं नाइ उण्हेहिं नाइतित्तेहिं नाइकडुएहिं नाइकसाइए हिंनाइअंबिलेहिं नाइमहुरेहिं नातिनिद्धेहिं नातिलुक्खेहिं नातिउल्लेहिनातिसुक्केहिं उडुभयमाणसुहेहि भोयणच्छायणगंधमल्लेहिं ववगयरोगसोगमोहभयपरित्तासा जं तस्स गम्भस्स हियं मियं पत्थं गब्भपोसणं तं देसे य काले य आहारमाहारेमाणी विवित्तमउएहिं सयणासणेहिं पइरिक्कसुहाए मणाणुकूलाए विहारभूमीए पसत्थदोहला संपुनदोहला सम्माणियदोहला अविमाणियदोहला वुच्छिन्नदोहला विणीयदोहला सुहं सुहेणं प्रासयइ सयति चिटठइ निसीयइ तुयट्टइ सुहं सुहेणं तं गब्भं परिवहद ॥२॥ ___ अर्थ-उसके पश्चात् त्रिशला क्षत्रियाणी ने स्नान किया, बलिकर्म किया कौतूक मगल और प्रायश्चित्त किया। सम्पूर्ण अलंकारों से भूषित हुई। वह गर्भ का पोषण करने लगी । उसने अत्यन्त शीत, अत्यन्त उष्ण, अत्यन्त तीक्ष्ण, अत्यन्त कटुक, अत्यन्त कसैले, अत्यन्त खट्टे, अत्यन्त मीठे, अत्यन्त स्निग्ध, अत्यन्त रूक्ष, अत्यन्त आर्द्र ऋतु से प्रतिकूल भोजन, वस्त्र, गंध और मालाओ का त्याग कर दिया। ऋतु के अनुकूल सुखकारी भोजन, वस्त्र, गंध और मालाओं को धारण किया। वह रोगरहित, शोकरहित, मोहरहित, भयरहित, त्रास रहित, रहने लगी। तथा उस गर्भ के लिए हितकर, परिमित पथ्य और गर्भ का पोषण करने वाला आहार-विहार करती हुई उपयोग पूर्वक रहनेलगी। वह देश और काल के अनुसार आहार करती। दोष रहित, मुलायम आसनपर बैठती, एकान्त शान्त-विहारभूमि में रहने लगी। उसको गर्भ के प्रभाव से प्रशस्त दोहद उत्पन्न हुए। उन दोहदों को Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष परिपालना १२७ सम्मान पूर्वक पूर्ण किया । दोहदों का तनिकमात्र भी अपमान ( उपेक्षा) नहीं किया । उसके मनोवांच्छित दोहद पूर्ण होने से हृदय शान्त हो गया । अब उसे दोहद उत्पन्न नहीं होते, वह सुखपूर्वक सहारा लेकर बैठती है, सोती है, खड़ी रहती है, आसन पर बैठती है, शय्या पर सोती है और सुख पूर्वक गर्भ को धारण करती है । विवेचन - भारतीय आयुर्वेद साहित्य में जो जैन दृष्टि से प्राणावाय पूर्व का ही एक अङ्ग है, गर्भवती माता का आहार, विहार और चर्या कैसी होनी चाहिए इस पर गहराई से विचार किया गया है। यहां पर हम विस्तार में न जाकर संक्षेप में ही उसका सारांश सूचित कर रहे हैं । गर्भवती माता को किस ऋतु में कौन-सा पदार्थ अधिक लाभप्रद होता है ? इस पर चर्चा करते हुए बताया है कि वर्षा ऋतु में नमक, शरद् ऋतु में पानी, हेमन्त ऋतु में गोदुग्ध, शिशिरऋतु में आम्ल रस, वसन्त ऋतु में घृत और ग्रीष्मऋतु में गुड़ का सेवन हितकारी है । ' १६७ वाग्भट्ट ने कहा है- 'यदि गर्भवती माता वात- प्रधान आहार करती है तो गर्भस्थ बालक कुब्ज, अंध, मूर्ख और वामन होता है। यदि पित्त प्रधान आहार करती है तो गर्भस्थ बालक के सिर मे टाट, व शरीर पीतवर्ण वाला होता है । यदि कफप्रधान आहार करती है तो गर्भस्थ बालक श्वेत कुष्ठी होता है । 'अत्यन्त उष्ण आहार करने से गर्भस्थ बालक का बल नष्ट होता है । अत्यन्त शीत आहार करने से गर्भस्थ बालक को वायु प्रकोप होता है । अत्यन्त नमक प्रधान आहार करने से गर्भस्थ बालक के नेत्र नष्ट होते हैं । अत्यन्त घृत प्रधान स्निग्ध आहार करने से पाचनक्रिया विकृत होती है ।' सुश्रुत में कहा है- 'यदि गर्भवती महिला दिन में सोती है, तो उसकी सन्तान आलसी व निद्रालु होती है । यदि नेत्रों में अञ्जन आँजती है तो संतान अंधी होती है । यदि वह रोती है तो सन्तान की दृष्टि विकृत होती है । यदि वह अधिक स्नान और विलेपन करती है तो संतान दुराचारिणी होती है । शरीर पर तेल आदि का मर्दन करती है तो संतान कुष्ठ रोगी होती है। बार Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ बार नाखून काटती है, तो सन्तान के नाखून असुन्दर होते हैं। दौड़ती है तो संतान की प्रकृति चंचल होती है । जोर से अट्टहास करती हैं तो संतान के दांत ओष्ठ, तालु और जीभ श्याम होते है। यदि वह बहुत बोलती है, तो सन्तान भी अधिक बकवास करने वाली होती है। अधिक गाती या वीणा आदि वाद्य अधिक बजाती है तो सतान बहरी होती है। यदि वह अधिक भूमि को खोदती है तो संतान के सिर मे केश विरल होते हैं अर्थात् कहीं-कही पर टाट निकल जाती है । यदि वह पंखे आदि को हवा करती है तो सन्तान उन्मत्त प्रकृति की होती है । गर्भवती माता के चिन्तन, आचरण व्यवहार, वातावरण आदि का सन्तान के निर्माण में, उसके चरित्र एवं शरीर संघटना पर बहुत असर होता है। यह तथ्य प्राचीन आयुर्वेद से ही सम्मत नहीं, बल्कि आधुनिक शरीर-विज्ञान एवं मनोविज्ञान के परीक्षणों से भी सम्पुष्ट है। हां, तो महारानी त्रिशला की प्रतिभा सम्पन्न विलक्षण सहेलियां समय समय पर महारानी को इस बात का ध्यान दिलाती रहती थी कि आप "शन: शनैः चले । शनैः शनैः बोले, क्रोध न करें, हितमित और पथ्य भोजन करें । पेट को अधिक न कसे, अधिक चिन्ता व अधिक हास-परिहास न करें। अधिक चढ़ने उतरने का श्रम भी न करें।" ___ महारानी त्रिशला भी सहेलियों की बात को ध्यान से सुनती और विवेकपूर्वक गर्भ का पालन करती। गर्भ के प्रभाव से माता त्रिशला को दिव्य दोहद उत्पन्न हुए । मैं अपने हाथों से दान दू, सद्गुरुओं को आहार आदि प्रदान करू, देश में अमारी पटह बजवाऊ', कैदियों को कारागृह से मुक्त कराऊ समुद्र, चन्द्र और पीयूष का पान करूँ, उत्तम प्रकार के भोजन, आभूषण धारण करु, सिंहासन पर बैठकर शासन का संचालन करुं और हस्ती पर बैठकर उद्यान में आमोद-प्रमोद करूं । राजा सिद्धार्थ ने रानी के समस्त दोहद पूर्ण किये। कहा जाता है कि एक बार रानी त्रिशला को एक विचित्र दोहद उत्पन्न हुआ। मैं इन्द्राणी के कानों से कुण्डल-युगल छीनकर पहनू । दोहद पूर्ण Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्म परिपालना १२५ होना असंभव था। उसी समय इन्द्र ने अवधिज्ञान से देखा, रानी के दोहद को पूर्ण करने के लिए वह भूमण्डल पर आया। किले का निर्माण कर सिद्धार्थ को युद्ध के लिए आह्वान किया। स्वयं युद्ध में पराजित हुआ, किले पर सिद्धार्थ ने अधिकार किया, इद्राणी के कानों से कुण्डल छीनकर त्रिशला रानी को पहनाये, दोहद पूर्ण होने से त्रिशला अत्यन्त प्रमुदित हुई। इस प्रकार के दोहदों द्वारा गर्भस्थ शिशु के दया, शौर्य, वीरता आदि गुणो का माता के मन पर स्पष्ट प्रतिबिम्बित होना दृष्टिगोचर होता है । मल: तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जे से गिह्माणं पढमे मासे दोच्चे परखे चित्तसुद्धे तस्स णं चित्तसुद्धस्स तेरसीदिवसेण नवण्हं मासाणं बहुपडिपुनाणं अद्धट्ठमाण य राई. दियाणं विइक्कंताणं उच्चट्ठाणगतेसु गहेसु पढमे चंदजोगे सोमासु दिसासु वितिमिरासु विसुद्धासु जतिएसु सब्बसउणेसु पयाहिणाणुकूलंसि भूमिसपिसि मारुयसि पवातंसि निप्पण्णमेदिणीयंसि कालंसि पमुदितपक्कीलिएसु जणवएसु पुब्बरत्तावरत्तकालसमयसि हत्युत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं आरोगं दारयं पयाया ॥३॥ ___ अर्थ-उस काल उस समय मे (श्रमण भगवान महावीर) जब ग्रीष्म ऋतु चल रही थी, ग्रीष्म का प्रथम मास-चैत्र मास और उसका द्वितीय पक्ष (शुक्ल पक्ष ) चल रहा था, चैत्र मास के शुक्ल पक्ष का तेरहवां दिन था अर्थात् चंत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन, नव मास और सार्द्ध सप्त दिन व्यतीत होने पर जब सभी ग्रह उच्च स्थान में आये हुए थे, चन्द्र का प्रथम योग चल रहा था दिशाएँ सभी सौम्य, अंधकार रहित और विशुद्ध थी, जय-विजय के सूचक सभी प्रकार के शकुन थे, दाक्षिणात्य (दक्षिण दिशिका) शीतल-मन्द सुगंधित पवन प्रवाहित था, पृथ्वी धान्य से सुसमृद्ध थी, देश के सभी जनों के मन में प्रमोद भावनाएं अठखेलियां कर रही थीं, तब मध्यरात्रि के समय हस्तोत्तरा नक्षत्र Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० अर्थात् उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के योग में त्रिशला क्षत्रियाणी ने आरोग्य पूर्वक और नीरोग, स्वस्थ पुत्र को जन्म दिया। विवेचन-आचार्यों ने सभी तीर्थंकरों के गर्भकाल का उल्लेख करते हुए यह बताया है कि कौन तीर्थकर कितने काल तक माता के गर्भ में रहे । भगवान ऋषभदेव नव मास और चार दिन गर्भ में रहे। श्री अजितनाथ आठ मास और पच्चोस दिन, श्री संभवनाथ नौ मास और छह दिन श्री अभिनन्दन आठ मास और अट्ठाईस दिन, श्री सुमितनाथ नौ मास और छह दिन, श्री पद्म प्रम नौ मास और छह दिन, श्री सुपार्श्वनाथ नौ मास और उन्नीस दिन, श्री चन्द्रप्रभ नौ मास और सात दिन, श्री सुविधिनाथ आठ मास और छब्बीस दिन, श्री शीतलनाथ नौ मास और छह दिन, श्री श्रेयांसनाथ नौ मास और छह दिन, श्री वासुपूज्य आठ माह और बीस दिन, श्री विमलनाथ आठ माह और इक्कीम दिन, श्री अनन्तनाथ नौ माह और छह दिन, श्री धर्मनाथ आठ माह और छब्बीस दिन, श्री शान्तिनाथ नौ माह और छह दिन, श्री कुथुनाथ नौ माह और पांच दिन, श्री अरनाथ नौ माह और आठ दिन, श्री मल्लिनाथ नौ माह और सात दिन, श्री मुनिसुव्रत स्वामी नौ माह और आठ दिन, श्री नमिनाथ नौ माह और आठ दिन, श्री नेमिनाथ नौ माह और आठ दिन, श्री पार्श्वनाथ नौ माह और छह दिन, श्री महावीर नौ माह और सात दिन गर्भ में रहे। भगवान महावीर के जन्म के समय सभी ग्रह उच्च स्थान मे थे। जैसे जन्म कुण्डली mummmmmmmmmm. राशि ग्रह अश मेष १२ .१० मे. वृषभ चन्द्र मकर मंगल सूर्य awwwewww कन्या मीन २७ तुला शनि २० Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ प्राचीन ज्योतिष सम्बन्धी मान्यता के अनुसार जिसके जन्म समय में तीन ग्रह उच्च होते हैं वह राजा होता है। पांच ग्रह उच्च होने पर अधं चक्रवर्ती होता है, छह ग्रह उच्च स्थान में हो तो चक्रवर्ती होता है और सात ग्रह उच्च होने पर तीर्थकर बनता है। भगवान महावीर के जन्म लेने से केवल क्षत्रियकुण्डपुर ही नहीं, अपितु क्षण भर के लिए समस्त संसार लोकोत्तर प्रकाश से प्रकाशित हो गया। राजा सिद्धार्थ ने ही नहीं, संसार भर के प्राणिगण ने अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव किया । तीर्थकर का धरा पर जन्म धारण करना अध्यात्म, धर्म और ज्ञान के महाप्रकाश का साक्षात् रूप में अवतरण है। उनके उपदेश व ज्ञान से सिर्फ मनुष्यलोक ही नहीं, बल्कि तीनों लोक प्रकाशमान हो जाते हैं। इसी दृष्टि से तीर्थंकर के जन्म समय में, दीक्षा एवं केवल ज्ञानोत्पत्ति के समय में तीनों लोक में अपूर्व उद्योत होने की बात आगम में आई है।'६५ -. जन्म महोत्सव मल: जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे जाए साणं रयणी बहूहिं देवेहि य देवीहि य उवयंतेहि य उप्पयंतेहि य उप्पिंजलमाणभूया कहकहभूया यावि होत्था ॥१४॥ ___ अर्थ-जिस रात्रि में श्रमण भगवान् महावीर ने जन्म ग्रहण किया उस रात्रि में बहुत से देव और देवियों के ऊपर-नीचे आवागमन से लोक में एक हलचल मच गई और सर्वत्र कल-कलनाद व्याप्त हो गया । विवेचन-भगवान का जन्मोत्सव करने के लिए छप्पन दिक्कुमारिकाएँ आई। दिक्कुमारिकाओं के नाम इस प्रकार हैं (१) भोगंकरा, (२) भोगवती, (३) सुभोगा, (४) भोगमालिनी, (५) सुवत्सा, (६) वत्समित्रा, (७) पुष्पमाला, (८) अनिन्दिता। ये आठों दिक्कुमारियाँ अधोलोक में रहती हैं। उन्होंने आकर नमस्कार कर Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ कल्प सूत्र ईशान दिशा में सूतिका गृह का निर्माण किया (6) मेघकरा, (१०) मेघवती, (११) सुमेघा, (१२) मेघमालिनी, (१३) तोयधारा, (१४) विचित्रा, (१५) वारिषेणा, (१६) बलाहिका । ये आठों दिक्कुमारियाँ ऊर्वलोक में रहती हैं। उन्होंने आकर नमस्कार किया, सुगन्धित जल और पुष्पों की वृष्टि की। (१७) नंदा, (१८) उत्तरानन्दा, (१६) आनन्दा, (२०) नंदिवर्धना, (२१) विजया, (२२) वैजयन्ती, (२३) जयंती, (२४) अपराजिता। ये आठों दिककुमारियाँ पूर्व दिशा के रुचक पर्वत में रहती हैं । मुख दिखाने हेतु दर्पण सामने करती हैं। (२५) समाहारा, (२६) सुप्रदत्ता, (२७) सुप्रबुद्धा, (२८) यशोधरा, (२६) लक्ष्मीवती, (३०) शेषवती, (३१) चित्रगुप्ता, (३२) वसुन्धरा। ये आठों दिक्कुमारियां दक्षिण दिशा के रुचक पर्वत में रहती हैं, स्नान हेतु जल सम्पूरित कलश लाती है । (३३) इलादेवी, (३४) सुरादेवी, (३५) पृथिवी, (३६) पद्मवती, (३७) एकनासा, (३८) नवमिका, (३६) भद्रा और (४०) शीता, ये आठों दिक्कुमारियाँ पश्चिम दिशा के रुचक पर्वत पर रहती हैं। ये पवन करने के लिए पंखा लेकर आती हैं। (४१) अलबुसा, (४२) मितकेशी, (४३) पुडरीका, (४४) वारुणी, (४५) हासा, (४६) सर्वप्रभा, (४७) श्री और (४८) ही ये आठों दिक्कुमारियाँ उत्तर दिशा के रूचक पर्वत पर रहती हैं। ये चामर वींजती है । (४६) चित्रा, (५०) चित्रकनका, (५१) शतोरा, (५२) वसुदामिनी, ये चारों दिक्कुमारियां रूचक पर्वत की विदिशाओ में से आती हैं । दीपक लेकर विदिशाओ में खड़ी रहती है। (५३) रूपा, (५४) रूपासिका, (५५) सुरूपा और (५६) रूपकावती ये चारों दिक्कुमारियाँ रुचक द्वीप में रहती हैं। ये भगवान् के नाल का छेदन करती है। तेल का मर्दन कर स्नान कराती है। विभिन्न दिशाओं में रहने वाली ये दिक्कुमारियां आई और भगवान का सूतिका कर्म करके, जन्मोत्सव मनाया और अपने स्थान को चली गई। भगवान् का जन्म होते ही शक्रेन्द्र का सिंहासन कम्पित हुआ। वह अवधिज्ञान से भगवान का जन्म जानकर आह्लादित हुआ। अनेक देव-देवियों के परिवार के साथ कुण्डपुर आया। साथ ही, भवन पति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवनिकाय के इन्द्र और देवगण भी आये। उन्होंने भगवान् Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गान महोत्सव १३३ को और माता त्रिशला को तीन बार प्रदक्षिणा कर नमस्कार किया। मां को अवस्वापिनी निद्रा देकर और भगवान का प्रतिबिम्ब वहाँ रखकर भगवान् को मेरुशिखर पर ले गये। स्नात्राभिषेक करने के लिए जब सब देव जलकलश लेकर खड़े हुए तो सौधर्मेन्द्र के मानस में शंका हुई कि यह नवजात बालक इतने जल प्रवाह को कैसे सहन करेगा? अवधिज्ञान से इन्द्र की शंका को जानकर भगवान् ने बाएँ पांव के अंगूठे से मेरु पर्वत को दबाया जिससे सम्पूर्ण पर्वत कम्पायमान हो गया ।'७५ इन्द्र को प्रथम क्रोध आया, किंतु जब इसे नवजात बालक रूप में अनन्तशक्ति सपन्न भगवान् का ही कृत्य समझा तो, उसे भगवान् की अनन्त शक्ति का परिज्ञान हुआ, उसने क्षमा याचना की। जन्मोत्सव मनाने के पश्चात् पुनः इन्द्र ने भगवान को माता के पास रख दिया। एवं नन्दीश्वर द्वीप में अष्टान्हिक महोत्सव कर स्वस्थान गये । मूल : जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे जाए तं रयणिं च णं बहवे वेसमणकुंडधारिणो तिरियजंभगा देवा सिद्धत्थरायभवणंसि हिरन्नवासं च सुवन्नवासंच रयणवासं च वयरवासं च वत्थवासं च आहरणवासं च पत्तवासं च पुष्पवासं च फलवासं च बीयवासं च मल्लवासं च गंधवासं च वण्णवासं च चुण्णवासं च वसुहारवासं च वासिं सु ॥६५॥ अर्थ-जिस रात्रि को श्रमण भगवान् महावीर ने जन्म ग्रहण किया उस रात्रि में कुबेर की आज्ञा में रहे हुए, तिर्यक् लोक में रहने वाले अनेक जृम्भिक देवों ने सिद्धार्थ राजा के भवन में चांदी की, स्वर्ण की, रत्नों की, वज रत्नों की, वस्त्रों की, आभूषणों की, (नागर) पत्रों की, पुष्पों की, फलों की, बीजों की, मालाओ की, सुगन्धित पदार्थों की, विविध प्रकार के रंगों की, सुगन्धित चूर्णों की और स्वर्ण मुद्राओं की वृष्टि की। विवेचन-त्रिशला रानी ने जब पुत्ररत्न को जन्म दिया तब सर्वप्रथम प्रियंवदा नाम की दासी ने राजा सिद्धार्थ के पास जाकर पुत्र जन्म की शुभ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.३४ सूचना दी। यह शुभ सूचना सुनकर राजा बहुत ही प्रसन्न हुआ। और इस प्रसन्नता के उपलक्ष में राजा ने मुकुट के सिवाय अपने समस्त आभूषण उतार कर दासी को पुरस्कार में दे डाले और उसे दासी कर्म से मुक्त करके उचित सन्मानार्ह पद दिया। मूल : तए णं से सिद्धत्थे खत्तिए भवणवइवाणमन्तरजोइसवेमाणिएहिं देवेहिं तित्थयरजम्मणाभिसेयमहिमाए कयाए समाणीए पच्चूसकालसमयंसि नगरगुत्तिए सहावेइ नगरगुत्तिए सहावित्ता एवं वयासी ॥६६॥ ___अर्थ-उसके पश्चात् सिद्धार्थ क्षत्रिय, भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों द्वारा तीर्थंकर जन्माभिषेक-महिमा संपन्नकर चुकने के पश्चात् प्रातः नगररक्षक को बुलाता है, नगर रक्षक को बुलाकर इस प्रकार कहता है:मल: खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! कुडपुरे नगरे चारगसोहणं करेह, चारगसोहणं करित्ता, माणुम्माणवद्धणं करेह, माणुम्माणवद्धणं करित्ता कुडपुरं नगरं सब्भितरबाहिरियं आसियसम्मज्जियोवलेवियं सिंघाडगतियचउक्कचच्चरचउम्मुहमहापहपहेसु सित्तसुइसम्मट्टरत्यंतरावणवोहियं मंचाइमंचकलियं नाणाविहरागभूसियज्झयपडागमंडियं लाउल्लोइयमहियं गोसीससरसरत्तचंदणदहरदिण्णपंचंगुलितलं उवचियचंदणकलसं चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागं आसत्तोसत्तविपुलवट्टवग्धारियमल्लदामकलावं पंचवन्नसरससुरहिमुक्कपुष्पजोवयारकलियं कालागुरुपवरकुंदर Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बम्म महोत्सव क्कतुरुक्कडज्यंत धूवमघमर्धितगंधुद्धयाभिरामं सुगंध वरगंधियं गंधवट्टिभूयं नडनट्टगजल्ल मल्ल मुट्ठियवेलंबग पवगक हग पढकलासकआईखगलंख मंखतूणइल्लतु ववीर्णिय अणेगतालायराणुचरियं करेह कारवेह, करेत्ता कारवेत्ताय जूयसहस्सं च मुसलसहस्सं च उसवेह, उस्सवित्ताय मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिह ॥ ६७ ॥ १३५ अर्थ - हे देवानुप्रिय । शीघ्र ही कुण्डपुर नगर के कारागृह को खाली करदो अर्थात् सब बन्दियों को मुक्त करदो । तोल-माप को बढ़ाओ, (अर्थात् व्यापारियों से कहो कि घृत अन्नादि पदार्थ सस्ते बेचो, ( सस्ते बेचने से जो नुकमान होगा उसकी पूर्ति राज्यकोष से की जायेगी । तोल माप को बढ़ाने के पश्चात् कुण्डपुर नगर के अन्दर और बाहर सुगन्धित पानी का छिड़काव कराओ, साफ कराओ, लेपन कराओ, कुण्डपुर नगर के त्रिकों में, चतुष्कों में, चत्वरों (जहां बहुत से रास्ते मिलते हों) में, राजमार्ग या सामान्य सभी मार्गों में पानी का छिड़काव कराओ, उन्हें पवित्र बनाओ, जहाँ तहाँ सभी गलियों में और सभी बाजारों में पानी का छिड़काव और स्वच्छ कर उन स्थानों पर देखने हेतु आने वाले दर्शकों के बैठने के लिए मंच बनाओ, विविध रंगो से सुशोभित ध्वजा और पताकाऍ बंधाओ, मारे नगर को लिपा-पुताकर स्वच्छ बनाओ, नगर के भवनों की भीतों पर गोशीर्ष चन्दन के, सरम रक्त चन्दन के, दर्दर (मलय) चन्दन के, पांचों अंगुलियां उभरी हुई दृष्टिगोचर हों इस प्रकार थापे लगाओ । घरों के भीतर चौक में चन्दन कलश रखाओ, द्वार-द्वार पर - चन्दन घटों के सुन्दर तोरण बंधाओ, जहां तहां सुन्दर प्रतीत होने वाली एवं पृथ्वी को स्पर्श करती लम्बी गोल मालाएँ लटकवाओ, पञ्चवर्ण के सुन्दर सुगंधित सुमनों के ढेर कराओ, पुष्पों को इधर-उधर विकीर्ण करवाओ, स्थानस्थान पर गुलदस्ते रखाओ, यत्र-तत्र सर्वत्र प्रज्वलित श्याम अगर, उत्तम कुन्दरु, लोमान तथा धूप की सुगन्ध से सम्पूर्ण नगर को सुगंधित करो । सुगंध से सारा नगर महक उठे ऐसा करो। सुगंध की अत्यधिकता के कारण सारा नगर गंध गुटिका के समान प्रतीत हो ऐसा बनाओ । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ जन-रञ्जन के लिए स्थान-स्थान पर नट नाटक करें, नृत्य करने वाले नृत्य करें, रस्सी पर खेल बताने वाले खेल बताएँ, मल्ल कुश्ती करें, मुष्टि से कुश्ती करने वाले मुष्टि से कुश्ती करें, विदूषक लोगों को हँसावे, कूदने वाले कूदकर अपने खेल बताएं, कथावाचक कथा कर जन-मन को प्रसन्न करें, सुभाषित बोलने वाले पाठक सुभाषित बोले । रास क्रीड़ा करने वाले रास की क्रीड़ा करें, भविष्य कहने वाले भविष्य कहें, लम्बे बांस पर खेलने वाले बांस पर खेल करें, मेखलोग-हाथ में चित्र रखकर चित्र बताए, तूणी लोग तूण नामक वाद्य बजावें । वीणा बजाने वाले वीणा बजावें, ताल देकर नाटक करने वाले नाटक दिखायें, इस प्रकार जन रञ्जन हेतु नगर में यह सब व्यवस्था करो, और दूसरों से कराओ, और ऐसा करवा के हजारों गाड़ियों के जूए और हजारो मूसल ऊंचे स्थान पर खड़े करवाओ अर्थात् जूए में जुड़े हुए बैलों को बंधन मुक्त करके आराम पाने दो, और मुशल आदि से होने वाली हिंसा को रोको यह सब उपक्रम करके मेरी आज्ञा पुनः अर्पित करो, अर्थात् जो मैंने कहा है वह सभी कार्य करके मुझे सूचित करो। मूल: तए णं ते णगरगुत्तिया सिद्धत्थेणं रन्ना एवं वुत्ता समाणा हतुट्ट जाव हियया करयल जाव पडिसुणित्ता खिप्पामेव कुंडपुरे नगरे चारगसोहणं जाव उस्सवेत्ता जेणेव सिद्धत्थे राया तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता करयल जाव कटु सिद्धत्थस्स रनो एयमाणत्तियं पच्चप्पिणंति ॥८॥ अर्थ-उसके पश्चात् सिद्धार्थ राजा ने जिनको आज्ञा प्रदान की उन नगरगुप्तिक को (नगर के रक्षक, कोतवाल)७२ को अपार आनन्द हुआसन्तोष हुआ, यावत् प्रसन्न होने से उनका हृदय प्रफुल्लित हुआ। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर सिद्धार्थ राजा की आज्ञा विनयपूर्वक स्वीकार की। अब वे शीघ्र ही कुण्डपुर नगर में सर्व प्रथम कारागृह को खोलकर बन्दियों को मुक्त करते हैं और मूसल उठवाकर रखने तक के पूर्वोक्त सभी कार्य करते हैं। कार्य करने Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म-महोत्सव के पश्चात् वे जहां सिद्धार्थ राजा है, वहां आते हैं, आकर दोनों हाथ जोड़कर मस्तिष्क पर अंजलि करके सिद्धार्थ राजा को उनका वह आदेश पुनः अपित करते हैं अर्थात् "आपने जो आदेश प्रदान किया था उसके अनुसार सभी कार्य हम कर आए हैं" यह सूचना देते हैं । मल : तए णं से सिद्धत्थे राया जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता जाव मव्वोरोहेणं सव्वपुप्फगंधवत्थमल्लालंकारविभूसाए सव्वतुडियसदनिनाएण महया इड्ढीए महया जुतीए महया बलेणं महया वाहणेणं महया समुदएणं महया वरतुडियजमगसमगप्पवाइएणं संखपणवपडहभेरिझल्लरिखरमुहिहुडुक्कमुखमुइंगदुंदुहिनिग्घोसणादितरवेणं उस्सुकं उक्कर उक्किट्ठ अदेज्जं अमेज्जं अभडप्पवेसं अडंडकोडंडिमं अधरिमं गणियावरनाडइज्जकलियं अणगतालायराणुचरियं अणु यमुइंगं अमिलायमल्लदामं पमुइयपक्कीलियसपुरजणजाणवयं दसदि. वसहिइपडियं करेइ ॥६६ ___ अर्थ-उसके पश्चात् सिद्धार्थ राजा जहाँ अखाड़ा अर्थात् जहां सार्वजनिक उत्सव करने का स्थान है वहां आता है, आकर के यावत् अपने अन्तःपुर के साथ सभी प्रकार के पुष्प, गंध, वस्त्र, मालाएं आदि अलंकारों से अलंकृत होकर, मभी प्रकार के वाद्यों को बजवा करके, बड़े वैभव के साथ, महती द्युति के साथ, महान् लश्कर के साथ, बहुत से वाहनो के साथ, बृहद् समुदाय के साथ और एक साथ बजते हुए अनेक वाद्यों की ध्वनि के साथ अर्थात् शंख, पणव, भेरी, झल्लरी खरमुखी हुडूक, ढोल, मृदंग और दुंदुभी आदि वाद्यों की ध्वनि के साथ दस दिन तक अपनी कुलमर्यादा के अनुसार उत्सव करता है । इस उत्सव के समय नगर में से चुंगी (जकात) तथा कर लेना बन्द कर दिया Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ कल्प सूत्र गया। जिसको किसी वस्तु की आवश्यकता है वह बिना मूल्य दिये दुकानों से प्राप्त कर सकता है, इस प्रकार की व्यवस्था की गई। खरीदना और बेचना बन्द कर दिया गया । किसी भी स्थान पर जप्ती करने वाले राजपुरुषों का प्रवेश निषिद्ध कर दिया गया। जिस किसी पर ऋण है उसे स्वयं राजा चुकाएगा, जिससे किसी को भी ऋण चुकाने की आवश्यकता न रहे, ऐसी व्यवस्था की गई । उस उत्सव में अनेक प्रकार के अपरिमित पदार्थ एकत्रित किये गये । उत्सव में सभी को अदण्डनीय कर दिया गया । उत्तम गणिकाओ और नाटक करने वालों के नृत्य प्रारम्भ किये गये । उत्सव में निरन्तर मृदंग बजते रहे, ताजा मालाएँ लटकाई गईं, नगर के तथा देश के सभी मानव प्रमुदित क्रीडा परायण हुए, दस दिन तक इस प्रकार का उत्सव मनाते रहे । मूल : तए णं से सिद्धत्थे राया दसाहियाए ठिइपडियाते वट्टमाfre सइ य साहस्सिए य सयसाहस्सिए य जाए य दाए य भाए य दलमाणे य दवावेमाणे य सइए य साहस्सिए य सयसाहस्सिए य लंभे पडिच्छेमाणे य पडिच्छावेमाणे य एवं वा विहरइ ॥ १०० ॥ अर्थ - उसके पश्चात् वह सिद्धार्थ राजा दस दिन तक जो उत्सव चला उसमें सैकड़ों हजारों और लाखों प्रकार के यागो ( पूजा सामग्रियों) को दानों और भोगों (विशेष देय हिस्सा) को देता और दिलवाता तथा सैकडो - हजारों और लाखों प्रकार की भेंट स्वीकार करना और करवाता रहा । मूल : तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे ठिइपडिय करेंति, तइए दिवसे चंदसूरस्स दंसणिय करिंति, छट्ठे दिवसे जागरियं करेंति, एक्कारसमे दिवसे विइक्कते निव्व Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्म महोत्सव १३६ त्तिए असुतिजातकम्मकरणे संपत्ते बारसाहदिवसे विउलं असणपाणखाइमसाइमं उवक्खडाविति, उवक्खाडावित्ता मित्तनाइनियगसयणसंबंधिपरिजणं नायए य खत्तिए य आमंतेत्ता तओ पच्छा व्हाया क्यबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवरपरिहित भोयणवेलाए भोयणमंडवंसि सुहासणवरगया तेणं मित्तनाइनियगसयणसंबंधिपरिजणेणं नायएहि य सद्धिं तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा विसाएमाणा परिभुजेमाणा परिभाएमाणा विहरंति ॥१०१॥ अर्थ--उसके पश्चात् श्रमण भगवान महावीर के माता-पिता प्रथम दिन कुल परम्परा के अनुसार पुत्र जन्म निमित्त करने योग्य अनुष्ठान करते है । तृतीय दिन चन्द्र और सूर्य के दर्शन का उत्सव करते हैं। छ8 दिन रात्रि जागरण का उत्सव करते है । ग्यारहवां दिन व्यतीत होने के पश्चात् सर्वप्रकार की अशुचि निवारण होने पर जब बारहवा दिन आया तब विपुल प्रमाण मे भोजन पानी विविध स्वादिम और खादिम पदार्थ तैय्यार कराते है, तैय्यार कराके अपने मित्रों, जातिजनों, स्वजनों और अपने साथ सम्बन्ध रखने वाले परिवारवालों को तथा ज्ञातृवंश के क्षत्रियों को आमंत्रण देते है। पुत्र जन्म-समारोह में आने के लिए निमंत्रित करते है। फिर स्नान किए हुए, बलिकर्म किए हुए टीले-टपके और दोष निवारण हेतु मगलरूप प्रायश्चित किए हुए, श्रेष्ठ और उत्सव में जाने योग्य मंगलमय वस्त्रों को धारण किए हुए, भोजन का समय होने पर भोजन मण्डप में आते हैं। भोजन मण्डप में आकर उत्तम सुखासन पर बैठते है और मित्रों, ज्ञातिजनों, स्वजनों, परिजनों व ज्ञातृवंश के क्षत्रियों के साथ विविध प्रकार के भोजन पान खाद्य और स्वाद्य का आस्वादन करते है-स्वयं भोजन करते हैं और दूसरों को करवाते है । मूल : जिमियमुत्तोत्तरागया वि य णं समाणा आयंता चोक्खा Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० कल्प सूत्र परमसुईभूया तं मित्तनाइनियगसयणसंबंधिपरिजणं नायए य खत्तिए य विउलेणं पुप्फवत्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारेंति सम्माणेति सकारिता सम्माणित्ता तस्सेव मित्तनाइनियगसयणसंबंधिपरिजणस्स नायाण य खत्तियाण य पुरओ एवं वयासी ॥१०२॥ . अर्थ-भोजन करने के पश्चात् विशुद्ध जल से कुल्ले करते है, दात और मुख को स्वच्छ करते है। इस प्रकार परम विशुद्ध स्वच्छ बने हुए, माता-पिता, आए हुए उन मित्रों, ज्ञातिजनों, स्वजनो, परिजनो और ज्ञातृवंश के क्षत्रियो को बहुत से पुष्प, वस्त्र, सुगंधित मालाए और आभूषण प्रदान कर उनका स्वागत करते है । सत्कार और सम्मान करते है। सत्कार और सम्मान करके इन मित्रों, ज्ञातिजनों, स्वजनो, परिजनो और ज्ञातृवंशीय क्षत्रियो के ममक्ष भगवान के माता-पिता इस प्रकार बोले -- मूल : पुचि पि य णं देवाणुप्पिया ! अम्हं एयंसि दारगंमि गम्भं वक्तंसि समाणं सि इमेयारूवे अब्भत्थिए चिंतिए जाव समुप्पज्जित्था-जप्पभिई च णं अम्हं एस दारए कुच्छिसि गब्भत्ताए वक्कते तप्पभिई च णं अम्हे हिरन्नणं वड्ढामो सुवनणं धणेणं धन्नणं जाव सावएज्जेणं पीइसकारेणं अईव अईव अभिवड्ढामो सामंतरायाणो वसमागया य तं जया णं अम्हं एस दारए जाए भविस्सइ तया णं अम्हे एयस्स दारगस्म एयाणुरूवं गोन्न गुणनिप्फन्न नामधिज्जं करिस्सामो वद्धमाणु ति, तं होउ णं कुमारे वद्धमाणे वद्धमाणे नामेणं ॥१०३॥ अर्थ-हे देवानुप्रियो ! जब यह पुत्र गर्भ में आया तब (उस समय) हमारे मन में इस प्रकार का विचार चिन्तन यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ कि Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म महोत्सव १४१ जब से हमारा यह पुत्र गर्भ में आया तब से लेकर हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य की दृष्टि से व प्रीति और सत्कार की दृष्टि से हमारी अभिवृद्धि होने लगी है, सामन्त राजा लोग भी हमारे वश में हुए है, इस कारण जब हमारा पुत्र जन्म लेगा तब हम उसके अनुरूप उसके गुणों का अनुसरण करने वाला, गुण निष्पन्न और यथार्थनाम 'वर्द्धमान' रखेगे। तो अब इस कुमार का नाम 'वर्द्धभान हो अर्थात् यह कुमार वर्द्धमान के नाम से प्रसिद्ध हो (ऐमा हमारा विचार है)। ------. बाल्य काल एवं यौवन मूल : समणे भगवं महावीरे कासवगोत्ते णं, तस्स णं तओ नामधेज्जा एवमाहिज्जति. तं जहा-अम्मापिउसंतिए वद्धमाणे१, सहसम्मुईयाते समणे२, अयले भयभेरवाणं परीसहोवसग्गाणं खंतिखमे पडिमाणं पालए धीमं अरतिरतिसहे दविए वीरियसंपन्न देवेहिं से णाम कयं समणे भगवं महावीरे३ ॥१०४॥ ____ अर्थ-श्रमण भगवान महावीर काश्यप गोत्र के थे। उनके तीन नाम इस प्रकार कहे जाते है-उनके माता-पिता ने उनका प्रथम नाम 'वर्द्धमान' रखा। स्वाभाविक स्मरण शक्ति के कारण (महज सद्बुद्धि के कारण भी) उनका द्वितीय नाम 'श्रमण' हुआ अर्थात् महज शारीरिक एव बौद्धिक स्फूर्ति व शक्ति से उन्होने तप आदि आध्यात्मिक माधना के मार्ग में कठिन परिश्रम किया एतदर्थ वे श्रमण कहलाये । किसी भी प्रकार का भय, (देव, दानव, मानव और तिर्यच सम्बन्धी) उत्पन्न होने पर भी अचल रहने वाले, अपने सकल्प से तनिक मात्र भी विचलित नही होने वाले निष्कम्प, किसी भी प्रकार के परीषहक्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण आदि के सकट आए या उपसर्ग उपस्थित हो तथापि चलित नहीं होते। उन परीषहो और उपसर्गों को शान्त भाव से महन करने में समर्थ भिक्षु प्रतिमाओं का पालन करने वाले, धीमान शोक और हर्ष मे समभावी, मद्गुणों के आगार अतुलबली होने के कारण देवताओं ने उनका तृतीय नाम 'महावीर' रखा। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ কথ বুম विवेचन-भगवान महावीर का लालन पालन उच्च एवं पवित्र संस्कारों के भव्य वातावरण में हुआ। उनके सभी लक्षण होनहार के थे । सुकुमार सुमन की तरह उनका बचपन नई अंगड़ाई ले रहा था। उनका इठलाता हुआ तन सुगठित, बलिष्ठ और स्वर्ण प्रभा-सा कान्तिमान था और मुखमण्डल सूर्य-सा तेजस्वितापूर्ण । उनका हृदय मखमल-मा कोमल और भावनाएँ ममुद्र-सी विराट थी। बालक होने पर भी वे वीर, साहसी और धैर्यशाली थे । शुक्ल पक्ष के चन्द्र को तरह वे बढ रहे थे। उनके मन मे सहज शौर्य और पराक्रम की लहरें उठ रही थी। एक बार वे अपने हमजोले सगी साथियों के साथ गृहोद्यान (प्रमदवन) में क्रीड़ा कर रहे थे। इस क्रीडा में सभी बालक किसी एक वृक्ष को लक्ष्य करके दौड़ते, जो बालक सबसे पहले वृक्ष पर चढ़कर नीचे उतर आता वह जीत जाता। विजयी बालक पराजित बच्चो के कंधों पर चढ़कर उस स्थान पर जाता जहाँ से दौड़ शुरु की थी। इसे सुकली या आमलकी क्रीड़ा कहा जाता था। उस समय देवराज देवेन्द्र ने बालक वर्धमान के वोरत्व एवं पराक्रम की प्रशंसा की। एक अभिमानी देव शक्र की प्रशसा की चुनौती देता हुआ उनके साहस की परीक्षा लेने के लिए भयंकर सर्प का रूप धारण कर उस वृक्ष पर लिपट गया। अन्य सभी बालक फुकार करते हुए नागराज को निहार कर भयभीत होकर वहां से भाग गये, पर किशोर वर्धमान ने बिना डरे और बिना झिझके उस सर्प को पकड एक तरफ रख दिया ।'७४ बालक पुनः एकत्र हुए और खेल फिर प्रारम्भ हुआ, इस बार वे 'तिदुषक क्रीड़ा' खेलने लगे। जिसमें किसी एक वृक्ष को अनुलक्ष कर सभी बालक दौड़ते। जो सर्वप्रथम वृक्ष को छू लेता, वह विजयी होता और जो पराजित होता उसकी पीठ पर विजयी बालक आरूढ़ होता। इस बार वह देव भी किशोर का रूप धारण कर उस क्रीड़ादल में सम्मिलित हो गया। खेल में वर्धमान के साथ हार जाने पर नियमानुसार उसे वर्धमान को पीठ पर बैठाकर दौड़ना पड़ा। किशोर रूप धारी देव दौड़ता-दौड़ता बहुत आगे निकल गया। और उसने अपना विकराल रूप बना वर्धमान को डराना चाहा। देखते ही देखते किशोर ने लम्बा ताड़-मा भयकर पिशाच रूप बना लिया । ७५ किन्तु Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल्यकाल एवं यौवन १४३ वर्धमान उसकी यह करतूत देखकर के भी घबराये नही। वे अविचलित रहे और साहस के साथ उसकी पीठ पर ऐसा मुष्ठि प्रहार किया कि देवता वेदना से चीख उठा । शीघ्र ही विकराल पिशाच का रूप सिमट कर नन्हा-सा किशोर बन गया। उसका गर्व खण्डित हो गया। उसने बालक वर्धमान के पराक्रम का लोहा माना और वन्दन करते हुए कहा-"प्रभो ! आप में इन्द्र के द्वारा प्रशंसित व वणित शक्ति से भी अधिक शक्ति है, आप वीर ही नहीं अपितु महावीर हैं।'७६ मै परीक्षक बनकर आया था, मगर प्रशंसक बनकर जा महावीर बाल्यकाल से ही विशिष्ट प्रतिभा के धनी थे । उनकी वीरता, धीरता, योग्यता और ज्ञान-गरिमा अपूर्व तथा अनूठी थी। सागर की तरह गंभीर प्रकृति होने के कारण उनकी कुशाग्र बुद्धि, एव चमत्कारपूर्ण प्रतिभा का परिज्ञान माता पिता को भी न हो सका । आठ वर्ष पूर्ण होने पर उन्होंने बालक महावीर को लेखशाला में विद्याध्ययन के लिए भेजा। महावीर के बुद्धि वैभव तथा सहज प्रतिभा का परिचय विद्यागुरु तथा जनता को कराने की दृष्टि से देवराज इन्द्र वृद्ध ब्राह्मण का रूप बनाकर लेखशाला मे आये। उसने बालक महावीर से व्याकरण सम्बन्धी अनेक जटिल जिज्ञासाएँ प्रस्तुत की। उनका तर्क पूर्ण और अस्खलित उत्तर सुनकर अध्यापक अवाक् और हतप्रभ रह गया। उसने भी अपने मन की कुछ पुरानी शंकाए निवेदन की, भगवान से समाधान पाकर वह आश्चर्य मुद्रा में महावीर को देखने लगा । तब उस वृद्ध ब्राह्मण ने कहा-'पण्डित ! आप इन्हे साधारण बालक न ममझे । यह विद्या का सागर और ज्ञान का निधि है । सकल शास्त्र में पारंगत है, यह महान आत्मा भविष्य में धर्मतीर्थ का प्रवर्तन कर ससार का उद्धारसमुद्धार करेगा। बालक महावीर के उत्तरों को सुनकर ब्राह्मण ने उसे 'ऐन्द्र व्याकरण' के रूप में संग्रथित किया । ७७ उसी समय इन्द्र ने अपना अमली रूप प्रकट किया और भगवान् को वन्दन कर अन्तर्धान हो गया। __ महावीर की नव नव उन्मेषशालिनी प्रतिभा से माता-पिता परिजनपौरजन सभी चकित हुए, सभी का मन अत्यन्त प्रमुदित हो उठा । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन के उष.काल से ही महावीर चिन्तनशील थे। उनका उर्वर मस्तिष्क सदा-सर्वदा अध्यात्म सागर की गहराई में डुबकियां लगाता रहता था। वे संसार में थे, किन्तु जल मे कमल की तरह उससे सदा निर्लिप्त रहते । बाहर में सब कुछ था पर अन्तर मे वे सदा अपने को एकाकी आत्मरूप, देखते थे। बचपन से जब यौवन के मधुर उद्यान में प्रवेश किया तब भी वे उमी प्रकार अनासक्त एवं उदासीन थे। उनकी यह उदासीनता देखकर माता-पिता के मन में चिता भरे विकल्प उठे कि-कही पुत्र श्रमण न बन जाय । तदर्थ उन्होंने महावीर को मसार की मोहमाया मे बाधने हेतु विवाह का प्रस्ताव किया। उधर वसन्तपुर के महासामन्त समरवीर ने भी लावण्य व रूप मे अद्वितीय मुन्दरी अपनी पुत्री यशोदा के साथ वर्धमान के पाणिग्रहण का प्रस्ताव सिद्धार्थ गजा के पास भेजा। महावीर की अन्तरात्मा उसे स्वीकार करना नही चाहती, किन्तु माता के प्रेम भरे आग्रह को और पिता के हठ को उनका भावुक हृदय टाल नही सका। उन्होंने विवाह का बन्धन स्वीकार किया किन्तु विषय-वासना की कर्दम मे वे कमल की भाँति सदा ऊपर उठे रहे । यशोदा की कुक्षि से एक पुत्री भी हुई, जिसका नाम प्रियदर्शना रखा गया ।८° उमका पाणिग्रहण भगवान की भगिनी सुदर्शना के पुत्र जमालि के माथ हुआ।' .. मूल : समणस्स णं भगवओ महावीरस्स पिया कासवे गोत्तेणं, तस्स णं तओ नामधेज्जा एवमाहिज्जंति, तं जहा-सिद्धत्थे इ वा सेज्जंसे इ वा जसंसे इ वा ॥१०५॥ अर्थ-श्रमण भगवान महावीर के पिता काश्यप गोत्र के थे। उनके तीन नाम इस प्रकार है यथा - सिद्धार्थ, श्रेयांस और यशस्वी। मूल : समणस्स णं भगवओ महावीरस्स माया वासिहा गोत्तेणं Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल्य काल एव यौवन १४५ तीसेणं तओ नामधिज्जा एवमाहिज्जंति, तं जहा - तिसला इ वा विदेहदिण्णा इ वा पियकारिणो इ वा ॥ १०६ ॥ अर्थ - श्रमण भगवान् महावीर की माता वासिष्ठ गोत्र की थी। उनके तीन नाम इस प्रकार कहने में आये है । यथा - | - ( १ ) त्रिशला, (२) विदेह दिण्णा और ( ३ ) प्रियकारिणी । मूल : समणस्स णं भगवओ महावीरस्स पित्तिज्जे सुपासे जेट्ठ भाया नंदिवडणे, भगिणी सुदंसणा भारिया जसोया कोंडिन्ना गोत्तणं ॥ १०७॥ अर्थ- श्रमण भगवान् महावीर के चाचा का नाम सुपार्श्व था । बड़े भ्राता का नाम नन्दिवर्धन था, बहिन का नाम सुदर्शना था, पत्नी का नाम यशोदा था और उसका गोत्र कौडिन्य था । विवेचन - - भगवान महावीर के विवाह के प्रश्न पर श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा मे गहरा मतभेद है । भगवान के विवाह के सम्बन्ध में श्वेताम्बर आम्नाय के मूल आगमों आचारांग आदि में तथा नियुक्ति, भाष्य एव चूर्णि साहित्य मे पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध होते है । दिगम्बर ग्रन्थों में महावीर के लिए 'कुमार' शब्द का प्रयोग हुआ है ।" और संभवत इसी शब्द के कारण उन्हें अविवाहित मानने की भ्रांति हुई है । प्रस्तुतः 'कुमार' का अर्थ 'कुआरा' अविवाहित ही नही होता है, बल्कि कुमार का अर्थ 'युवराज'' " 'राजकुमार'' १८३ आदि भी होता है और इसी अर्थ को व्यक्त करते हुए श्वेताम्बर ग्रन्थो ने भी वीर, अष्टिनेमि, पार्श्व, मल्लि और वासुपूज्य के लिए 'कुमार वासम्म पव्वइया' कहकर 'कुमार' शब्द का प्रयोग किया है । ૧૮૨ मूल : ११८४ समणस्स णं भगवओ महावीरस्स णं धूया कासवी गोत्तेणं, Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ कल्प सूत्र तीसे णं दो नामधिज्जा एवमाहिज्जंति, तं जहा-अणोज्जा इ वा पियदंसणा इ वा ॥१०॥ अर्थ-श्रमण भगवान महावीर की पुत्री काश्यप गोत्र की थी। उसके दो नाम इस प्रकार कहे जाते है । अणोज्जा (अनवद्या) एव प्रियदर्शना। मल: समणस्स णं भगवओ महावीरस्स नत्तुई कासवी गोत्तेणं नीसे णं दो नामधिज्जा एवमाहिज्जति, तं जहा-सेसई इ वा जस्सवई इ वा ॥१०॥ अर्थ-श्रमण भगवान महावीर की दौहित्री (पुत्री की पुत्री) काश्यप गोत्र की थी। उसके दो नाम इस प्रकार कहने मे आते है-शेषवती और यशस्वती। --. अभिनिष्क्रमण मूल: समणे भगवं महावीरे दक्खे दक्खपतिन्ने पडिरूवे आलीणे भदए विणीए नाए नायपुत्ते नायकुलचंदे विदेहे विदेहदिन्न विदेहजच्चे विदेहसूमाले तीमं वासाई विदेहंसि कटु अम्मापिईहिं देवत्तगएहिं गुरुमहत्तरएहिं अब्भणुनाए समत्तपइन्न पुणरवि लोयंतिएहिं जियकप्पिएहिं देवेहिं ताहिं इहाहि कंताहिं पियाहिं मणुन्नाहिं मणामाहि ओरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहि धन्नाहिं मंगल्लाहिं मियमहुरसस्सिरीयाहिं हिययगमणिज्जाहिं हिययपल्हायणिज्जाहिं गंभीराहिं अपुणरुत्ताहिं वग्गृहिं अणवरयं अभिनंदाणा य अभिथुज्वमाणा य एवं वयासी जय जय नंदा ! जय जय भद्दा ! भदं ते जय जय खत्तियवरवसहा ! बुज्झाहि Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमिनियम १४७ भगवं लोगनाहा! पवत्ते हिधम्मतित्थं हियसुहनिस्सेयसकरं सव्वलोए सव्वजीवाणं भविस्सई त्ति कटु जय जय सद्द पउंज्जति ॥११॥ ___ अर्थ-श्रमण भगवान महावीर दक्ष थे। उनकी प्रतिज्ञा भी दक्ष (विवेक युक्त) थी। वे अत्यन्त रूपवान् थे, आलीन (कूर्म की तरह इन्द्रियों को गोपन करने वाले) थे । भद्र, विनीत और ज्ञात (सुप्रसिद्ध) थे अथवा ज्ञात वश के थे। ज्ञातृवंश के पुत्र थे, अर्थात् ज्ञातृवंशीय राजा सिद्धार्थ के पुत्र थे, ज्ञातृवंश के कुल मे चन्द्र के समान थे, विदेह थे अर्थात उनका देह दूसरों के देह की अपेक्षा विलक्षण था। विदेहदिन्न-या विदेहदिन्ना-त्रिशला माता के पुत्र थे । विदेहजच्च अर्थात् त्रिशला माता के शरीर से जन्म ग्रहण किया हुआ था । ८५ अथवा विदेहवासियो मे श्रेष्ठ (विदेह जात्य) थे,'विदेह सुकुमाल' थे अर्थात् वे 'अत्यन्त मुकुमाल थे । तीस वर्ष तक गृहस्थाश्रम मे रहकर अपने माता पिता के स्वर्गस्थ होने पर अपने से ज्येष्ठ पुरुषों की अनुजा प्राप्त कर अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण होने पर तथा लोकान्तिक जीतकल्पी देवों ने उम प्रकार की इष्ट, मनोहर, प्रिय, मनोज्ञ, मन को आह्लाद करने वाली उदार, कल्याणरूप, शिवरूप, धन्यरूप, मगलरूप, परिमित, मधुर-शोभायुक्त, हृदय को रुचिकर लगने वाली, हृदय को प्रसन्न करने वाली गंभीर, पुनरुक्ति आदि से रहित वाणी से भगवान् को निरन्तर अभिनन्दन अर्पित करके भगवान् की स्तुति करते हुए वे देव इस प्रकार बोले-हे नन्द ! (आनन्द रूप) तुम्हारी जय हो, विजय हो, हे भद्र ! तुम्हारी जय हो, विजय हो, भद्र हो ! हे उत्तमोत्तम क्षत्रिय ! हे क्षत्रियनरपुङ्गव ! तुम्हारी जय हो, विजय हो, हे भगवन् ! लोकनाथ | बोध प्राप्त करो ! सम्पूर्ण जगत में सभी जीवो का हित, सुख और नि श्रेयस् करने वाला धर्मतीर्थ, धर्मचक्र प्रवर्तन करो ! यह धर्मचक्र सम्पूर्ण जगत् मे सभी जीवों के हितकर, सुखकर और निःश्रेयस को करने वाला होगा। इस प्रकार कहकर वे देव 'जय-जय' का नाद करने लगते है। विवेचन-अट्ठाईस वर्ष की उम्र में माता-पिता के स्वर्गस्थ होने पर भगवान से परिजन और प्रजा का प्रेम भरा आग्रह रहा कि आप राज्य सिंहासन Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ को सुशोभित करें, परन्तु भगवान महावीर ने स्पष्ट रूप से निषेध करते हुए संयम ग्रहण की अत्युत्कट भावना अभिव्यक्त की ।१८६ ज्येष्ठ भ्राता नन्दिवर्धन ने स्नेह-विह्वल होकर कहा-बन्धुवर ! इस समय आपका गृह त्याग का कथन घाव पर नमक छिड़कने जैसा है, कुछ समय तक आप घर में और ठहरें।८७ ज्येष्ठ भ्राता के आग्रह से वे दो वर्ष गृहस्थाश्रम में रहे । पर उस समय उन्होंने सचित्त जल का उपयोग नही किया। रात्रि भोजन नहीं किया, सर्वस्नान नहीं किया। वे पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए निर्लेप रहे । उदारमना महावीर ने उनतीसवाँ वर्ष दीन दुखियों के उद्धार में लगाया। वे प्रतिदिन प्रातः एक प्रहर दिन चढ़े तक १ करोड ८ लाख स्वर्ण१८० (सिक्का विशेष) का दान करते थे। उन्होने एक वर्ष में तीन अरब अठासी करोड़ अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान में दी। ___ अभिनिष्क्रमण का संकल्प करते ही नौ लोकान्तिक देव वहाँ उपस्थित हुए। उन्होंने भगवान् के निश्चय का अनुमोदन करते हुए कहा-'हे भगवन् आपकी जय हो ! अब आप शीघ्र ही धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करे जिससे सभी जीवो का कल्याण हो। मूल : पुबि पि य णं समणस्स भगवओ महावीरस्स माणुस्साओ गिहत्थधम्माओ अणुत्तरे आहोहिए अप्पडिवाई नाणदंसणे होत्था। तए णं ममणे भगवं महावीरे तेणं अणुत्तरेणं आहोहिएणं नाणदंसणेणं अप्पणो निक्खमणकालं आभोएइ, अप्पणो निक्खमणकालं आभोइत्ता चेच्चा हिरणं चेच्चा सुवन्न चेच्चा धणं चेच्चा रज्जं चेच्चा रटुं एवं वलं वाहणं कोसं कोट्ठागारं चेच्चा पुरं चेच्चा अंतेउरं चेच्चा जणवयं चेच्चा विपुलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरयणमाइयं संतसारसावतेज्जं विच्छड्डइत्ता विगो Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमिfrosof १४६ वहत्ता दाणं दायारेहिं परिभाएत्ता दाइयाणं परिभाएत्ता जे से हेमंताणं पढमे मासे पढमे पक्खे मग्गसिरबहुले तस्स णं मग्गसिरबहुलस्स दसमीपक्वेणं पाईणगामिणीए छायाए पोरिसीए अभिनिविट्टाए पमाणपत्ताए सुव्वएणं दिवसेणं विजएणं मुहुत्तेणं चंदप्पभाए सीयाए सदेवमयासुराए परिसाए समणुगम्ममाणमग्गे संखियचक्कियनंगलियमुह मंगलियवद्धमाणगपूसमाणगघंटियगणेहिं ताहि इट्ठाहि कंताहिं पियाहिं मणुष्णाहिं मणामाहिं ओरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धन्नाहिं मंगल्लाहिं मियमहुरसस्सिरीयाहिं वग्गूहिं अभिनंदमाणा अभिसंधुवमाणा य एवं व्यासी ॥ १११ ॥ अर्थ - श्रमण भगवान् महावीर को प्रथम गृहस्थधर्म में प्रवेश करने के पूर्व भी उत्तम, आभोगिक-- जो कभी भी नष्ट न हो ऐसा अवधि ज्ञान व अवधि दर्शन प्राप्त था । उसमे श्रमण भगवान 'अभिनिष्क्रमण के योग्य काल आ गया हैं' ऐसा देखते हैं | इस प्रकार देखकर जानकर, हिरण्य को त्यागकर, सुवर्ण को त्याग कर, धन को त्यागकर, राज्य को त्याग कर, राष्ट्र को त्यागकर, इसी प्रकार सेना, वाहन, धन-भण्डार, कोष्ठागार को त्याग कर, नगर, अन्तःपुर, जनपद को त्यागकर, विशाल धन, कनक, रत्न, मणि मुक्ता, शंख, राजपट्ट, राजावर्त, प्रवाल, माणिक आदि सत्वयुक्त, सारयुक्त सभी द्रव्यों को छोड़कर, अपने द्वारा नियुक्त देने वालों से वह सम्पूर्ण धन खुला करके उसको दान रूप में देने का विचार करके अपने गोत्र के लोगों में सम्पूर्ण धन-धान्य, हिरण्य, रत्न, आदि को प्रदान करके, हैमन्त ऋतु का प्रथम मास और प्रथम पक्ष अर्थात् मृगसर कृष्णा दशमी का दिन आने पर जब छाया पूर्व दिशा की ओर ढल रही थी, प्रमाणयुक्त पौरसी आई थी, उस समय सुव्रत नामक दिन में, विजय नामक मुहूर्त में भगवान चन्द्रप्रभा नामक पालकी में ( पूर्व दिशा की ओर मुख करके ) बैठे । पालकी के पीछे देव, दानव और मानवों के समूह चल रहे थे । उस जलूस में कितने ही देव आगे शंख बजा रहे थे, कितने ही देव आगे चक्र Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० कल्प सूत्र धारी चल रहे थे । कितने ही हलधारी चल रहे थे। कितने ही गले मे स्वर्ण का हल लटकाने वाले विशेष प्रकार के भाट लोग चल रहे थे। कितने ही मुंह से मीठा शब्द बोलने वाले थे। कितने ही वर्धमानक अर्थात् अपने कंधों पर दूसरों को बैठाए हुए थे। कितने ही चारण थे, कितने ही घण्टे बजाने वाले घांटिक थे। इन सभी से घिरे हुए, भगवान् को पालकी मे बैठे हुए देखकर भगवान् के कुल महत्तर (कुल के वृद्ध पुरुष) इष्ट प्रकार की मनोहर, कर्णप्रिय, मन को प्रमुदित करने वाली उदार, कल्याणरूप, शिवरूप, धन्य मगलरूप परिमित, मधुर, और शोभायुक्त वाणी से भगवान् का अभिनन्दन करते है, वे भगवान् की स्तुति करते हुए इस प्रकार कहने लगे - मूल : जय जय नंदा ! जय जय भद्दा ! भइते अभग्गेहिं णाणदसणचरित्तेहिं अजियाइं जिणाहि इंदियाई, जियं च पालेहि ममणधम्मं, जिअविग्धो वि य वसाहि तं देव ! सिद्धिमज्झे निहणाहि रागदोसमल्ले तवेणं, धिइधणियबद्धकच्छे मदाहि अट्ठकम्मसत्तू भाणेणं उत्तमेणं सुक्केणं अप्पमत्तो हाहि आराहणपडागं च वीर ! तेलोक्करंगमज्झ, पावय वितिमिरमणुत्तरं केवलं वरणाणं, गच्छ य मोक्खं परमपयं जिणवरोवदिट्टेणं मग्गेणं अकुडिलेणं, हंता परीसहचमू, जय जय खत्तियवरवसहा ! बहई दिवसाई बहूई पक्खाई बहूई मासाई बहूई उऊई बहूई अयणाई बहूई संवच्छराइं अभीए परीसहोवसग्गाणं खंतिखमे भयभेरवाणं धम्मे ते अविग्धं भवउ त्ति कटु जय जय सई पउंजंति ॥११२॥ ___ अर्थ-हे नन्द ! आपकी जय हो । विजय हो ! हे भद्र ! आपकी जय हो ! जय हो ! आपका भद्र (कल्याण) हो ! निरतिचार ज्ञान दर्शन और चारित्र से तुम नही जीती हुई इन्द्रियों को जीतो, जीते हुए श्रमण धर्म का पालन करो। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ অলিনিক্ষন १५१ विघ्नों को जीतकर हे देव ! तुम अपने साध्य की सिद्धि में रहो। तप से तुम राग द्वेष रूपी मल्लों का हनन करो। धैर्य रूप मजबूत कच्छ बांधकर उत्तम शुक्ल ध्यान से अष्ट कर्म शत्रुओं को मसल दो। हे वीर ! अप्रमत्त बनकर तीन लोक के रंग मण्डप में विजय पताका फहरा दो, अन्धकार रहित उत्तम प्रकाशरूप केवल ज्ञान प्राप्त करो। जिनेश्वरों द्वारा उपदिष्ट सरल मार्ग का अनुसरण कर तुम परमपद रूप मोक्ष को प्राप्त करो। परीषहों की सेना को पराजित करो। हे उत्तम क्षत्रिय ! हे क्षत्रिय नरपुङ्गव ! तुम्हारी जय हो ! विजय हो ! बहुत दिनों तक, बहुत पक्षो तक, बहुत महीनों तक, बहुत वर्षों तक, परीषहो और उपसर्गों से निर्भय होकर, भयकर और अत्यन्त भय उत्पन्न करने वाले प्रसंगो में क्षमाप्रधान होकर तुम विचरण करो। तुम्हारी धर्म साधना में विघ्न न हो" इस प्रकार कहकर वे लोग भगवान का जय जयकार करने लगे। मल : तए णं ममणे भगवं महावीरे नयणमालासहस्सेहिं पेच्छिज्जमाणे पेच्छिज्जमाणे वयणमालासहस्सेहिं अभिथुव्वमाणे अभिथुब्बमाणे हिययमालासहस्मेहिं ओनंदिज्जमाणे ओनंदिज्जमाणे मणोरहमालासहस्सेहिं विच्छिप्पमाणे विच्छिप्पमाणे कंतिरूवगुणेहिं पत्थिज्जमाणे पत्थिन्जमाणे अंगुलिमालामहस्सेहिं दाइज्जमाणे दाइज्जमाणे दाहिणहत्थेणं बहूणं नरनारिसहस्साणं अंजलिमालासहस्साई पडिच्छमाणे पडिच्छमाणे भवणपंतिसहस्साई समतिच्छमाणे समतिच्छमाणे तंतीतलतालतुडियगीयवाइयरवेणं महुरेण य मणहरेणं जयजयसद्दघोसमीसिएणं मंजुमंजुणा घोसेण य पडिबुझमाणे पडिबुज्झमाणे सब्विड्डीए सब्वजुईए सव्वबलेणं सब्ववाहणेणं सव्वसमुदएणं सव्वादरेणं सव्वविभूतीए सव्वविभूसाए सव्वसंभमेणं Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ सव्वसंगमेणं सव्वपगतीहिं सव्वणाडएहिं सव्वतालायरेहिं सब्बोरोहेणं सब्बपुष्पवत्थगंधमल्लालंकारविभूसाए सव्वतुडियसहसण्णिणादेणं महता इड्डीए महताजुतीए महता बलेणं महता वाहणेणंमहता समुदएणं महत्ता वरतुडितजमगसमगप्पवादितेणं संखपणवपडहभेरिझल्लरिखरमुहिहुडक्कदुंदुभिनिग्घोसनादियरवेणं कुडपुरं नगरं मझमज्झणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव णायसंडवणे उज्जाणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छह ॥११३॥ अर्थ-उसके पश्चात् श्रमण भगवान महावीर हजारो नेत्रों से देखे जाते हुए, हजारों मुखों से प्रशंसा किए जाते हुए, हजारों हृदयों से अभिनन्दन प्राप्त करते हुए चले । भगवान् को निहारकर लोग हजारों प्रकार के मनोरथ (सकल्प) करने लगे। भगवान् की मनोहर कांति और रूप को देखकर लोग वैसे ही कांति व रूप की चाहना करने लगे। वे हजारों अंगुलियों से दिखलाए जा रहे थे। भगवान् अपने दाहिने हाथ से हजारों नर-नारियों के प्रणाम को स्वीकार करते हुए, हजारों गृहों की पंक्तियों को पार करते हुए, वीणा, हस्तताल, वादित्र, गाने और बजाने के मधुर व सुन्दर जय-जयनाद के साथ, मधुर मधुर जयनाद के घोष को सुनकर सावधान बनते बनते, छत्र, चामर आदि सभी वैभव से युक्त, अगअङ्ग मे पहिने हुए समस्त आभूषणों की कांति से मण्डित, सम्पूर्ण सेना से परिवृत, हस्ती, अश्व, ऊँट, खच्चर, पालखी, म्याना आदि सभी वाहनों से परिवृत, सम्पूर्ण जन समुदाय के साथ, पूर्ण आदर अर्थात् औचित्य पूर्वक, अपनी सम्पत्ति व सम्पूर्ण शोभा के साथ, सम्पूर्ण प्रकार की उत्कण्ठा के साथ, समस्त प्रजा अर्थात् वणिक, चंडाल, भिल्ल आदि अठारह वर्णो के साथ, सभी प्रकार के नाटक करने वाले व सभी प्रकार के ताल बजाने वाले से संवृत सभी प्रकार के अन्तःपुर तथा फूल गध, माला और अलंकारो की शोभा के साथ सभी प्रकार के वाद्यो के शब्दों के साथ, इस प्रकार महान् ऋद्धि, महान् द्युति, विराट सेना, विशाल वाहन, वृहद् समुदाय और एक साथ बजते हुए वाद्यों की प्रतिध्वनि के साथ, अर्थात् शंख, मिट्टी के ढोल, काष्ठ के ढोल, भेरी, झालर, खरमुखी, Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनिष्क्रमण १५३ हुडुक्क, दुन्दुभि आदि वाद्यों के निनाद के साथ, भगवान् कुण्डपुर नगर के मध्यमध्य में होकर निकले । निकलकर जहाँ पर ज्ञातखण्डवन नामक उद्यान है। और जहाँ उत्तम अशोक वृक्ष है, वहाँ आते हैं । मूल : जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे सीयं ठावेइ, अहे सीयं ठावित्ता सीयाओ पच्चोरुहइ, सीयाओ पच्चोरुहित्ता सयमेव आहरणमल्लालंकारं ओमुयइ, आहरणमल्लालंकारं ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करिता छट्टणं भत्तेणं अपाणएणं हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं एगं देवदूतमादाय एगे अबीए मुडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइए ॥११४॥ अर्थ- जहाँ उत्तम अशोक वृक्ष है वहाँ पहुँच कर उस अशोक वृक्ष के नीचे भगवान् की पालकी रखी जाती है। भगवान पालकी से नीचे उतरते है, उतरकर अपने हाथ से हार आदि आभूषण, पुष्पों की मालाएँ, अंगूठियाँ आदि अलकार उतारते हैं, उतारकर स्वयं ही पञ्चमुष्ठि लोच करते हैं अर्थात् चार मुष्ठि सिर के और एक मुष्ठि से दाढ़ी के बाल निकालते है । इस प्रकार केश लुंचन करके निर्जल षष्ठ भक्त (बेला) किए हुए, हस्तोत्तरा नक्षत्र का योग ( उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र) आते ही एक देवदूष्य वस्त्र को लेकर अकेले ही मु ंडित होकर आगारवास को त्यागकर अनगार धर्म को स्वीकार करते हैं । विवेचन - तीस वर्ष के कुसुमित यौवन में राज्य वैभव को ठुकराकर, भोग विलास को तिलाञ्जलि देकर मृगसर कृष्ण दशमी के दिन विजय मुहूर्त में राजकुमार महावीर आत्म-ज्योति को प्रज्ज्वलित करने के लिए, ज्येष्ठ भ्राता नन्दिवर्धन की अनुमति लेकर स्वयं आभरणों को हटाते हैं, स्वयं सिर का लुचन करते हैं "" और सिद्धों को नमस्कार करके यह प्रतिज्ञा ग्रहण करते ९० Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ १९२ " मैं समभाव को स्वीकार करता हूँ, सर्व सावद्ययोग का त्याग करता । आज से जीवन पर्यन्त मानसिक, वाचिक और कायिक सावद्य योगमय आचरण न मैं करूँगा, न कराऊँगा और न करते हुए का अनुमोदन करूंगा । पूर्व-कृत सावद्य आचरण से निवृत्त होता हूँ उसकी गर्हा करता हूँ, और अपने पूर्वकालिक सावद्य जीवन का त्याग करता हूँ । कल्प भ १९३ उक्त प्रतिज्ञा पूर्वक सर्वविरति चारित्र को स्वीकार करते हो भगवान् को मनः पर्यवज्ञान की उपलब्धि हुई । उस समय भगवान ने यह दृढ़ निश्चय किया कि 'जब तक मुझे केवल ज्ञान प्राप्त नही होगा तब तक मै इस शरीर की सेवा-शुश्रूषा व सार-संभाल नही करूँगा । देव मानव और तिर्यच सम्बन्धी जो भी उपसर्ग आएँगे उन्हें समभाव से सहन करूँगा और मन में किमी भी प्रकार का किञ्चित् भी उद्वेग नही आने दूँगा । १९४ भगवान् श्री महावीर ने जिस समय दीक्षा ग्रहण की, उनके साथ दूसरा कोई भी दीक्षित नही हुआ । जबकि पूर्ववर्ती तीर्थंकरो के साथ अनेक पुरुष दीक्षित हुए। जैसे कि भगवान् ऋषभदेव ने चार हजार पुरुषो के साथ, भगवती मल्ली और भगवान् पार्श्वनाथ ने तीन-तीन सौ पुरुषों के साथ, भगवान् वासुपूज्य ने छह सौ पुरुषों के साथ और अवशेष उन्नीस तीर्थकरो ने हजारहजार पुरुषों के साथ दीक्षा ग्रहण की थी ।' साधना काल मूल - समणे भगवं महावीरे संवच्छरं साहियं मासं जाव चीवरधारी होत्या. तेण परं अचेले पाणिपडिग्गहए ।। ११५ ॥ अर्थ - श्रमण भगवान महावीर एक वर्ष से अधिक एक महीने तक यावत् चीवरधारी अर्थात् वस्त्र को धारण करने वाले थे, उसके पश्चात् अचेल -- वस्त्र रहित हुए, तथा पाणि- पात्र हुए । विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में एवं आचारांग के मूल में दरिद्र ब्राह्मण को वस्त्र देने का उल्लेख नहीं है । परन्तु आवश्यकचूर्ण, नियुक्ति, वृत्ति, चउप्प Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना काल १५५ नमहापुरुषचरियं, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र और कल्प सूत्र की टीकाओं में वह वर्णन आया है जो इस प्रकार है प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् भगवान वहाँ से प्रस्थान करते हैं । जनजन के नयन तब तक टकटकी लगाकर निहारते रहे जब तक भगवान नजर से ओझल न हो गए । ओझल होते ही नेत्रों से आंसूओं के मोती बरस पड़े और उनके हृत्तंत्री के सुकुमार तार झनझना उठे। --.दरिद्र ब्राह्मण का उद्धार समभाव में निमग्न महावीर अकिंचन भिक्षु बनकर बढ़े जा रहे थे। उन्हें मार्ग में सिद्धार्थ का परिचित मित्र सोम नामक वृद्ध ब्राह्मण मिला।९७ महावीर से नम्र निवेदन करता हुआ कहने लगा-भगवन् ! मैं दीन और दरिद्र हूँ, न खाने को अन्न है, न पहनने को पूरे वस्त्र हैं और न रहने को अच्छा झोंपड़ा ही है। भगवन् ! जिस समय आपने सांवत्सरिक दान किया था उस समय मै भूख से विलखते परिवार को छोड़कर धन की आशा से दूरस्थ प्रदेश में भीख मांगने गया हुआ था। मुझ अभागे को यह पता ही न चला कि आप धन की वर्षा कर रहे हैं। हताश और निराश होकर खाली हाथ घर लौटा । पत्नी ने भाग्य की भर्त्सना करते हुए कहा-पतिदेव ! यहाँ सोने का मेह उमड़-घुमड़कर बरस रहा था, उस समय आप कहाँ भटकते रहे ? अब भी शीघ्र जाओ और महावीर से याचना करो। वे दीनबन्धु आपको निहाल कर देंगे।९९ भगवन् ! कृपा कीजिए, यह दोन ब्राह्मण आपके सामने भीख माग रहा है। महावीर-भद्र ! इस समय मैं एक अकिंचन भिक्षु हूँ।.. ब्राह्मण-भगवन् । क्या कल्पवृक्ष के पास आकर के भी मेरी मनोवांछित कामना पूर्ण नहीं होगी? यह कहते-कहते उसका गला हंध गया। आंखें आँसुओं मे छलछला आई। वह महावीर के चरणारविन्दों से लिपट गया। ब्राह्मण की दयनीय दशा को देखकर महावीर का दयालु हृदय द्रवित हो गया। उन्होंने उसी क्षण इन्द्र द्वारा प्रदत्त देवदूष्य चीवर का अर्ध भाग उसे प्रदान कर दिया।' ब्राह्मण अपने भाग्य को सराहता हुआ चल दिया। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र उसके छोर को ठीक करने ब्राह्मणी उसे देखकर परम सन्तुष्ट हुई । के लिए उसने रफूगर को वह चीवर दिया । २०२ रफूगर उस अमूल्य चीवर की चमक-दमक देखकर चौंक उठा । ब्राह्मण ने उसके आश्चर्य का समाधान करते हुए सारी कहानी सुना दी। रफूगर की प्रेरणा से उत्प्रेरित होकर वह पुनः अर्ध चीवर को लेने गया। एक वर्ष और एक मास के पश्चात् वह चीवर महावीर के स्कंध से नीचे गिर पड़ा। ब्राह्मण ने लेकर उस रफूगर को दिया, उसने उसे ठीक कर दिया और एक लाख दीनार में नन्दीवर्धन को बेच दिया । ब्राह्मण जीवन भर के लिए परम सुखी बन गया । २०३ २०४ • क्षमामूर्ति महावीर १५६ ग्राम में २० क्षमासूर्ति महावीर उस दिन एक मुहूर्त दिन अवशेष रहने पर कुर्मार२०५ जिसका नाम वर्तमान में 'कामन छपरा' है २०६ वहाँ पधारे । गाँव के बाहर वृक्ष के नीचे नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि केन्द्रित कर स्थाणु की तरह ध्यान में स्थिर हो गये । उस समय एक ग्वाला वहाँ आया । वह भगवान् के पास बैलों को छोड़कर गायों को दोहने के लिए गाँव में चला गया । क्षुधा और पिपासा से पीड़ित वे बैल चरते चरते अटवी में दूर तक चले गये। कुछ समय के पश्चात् वह ग्वाला लौटा, पर बैलो को वहाँ नही देखा, तब उसने महावीर से पूछाबतलाओ ! मेरे बैल कहाँ गए ? महावीर ध्यानस्थ थे । कुछ उत्तर नही पाकर वह आगे बढ़ गया और रात भर बैलों की जंगल में खोजबीन करता रहा । प्रातः निराश होकर पुन: लौटा और इधर वे बैल भी अटवी में से फिरते-फिरते महावीर के पास आकर बैठ गये । ग्वाले ने महावीर के पास बैलों को बैठे हुए देखा तो वह आपे से बाहर हो गया। वह रात भर घूमने से थका हुआ तो था हो, महावीर को उसने चोर समझकर मन का सारा क्रोध और कुढन उन पर निकालने के लिए बैलों को बाँधने की रस्सी से महावीर को मारने दौड़ा । उस समय सभा में बैठे हुए देवराज इन्द्र ने विचार किया कि देखू इस समय भगवान महावीर क्या कर रहे है ? अवधिज्ञान से ग्वाले को इस प्रकार Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना काल मारने को सन्नद्ध देखकर इन्द्र ने उसे वहीं स्तम्भित कर दिया और साक्षात् प्रकट होकर कहा- "अरे दुष्ट! क्या कर रहा है ? तुझे पता नहीं है ये सिद्धार्थ नन्दन वर्धमान हैं।" ग्वाला हक्का-बक्का रह गया, फिर क्षमा मांगी और भगवान को तथा इन्द्र को वन्दन कर चला गया ।२०७ --. स्वावलम्बी महावीर महावीर की साधना पूर्ण स्वावलम्बी थी। अपनी सहायता के लिए किसी के सामने हाथ पसारना तो दूर रहा, भक्ति-भावना से विभोर होकर अभ्यर्थना करने वालों का सहयोग भी उन्होंने कभी नहीं चाहा । ग्वाले की सूढ़ता को देखकर देवराज के मन में आया और प्रभु से प्रार्थना की-भगवन् ! वर्तमान में मानव अज्ञानी व मूढ़ हैं। वह आप जैसे घोर तपस्वियों को भी प्रताडित करने पर उतारू हो जाता है, आने वाले बारह वर्ष तक आपको विविध कष्टों का सामना करना पड़ेगा, अतः आज्ञा प्रदान कीजिए कि तब तक मैं आपकी सेवा में रहकर कष्ट-निवारण किया करूँ । २०८ _उत्तर देते हुए महावीर ने कहा- देवराज । न अतीत में कभी ऐसा हुआ है, न वर्तमान मे हो सकता है और न भविष्य में होगा कि "देवेन्द्र या असुरेन्द्र की सहायता से अर्हन केवल ज्ञान और सिद्धि प्राप्त करें। अर्हन तो अपने ही बल और पुरुषार्थ से केवल ज्ञान और सिद्धि प्राप्त करते हैं।२०१ -~. प्रथम पारणा द्वितीय दिन वहाँ से विहार कर भगवान वर्धमान कोल्लाग मन्निवेश में पहुँचे। वहाँ बहुल नामक ब्राह्मण के घर घृत और शक्कर मिश्रित परमान्न (खीर) की भिक्षा प्राप्त कर षष्ठभक्त का पारणा किया । १. समवायाङ्ग में कहा है-"ऋषभदेव के अतिरिक्त शेष तेवीस तीर्थकरों ने दूसरे दिन पारणा किया और पारणा में अमृत सदृश मधुर खीर उन्हे प्राप्त हुई।"२११ ___ वहाँ से विहारकर भगवान् मोराकसन्निवेश के दुईज्जन्तक जाति के तापसों (पाषण्डस्थों) के आश्रम में पधारे । वहाँ का कुलपति भगवान के पिता सिद्धार्थ का परम मित्र था।१२ भगवान् को आते देखकर वह स्वागतार्थ खड़ा Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र १५८ हुआ । भगवान् ने भी पूर्व के अभ्यासवश उनसे मिलने हेतु दोनों बाहे पसारी और उनके मधुर आग्रह को सम्मान देकर वे एक दिन वहाँ विराजे । प्रस्थान करते समय कुलपति ने निवेदन किया- " कुमार वर ! प्रस्तुत आश्रम आपका ही है। आप इसे दूसरे का न समझे । कुछ समय यहाँ पर स्थिति रखें व एकान्त शान्त स्थान में वर्षावास की इच्छा हो तो यहाँ अवश्य पधारें। मैं अनुग्रहीत होऊगा । २१४ भगवान् ने वहाँ से विहार किया, सन्निकटस्थ क्षेत्रों में परिभ्रमण कर पुनः वर्षावास हेतु वहाँ पधारे । कुलपति ने एक पर्णकुटी प्रदान की । भगवान् वहाँ हिमालय की तरह अचल, निष्कंप, ध्यान-योग में स्थिर हो गये । वर्षा विलम्ब से होने के कारण अभी तक घास नहीं उगी थी, अतः क्षुधा से पीडित गायें आदि पशु पर्णकुटियों का घास खाने को मुँह मारती थी, अन्य तापसगण उन्हें भगाकर कुटियों की रक्षा करते पर, महावीर तो ध्यान में तल्लीन थे । वे गायों को रोकते भी कैसे ? तापसों ने कुलपति से कहा- तुम्हारा यह मेहमान कंसा आलसी है, अपनी कुटिया की भी रक्षा नहीं कर सकता ? दूसरी कुटी कौन छाकर देगा ?२१५ कुलपति ने भी महावीर से निवेदन कियाकुमारवर | पक्षिगण भी अपने घोंसले की रक्षा करते हैं, पर आप राजकुमार होकर भी इतनी उपेक्षा क्यो रखते हैं ? दुष्टों को दण्ड देना आपका कर्तव्य है । फिर कर्तव्य विमुख क्यों हो रहे है ?२१६ इस प्रकार संकेत कर कुलपति अपने स्थान चला गया । महावीर ने विचार किया मेरे कारण आश्रमस्थ व्यक्तियों का मानस व्यथित हो रहा है अतः मेरा यहाँ रहना उचित नहीं है ।" वर्षावास के पन्द्रह दिन व्यतीत होने पर भी उन्होंने वहाँ से विहार किया । २१७ उस समय भगवान् महावीर ने पाँच प्रतिज्ञाएँ ग्रहण की । (१) अप्रीतिकारक स्थान में नहीं रहूँगा । (२) सदा ध्यानस्थ रहूँगा । (३) मौन रखूँगा । (४) हाथ में भोजन करूँगा । (५) गृहस्थों का विनय नहीं करूँगा । स्मरण रखना चाहिए कि आचारांग १९ २१३ के अनुसार महावीर ने कभी Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना काल भी दूसरे के पात्र में भोजन नही किया। पर आचार्य मलयगिरि के अभिमता. नुसार प्रस्तुत प्रतिज्ञा गहण करने के पूर्व भगवान् ने गृहस्थ के पात्र का उपयोग किया था और केवल ज्ञान होने के पश्चात् प्रवचन लाघव के कारण वे स्वयं भिक्षा हेतु नही पधारते थे। उस समय शिष्यों के द्वारा पात्र में लाई गई भिक्षा का उपयोग करते थे।' एतदर्थ ही वह लोहार्य अनगार धन्य माना गया जिसने भगवान को केवल ज्ञान होने पर भिक्षा लाकर प्रदान की । २२२ ---. शूलपाणि यक्ष का उपद्रव भगवान् श्री महावीर आश्रम से विहार कर अस्थिग्राम की और चल पड़े। संध्या के धुंधलके (गोधूलिवेला) में वहाँ पहुँचे । गाँव में एकान्त स्थान की याचना करते हुए नगर के बाहर यक्षायतन मे ठहरने की आज्ञा ली, तब गांव वासियों ने कहा-"भगवन् ! वहाँ एक यक्ष रहता है, उसका स्वभाव बड़ा ही क्रूर है, वह रात्रि में किसी को रहने नही देता है। अतः आप यहां न ठहर कर अन्य स्थान मे ठहरे। १९ पर, भगवान् ने यक्ष को प्रतिबोध देने हेतु उसी स्थान की पुन. याचना की, ग्राम निवासियो ने आज्ञा प्रदान की। भगवान् एक कोने मे ध्यानस्थ हो गये। माध्य अर्चना हेतु इन्द्रशर्मा नाम का पुजारी आया, अर्चना के पश्चात् सभी यात्रियो को यक्षायतन से बाहर निकाला। भगवान से उसने कहा-परन्तु वे मौन थे, ध्यानस्थ थे, इन्द्रशर्मा ने पुन: यक्ष के भयंकर उत्पात का रोमांचक वर्णन किया, फिर भी भगवान् विचलित नहीं हुए और वे वही स्थिर रहे, इन्द्रशर्मा चला गया । २२४ सन्ध्या की सुहावनी वेला समाप्त हुई। कुछ अधकार होने पर शूलपाणि यक्ष प्रकट हुआ। भगवान् को वहां देखकर उसने कहा-मृत्यु को चाहने वाला यह गांव निवासियों व देवार्चक द्वारा निषेध करने पर भी न माना । जात होता है इसे अभी तक मेरे प्रबल पराक्रम का परिचय नहीं है।" पराक्रम का परिचय देने के लिए उसने भयंकर अट्टहास किया२२५ जिससे मारा वनप्रान्त कांप उठा। पर महावीर तो मेरु की तरह अडोल व अकम्प खड़े रहे । उसने हाथी का रूप बनाया, दन्त प्रहार करने और पांव से रौंदने पर भी वें अचल रहे। यक्ष ने पिशाच का विकराल रूप बनाकर तीक्ष्ण नाखून व दाँतों Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० से महावीर के अङ्गों को नोंचा तो भी उनके मन मे रोष नहीं आया। मुंह से 'सी' नहीं निकला। उसने सर्प बनकर जोर से काटा तो भी महावीर का ध्यान भङ्ग नहीं हुआ। अन्त में उसने अपनी दिव्य देव शक्ति से उनके आँख, कान, नाक, सिर, दांत, नख और पीठ में भयंकर वेदना उत्पन्न की। इस प्रकार की एक वेदना से भो साधारण प्राणी छटपटाता हुआ तत्क्षण मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। पर महावीर तो उन सभी प्रकार की वेदनाओं को शान्त भाव से सहन कर गये। राक्षसी-बल महावीर के आत्मबल से परास्त हो गया। उसका धैर्य ध्वस्त हो गया। प्रभु को अद्भुत तितिक्षा देखकर वह चकित व स्तंभित-सा रह गया, अन्त में हारकर महावीर के चरणों मे गिर पड़ा। "भगवन् ! मेरा अपराध क्षमा कीजिए। मैंने आपको पहचाना नहीं !" इस प्रकार वह विनम्र होकर प्रभु की स्तुति करने लग गया। - भगवान के स्वप्न एक मुहूर्त रात्रि अवशेष रहने पर भगवान् को उस रात में निद्रा आ गई । २२० उस समय उन्होंने दस स्वप्न देखे । २२८ (१) मैं एक भयंकर ताड-सदृश पिशाच को मार रहा हूँ। (२) मेरे सामने एक श्वेत पुस्कोकिल उपस्थित है। (३) मेरे सामने एक रंग-बिरंगा पुस्कोकिल उपस्थित है। (४) दो रत्न मालाएँ मेरे सम्मुख हैं। (५) एक श्वेत गोकुल मेरे सम्मुख है। (६) एक विकसित पद्मसरोवर मेरे सामने स्थित है। (७) मैं तरंगाकुल महासमुद्र को अपने हाथों से तैर कर पार कर चुका है। (८) जाज्ज्वल्यमान सूर्य सारे विश्व को आलोकित कर रहा है। (९) मैं अपनो वैडूर्य वर्ण आतों से मानुषोत्तर पर्वत को आवेष्टित कर रहा हूँ। (१०) मै मेरु पर्वत पर चढ़ रहा हूँ। स्वप्नानन्तर भगवान की नींद खुल गई । साधना काल में भगवान् को इसी रात्रि में कुछ नींद आई थी और वह भो सोये-सोये नहीं,अपितु खड़े-खड़े ही। २२० Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापना काल : शुल-पाणि का उपद्रय रात्रि में शूलपाणि के भयंकर अट्टहास को श्रवण कर ग्रामवासियों ने उसी समय अनुमान लगा लिया था कि मंदिर में स्थित वह साधु सदा के लिए चल बसा है । और प्रात:काल के पूर्व जब संगीत की सुमधुर स्वर लहरियां सुनी तो उनका अनुमान और अधिक दृढ़ हो गया कि साधु की मृत्यु से ही यक्ष अपने हृदय की प्रसन्नता संगीत के माध्यम से अभिव्यक्त कर रहा है । उत्पल नामक एक निमित्तज्ञ अस्थिक ग्राम में रहता था। पहले वह भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा में श्रमण बना था। पर कुछ कारणों से श्रमणत्व से भ्रष्ट हो गया था। जब उसे भगवान् महावीर के यक्षायतन में ठहरने के समाचार ज्ञात हुए तो अनिष्ट की कल्पना से उसका हृदय धड़क उठा।" प्रातः इन्द्रशर्मा पुजारी के साथ वह यक्षायतन पहुँचा, पर अपनी कल्पना से विपरीत यक्ष के द्वारा भगवान् महावीर को अचित देखकर उसके आश्चर्य का आर-पार नहीं रहा । वे दोनों ही प्रभु के चरणों में नमस्कार करने लगे-"प्रभो, आपका आत्म-तेज अपूर्व है । आपने यक्षप्रकोप को शान्त कर दिया है।" निमित्तज्ञ ने निवेदन किया-"प्रभो, आपने जो रात्रि के पश्चिम प्रहर में दस स्वप्न देखे हैं उनका फल इस प्रकार होगा (१) आप मोहनीय कर्म को नष्ट करेंगे। (२) सदा-सर्वदा आप शुक्ल ध्यान में रहेंगे। (३) विविध ज्ञानमय द्वादशाङ्ग श्रुत की प्ररुपणा करेंगे। (४) .... ? (५) चतुर्विध सघ आपकी सेवा में संलग्न रहेगा। (६) चतुर्विध देव भी आपकी सेवा में रहेंगे। (७) संसार सागर को आप पार करेंगे। (८) केवल ज्ञान और केवल दर्शन को आप प्राप्त करेंगे। (8) यत्र-तत्र सर्वत्र आपकी कीर्ति-कौमुदी चमकेगी। (१०) समवरण में सिंहासन पर विराजकर आप धर्म की संस्थापना Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ इस प्रकार इन नौ स्वप्नों का फल मुझे ज्ञात हो गया, पर चतुर्थ स्वप्न का फल मेरी समझ में नही आया। भगवान् ने चतुर्थ स्वप्न का फल बताते हुए कहा-उत्पल, मैं सर्वविरति व देश-विरति रूप दो प्रकार के धर्म की प्ररुपणा करूगा ।२३३ प्रस्तुत वर्षावास में भगवान् ने पन्द्रह-पन्दह दिन के आठ अर्घमास उपवास किये । २३४ वहाँ से वर्षावास के पश्चात् विहार कर भगवान् मोराकसग्निवेश पधारे और उद्यान में विराजे । २३५ वहाँ भगवान् के तपःपूत जीवन और ज्ञान की तेजस्विता से जन-जन के मन में श्रद्धा के दीप प्रज्वलित हो उठे। ध्यान परायण महावीर के चारों ओर जनता श्रद्धा पूर्वक आकर जमने लगी। प्रस्तुत सन्निवेश में अच्छन्दक पाषण्डस्थ रहते थे जो अपनी जीविका ज्योतिष आदि से चलाते थे। महावीर की तेजस्वी प्रतिभा से उनकी प्रतिभा प्रभाहीन हो गई। उन्होंने भगवान् से निवेदन किया-"भगवन् ! आपका व्यक्तित्त्व अपूर्व है । आप अन्यत्र पधारें, क्योंकि आपके यहाँ विराजने से हमारी जीविका नहीं चलती, हम अन्यत्र जायें तो परिचय और प्रतिभा के अभाव में हमें कोई भी पूछेगा नही। करुणावतार महावीर ने वहाँ से विहार कर दिया । २७६ --.चण्ड कौशिक को प्रतिबोध दक्षिण वाचाला से उत्तर वाचाला जाने के दो मार्ग थे। एक कनखल आश्रम से होकर और दूसरा बाहर से। आश्रम का मार्ग सीधा होने पर भी निर्जन, भयानक व विकट संकट से युक्त था। बाहर का पथ केशराशि की तरह कुटिल व दीर्घ था, पर सुगम और विपदा से मुक्त था । आत्मा की मस्ती में गजराज की तरह झूमते हुए महावीर सीधे पथ पर ही अपने कदम बढ़ाते हुए चले जा रहे थे।२३७ ग्वालों ने टोकते हुए कहा-"देवार्य ! इधर न पधारिये ! इस पथ में एक भयंकर दृष्टि विष सर्प रहता है जिसकी विषैली फुकार से मानव तो क्या, पशु-पक्षी गण भी सदा के लिए आँख मूंद लेते हैं। वह इतना भयंकर है कि Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापना काल : पर कौशिक को प्रतियोष १६३ जिधर देखता है, जहर बरसने लगता है, आग की लपटें उठने लगती हैं। उसके कारण आस-पास के वृक्ष भी सूख गये हैं। चारों ओर सुनसान हो गया है । अतः श्रेयस्कर यही है कि आप बाहर के मार्ग से पधारें। पर महावोर मौन थे। वे अपने लक्ष्य की ओर बढे जा रहे थे। पथ से विचलित होना उन्होंने सीखा हो न था। ग्वालों ने पुनर्वार रोकने का प्रयास किया, किन्तु वे सफल न हो सके । भगवान् आगे बढ़ गये। चण्डकौशिक के स्थान पर जाकर ध्यान लगाकर खडे हो गये । २३८ उनके मन में प्रेम का पयोधि उछ्वलित हो रहा था। भयंकर फुकार करता हुआ नागराज बाहर निकला। बांबी के पास भगवान् को देखकर वह सहम गया। उसने क्षुब्ध होकर फुकार मारी। किन्तु भगवान पर कुछ भी असर नहीं हुआ। उसने अनेक बार दंश प्रहार किया, तथापि भगवान को शान्त-प्रशान्त देखकर वह स्तब्ध हो गया । २३९ ___ आश्चर्य में निमग्न विषधर महावीर की मुख-मुद्रा को एक टक देख रहा था। उसमे कही पर भी रोष और क्रोध की रेखाएँ नहीं थी, अपितु मधुर मुस्कान खिल रही थी। अन्त में अमृत ने विष को परास्त कर दिया। __ महावीर ने नागराज को शान्त देखकर ध्यान से निवृत्त होकर कहा"चण्डकौशिक ! शान्त होओ ! उवसम भो चण्डकोसिया ! जागृत होओ ! अज्ञानान्धकार में कहाँ भटक रहे हो, पूर्व जन्म के दुष्कर्मों के कारण तुम्हें सर्प बनना पड़ा है, यदि अब भी तुम न सँभले तो भविष्य तिमिराच्छन्न है।४. भगवान् के सुधा-सिक्त वचनों ने नागराज के अन्तर्मानस मे विचार ज्योति प्रज्ज्वलित कर दी। चिन्तन करते-करते पूर्व जन्म का चलचित्र नेत्रों के सामने नाचने लगा । २४१ “मैं पूर्व जन्म में श्रमण था, असावधानी से भिक्षा के लिए जाते समय पैर के नीचे मण्डकी आ गई । शिष्य के द्वारा प्रेरणा देने पर भी मेंने आलोचना नही की और अस्मिता के वश शिष्य को मारने दौड़ा । अंधकार में स्तम्भ से शिर टकराया, आयु:पूर्ण कर ज्योतिष्क देव बना और वहाँ से प्रस्तुत आश्रम में कौशिक तापस बना। मेरी क्रूर प्रकृति से सभी कांपते थे। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ एक बार श्वेताम्बी के राजकुमारों ने आश्रम के फल-फूल तोड़े। में तीक्ष्ण कुल्हाड़ी से उन्हें मारने दौड़ा पर पाँव फिसल गया और उस तीक्ष्ण कुल्हाड़ी से मैं स्वयं कट गया, वहाँ से आयु पूर्ण कर सर्प बना ।" इस प्रकार पूर्व - पापों की संस्मृति से हृदय विकल व विह्वल हो उठा । आत्म-भान होते ही वह अपनी की हुई भूलों पर पश्चात्ताप करने लगा । भगवान् के चरणारविन्दों में आकर झुक गया । उसका प्रस्तर हृदय पिघल गया । भगवान् के पावन प्रवचन से बह पवित्र हो गया । उसने दृढ़ प्रतिज्ञा ग्रहण की कि 'आज से मैं किसी को न सताऊँगा । उसने आजीवन अनशन कर लिया । देखकर लोग आने लगे । नागराज में यह अद्भुत चकित थी । जिसे मारने के लिए एकदिन जनता उसकी अर्चना कर आनन्द-विभोर हो रही थी । २४२ कल्प भगवान को वहाँ खड़ा परिवर्तन देखकर जनता उन्मत्त थी, आज वही वहाँ से भगवान् उत्तर वाचाला पधारे। 'नागसेन' के यहाँ पन्द्रह दिन के उपवास का पारणा कर श्वेताम्बी पधारे। सम्राट् प्रदेशी ने भावभीना स्वागत किया, वहाँ से सुरभिपुर पधार रहे थे कि मार्ग में सम्राट् प्रदेशी के पास जाते हुए पांच नैयिक राजाओं ने भगवान् की वन्दना - नन्दना की । " • माव किनारे लग गई सुरभिपुर पधारते समय गंगा को पार करने हेतु भगवान् सिद्धदत्त की नौका मे आरूढ़ हुए । नौका ने ज्यों ही प्रस्थान किया, त्योंही दाहिनी ओर से उल्लूक के कर्ण कटु शब्दों को श्रवण कर खेमिल निमित्तज्ञ ने यात्रियों से कहाबड़ा अपशकुन हुआ है, पर प्रस्तुत महापुरुष की प्रबल पुण्यवानी से हम बच जायेंगे । १४४ आगे बढ़ते ही आंधी और तूफान नौका आवर्त मे फँस गई । कहते हैं कि त्रिपृष्ट वासुदेव के भव में जिस सिंह को मारा था वह सुदंष्ट्र नाम का देव हुआ और पूर्व वैर के कारण उसने गंगा में तूफान खड़ा कर दिया | अन्य यात्रीगण भय से काँप उठे, पर, महावीर निष्कम्प थे । अन्त में महावीर के प्रभावपूर्ण व्यक्तित्व से नौका किनारे लग गई । • धर्म चक्रवर्ती नाव से उतरकर भगवान गंगा के किनारे स्थित थूणाक सन्निवेश के Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापना काल : पोशालक को भेंट बाहर ध्यान मुद्रा लेकर खड़े हो गए। भगवान् के चरण-चिह्नों को देखकर पुष्य नामक एक निमित्तज्ञ के मानस में विचार उठा कि ये चरण-चिह्न तो अवश्य ही किसी चक्रवर्ती सम्राट् के हैं जो अभी किसी विपदा से ग्रसित होकर अकेला घूम रहा है। मैं जाकर उसकी सेवा करूँ। चक्रवर्ती सम्राट बनने पर वह प्रसन्न होकर मुझे निहाल कर देगा । ४५ वह चरण-चिह्नों को देखता हुआ भगवान के पास पहुंचा, किन्तु भिक्षुक के वेष में भगवान को देखकर उसके आश्चर्य का पार नहीं रहा। वह यह नहीं समझ सका कि चक्रवर्ती सम्राट् के सम्पूर्ण लक्षण शरीर पर विद्यमान होते हुए भी यह भिक्षक कैसे ? उसे ज्योतिष शास्त्र का कथन मिथ्या प्रतीत हुआ। वह ज्योतिष शास्त्र को गगा मे बहाने के लिए तैयार हो ही रहा था कि देवेन्द्र ने प्रकट होकर कहा"पुष्य । यह कोई साधारण भिक्षुक नही है। धर्म-चक्रवर्ती हैं। चक्रवर्ती सम्राट् से भी बढकर हैं। देवों व इन्द्रों के द्वारा भी वन्दनीय और अर्चनीय है । २४६ पुष्य भगवान् को वन्दना करके चल दिया। ---. गोशालक की भेंट : भगवान् महावीर ने द्वितीय वर्षावास राजगृह के उपनगर नालन्दा को तन्तुवायशाला (बुनकर की उद्योगशाला) में किया । वहाँ मंखलि पुत्र गोशालक २४७ भी वर्षावास हेतु आया हुआ था। वह भगवान् के तप और त्याग से आकर्षित हुआ । वास्तव मे उसने भगवान के मासक्षपण के पारणे में पांच दिव्य प्रकट हुए देखे, आकाश में देव-दुन्दुभि सुनी तो वह उनके चामत्कारिक तप से आकृष्ट होकर उनका शिष्य बनने के लिए उत्सुक हो गया । वह भगवान से शिष्य बनाने की प्रार्थना करने लगा, प्रभु मौन रहे । उस वर्षावास में भगवान् ने एक-एक मास का दीर्घ-तप किया । वर्षावास की पूर्णाहुति के दिन गोशालक भिक्षा के लिए निकला तो उसने प्रभु से जिज्ञासा की-तपस्वी ! "आज मुझे भिक्षा में क्या प्राप्त होगा ?" उत्तर देते हुए भगवान् ने कहा-'कोदों का बासी तन्दुल, खट्टी छाछ और खोटा रुपया।" भगवान की भविष्यवाणी को मिथ्या करने हेतु वह श्रेष्ठियों के गगनचुम्बी भव्य भवनों में पहुँचा, पर हताश और निराश होकर पुनः खाली लौट आया। फिर गरीबों Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र १६६ की झोंपड़ियों की ओर बढ़ा। एक लुहार के घर पर उसे खट्टी छाछ, बासी भात, व दक्षिणा में एक रुपया प्राप्त हुआ । बस, इस घटना ने उसे नियतिवाद की ओर आकर्षित किया। वह सोचने लगा-जो होना होता है, वह होकर रहता है. और वह सब कुछ पहले से ही निश्चित रहता है । भगवान् महावीर नालंदा से विहार कर कोल्लागसन्निवेश पधारे और वहाँ एक ब्राह्मण के घर पर चतुर्मासक्षपण का पारणा किया। इधर गोशालक भिक्षा से लौटा । भगवान् को वहाँ नहीं पाकर ढूँढता हुआ कोल्लाग - सनिवेश में आ पहुंचा। भगवान् से शिष्य बना लेने को पुनः पुनः अभ्यर्थना की, किन्तु भगवान् ने स्वीकार नही की । २४९ गोशालक प्रकृति से चचल, उद्धत व लोलुप था । वह भगवान् साथ ही कोल्लाग सन्निवेश से सुवर्णखल जा रहा था । मार्ग में एक ग्वाल मण्डली खीर पका रही थी । खीर को देखकर गोशालक का मन उसे खाने के लिए मचल उठा । महावीर से निवेदन किया। महावीर ने कहा - "खीर पकने के पूर्व ही हण्डी फूटने के कारण धूल मे मिल जायेगी ।" गोशालक ने वालों को सचेत किया और स्वयं खीर खाने को अभिलाषा से वहीं रुक गया । भगवान् आगे बढ़ गये । ग्वालों के द्वारा हण्डी की सुरक्षा करने पर भी हण्डी फूट गई और खीर धूल मे मिल गई । २५० गोशालक नन्हा सा मुँह लिए महावीर के पास पहुंचा। इस घटना से उसकी यह धारणा दृढ़ हो गई कि होनहार कभी टल नही सकती । वह 'नियतिवाद' का पक्का समर्थक बन गया । वहाँ से विहार कर भगवान् 'ब्राह्मण गॉव' पधारे। उसके दो विभाग थे । एक 'नन्दपाटक' और द्वितीय 'उपनन्दपाटक' । भगवान् नन्दपाटक में नन्द के घर पर भिक्षा के लिए पधारे। भगवान् को वासी भोजन प्राप्त हुआ, परंतु शान्त भाव से उन्होंने उसको स्वीकार किया । गोशालक उपनन्दपाटक में उपनन्द के यहाँ भिक्षा के लिए गया, दासी बासी तन्दुलों की भिक्षा देने लगी तो गोशालक ने मुँह मंचका कर उसे लेने से इन्कार कर दिया । गौशालक के अभद्र व्यवहार से उपनन्द क्रुद्ध हो गया और दासी से कहा- वह भिक्षा न ले Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापना काल : गोशालक को भेट १६७ तो उसके शिर पर फेंक दें। दासी ने स्वामी की आज्ञा से उसी के शिर पर डाल दिया। गोशालक आपे से बाहर हो गया। शाप देकर बकता हुआ वहाँ से चल दिया। भगवान् वहां से अंगदेश की राजधानी चम्पानगरी पधारे । २५१ गोशालक भी साथ ही था। भगवान् ने तृतीय वर्षावास वहीं व्यतीत किया। वर्षावास में दो-दो मास के उत्कट तप के साथ विविध आसन व ध्यान-योग की साधना की। प्रथम पारणा चम्पा में किया और द्वितीय चम्पा से बाहर । वर्षावास के पश्चात् कालाय सन्निवेश पधारे, वहाँ से पत्तकालाय पधारे ओर दोनों ही स्थानों पर खण्डहरों में स्थित होकर ध्यान किया। दोनों ही स्थानों पर गोशालक अपनी विकार युक्त एवं अविवेकी प्रवृत्ति के कारण लोगों के द्वारा पीटा गया । २५२ भगवान् तो रात-रात भर ध्यान में लीन रहे। ___वहाँ से भगवाद कुमारक सन्निवेश पधारे, वहाँ पर चम्पकरमणोय उद्यान में कायोत्सर्ग प्रतिमा धारण करके रहे।२५३ भिक्षा का समय होने पर गोशालक ने भिक्षा के लिए चलने हेतु महावीर से प्रार्थना की । भगवान् ने कहा-'मेरे उपवास है।' गोशालक चला ! उस समय पार्वापत्य मुनिचन्द्रस्थविर कुमारसन्निवेश में कुम्हार कूवणय की शाला में ठहरे हुए थे। गोशालक ने पार्वापत्य मुनियों के रंग विरंगे वस्त्र देखकर पूछा-"तुम कौन हो ?" उन्होंने उत्तर दिया-"हम निर्ग्रन्थ हैं और भगवान पार्श्वनाथ के शिष्य हैं।" गोशालक ने कहा-"तुम कैसे निग्रन्थ हो ? इतना सारा वस्त्र और पात्र रखा है, फिर भी अपने को निर्ग्रन्थ कहते हो। ज्ञात होता है अपनी आजीविका चलाने के लिए ही यह प्रपंच कर रखा है। देखिए-सच्चे निर्ग्रन्थ तो मेरे धर्माचार्य हैं, जो वस्त्र व पात्र से रहित हैं तथा तप और त्याग की माक्षात् प्रतिमूर्ति हैं।" पापित्य श्रमणों ने कहा-"जैसा तू है, वैसे ही तेरे धर्माचार्य भी स्वयं-गृहीतलिंग होंगे।" Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . :गोशालक ने क्रुद्ध होकर कहा-"मेरे धर्माचार्य की तुम लोग निन्दा कर रहे हो। मेरे धर्माचार्य के दिव्य तपस्तेज से तुम्हारा उपाश्रय जलकर भस्म हो जायें।" पावपित्य श्रमणों ने कहा-"हम तुम्हारे जैसो के शाप से भस्म होने वाले नहीं हैं।" लम्बे समय तक वाद-विवाद करने के पश्चात् गोशालक लौटकर महावीर के पास आया और बोला-"आज मेरी सारम्भ और सपरिग्रह श्रमणों से भेंट हुई । मेरे शाप देने पर भी उनका तनिक भी बालवाका नही हुआ ।" भगवान् ने बताया कि वे पापित्य अनगार है ।२५४ . वहाँ से विहार कर भगवान् चोराक सनिवेश पधारे । २५१ वहां तस्करो का अत्यधिक भय था । अत: आरक्षक (पहरेदार) सतत सावधान रहते थे। भारक्षकों ने परिचय प्राप्त करने के लिए भगवान से प्रश्न किया, पर भगवान् मौन रहे । आरक्षको ते गुप्तचर समझकर भगवान को अनेक यातनाएं दी। सोमा और जयन्ती नामक परिवाजिकाओं को जो उत्पल नैमित्तिक को बहनें थी, जब वह ज्ञात हुआ तब वे शीघ्र ही वहाँ पहुँची और आरक्षको को बताया कि ये 'सिद्धार्थनन्दन महावीर हैं। आरक्षकों ने उन्हे मुक्त कर दिया। वहाँ से पृष्ठ चम्पा पधारे और चतुर्थ वर्षावास वहां पर व्यतीत किया। प्रस्तुत वर्षावास में चार मास के लिए आहार का परिहार कर आत्म-चिन्तन, व ध्यान मुद्रा में खड़े रहे। वर्षावास के पश्चात् भगवान् कयंगला नगरी पधारे, वहां दरिद्दथेर के देवल मे ध्यानस्थ हुए । २७ वहां से विहार कर श्रावरती के बाहर ध्यान किया। कड़कड़ाती सर्दी पड़ रही थी, तथापि भगवान् सर्दी की बिना परवाह किये रात भर ध्यान में रहे । २५८ सर्दी से गोशालक बहुत परेशान हुआ । इधर देवल में धार्मिक उत्सव होने से स्त्री-पुरुष आदि एकत्र होकर नृत्य-गाना बजाना कर रहे थे। गोशालक उनकी मजाक करने लगा- “यह कैसा धर्म है, जिसमें स्त्री-पुरुष साथ-साथ निर्लज्ज होकर नाचे जायें।" लोगों ने गोशालक को पकड़ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना काल : लाइ प्रदेश में १६८ कर बाहर धकेल दिया। वह सर्दी में ठिठुरने लगा, बोला-"इस ससार में सच बोल कर विपत्ति मोल लेना है ।' लोगों ने देवार्य का शिष्य समझकर पुनः भीतर बुलाया, मगर वह तो अपनी आदत से लाचार था, पहले युवकों ने पीटा, फिर वृद्धों ने उसकी बातें अनसुनी करके खूब जोर से बाजे बजाने के लिए कहा। प्रातः भगवान वहां से विहार कर श्रावस्ती पधारे । श्रावस्ती में शिवदत्त ब्राह्मण की पत्नी ने मृत बालक के रुधिर मांस से खीर बनाई और वह गोशालक को दी। गोशालक ने खाई, प्रभु ने रहस्योद्घाटन किया। गोशालक ने वमन किया, वही सब चीजें देखकर उसे नियतिवाद पद दृढ विश्वास हो गया। ___ श्रावस्ती से विहार कर "हलिद्दुग" गाँव पधारे। गांव के समीप ही एक "हलिदुग" नामक विराट् वृक्ष था । भगवान् ने ध्यान हेतु उपयुक्त स्थल समझ का वहीं अवस्थिति की। अन्य अनेक पथिकों ने भी रात्रि में वहाँ विश्राम लिया। उन्होंने सर्दी से बचने के लिए अग्नि जलाई। उन पथिकों ने सूर्योदय के पूर्व ही वहाँ से आगे प्रस्थान कर दिया। वह अग्नि धीरे-धीरे ध्यानस्थ महावीर के निकट तक आ पहुँची। गोशालक ने ज्यों ही आग की लपलपाती लपटों को अपनी ओर आते हुए देखा त्यों ही वहां से भाग छूटा। परन्तु महावीर अपने ध्यान में मग्न थे। ज्वाला आगे बढ़ी, महावीर के पैर उस ज्वाला की लपट से झुलस गये, तथापि वे ध्यान से विचलित नही हुए । २५” मध्याह्न में वहाँ से आगे प्रयाण किया। 'नंगला' होते हुए "आवर्त" पधारे और क्रमशः वासुदेव तथा बलदेव के मन्दिरों में ध्यान किया। इस प्रकार अन्य अनेक क्षेत्रों को पाद-पदों से पवित्र करते हुए भगवान् 'चोराक सन्निवेश' पधारे। यहाँ गोशालक को गुप्तचर समझकर बहुत पीटा गया ।२६. वहां से भगवान 'कलंबुका' सन्निवेश को जा रहे थे कि मार्ग से वहाँ के अधिकारी कालहस्ती तस्करों का पीछा करते हुए उधर से निकले तो मार्ग में भगवान महावीर और गोशालक मिले। उन्होंने परिचय पूछा, परन्तु महावीर मौन थे और कुतूहल देखने के लिए गोशालक भी चुप रहा। दोनो को तस्कर समझकर उन्होंने अनेक यातनाएँ दी। तथापि मौन भंग नही किया। आखिर रस्सियों से जकड़ कर उन्हें अपने ज्येष्ठ भ्राता मेघ के पास भेज दिया। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० मेघ ने गृहस्थाश्रम में क्षत्रियकुण्ड में महावीर को देखा था, अतः देखते ही स्मृति जाग उठी, और पहचान लिया, शीघ्र ही बन्धनों से मुक्त कर अपने अज्ञानवश किए गए अपराध की क्षमा याचना की । २६५ - लाढ़ प्रदेश में गंभीर विचार-मंथन के पश्चात् भगवान महावीर ने कर्मों की विशेष निर्जरा हेतु लाढ़ प्रदेश (संभवतः बंगाल में गंगा का पश्चिम किनारा) की ओर प्रस्थान किया।६२ यह प्रदेश उस युग में अनार्य माना जाता था। वहाँ विचरण करना अत्यन्त दुष्कर था।२६३ उस प्रान्त के दो भाग थे। एक वनभूमि और द्वितीय शुभ्र भूमि । २६४ ये उत्तर राढ़ और दक्षिण राढ़ के नाम से भी प्रसिद्ध थे। इन दोनों के मध्य में अजय नदी बहती थी। भगवान् ने दोनों ही स्थानों में विचरण किया। उस क्षेत्र में भगवान को जो उग्र उपसर्ग उपस्थित हए उसका रोमांचक वर्णन आर्य सुधर्मा ने आचारांग में निम्न प्रकार से किया है ___ "वहाँ रहने के लिए उन्हें अनुकूल आवास प्राप्त नहीं हुए। अनेक प्रकार के उपसर्ग सहन करने पड़े। रूखा-सूखा वासी भोजन भी कठिनता से उपलब्ध होता था। कुत्ते भगवान् को दूर से देखकर ही काटने के लिए झपटते थे। वहाँ पर ऐसे बहुत कम व्यक्ति थे जो काटते और नौचते हुए कुत्तों को हटाते, किन्तु इसके विपरीत वे कुत्तों को छुछकार कर काटने के लिए उत्प्रेरित करते । पर भगवान महावीर उन प्राणियों पर किसी भी प्रकार का दुर्भाव नहीं लाते। उन्हें अपने तन पर किसी प्रकार की ममत्व बुद्धि नहीं थी। आत्म-विकास का हेतु समझ कर ग्राम-संकटों को सहर्ष सहन करते हुए वे सदा प्रसन्न रहते।"२६५ "जैसे संग्राम में गजराज शत्रुओं के तीखे प्रहारों को तनिक भी परवाह किये बिना आगे ही बढ़ता जाता है, उसी प्रकार भगवान महावीर भी लाढ़ प्रदेश में उपसर्गों को किचित् परवाह किए बिना आगे बढ़ते रहे। वहां उन्हें ठहरने के लिए कभी दूर-दूर तक गांव भी उपलब्ध नहीं होते, तो भयंकर अरण्य Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना काल : लाढ़ प्रदेश में १७१ में ही रात्रिवास करते । जब वे किसी गाँव में जाते तो गाँव के सन्निकट पहुँचते ही गाँव के लोग बाहर निकलकर उन्हें मारने-पीटने लगते और अन्य गाँव जाने को कहते । वे अनार्य लोग भगवान् पर दण्ड, मुष्ठि, भाला, पत्थर व ढेलों से प्रहार करते और फिर प्रसन्न होकर चिल्लाते । २६० 1 वहाँ के क्रूर मनुष्यों ने भगवान् के सुन्दर शरीर को नौंच डाला, उन पर विविध प्रकार के प्रहार किये। भयंकर परीषह उनके लिए उपस्थित किये। उन पर धूल फेंकी। वे भगवान् को ऊपर उछाल-उछाल कर गेंद की तरह पटकते । आसन पर से धकेल देते, तथापि भगवान शरीर के ममत्व से रहित होकर बिना किसी प्रकार की इच्छा व आकाक्षा के संयम-साधना में स्थिर रहकर कष्टों को शान्ति से सहन करते । २६७ " जैसे कवच पहने हुए शूरवीर का शरीर युद्ध में अक्षत रहता है, वैसे ही अचेल भगवान् महावीर ने अत्यन्त कठोर कष्टों को सहते हुए भी अपने सयम को अक्षत रखा । २६८ इस प्रकार समभाव पूर्वक भयंकर उपसर्गों को सहनकर भगवान् ने बहुत कर्मों की निर्जरा कर डाली। वे पुन आर्य प्रदेश की ओर कदम बढ़ा रहे थे कि पूर्णकलश सीमा प्रान्त पर दो तस्कर मिले। वे अनार्य प्रदेश में चोरी करने जा रहे थे । भगवान् को सामने से आते देख उन्होंने अपशकुन समझा । वे तीक्ष्ण शस्त्र लेकर भगवान् को मारने के लिए लपके। उस समय स्वयं इन्द्र ने प्रकट होकर तस्करों का निवारण किया । २६९ भगवान् आर्य प्रदेश के मलय देश मे विहार करने लगे और उस वर्ष मलय की राजधानी भद्दिला नगरी में अपना पाँचवा चातुर्मास किया, चातुर्मासिक तप और विविध आसनों के साथ ध्यान साधना करते हुए वर्षावास व्यतीत किया । २७० वर्षावास पूर्ण होने पर भद्दिल नगरी के बाहर चातुर्मासिक तप का पारणा कर 'कदली समागम' "जम्बू सण्ड', होकर 'तंबाय सन्निवेश' पधारे। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ उस समय पापित्य स्थविर नन्दिषेण वहाँ पर विराज रहे थे। गोशालक ने उनसे भी वाद-विवाद किया। तंबाय से 'कूपिय सन्निवेश' पधारे। वहाँ लोगों ने गुप्तचर समझकर भगवान को पकड़ लिया। अनेक यातनाएं दी और कारागृह में कैद कर लिया गया। "विजया' और 'प्रगल्भा' नाम की परिव्राजिकाओं को परिज्ञात होने पर वे वहाँ पहुँची, और अधिकारियों को भगवान का परिचय दिया। अधिकारियो ने अपनी अज्ञता पर पश्चात्ताप करते हुए भगवान् को मुक्त कर दिया ।२७१ भगवान् ने वहाँ से वैशाली की ओर विहार किया। गोशालक ने भगवान महावीर से कहा-"मुझे आपके साथ रहते हुए अनेक दुःसह यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं। पेट की समस्या भी हल नहीं हो पाती। आप इनका निवारण नहीं करते, अतः मैं अब पृथक् विहार करूँगा।" इस बात पर भगवान् मौन रहे । गोशालक ने राजगृह की ओर प्रस्थान कर दिया । ____ भगवान् क्रमशः विहार करते हुए वैशाली पधारे और लुहार के यंत्रालय (कम्मारशाला) में ध्यानस्थ स्थिर हुए। वह लुहार छह मास से अस्वस्थ था। भगवान् के आने के दूसरे ही दिन कुछ स्वस्थता अनुभव होने पर वह अपने यंत्र लेकर यंत्रालय में पहुँचा। वहाँ एकान्त मे भगवान् को ध्यान मुद्रा में देखकर उसने अमंगल रूप समझा और हथोड़ा लेकर महावीर पर प्रहार करने के लिए ज्यों ही वह उधर बढ़ा त्यों ही दिव्य देव-शक्ति से सहसा वही स्तब्ध हो गया ।२७७ वैशाली से विहार कर भगवान् ग्रामक-सन्निवेश पधारे और विभेलक यक्ष के यक्षायतन में ध्यान किया। भगवान् के तपोमय जीवन से यक्ष प्रभावित होकर गुणकीर्तन करने लगा । २७४ --. कूटपूतना का उपद्रव भगवान महावीर ग्रामक सनिवेश से विहार कर शालीशीर्ष के रमणीय उद्यान में पधारे। माघ माह का सनसनाता समीर प्रवहमान था। साधारण मनुष्य घरों में गर्म वस्त्रों से वेष्टित होने पर भी कांप रहे थे, किन्तु उस ठण्डी Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना काल : कूटपूतना का उपाय १७३ रात में भी भगवान् वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ खड़े थे। उस समय कूटपूतना (कटपूतना) नामक व्यन्तरी देवी वहाँ बाई । भगवान् को ध्यानावस्था में देखकर उसका पूर्व-वैर उद्बुद्ध हो गया। वह परिब्राजिका का रूप बना कर मेघधारा की तरह जटाओं से भीषण जल बरसाने लगी और भगवान् के कोमल स्कंधों पर खड़ी होकर तेज हवा करने लगी। बर्फ-सा शीतल वह जल और पवन तलवार के प्रहार से भी अधिक तीक्ष्ण प्रतीत हो रहा था, तथापि भगवान ध्यान से विचलित नही हुए। उस समय समभावों की उच्च श्रेणी पर चढ़ने से भगवान् को विशिष्ट अवधिज्ञान (परम अवधिज्ञान) की उपलब्धि हुई। परीषह सहन करने की अमित क्षमता को देखकर कूटपूतना अवाक् थी, विस्मित थी। प्रभु के धैर्य के समक्ष वह पराजित होकर चरणों में झुक गई और अपने अपराध के लिए क्षमायाचना करने लगी। २७५ गोशालक भी छह मास तक पृथक् भ्रमण कर अनेक कष्ट पाता हुआ आखिर पुन: महावीर के पास आ गया। भगवान वहाँ से परिभ्रमण करते हुए भद्दिया नगरी पधारे । चातुर्मासिक तप तथा आसन व ध्यान की साधना करते हुए छट्ठा वर्षावास वहीं पर किया। वर्षावास पूर्ण होने पर नगर के बाहर पारणा कर मगध की ओर प्रयाण किया। मगध के अनेक ग्रामो में घूमते हुए आलंभिया पधारे । चातुर्मासिक तप के माथ ध्यान करते हुए सातवाँ चातुर्मास वहाँ पूर्ण किया ।२७६ चातुर्मासिक तप का नगर के बाहर पारणा कर कुडाग-सन्निवेश और फिर मद्दनसनिवेश पधारे । दोनों ही स्थलों पर क्रमशः वासुदेव और बलदेव के आलय (मंदिर) में स्थिर होकर ध्यान किया। __ वहाँ से लोहार्गला पधारे। उस समय लोहार्गला के पड़ोसी राज्यों से कुछ संघर्ष चल रहे थे, अतः वहाँ के सभी अधिकारीगण आने जाने वाले यात्रियों से पूर्ण सतर्क रहते थे। परिचय के बिना राजधानी में किसी का भी प्रवेश निषिद्ध था। भगवान् से भी परिचय पूछा गया, पर वे मौन थे । परिचयाभाव से अधिकारी उन्हें निगृहीत कर राजसभा में ले गये। वहाँ अस्थिक ग्राम मे उत्पल नैमित्तिक आया हुआ था। उसने ज्यों ही भगवान को देखा त्यों ही Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र ૩૭૪ उठकर वन्दन किया और बोला - "ये गुप्तचर नहीं, अपितु सिद्धार्थ नन्दन महावीर हैं, धर्मचक्रवर्ती हैं ।" परिचय प्राप्त होते ही राजा जितशत्रु ने भगवान् और गोशालक को सत्कार पूर्वक विदा किया । २७७ 1 २७० लोहार्गला से भगवान् ने पुरिमताल नगर की ओर प्रस्थान किया । नगर के बाहर कुछ समय तक शकटमुख उद्यान में ध्यान किया । 'वग्गुर' श्रावक ने यहाँ आपका सत्कार किया । वहाँ से उन्नाग, गोभूमि को पावन करते हुए राजगृह पधारे । वहाँ चातुर्मासिक तप ग्रहण कर विविध आसनो के साथ ध्यान करते रहे । २७८ ऊंची-नीची और तिरछी तीनों दिशाओं में स्थित पदार्थों पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हुए प्रभु ने वहाँ ध्यान किया, वहीं पर आठवाँ वर्षावास व्यतीत किया। नगर के बाहर चातुर्मासिक तप का पारणा कर विशेष कर्मनिर्जरा करने के लिए पुन. अनार्यभूमि की ओर ( राढ़ देश की ओर) प्रयाण किया। पूर्व की भाँति ही अनार्य प्रदेश मे कष्टों से क्रीड़ा करते हुए कर्मों की घोर निर्जरा की । योग्य आवास न मिलने के कारण वृक्षो के नीचे खण्डहरों में तथा घूमते-घामते वर्षावास पूर्ण किया। छह मास तक अनार्य प्रदेश में विचरण कर पुनः आर्य प्रदेश में पधारे। २० तिल का प्रश्न : वैश्यायन तापस आर्य भूमि में प्रवेश कर भगवान् सिद्धार्थपुर से कूर्मग्राम की ओर पधार I रहे थे । गोशालक भी साथ ही था । पथ में सप्त पुष्पवाले एक तिल के लहलहाते हुए पौधे को देखकर गोशालक ने जिज्ञासा की कि 'भगवन् ! क्या यह पौधा फलयुक्त होगा ?" समाधान करते हुए भगवान् ने कहा- 'यह पौधा फलवान होगा और सातों ही फूलों के जीव एक फली में उत्पन्न होंगे ।' भगवान् के कथन को मिथ्या करने की दृष्टि से गोशालक ने पीछे रहकर उस पौधे को उखाड़कर एक किनारे फेंक दिया । २८१ संयोगवश उसी समय थोड़ी वृष्टि हुई और वह तिल का पौधा पुनः जड़ जमाकर खड़ा हो गया। वे सात पुष्प भी उक्त प्रकार से तिल की फली में सात तिल के रूप में उत्पन्न हुए । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना काल : तिल का प्रदन : बेश्यायन तापस १७५ भगवान् कर्मग्राम आये । कूर्मग्राम के बाहर वेश्यायन नामक तापस प्राणायामा- प्रव्रज्या स्वीकार कर सूर्यमंडल के सम्मुख दृष्टि केन्द्रित कर दोनों हाथ ऊपर उठाये आतापना ले रहा था । आतप संतप्त होकर जटा से यूकाएँ (जुएँ) पृथ्वी पर गिर रही थीं और वह उन्हें उठा-उठाकर पुनः जटा में रख रहा था । गोशालक ने यह दृश्य देखा तो, कुतूहलवश भगवान् के पास से उठ कर उस तपस्वी के निकट आया और बोला- 'तू कोई तपस्वी है, या जूओं का शय्यातर ? तपस्वी शान्त रहा। इसी बात को गोशालक पुनः पुनः दुहराता रहा । तपस्वी क्रोध में आ गया। वह अपनी आतापना भूमि से सात-आठ पग पीछे गया और जोश में आकर उसने अपनी तपोलब्ध तेजोलब्धि गोशालक को भस्म करने के लिए छोड़ दी । गोशालक मारे डर के भागा, और प्रभु के चरणों छुप गया, दयालु महावीर ने शीतललेश्या से उसको प्रशान्त कर दिया । गोशालक को सुरक्षित खड़ा देखकर तापस सारा रहस्य समझ गया । उसने अपनी तेजोलेश्या का प्रत्यावर्तन किया और विनम्र शब्दों में बोलता रहा"भगवन् ! मैंने आपको जाना। मैंने आपको जान लिया ।" गोशालक ने इस चमत्कारी शक्ति को प्राप्त करने की विधि पूछी। भगवान् महावीर ने उसे तेजोलेश्या की उपलब्धि की विधि बतलाई । २८२ में भगवान् ने कुछ समय के पश्चात् पुनः वहाँ से सिद्धार्थपुर की ओर प्रयाण किया । तिल पौधे के स्थान पर आते ही गोशालक को अतीत की घटना की स्मृति हो आई । उसने कहा - "भगवन् ! आपकी वह भविष्य वाणी मिथ्या हो गई है ।' महावीर ने कहा - 'नहीं, वह अन्य स्थान पर लगा हुआ जो तिल का पौधा है, वही है जिसे तूने उखाड कर फेंका था ।' गोशालक श्रद्धाहीन था, वह तिल के पौधे के पास गया और तिल की फली को तोड़कर देखा तो सात ही तिल निकले । प्रस्तुत घटना से भी गोशालक नियतिवाद की ओर आकृष्ट हुआ । उसका यह विश्वास सुदृढ़ बन गया कि 'सभी जीव मर कर पुनः अपनी ही योनि में उत्पन्न होते हैं । २८ १२८३ वहा से गोशालक ने भगवान् का साथ छोड़ दिया। वह श्रावस्ती गया, और 'हालाहला' नाम की कु भारिन की भाण्डशाला में ठहर कर महावीर द्वारा Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ कल्पसूत्र बताई विधि के अनुसार तेजोलब्धि की साधना करने लगा । यथासमय सिद्धि प्राप्त हुई । उसका प्रथम परीक्षण करने के लिए कुऍ पर गया। वहां पर जल भरती हुई एक महिला के घड़े पर ककड़ मारा । घडा टुकड़े होकर गिर पड़ा, पानी वह गया । महिला ने क्रुद्ध होकर गाली दी, तो गोशालक ने तेजोलेश्या से उसे वहीं भस्म करके ढेर बना दिया । फिर अष्टांगनिमित्त के ज्ञाता शोण, कलिन्द, कार्णीकार अछिद्र, अग्निवेशायन और अर्जुन प्रभृति से गोशालक ने निमित्त शास्त्र का अध्ययन किया । जिससे वह सुख-दुःख, लाभ-हानि, जीवन और मरण आदि बताने लगा और लोगों में वचनसिद्ध नैमित्तिक हो गया । इन सिद्धियों के चमत्कार से प्रसिद्धि हुई और वह अपने आपको आजीवक सम्प्रदाय का तीर्थकर बताकर प्रख्यात हुआ । २८४ भगवान् सिद्धार्थंपुर से वैशाली पधारे। नगर के बाहर ध्यानस्थ मुद्रा में भगवान् को देखकर अबोध बालकों ने उन्हें पिशाच समझा । वे अनेक यातनाएँ देने लगे । अकस्मात् उस पथ से राजा सिद्धार्थ के स्नेही मखा शंख नृपति निकल आये । उन्होंने बालकों को हटाया और स्वयं भगवान् का अभिवादन कर आगे चल दिये । २०५ वहां से भगवान् ने वाणिज्य ग्राम की ओर विहार किया। बीच मे गंडकी नदी आती थी, उसे पार करने के लिए नौका मे बैठकर परले किनारे पहुँचे, नाविक ने भाडा मांगा। पर भगवान् मौन थे । उसने क्रुद्ध होकर भग वान् को किराया न देने के कारण तप्त तवे-सी रेती पर खड़ा कर दिया । संयोगवश उस समय शंख राजा का भगिनीपुत्र 'चित्र' वहां आ पहुँचा और उसने नाविक से भगवान् को मुक्त करवा दिया । २८६ वहाँ से भगवान वाणिज्यग्राम पधारे । वहाँ पर आनन्द नाम के श्रमवह महावीर के चरणों में पहुँचा शीघ्र ही केवलज्ञान उत्पन्न उपासकदशांग सूत्र मे वर्णित गोपासक को अवधिज्ञान की उपलब्धि हुई थी। और नम्र निवेदन किया- 'प्रभो ! आपको होगा। यहाँ पर स्मरण रखना चाहिए कि 'गाथापति आनन्द से यह आनन्द भिन्न है । ૨૮૭ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापना काल : संगम के उपसर्व १७७ भगवान वाणिज्यग्राम से विहार कर श्रावस्ती पधारे। विविध प्रकार के तप व योग-क्रियाओं की साधना के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए दसबा वर्षावास वहां पूर्ण किया । __ वर्षावास के पूर्ण होने पर 'सानुलट्ठिय सन्निवेश' पधारे और वहां सोलह दिन का निरन्तर उपवास किया, तथा विविध प्रक्रिया के द्वारा ध्यावमग्न होकर भद्र, महाभद्र, और सर्वतोभद्र प्रतिमाओं की आराधना करते रहे । २८९ पारणा करने के लिए भगवान् परिभ्रमण करते हुए आनन्द के वहाँ पधारे । उसकी बहुला भृत्तिका (दासी) अवशेष अन्न को बाहर फेकने के लिए ज्योंही निकली भगवान् को द्वार पर खड़ा देखा, उसने प्रभु की और प्रश्नभरी दृष्टि से देखा तो प्रभु ने दोनो हाथ भिक्षा के लिए फैलाए, दासी ने भक्ति-भावना से विभोर होकर वह अवशेष अन्न प्रभु को भिक्षा में प्रदान किया, और भगवान् ने उस बासी अन्न से ही पारणा किया । २९० --. संगम के उपसर्ग ___ भगवान् ने वहाँ से दृढ़भूमि की ओर प्रस्थान किया। पेढाल गांव के सनिकट पेढाल उद्यान में अष्टमतप कर और एक अचित्त पुद्गल पर दृष्टि केन्द्रित कर ध्यानस्थ हो गए।२९१ भगवान् की इस अपूर्व एकाग्रता, कष्ट सहिष्णुता और अचल धैर्य को देखकर देवराज इन्द्र ने भरी सभा में गद्-गद् स्वर में प्रभु को वन्दन करते हुए कहा-"प्रभो । आपका धैर्य, आपका साहस, आपका ध्यान अनूठा है ! मानव तो क्या शक्तिशाली देव और दैत्य भी आपको इस साधना से विचलित नहीं कर सकते ।"२९२ शक्र की भावना का सारी सभा ने तुमुल जयघोष के साथ अनुमोदन किया । किन्तु संगमदेव के अन्तर्मानस में यह बात न पैठ सकी। उसे अपनी दिव्य दैवी शक्ति पर बड़ा गर्व था। उसने विरोध किया, और भगवान को साधना मार्ग से चलित करने की दृष्टि से देवेन्द्र का वचन लेकर वहीं पहुंचा जहाँ भगवान् ध्यानमग्न थे। उसने आते ही उपसों का जाल बिछा दिया । २९३ एक के पश्चात् एक भयंकर विपत्तियों का वात्याचक्र चलाया। जितना भी वह कष्ट दे सकता था दिया। तन के कण-कण Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में पीड़ा उत्पन्न की। पर, भगवान जब प्रतिकूल उपसगों से तनिक भी प्रकम्पित नहीं हुए तब अनुकल उपसर्ग प्रारम्भ किए । प्रलोभन के और विषय वासना के मोहक दृश्य उपस्थित किये । गगन-मण्डल से तरुण सुन्दरियाँ उतरी, हाव-भाव और कटाक्ष करती हुई प्रभु से काम-याचना करने लगी। पर महावीर तो निष्प्रकंप थे, प्रस्तरमूर्ति ज्यों, उन पर कोई असर नहीं हुआ। वे सुमेरु की तरह ध्यान में अडिग रहे । एक रात भर मे बीस भयंकर उपसर्ग २०४ देने पर भी उनका मुख कुन्दन-सा चमक रहा था । मानो मध्याह्न का सूर्य हो। पौ फटी, अधेरा छंट गया, धीरे-धीरे उषा की लाली चमक उठो, और सूर्य की तेजस्वी किरणें धरती पर उतरी । महावीर ने ध्यान से निवृत्त हो आगे प्रयाण किया। यद्यपि महावीर की अदम्य-शक्ति से एक रात में ही मगम की समस्त आशाओं पर तुषारापात हो गया था, तथापि वह धीठ प्रभु का पीछा नहीं छोड़कर साथ रहा, और 'बालुका' 'सुभोग' 'सुच्छेत्ता' 'मलय' और हस्तीशीर्ष आदि नगरों में जहां भी भगवान् पधारे वहाँ, अपनी काली करतूतो का परिचय देता रहा । २९५ जब भगवान तोसलि गांव के उद्यान मे ध्यानस्थ थे तब वह सगम श्रमण की वेषभूषा पहनकर गाँव में गया और घरों में सेध लगाने लगा। पकड़ा जाने पर बोला-"मुझे क्यों पकड़ते हो ?, मैंने गुरु आज्ञा का पालन किया है । यदि तुम्हें पकड़ना ही है तो उद्यान मे जो ध्यान किये मेरे गुरु खड़े हैं, उन्हें पकड़ो।" उसी क्षण लोग वहाँ आये और महावीर को पकडने लगे। रस्सियो से जकड़कर गांव में ले जाने लगे कि महाभूतिल ऐन्द्रिजालिक ने भगवान् को पहचान लिया और लोगों को डांटते हुए समझाया । लोग संगम के पीछे दौड़े तो उसका कहीं अतापता नही लगा । २९१ जब भगवान् मोसलि ग्राम पधारे तब संगम ने वहां पर भी भगवान पर तस्करकृत्य का आरोप लगाया। भगवान् को पकडकर राज्य परिषद् में ले जाया गया, तब वहाँ सम्राट् सिद्धार्थ के स्नेही-साथी सुमागद्य राष्ट्रीय (प्रान्त का अधि पति-वर्तमान कमिश्नर जैसा) बैठे थे। उन्होंने भगवान का अभिवादन किया और बन्धन मुक्त करवाया। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापना काल : संगम के उपसर्ग १४६ वहाँ से तोसलि के उद्यान मे पधारकर पुन: ध्यान किया। संगम ने चोरी कर के भारी शस्त्रास्त्र महावीर के सन्निकट लाकर रखे । लोगों ने चोर समझकर महावीर को पकड़ा । परिचय पूछा गया, पर, प्रश्न का उत्तर न मिलने से तोसलि क्षत्रिय ने छद्मवेशी श्रमण समझकर फांसी की सजा दी। फाँसी के तख्ते पर चढाकर गर्दन में फांसी का फन्दा डाल दिया। ओर नीचे से तख्ते को हटाया। पर ज्यों ही तख्ता हटा कि फन्दा टूट गया। पुनः फंदा लगाया और पुनः टूट गया। इस प्रकार सात बार फंदा टूट जाने पर सभी चकित रह गये। क्षत्रिय को सूचना दी, उसने प्रभु को कोई महापुरुष समझकर मुक्त कर दियो। ___ भगवान् वहाँ से सिद्धार्थपुर आये, संगम जो शिकारी कुत्ते की तरह महावीर के पीछे लगा हुआ था, वहाँ भी उसने महावीर पर चोरी का आरोप लगाकर पकडवाया, पर कौशिक नामक घोड़े के व्यापारी ने भगवान का परिचय देकर मुक्त करवाया । २०७ भगवान् वहाँ से व्रजगांव पधारे । उस दिन पर्व का पुनीत दिन होने से सब घरों में खीर बनी हुई थी। भगवान भिक्षा के लिए पधारे। पर संगम ने सर्वत्र अनेषणीय कर दिया। भगवान् भिक्षा बिना लिए ही लौट आए । २१८ छह मास तक अगणित कष्ट देने के पश्चात् भी महावीर साधना पथ से विचलित नहीं हुए तो संगम का धैर्य ध्वस्त हो गया। वह हताश और निराश हो गया । उसका मुख मलिन हो गया। वह हारा हुआ भगवान् के पास आकर बोला-"भगवन् ! देवराज इन्द्र ने जो आपके सम्बन्ध में कहा वह पूर्ण सत्य है । मैं भग्न प्रतिज्ञ हूं, आप सत्य प्रतिज्ञ हैं । २९९ अब आप प्रसन्नता से भिक्षा के लिए पधारिये। मैं किसी प्रकार को विघ्न-बाधाएँ उपस्थित नहीं करूँगा।" छह मास तक मैंने अनेक कष्ट दिये है, जिससे आप सुखपूर्वक संयम साधना नहीं कर सके हैं। अब आनन्द के साथ साधना कीजिए, मैं जा रहा हूँ। अन्य देवों को भी मैं रोक दूंगा। वे आपको कोई कष्ट नही देंगे।.. संगम के कथन पर भगवान् ने कहा-'संगम ! मैं किसी की प्रेरणा से Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रेरित होकर या किसी के कथन को संकल्प में रखकर तप नही करता । मुझे किसी के आश्वासन वचन की अपेक्षा नहीं है । ३०२ संगम के प्रस्थान के पश्चात् द्वितीय दिन भगवान् छह मास की कठिन तपस्या पूर्णकर व्रजग्राम में पारणा हेतु पधारे। वहाँ वत्सपालक वृद्धा ने प्रसन्नता से प्रभु को पायस की भिक्षा दी । 303 ܘܪ̈ܐ व्रजग्राम से आलंभिया, श्वेताम्बिका, श्रावस्ती, कौशाम्बी, बाराणसी, राजगृह, मिथिला आदि को पावन करते हुए वैशाली पधारे और नगर के बाहर समरोद्यान में बलदेव के मन्दिर में चातुर्मासिक तप के साथ वर्षावास व्यतीत किया । ३०४ • जीर्ण की भावना पूर्ण का दान वैशाली में एक भावुक श्रावक जिनदत्त रहता था, उसकी संपत्ति क्षीण हो जाने से लोग उसे जीर्ण सेठ कहने लग गए। वह सामुद्रिक शास्त्र का वेत्ता था । " भगवान् की पाद-रेखाओं के अनुसंधान में वह उसी उद्यान में गया, वहां प्रभु को ध्यानस्थ देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ । अब वह प्रतिदिन भगवान् को नमस्कार करने आता और आहारादि की अभ्यर्थना करता । निरन्तर चार मास तक चातक की तरह चाहने पर भी उसकी भव्य भावना पूर्ण नहीं हुई । चातुर्मास समाप्ति के पश्चात् भगवान् भिक्षा के लिए निकले और अपने संकल्प के अनुसार भिक्षान्वेषण करते हुए अभिनव श्रेष्ठी के द्वार पर रुके, यह नया धनी था, मूलनाम 'पूर्ण' था । श्रेष्ठी ने लापरवाही से दासी को आदेश दिया, और उसने एक चम्मच कुलत्थ ( बाकुले ) दिये और भगवान ने उसी से चार माह की तपस्या का पारणा किया ।" देव दुन्दुभि बजी, पंच दिव्यवृष्टि हुई, किंतु इधर जीर्ण श्रेष्ठी की प्रतीक्षा, प्रतीक्षा ही रही, वह भावना के अत्यन्त उच्च व निर्मल शिखर पर पहुँच रहा था। कहते हैं यदि दो घड़ी देवदुन्दुभि नहीं सुन पाता तो केवलज्ञान हो जाता । वर्षावास पूर्णकर भगवान वहाँ से सुसुमररार पधारे। शक्रेन्द्र के वज्र से भयभीत हुआ चमरेन्द्र भगवान के चरणारविन्दों में आया और शरण ग्रहण कर मुक्त हुआ । इसका विस्तृत वर्णन भगवती सूत्र में भगवान ने स्वयं श्रीमुख से किया है । " जो पीछे दस आश्चर्य प्रकरण में कर चुके हैं। 209 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामना काल : थोर अभिय १८१ वहाँ से भोगपुर, नन्दीग्राम और मेढियग्राम पधारे। वहां ग्वालों ने उपसर्ग दिया । ३०९ • घोर अभिग्रह ग्राम से भगवान कौशाम्बी पधारे और पौष - कृष्णा प्रतिपदा के दिन एक घोर अभिग्रह ग्रहण किया "अविवाहित कुलीन राजकन्या हो, दासी बनकर रह रही हो; उसके हाथों में हथकड़ियाँ और पैरों में बेडियाँ हो, सिर मुँड़ा हुआ हो, तीन दिन की उपवासी हो, पके हुए उडट के बाकुले सूप के एक कौने में लेकर भिक्षा का समय व्यतीत होने के पश्चात् जो अपलक प्रतीक्षा कर रही हो, गृहद्वार के बीच बैठो हो, एक पैर बाहर, एक भीतर हो, आँखों में आँसू हो, ऐसी राजकन्या से भिक्षा प्राप्त होगी तो लूँगा अन्यथा नहीं लूँगा । ३१० कुछ इस प्रकार कठोरतम प्रतिज्ञा को स्वीकार करके महावीर प्रतिदिन भिक्षा के लिए कौशाम्बी मे पर्यटन करते । उच्च अट्टालिकाओं से लेकर गरीबों की झोंप ड़ियों तक पधारते । भावुक भक्त भिक्षा देने के लिए लपकते, पर, भगवान् बिना लिए उलटे पैरों लौट जाते । जन-जन के अन्तर्मानस में एक प्रश्न कचोट रहा था कि इन्हें क्या चाहिए । अमात्या नन्दा के यहाँ से जब बिना कुछ लिए लौटे तो उसका मन खिन्न हो गया । वह जल रहित मौन की तरह छटपटाने लगी। अपने भाग्य को भर्त्सना करने लगी । परिचारिकाओं ने कहा- आप इतनी क्यों घबराती हैं। देवार्य तो आज ही नहीं चार-चार मास से बिना कुछ लिए ही इसी तरह लौट जाते हैं । जब उसने यह बात सुनी तो वह और अधिक चिन्तित हो गई । उसने अमात्य सुगुप्त से नम्र निवेदन किया कि "आप कैसे प्रधान मंत्री है, कि चार मास पूर्ण हो गये हैं, भगवान् श्री महावीर को भिक्षा उपलब्ध नहीं हो रही है। उनका क्या अभिग्रह है, पता नहीं लगा पाये हैं । यह बुद्धिमानी फिर क्या काम आयेगी । " अमात्य को अपनी त्रुटि का अनुभव हुआ । शीघ्र ही अन्वेषणा का आश्वासन दिया । प्रस्तुत संलाप विजया प्रतिहारी ने सुन लिया, उसने महारानी Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ मृगावती से निवेदन किया और मृगावती ने मम्राट् शतानीक से 13: सम्राट और सुगुप्त नामक अमात्य ने अत्यधिक प्रयास किया, तब राजा ने प्रजा को भो नियमोपनियम का परिचय कराकर प्रभु का अभिग्रह पूर्ण करने की सूचना दी, परन्तु भगवान् का अभिग्रह पूर्ण नहीं हुआ। पांच मास और पच्चीस दिन व्यतीत हो जाने पर भी उनको मुख मुद्रा उसी प्रकार तेजोदीप्त थी। एक दिन अपने नियमानुसार कौशाम्बी में परिभ्रमण करते हुए भगवान् धन्नाश्रेष्ठी के द्वार पर पहुँचे । राजकुमारी चन्दना सूप में उड़द के बाकुले लिए हए तीन दिन की भूखी-प्यासी द्वार के बीच वहीं पिता के आगमन की प्रतीक्षा कर रही थी। दूर से ही भगवान् महावीर को आते देखकर उसका मन-मयूर नाच उठा। हृदय कमल खिल उठा । हथकड़ियाँ और बेड़ियाँ झनझना उठी। वह अपलक दृष्टि मे प्रभु को निहार रही थी कि भगवान् आए और जैसे कुछ देखकर बिना कुछ लिए हो लौटने लगे। यह देख उसकी आँखें छलछला आई। गला रुध गया, हृदय भर गया। अवरुद्ध कंठ से ही उसने पुकारा"प्रभो ! इस अभागिनी से क्या अपराध हो गया है ?" बिना कुछ लिए यों ही लोटे गए ? आँखों से आँसू ढुलकते हुए देखकर भगवान् पुनः लौटे और चन्दना के आगे करपात्र फैला दिया। चन्दना ने भक्ति भावना से गद्गद् होकर उड़द के बाकुले प्रदान किये। भीष्म प्रतिज्ञा पूर्ण हुई । १२ आकाश मे देवदुन्दुभि बजी, पंचदिव्य प्रगट हुए, चन्दना का रूप सौन्दर्य पहले से सौ गुना चमक उठा। भगवान् श्री महावीर वहाँ से प्रस्थान कर सुमगल, सुच्छेत्ता, पालक, प्रभृति क्षेत्रों को पावन करते हुए चम्पानगरी पधारे और चातुर्मासिक तप मे आत्मा को भावित करते हुए स्वातिदत्त ब्राह्मण की यज्ञशाला में बारहवाँ वर्षावास व्यतीत किया।३११ __भगवान् के तपःपूत जीवन मे प्रभावित होकर पूर्णभद्र और माणिभद्र नाम के दो यक्ष सेवा करने के लिए आते । जिसे निहार कर स्वातिदत्त को भी यह दृढ़ विश्वास हो गया कि यह देवार्य अवश्य ही कोई विशिष्ट ज्ञानी है। उसने भगवान् श्री महावीर से जिज्ञामा की-आत्मा क्या है ? Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना काल : कामों में शलाका १८३ प्रभु ने समाधान दिया- "जो मै' शब्द का वाच्यार्थ है । वही आत्मा है । " स्वातिदन ने पुन जिज्ञासा की - आत्मा का स्वरूप और लक्षण क्या है ? प्रभु ने समाधान दिया- 'वह अत्यन्त सूक्ष्म और रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि से रहित है, तथा चेतना गुण से युक्त है ।' प्रश्न उत्पन्न हुआ - "सूक्ष्म क्या है ?" उत्तर दिया- "जो इन्द्रियों से जाना पहचाना न जाय ।" पुन: जिज्ञासा प्रस्तुत हुई कि क्या आत्मा को शब्द, रुप, गंध और पवन के सदृश सूक्ष्म समझा जाय । प्रभु ने स्पष्टीकरण किया “नही, ये इन्द्रिय-ग्राह्य हैं । श्रोत्र के द्वारा शब्द, नेत्र के द्वारा रूप, घ्राण के द्वारा गंध और स्पर्श के द्वारा पवन ग्राह्य हैं, पर जो इन्द्रिय ग्राह्य नहीं हो वह सूक्ष्म है ।" प्रश्न- क्या ज्ञान का नाम ही आत्मा है ? उत्तर- ज्ञान आत्मा का असाधारण गुण है, ज्ञान का आधार आत्मा - ज्ञानी है | इस प्रकार की जिज्ञासाओ के समाधान से उसका मन अत्यधिक आह्लादित था । ३१४ • कानों में शलाका वर्षावास पूर्ण होने पर भगवान् जभिय ग्राम 'मिढिय ग्राम' होते हुए 'छम्माणि' पधारे और गाँव के बाहर ध्यान मुद्रा मे अवस्थित हुए । सान्ध्यवेला मे एक ग्वाला बैलों को लेकर वहाँ आया। बैलों को महावीर के पास रखकर वह गाँव में कार्य हेतु गया। बैल चरते चरते आसपास की झाड़ियों में छिप गए । ग्वाला लौटकर आया, बैल दिखाई नही दिए तो महावीर से पूछा भगवान् मौन थे । क्रुद्ध होकर उसने भगवान् महावीर के कानों में काँसे की तीक्ष्ण शलाकाएँ डाल दीं और उन शलाकाओं को कोई न देखले अत. उनका बाह्य भाग छेद दिया । भगवान् को अत्यधिक वेदना हो रही थी तथापि वे शान्त एवं प्रसन्न थे। उनके अन्तर्मानस में किञ्चित् भी खिन्नता नहीं थी । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ वे चिन्तन कर रहे थे कि त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में हंसते हुए मैंने जो शय्यापालक के कानों में गर्म शीशा उडेलवाया था उसी घोर कर्म का यह प्रतिफल मुझे प्राप्त हुआ है। वहाँ से विहार कर भगवान् मध्यमपावा पधारे। भिक्षा के लिए परिभ्रमण करते हुए सिद्धार्थ श्रेष्ठी के घर पर पहुँचे। उस समय सिद्धार्थ श्रेष्ठी वैद्य-प्रवर खरक से वार्तालाप कर रहा था । प्रतिभा सम्पन्न वैद्य ने सर्व लक्षण सम्पन्न महावीर के सुन्दर व सुडौल तन को देखकर कहा कि इनके "शरीर में शल्य है । उसे निकालना हमारा कर्तव्य है।" वैद्य और श्रेष्ठो के द्वारा अभ्यर्थना करने पर भी भगवान् वहाँ रुके नहीं। वे वहाँ से चल दिये और गाँव के बाहर आकर ध्यानस्थ हो गए। खरक वैद्य और श्रेष्ठी औषधि आदि सामग्री लेकर भगवान् को देखतेदेखते उद्यान में गये। वहाँ भगवान ध्यानस्थ थे। उन्होंने कानों में से शलाकाएँ निकालने के पूर्व भगवान् के शरीर का तेल से मर्दन किया और सन्डासी से पकड़कर शलाकाएँ निकालीं। कानों से रक्त की धाराएँ प्रवाहित हो गई। कहा जाता है कि उस अतीव भयंकर वेदना से भगवान् के मुह से एक चीत्कार निकल पड़ी जिससे सारा उद्यान व देवकुल संभ्रमित हो गया। वैद्य ने शीघ्र ही संरोहण औषधि से रक्त को बन्द कर दिया और घाव पर लगा दी। प्रभु को नमन व क्षमायाचना कर वैद्य और श्रेष्ठी अपने स्थान पर चले आये । ३१ इस प्रकार भगवान् को साधना काल में अनेक रोम-हर्षक कष्टों का सामना करना पड़ा। ताड़ना, तर्जना, अपमान और उत्पीडन ने प्रायः पद-पद पर प्रभु की कठोर परीक्षा ली। उन सभी उपसर्गों को तीन भागों में विभक्त करें तो जघन्य उपसर्गों में कूटपूतना का उपसर्ग महान् था। मध्यम उपसर्गों में संगमक का कालचक्र उपसर्ग विशिष्ट था और उत्कृष्ट उपसर्गों में कर्णों से शलाकाए निकालना अत्यन्त उत्कृष्ट था । १६ आश्चर्य की बात है कि भगवान् का पहला उपसर्ग भी कर्मार ग्राम में एक ग्वाले से प्रारम्भ हुआ था, यह अन्तिम उपसर्ग भी एक ग्वाले के द्वारा उपस्थित किया गया। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामना काल: १८४ मूल : समणे भगवं महावीरे साइरेगाइ दुवालस वासाई निच्चं वोसहकाए चियत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पज्जति, तं जहा-दिव्वा वा, माणुस्सा वा, तिरिक्खजोणिया वा अणुलोमा वा पडिलोमा वा ते उप्पन्ने सम्म सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेइ ॥११६॥ __अर्थ - श्रमण भगवान् महावोर दीक्षा स्वीकार करने के पश्चात् बारह वर्ष से कुछ अधिक समय तक माधनाकाल में शरीर की ओर से विल्कुल उदासीन रहे । उतने समय तक उन्होंने शरीर की ओर तनिक मात्र भी ध्यान नहीं दिया, शरीर को त्याग दिया हो इस प्रकार रहे। साधना काल में देव, मनुष्य और तिर्यच सम्बन्धी जो अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्ग आते उनको निर्भय होकर सम्यक् प्रकार से सहन करते; क्रोध रहित, बिना किसी की भी अपेक्षा रखे, मन को स्थिर कर सहन करते । मल : तए णं समणे भगवं महावीरे अणगारे जाए इरियासमिए, भासासमिए, एसणासमिए आयाणभंडमत्त निक्खेवणासमिए उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपारिद्वावणियासमिए मणसमिए, वइसमिए कायसमिए मणगुत्ते वयगुत्ते कायगुत्ते गुत्ते गुत्तिदिए गुत्तबंभयारी अकोहे अमाणे अमाए अलोभे संते पसंते उवसंते परिनिव्वुडे अणासवे असमे अकिंचणे छिन्नगंथे निरुवलेवे, कंसपाई इव मुक्कतोये, संखो इव निरंजणे, जीवो इव अप्पडिहयगइ, गगणं पिव निरावलवणे, वायुरिव अप्पडिबद्धे, सारयसलिलं व सुद्धहियए, पुक्खरपत्त व निरुवलेवे, कुम्मो इव गुत्तिदिए खग्गिविसाणं व एगजाए, विहग इव विप्पमुक्के, भारुडपक्खी इव अप्पमत्ते, कुंजरो इव सोडीरे, वसभो इव जायथामे, सीहो Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ इव दुद्धरिसे, मंदरो इव अप्पकंपे, सागरो इव गंभीरे; चंदो इव सोमलेसे, सूरो इव दित्ततेए जच्चकणगं व जायसवे, वसुंधरा इव सव्वफासविसहे, सुहृय हुयासणो इव तेयसा जलते ॥११७॥ अर्थ-उसके पश्चात् श्रमण भगवान महावीर अनगार हुए। ईर्यासमिति भाषा समिति, एषणा समिति, आदानभाँडमात्रनिक्षेपणा समिति, उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपरिस्थापनिका समिति, मन समिति, वचन समिति, काय समिति, मनगुप्ति, वतन गुप्ति, काय गुप्ति, गुप्तेन्द्रिय, गुप्त ब्रह्मचारी, क्रोध, मान, माया और लोभ से रहित हुए । शान्त, उपशान्त, और सभी प्रकार के संताप से मुक्त हुए । वे आश्रव रहित, ममता रहित, परिग्रह रहित, अकिंचन निर्ग्रन्थ हुए । कांस्य पात्र की तरह निर्लेप हुए। जैसे शख पर किसी भी प्रकार के रंग का असर नहीं होता वैसे ही भगवान् पर राग-द्वेष के रंग का असर नहीं होता था। जीव की तरह अप्रतिहत गति वाले हुए। गगन की तरह आलंबन रहित हुए, वायु की तरह अप्रतिबद्ध विहारी हुए । शरदऋतु के पानी की तरह उनका हृदय निर्मल हुआ। कमलपत्र की तरह निर्लेप हुए । कूर्म की तरह गुप्तेन्द्रिय हुए। महावराह के मुंह पर जैसे एक ही सींग होता है, वैसे ही भगवान् एकाकी हुए । पक्षी की तरह विप्रमुक्त हुए । भारंडपक्षी की तरह अप्रमत्त हुए, हाथी की तरह शूर हुए, बैल की तरह पराक्रमी हुए, सिंह की तरह विजेता हुए, सुमेरु पर्वत की तरह अडिग, सुस्थिर हुए, सागर की तरह गंभीर, चन्द्र की तरह सौम्य, सूर्य को तरह तेजस्वी, स्वर्ण की तरह कान्तिमान पृथ्वी की तरह क्षमाशील और अग्नि की तरह जाज्वल्यमान तेजस्वी हुए । मल: एतेसिं पदाणं इमातो दुन्नि संघयणगाहाओःकसे संखे जीवे, गगणे वायू य सरयसलिले य । पुक्खरपत्ते कुम्मे, विहगे खग्गे य भारंडे ॥१॥ कुंजर वसभे सीहे, णगराया चेव सागरमखोभे । चंदे सूरे कणगे, वसुंधरा चेव हूयवहे ॥२॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना काल: १४ नस्थि णं तस्स भगवंतस्स कथइ पडिबंधो भवति । से य पडिबंधे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-दव्वओ खेत्तओ कालओ भावओ। दवओ णं सच्चित्ताचित्तमीसिएसु दव्वेसु । खेत्तओ णं गामे वा नगरे वा अरण्णे वा खित्ते वा खले वा घरे वा अंगणे वा णहे वा । कालओ णं समए वा आवलियाए वा आणापाणुए वा थोवे वा खणे वा लवे वा मुहुत्ते वा अहोरत्ते वा पक्खे वा मासे वा उऊ वा अयणे वा संवच्छरे वा अन्नयरे वा दीहकाल संजोगे वा । भावओ णं कोहे वा माणेवा मायाए वा लोभे वा भये वा हासे वा पेज्जे वा दोसे वा कलहे वा अब्भक्खाणे वा पेसुन्ने वा परपरिवाए वा अरतिरती वा मायामोसे वा मिच्छादसणसल्ले वा। (ग्रं० ६००) तस्स णं भगवंतस्स नो एवं भवइ ॥११८॥ अर्थ-इन पदों की दो संग्रह गाथाएं हैं:-कांस्य वर्तन, शंख, जोव, आकाश, वायु, शरद् ऋतु का पानी, कमल पत्र, कूर्म, पक्षी, महावराह, भारण्ड पक्षी, हस्ती, वृषभ सिंह. पर्वतराज सुमेरु, सागर, चन्द्र, सूर्य, सुवर्ण पृथ्वी, और अग्नि । उन भगवान् को कही पर भी प्रतिबन्ध नहीं था, वे अप्रतिबध विहारी थे। प्रतिबंध चार प्रकार का होता है-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से । द्रव्य से–सचित्त, अचित्त और मिश्र । क्षेत्र से-गाव, नगर, अरण्य, खेत, खलिहान. गृह, आंगन और आकाश । काल से-समय, आवलिका, आन प्राण, स्तोक, क्षण, लव, मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, महिना ऋतु, अयन, वर्ष, अथवा दूसरा कोई भी दीर्घ काल का संयोग, ऐसा किसी भी प्रकार का सूक्ष्म या स्थूल, लघु या दीर्घकाल का बंधन नहीं होता । भाव से-क्रोध मान, माया, लोभ, भय, हास्य, राग द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, अरतिरती, माया मृषावाद मिथ्यादर्शन शल्य । वे इन सभी प्रकार के प्रति बन्धनों से मुक्त हुए । मल: से णं भगवं वासावासवज्जं अट्ठ गिम्हहेमंतिए मासे गामे Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्य सूत्र १०४ घ एगराईए नगरे पंचराईए वासीचंदणसमाणकप्पे समतिणमणिले - टू कंचणे समदुक्खसुहे इहलोग परलोग अपडिबद्धे जीवियमरणे निरवकंखे संसारपारगामी कम्मसंग निग्वायणट्ठाए अब्भुट्ठिए एवं चणं विहरइ ॥ ११६ ॥ अर्थ - भगवान् वर्षावास के समय के अतिरिक्त ग्रीष्म और हेमन्त ऋतु में आठ मास तक विचरण करते थे। गांव में एक रात्रि और नगर में पांच रात्रि से अधिक नहीं रहते थे । बसूना और चन्दन के स्पर्श में भी समान संकल्प वाले, तृण एवं मणि में लोष्ट और सुवर्ण इन सभी के प्रति समान वृत्ति वाले, दुःख और सुख को एक भाव से सहन करने वाले, इहलोक और परलोक के प्रतिबंध से रहित, जीवन और मरण की आकांक्षा से मुक्त हो संसार को पार करने वाले, कर्म और संग को नाश करने वाले सम्यक् प्रकार से उद्यमवंत बने, तत्पर हुए इस प्रकार विहार करते हैं । w विवेचन - उपर्युक्त चार सूत्रों में भगवान महावीर के साधक जीवन At afte मनः स्थिति का सुन्दर चित्र उपस्थित किया गया हैं । दीक्षा ग्रहण करते ही उन्होंने वज्ज्र संकल्प किया- कि भविष्य में मुझं जो भी घोरातिघोर उपसर्ग उपस्थित होंगे, उन्हें अविचल धैर्य एवं मनोबल के साथ विजय करूँगाव संकल्प ही साधक जीवन का विजय संकल्प है । हाथी, सिंह, वृषभ, सुमेरु एवं पृथ्वी की उपमा के द्वारा उनके अनन्त पराक्रम एव मनोबल का परिचय कराया गया है तथा शख, शरद सलिल कमल पत्र, महावराह, वायु आदि की उपमा से भगवान की आंतरिक पवित्रता, निःसंगता तथा अप्रतिबद्धता का दिग्दर्शन हुआ है । वस्तुतः उनका मनोबल एवं जीवन की उज्ज्वलता तो अनुपमेय थी । श्रमण भगवान् महावीर पक्के घुमक्कड़ थे तक स्थिर होकर रहना उन्हें पसन्द नहीं था । के लिए चार मास तक एक स्थान पर रुकते थे हुए साधना करते थे । भगवान् को साधना काल में । एक स्थान पर दीर्घकाल वर्षावास में जीवों की रक्षा और आठ मास तक घूमते अनेक उपसर्ग आये । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना काल : कामों में झलाका १८५ परन्तु भगवान् उपसर्गों में सर्वदा शान्त रहे, कभी भी उन्होंने रोष और द्वेष नहीं किया, विरोधियों के प्रति भी उनके हृदय में स्नेह का सागर उमड़ता रहा । वर्षा में, सर्दी में, धूप में, छाया में, आंधी और तूफानों में भी उनका साधना-दीप जगमगाता रहा । देव-दानव मानव और पशुओं के द्वारा भीषण कष्ट देने पर भी अदीनभाव से, अव्यथित मन से, अम्लान चित्त से, मन वचन और काया को वश में रखते हुए सब कुछ सहन किया। वे वीर सेनानी की भाँति निरन्तर आगे बढ़ते रहे, कभी पीछे कदम नहीं रखा । १७ नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु का मन्तव्य है कि अन्य तीर्थंकरों की अपेक्षा महावीर का तपः कर्म अधिक उम्र था । 'जैसे समुद्रों में स्वयंभूरमण श्रेष्ठ है, रसों में इक्षुरस श्रेष्ठ है, उसी प्रकार तप उपधान में मुनि वर्धमान जयवन्त श्रेष्ठ हैं । '३१८ 1316 भगवान ने बारह वर्ष और तेरह पक्ष की लम्बी अवधि में केवल तीन मौ उनपचास दिन आहार ग्रहण किया। शेष दिन रहे । ३१९ निर्जल और निराहार संक्षेप में भगवान का छद्मस्थकाल का तप इस एक छ: मासी तप, एक पाँच दिन न्यून छ मासी नौ चातुर्मासिक दो त्रिमासिक दो सार्धं द्विमासिक छह द्विमासिक दो सार्धं मासिक बारह मासिक बहत्तर पाक्षिक एक भद्र प्रतिमा, (दो दिन) एक महाभद्र प्रतिमा ( चार दिन ) एक सर्वतोभद्र प्रतिमा ( दस दिन ) 320 प्रकार है- ' Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ दो सौ उनतीस छटुभक्त बारह अष्टमभक्त तीन सौ उन पच्चास दिन पारणे के । पर सूच एक दिन दीक्षा का । आचारांग के अनुसार दशमभक्त आदि तपस्याएँ भी भगवान ने को थी । ३२१ केवल ज्ञानोत्पत्ति मूल : तस्स णं भगवंतस्स अणुत्तरेणं नाणेणं अणुत्तरेणं दंसणेणं अणुत्तरेणं चरितणं अणुत्तरेणं आलएणं अणुत्तरेणं विहारेणं अणुत्तरेणं वीरिएणं अणुत्तरेणं अज्जवेणं अणुत्तरेणं मद्दवेणं अणुत्तरेणं लाघवेणं अणुत्तराए खंतीए अणुत्तराए मुत्तीए अणुत्तराए गुत्तीए अणुत्तराए तुट्टीए अणुत्तरेणं सच्चसंजमतवसुचरिय सोवचइयफलपरिनिव्वाणमग्गेणं अप्पाणं भावेमाणस्स दुवालस संवच्छराई विइक्कंताई । तेरसमस्स संवच्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स जे से गिम्हाणं दोच्चे मासे चउत्थे पक्खे वइसाहसुद्धे तस्स णं वइसाहसुद्धस्स दसमी पक्खेणं पाईणगामिणीए छायाए पोरिसीए अभिनिवट्टाए पमाणपत्ताए सुव्वएणं दिवसेणं विजएणं मुहत्तेणं जंभियगामस्स नगरस्स बहिया उज्जुवा लियाए नईए तीरे वियावत्तस्स चेईयस्स अदूरसामंते सामागस्स गाहावइस्स कट्टकरणंसि सालापायवस्स अहे गोदोहियाए उक्कुडुयनि सिज्जाए आयावणाए आयावेमाणस्स छणं भत्तेणं अपाणएणं हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवा गएणं झाणंतरियाए वट्टमाणस्स अनंते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुन्न केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्न ॥१२०॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीकर काल : केवल मानोत्पत्ति १८७ अर्थ-इस प्रकार विचरण करते-करते अनुपम उत्तम ज्ञान, अनुपम दर्शन, अनुपम संयम, अनुपम निर्दोष वसति, अनुपम विहार, अनुपम वीर्य, अनुपम सरलता, अनुपम कोमलता, (नम्रता) अनुपम अपरिग्रह भाव, अनुपम क्षमा अनुपम अलोभ, अनुपम गुप्ति, अनुपम प्रसन्नता, अनुपम सन्य, संयम, तप आदि सद्गुणों का सम्यक् आचरण करने से, जिनसे कि निर्वाण का मार्ग अर्थात् सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान, और सम्यक्चारित्र पुष्ट बनते हैं तथा जिन सद्गुणों से मुक्ति का लाभ अत्यन्त सन्निकट आता है, उन सभी सद्गुणों से आत्मा को भावित करते हुए भगवान् को बारह वर्ष व्यतीत हो जाते है। तेरहवें वर्ष का मध्यभाग अर्थात् ग्रीष्म ऋतु का द्वितीय मास और चतुर्थ पक्ष चलता है, वह चतुर्थ पक्ष, अर्थात् वैसाख मास का शुक्ल पक्ष, उस वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन जब छाया पूर्व की ओर ढल रही थी, पिछली पौरसी पूर्ण हुई, जब सुव्रत नामक दिन था, विजय नामक मुहूर्त था, तब भगवान् जू भिकाग्राम के बाहर, ऋजुबालिका नदी के किनारे एक खण्डहर जैसे पुराने चैत्य २' से न अत्यधिक सन्निकट और न अत्यधिक दूर ही श्यामक नामक गृहपति के खेत में शाल वृक्ष के नीचे गोदोहिका आसन में अवस्थित थे। आतापना द्वारा तप कर रहे थे । छट्ठम तप था। जिस समय उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का योग आया, भगवान् ध्यानान्तरिका में मग्न थे। उस समय भगवान् को अन्तरहित उत्तमोत्तम, व्याघातरहित, आवरण रहित, समग्र व परिपूर्ण ऐसा केवलज्ञान और केवल दर्शन उत्पन्न हुआ। मल: तए णं से भगवं अरहा जाए जिणे केवली सव्वन्न सव्वदरिसी सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स परियायं जाणइ पासइ, सव्वलोए सव्वजीवाणं आगई गई ठिई चवणं उववायं तकं मणो माणसियं भुत्तं कडं पडिसेवियं आविकम्मं रहोकम्मं अरहाअरहस्सभागी तं तं कालं मणवयणकायजोगे वट्टमाणाणं सव्वजीवाणं सव्वभावे जाणमाणे पासमाणे विहरइ ॥१२१॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पसूत्र अर्थ - उसके पश्चात् भगवान् अर्हत् हुए, जिन केवली, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हुए । अब भगवान् देव मानव और असुर सहित लोक में सम्पूर्ण पर्याय जानते हैं, देखते हैं । सम्पूर्ण लोक में सभी जीवों के आगमन, गमन, स्थिति, च्यवन, उपघात, उनका मानसिक संकल्प, भोजन, प्रभृति सभी श्रेष्ठ और कनिष्ठ प्रवृत्तियाँ, चाहे वे ( आवीकम्म) प्रकट हैं, या ( रहोकम्म) अप्रकट हैंउन्हें भगवान् जानते है । भगवान् अर्हत् हुए अतः उनसे अब कोई भी रहस्य छिपा हुआ नहीं है, अरहस्य के भागी हुए उनके समीप करोड़ों देव सेवा में संलग्न रहने के कारण अब एकान्त में रहने की स्थिति नहीं रही । इस प्रकार अर्हत् हुए, भगवान् उस काल में मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियों में रहते हुए समग्र लोक के, समस्त जीवों के, सम्पूर्ण भावों को जानते हुए, देखते हुए विचरते हैं । विवेचन - मध्यम पावा से प्रस्थान कर भगवान् जंभियग्राम के निकट ऋजुबालिका सरिता के उत्तर तट पर साधना में लीन हुए । साधना में बारह वर्ष पूर्ण हो चुके थे । तेरहवाँ वर्ष चल रहा था । ३२२ वैशाख मास था, शुक्ला दशमी के दिन का अन्तिम प्रहर था । भगवान् सघन शालवृक्ष के नीचे गोदोहिका आसन से आतापना ले रहे थे । आत्म मंथन चरम सीमा पर पहुँच रहा था, आत्मा पर से घनघाति कर्मों का आवरण हटा। साधना सफल हुई, केवलज्ञान, केवलदर्शन प्रकट हुआ । भगवान् अब जिन और अरिहन्त बन गये ! सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो गये । १८५ ऐसा एक शाश्वत नियम है कि जिस स्थान पर केवलज्ञान की उपलब्धि होती है वहां पर तीर्थंकर एक मुहूर्त तक ठहरते हैं । भगवान् भी एक मुहूर्त तक वहाँ ठहरे । २३ भगवान् को केवलज्ञान उत्पन्न होते ही देवगण आए, समवसरण की रचना की । पर, देवता सर्वविरति के योग्य न होने के कारण भगवान् ने एक क्षण ही उपदेश दिया । वहां पर मनुष्य की उपस्थिति नहीं थी, अतः किसी ने भी विरतिरूप धर्म चारित्र-धर्म स्वीकार नहीं किया। इस प्रकार की घटना जैना गमों में एक आश्चर्य के रूप में उट्टङ्कित की गई है। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर काल : प्रथम देशना : गणधर दीक्षा इन्द्रभूति उन दिनों मध्यमपावापुरी में सोमिलार्य नामक धनाढ्य ब्राह्मण अपने यहां एक विराट् यज्ञ का आयोजन कर रहा था । उस यज्ञ में भाग लेने के लिए भारत के जाने-माने चोटी के क्रियाकाण्डी विद्वान् और आचार्य आए हुए थे । इनमें इंद्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति ये तीन विद्वान् चौदह विद्याओं के पारंगत थे । प्रत्येक के साथ पाँच-पाँच सौ शिष्य (छात्र) थे। तीनों ही गौतम गोत्रीय व मगध जनपद के गोवरग्राम के निवासी थे । 1 १८६ व्यक्त और सुधर्मा नाम के दो विद्वान् कोल्लाग - सन्निवेश से आये थे । व्यक्त भारद्वाज गोत्रीय थे और सुधर्मा अग्नि वैश्यायन । इनके साथ भी पाँचपाच सौ छात्र थे । उस यज्ञ में मंडित व मौर्यपुत्र- ये दो विद्वान मौर्य सन्निवेश से आए थे । ift वासिष्ठ गोत्र के एवं मौर्यपुत्र काश्यप गोत्र के थे। दोनों के साथ भी ३५०-३५० शिष्य थे । 1 अकम्पित, अचल भ्राता, मेतार्य और प्रभास नाम के चार अन्य विद्वान भी उस सभा में थे । जो क्रमशः मिथिला के गौतम गोत्रीय, कौशल के हारित गोत्रीय, तुरंगिक ( कौशाम्बी) के कौडिन्य गोत्रीय एवं राजगृह के कौडिन्य गोत्रीय थे । इन सभी विद्वानों के मन में एक- एक शंका भी छुपी हुई थी । ३२४ ये ग्यारह विद्वान् उन सभी विद्वानों मे प्रमुख थे । सर्वज्ञ सर्वदर्शी भगवान् ने देखा मध्यम पावापुरी का प्रस्तुत प्रसंग अपूर्व लाभ का कारण है । भारत के सूर्धन्य मनीषी विज्ञगण भी अज्ञानान्धकार में भटक रहे हैं, साथ ही दूसरों को भी अज्ञानान्धकार में ढकेल रहे हैं । ये बोध प्राप्त करेंगे तो हजारों प्राणियों को सत्य मार्ग पर चलने को प्रेरित कर सकते हैं। भगवान् महावीर जंभिय ग्राम से विहार कर मध्यम पावापुरी में पधारे । देवाताओं ने समवसरण की रचना की । विशाल मानव मेदिनी एकत्रित हुई । सुर और असुर सभी उपदेश सुनने के लिए उपस्थित हुए । महावीर की मेघगंभीर गर्जना सुनकर सभी के मन-मयूर नाच उठे । जन-जन की जिह्वा पर Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० कल्पसूत्र महावीर की सर्वज्ञता की चर्चा होने लगी । आकाशमार्ग से आते हुए देवगणो को देखकर पंडितों ने सोचा- 'हमारे यज्ञ से आकृष्ट हुए देवगण आरहे हैं ।' किन्तु जब उन्हें सीधे ही आगे निकल जाते देखा और पार्श्वस्थित भगवान् महावीर के समवशरण में उतरते देखा तो निराशा के साथ आश्चर्य हुआ । इन्द्रभूति को ज्ञात हुआ कि आज यहाँ पर सर्वज्ञ महावीर आये हैं, तो उन्हें अपने प्रकाण्ड पाण्डित्य पर आंच आती-सी लगी । सोचा- चलकर देखूं महावीर कैसा ज्ञानी है ? मेरे सामने वह कितने समय तक टिक सकता है । आज तक कोई भी विद्वान् मुझे पराजित नही कर सका है। भारतवर्ष के एक छोर से दूसरे छोर तक मेरी कीर्ति कौमुदी चमक रही है । आज महावीर से भी शास्त्रार्थ कर उन्हे पराजित करू" । सर्वशास्त्र पारंगत इन्द्रभूति अपने पाँच सौ शिष्यों के माथ शास्त्रार्थ के लिए प्रस्थित हुए । प्रभु की तेजोदीप्त मुखमुद्रा ने पहले ही क्षण इन्द्रभूति को प्रभावित कर दिया। महावीर ने ज्यों ही उन्हे 'गौतम ! ' कहकर सम्बोधित किया त्यों ही वह स्तम्भित से रह गए लोक व्यापिनी ख्याति के कारण ही इन्हें मेरे नाम का पता है । विचारा - "मेरी ।' पर जब तक ये मेरे अन्तर के संशयों का छेदन नही कर देते तब तक मैं इन्हें सर्वज्ञ नही मान सकता ।" गौतम के मानस में संकल्प की उधेड़बुन चल ही रही थी कि महावीर ने कहा- "गौतम ! चिरकाल से आत्मा के अस्तित्त्व के सम्बन्ध मे तुम शंकाशील हो ?" · इन्द्रभूति अपने अन्तर्लीन प्रश्न को सुनकर चकित व प्रमुदित हुए । उन्होंने कहा - "हाँ मुझे इस विषय में शंका है, क्योंकि "विज्ञानघनए वैतेभ्यो भूतेभ्य. समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति, न प्रेत्य संज्ञास्ति ।" प्रभृति श्रुति वाक्य चेतना की उत्पत्ति भी प्रस्तुत कथन का समर्थन करते हैं। भूत समुदाय से ही होती है और उसी में वह पुनः तिरोहित ( लीन) हो जाती है । अत परलोक का अभाव है । भूत समुदाय ही जब विज्ञानमय चैतन्य का प्रादुर्भाव होता है तो भूतसमुदाय के अतिरिक्त पुरुष का अस्तित्व कैसे संभव है ? Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोकर काल : प्रथम देशना : गणधर बीमा १६१ महावीर-इन्द्रभूति ! तुम्हें यह भी तो ज्ञात है न कि वेद से पुरुष के अस्तित्त्व की भी सिद्धि होती है ? इन्द्रभूति-"हाँ, “स वै अयमात्मा ज्ञानमयः" प्रभृति श्रुतिवाक्य आत्मा के अस्तित्व को प्रमाणित करते हैं। इन परस्पर विरोधी विधानों के कारण ही तो यह शंका उत्पन्न होती है कि किस वाक्य को प्रामाणिक माना जाय ।" ___महावीर-इन्द्रभूति ! जैसा तुम "विज्ञानधन" श्रुतिवाक्य का अर्थ ममझ रहे हो वस्तुतः वैसा अर्थ नहीं है। तुम विज्ञानघन का अर्थ भूत समुदायोत्पन्न 'चेतनापिण्ड' करते हो, किन्तु 'विज्ञानघन' का सही अर्थ विविध ज्ञानपर्यायों से हैं। आत्मा में प्रतिपल प्रतिक्षण-नित्य-नवीन ज्ञान पर्यायों का आविर्भाव होता है और पूर्वकालीन ज्ञानपर्यायों का विनाश होता है। जब एक पुरुष घट को देख रहा है, उसका चिन्तन और मनन कर रहा है उस समय आत्मा में घटविषयक ज्ञानोपयोग समुत्पन्न होता है। उसे हम घटविषयक ज्ञानपर्याय कहते हैं। जब वही पुरुष घट के बाद पट आदि अन्य पदार्थों को निहारता है तब उसे पट आदि का ज्ञान होता है और पूर्वकालीन घट ज्ञान पर्याय विनष्ट हो जाता है । विविध पदार्थ विषयक ज्ञान के पर्याय ही विज्ञानघन (विविध पर्यायों का पिण्ड) है, जिसकी उत्पत्ति भूतों के निमित्त से होती है। यहाँ भूत शब्द का अर्थ पृथिव्यादि पञ्च भूत नहीं, अपितु प्रमेय है-जड़ और चेतन आदि समस्त ज्ञेय पदार्थ हैं।" सभी ज्ञेय पदार्थ आत्मा में अपने स्व-स्वरूप से प्रतिभाषित होते हैं। जैसे घट-घट रूप में और पट-पट रूप में। ये विभिन्न प्रतिभास ही ज्ञानपर्याय है। भिन्न-भिन्न ज्ञयों के निमित्त से विज्ञानधन (ज्ञानपर्याय) उत्पन्न होते हैं और उस काल में वे पर्याय नष्ट हो जाते हैं। 'न प्रेत्यसंज्ञास्ति' वाक्य का अर्थ 'परलोक नहीं' ऐसा नहीं, अपितु पूर्वपर्याय की सत्ता नहीं, ऐसा है । जब पुरुष में उत्तर कालिक ज्ञान पर्याय समुत्पन्न होता है तब पूर्वकालीन ज्ञानपर्याय विनष्ट हो जाता है, क्योंकि किसी भी द्रव्य या गुण की उत्तरपर्याय के समय पूर्वपर्याय की सत्ता नहीं रह सकती। अतः 'न प्रेत्य संज्ञास्ति' कहा है। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ भगवान महावीर के तर्क प्रधान वेदवाक्यों के अर्थ-समन्वय को सुनकर गौतम के हृदय की गांठ खुल गई। मिथ्या ज्ञान का नशा उतर गया। मानसिक संदेह का निराकरण हो गया। वे श्रद्धा गद्गद् हो गये। प्रभु के चरणों में झुक गये । परम सत्य का दर्शन पाकर कृतार्थ हो गये। पाँच सौ शिष्यों के साथ भगवान् महावीर के शिष्य बन गये। -----अग्निभूति इन्द्रभूति की प्रवज्या के समाचार सुनकर अग्निभूति अपने शिष्यों सहित शास्त्रार्थ के लिए आए । अग्निभूति के मन पर "पुरुष एवेदं सर्व पद्भूतं यच्च भाव्यं उतामृतत्वस्येशानो यदन्ननातिरोहति यदेजति यन जति यद्रे यदु अन्तिके यदन्तरस्य सर्वस्य यदु सर्वस्यास्य बाह्यतः।२५ प्रभृति श्रुतिवाक्यों की छाप थी । वे पुरुषाऽद्वैतवादी थे। किन्तु "पुण्यः पुण्येन, पाप: पापेनः कर्मणा" आदि विरोधी वचनों से पुरुषाऽद्वैतवाद में शंकाशील थे। भगवान् महावीर ने वैदिक वाक्यों के समन्वय से द्वैत की सिद्धि कर उनके संशयों का उच्छेद किया, वे भी प्रतिबोध पाकर छात्र मंडली सहित प्रवजित हुए। -• वायुभूति अग्निभूति के प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् वायुभूति शास्त्रार्थ के लिए चले। उनके दार्शनिक विचारों का झुकाव "तज्जीवतच्छरीवादी" नास्तिकमत की ओर था । 'विज्ञानघन एवंतेभ्योः 'प्रभृति श्रुतिवाक्यों को वे अपने मत का समर्थक मानते थे। किन्तु दूसरी ओर "सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष ब्रह्मचर्येण नित्यं ज्योतिर्मयो हि शुद्धो यं पश्यन्ति धीरा यतयः संशतात्मानः"२६ प्रभृति उपनिषद् वाक्यों से देहातिरिक्त आत्मा की सिद्धि होती थी। यह द्विविध वेदवाणी वायुभूति की शंका का कारण थी। भगवान महावीर ने शरीरातिरिक्त आत्मतत्त्व का विश्लेषण कर शंकाओं का समाधान किया। पांच सौ शिष्यों के साथ उन्होंने भी प्रव्रज्या ग्रहण की। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर काल : प्रथम देशना : गणपर बोला -. आर्य व्यक्त उसके पश्चात् आर्य व्यक्त आये। 'स्वप्नोपमं ये सकलमित्येष ब्रह्मविधिरञ्जसा विज्ञयः' इत्यादि श्रुतिवाक्यों से वे ब्रह्मवाद की ओर झुके हुए थे। किन्तु 'खावापृथिवी' तथा 'पृथिवीदेवता, आपो देवता' इत्यादि वचनों से दृश्य जगत् को भी मिथ्या नहीं मान सकते थे। इस द्विविध वेदवाणी से वे भी शंकाशील थे। भगवान् महावीर ने उनकी प्रच्छन्न शंका का वेदपदों के समन्वय पूर्वक द्वैत की सिद्धि कर समाधान किया। समाधान होते ही वे भी छात्रगण महित प्रवजित हुए। ----. सुधर्मा उसके पश्चात् सुधर्मा आये । 'पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते पशवः पशुत्त्वम् २७ आदि श्रुति वचनों से सुधर्मा की विचारधारा जन्मान्तरसादृश्यवाद की ओर थी, किन्तु "शृगालो वै एष जायते यः सपुरीषो दह्यते" आदि वाक्यों से वे जन्मान्तर के वैसादृश्य का खण्डन नही कर सकते थे। इन विविध वेद वचनों से वे शंका-ग्रस्त थे। भगवान् महावीर ने प्रस्तुत वेदवाक्यों का सुन्दर समन्वय कर सुधर्मा की शंकाओं का निराकरण किया। समाधान होते ही वे भी प्रवजित --. मण्डित उसके पश्चात् मण्डित शास्त्रार्थ के लिए आये। वे सांख्यदर्शन के समर्थक थे । “स एष विगुणो विभुर्न बध्यते संसरति वा न मुच्यते मोचयति वा न वा एष बाह्यमभ्यंतर वा वेद" आदि श्रुतिवाक्य उनके मन्तव्य की पुष्टि के लिए थे। परन्तु इसके विपरीत 'न ह वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति अशरीरं वा वसन्तं प्रियाऽप्रिये न स्पृशतः ३२. इस श्रुतिवाक्य से वे बन्ध और मोक्ष के अस्तित्त्व के सम्बन्ध में भी विचार करने लगते थे। किसी निश्चय पर नहीं पहुँच पा रहे थे। भगवान ने वेद वाक्यों का समन्वय कर आत्मा का संसारित्व सिद्ध किया। समाधान होने पर साढ़े तीन सौ छात्रों के साथ प्रव्रज्या ली। -----. मौर्यपुत्र उसके पश्चात् मौर्यपुत्र आये । "को जानाति मायोपमान गीर्वाणानिन्द्र Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ कल्प सूत्र १३२९ यमवरुण कुबेरादीन्" इत्यादि श्रुति वाक्यों से देवताओं व स्वर्गलोक के अस्तित्व के सम्बन्ध में शङ्का थी और इधर "स एष यज्ञायुधी यजमानोऽञ्जसा स्वर्गलोकं गच्छति' व 'अपाम सोमममृता अभूम अगमन् । ज्योतिः अविदाम देवान्, कि नूनमस्मांस्तृणवदरातिः, किमु धृतिरमृतमयस्य' इन वेद वाक्यों से स्वर्ग और देवताओं का अस्तित्व सिद्ध होता था । भगवान् महावीर ने देवों का अस्तित्व सिद्ध कर मौर्यपुत्र के संशय का समाधान किया । समाधान होते ही तीन सौ पचास छात्रों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की। अकम्पित उसके पश्चात् अकम्पित आये । उन्हें " न ह वै प्रेत्य नरके नारका सन्ति" इस श्रुति वाक्य से नरक और नारकजीवों के अस्तित्व के सम्बन्ध मे शका हुई । पर "नारको वं एष जायते यः शूद्रान्नमश्नाति इस वाक्य से नारको का अस्तित्व भी सिद्ध होता था । इन द्विविध वेद वचनों से वह शंकाग्रस्त थे । भगवान् महावीर ने वेद वाक्यों का समन्वय कर उनकी शंका का समाधान किया। तीन सौ छात्रों के साथ उन्होने प्रव्रज्या ग्रहण की। अचलभ्राता 330 उसके पश्चात् अचल भ्राता आये, उन्हे " पुरुष एवेदं ग्नि सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यं उतामृतत्वस्येशानो' आदि श्रुतिवाक्यों से केवल पुरुष का अस्तित्व ही सिद्ध होता है, पुण्य पाप का अस्तित्व नहीं । किन्तु दूसरी तरफ 'पुण्यः पुण्येन, पापः पापेन कर्मणा' आदि वचन पुण्य पाप के अस्तित्व को भी सिद्ध करते है । इस सम्बन्ध में शंका थी । भगवान् ने पुण्य पाप का अस्तित्व मिद्धकर शंका का समाधान किया। तीन सौ छात्रों के साथ उन्होंने भी प्रव्रज्या ग्रहण की। तार्य उसके पश्चात् शास्त्रार्थ के लिए मैतार्य आए। उन्हें 'विज्ञानघन एवं तेभ्यो भूतेभ्य' आदि वेदवाणी से पुनर्जन्म के सम्बन्ध में शका थी । पर साथ ही 'नित्यं ज्योतिर्मर्य : ' आदि से आत्मा की ससिद्धि ओर 'शृगालो वं एष जायते' Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ तीर्थकर काल : तीर्थ स्थापना आदि से पुनर्जन्म ध्वनित होने से वे दृढ़ निश्चय नहीं कर पा रहे थे । भगवान् ने वेद वाक्यों का सही अर्थ समझाते हुए पुनर्जन्म की सत्ता प्रमाणित की । समाधान होते ही तीन सौ छात्रों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की। प्रभास 7339 इस 11332 उसके पश्चात् प्रभास आए । उन्हें आत्मा की मुक्ति के सम्बन्ध में संशय था । और उसे बल मिला था 'जरामयं वा एतत्सर्वं यदग्निहोत्रम् वाक्य से । किन्तु 'द्व े ब्राह्मणी वेदितव्ये परमपरं च तत्र परं सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म" इस वाक्य से आत्मा की बद्ध और मुक्त दोनों अवस्थाओं का प्रतिपादन होता था । जिससे आत्म-निर्वाण के सम्बन्ध में प्रभास शंकाशील थे । भगवान् महावीर ने उन वेद वाक्यों का सही अर्थ समझाया । समाधान होते ही वे भी अपने तीन सौ छात्रों के साथ प्रव्रजित हो गए । • तीर्थ स्थापना इस प्रकार मध्यमपावापुरी के एक ही प्रवचन में ४४११ वेदविज्ञ ब्राह्मणो ने भगवान् महावीर के पास श्रमण धर्म को स्वीकार किया । इन्द्रभूति आदि ग्यारह विद्वान् भगवान् के प्रमुख शिष्य बने और वे गण धर के महत्वपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित हुए । 333 आर्या चन्दनबाला, जिसका वर्णन पूर्व में किया जा चुका है, उस समय Satara में थी । देवगणों को गगन मार्ग से जाते हुए देखकर वह समझ गई कि भगवान् महावीर को केवलज्ञान प्राप्त हो गया है । उसके हृदय में दीक्षा ग्रहण करने की अत्युत्कट भावना उबुद्ध हुई । देवगण उसके दीक्षा लेने के दृढ़ सकल्प को देखकर वहाँ से भगवान् के समवसरण में लाये । भगवान् को वंदन कर दीक्षा की भावना अभिव्यक्त की । भगवान् ने दीक्षा देकर उसे साध्वी-समुदाय की प्रमुखा बनाई । ३३४ सहस्रों नर-नारियों ने भगवान् के त्याग वैराग्य से छलछलाते हुए प्रवन को सुनकर संयम धर्म स्वीकार किया, और जो उस कंटकाकीर्ण पथ पर Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ कल्प सूत्र बढ़ने में असमर्थ थे उन्होंने श्रमणोपासक और श्रमणोपासिका के व्रत ग्रहण किये । ये सभी संघ में सम्मिलित हुए। इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने वैशाख शुक्ला एकादशी के दिन मध्यम पावापुरी के महासेन नामक उद्यान में श्रमण-श्रमणी श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ-तीर्थ की संस्थापना की। तीर्थ की स्थापना करने से तीर्थकर नाम की भाव रूप से सार्थकता हुई। ३५ भगवान् ने 'उप्पन्नइ वा विगमेह वा धुवेइ वा' की त्रिपदी के माध्यम से द्वादशाङ्गी के गहन ज्ञान की कुञ्जी इन्द्रभूति प्रभृति गणधरों को सोंपी। गणधरों ने उस त्रिपदी के आधार पर द्वादशाङ्गी की रचना की। सात गणधरों की वाचना पृथक्-पृथक् थी, अकम्पित और अचल म्राता की एक तथा मेतार्य एवं प्रभास गणधर की एक थी। इसलिए गणधर ग्यारह होते भी गण नौ कहलाए।३३६ भगवान् ने वहाँ से फिर राजगृह आदि की ओर विहार किया। - पाश्वनाथ परम्परा का मिलन भगवान के प्रभावशाली प्रवचनों से प्रभावित होकर भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के श्रमणोपासक एव श्रमण भी भगवान् महावीर की ओर आकर्षित हुए । उत्तराध्ययन सूत्र मे पाश्र्वापत्य केशीकुमार और गणधर गौतम का बोधप्रद संवाद है। राजगृह में केशीकुमार श्रमण एवं गणधर गौतम का ऐतिहासिक संवाद और फिर उनका पारस्परिक समाधान एवं मिलन वस्तुतः निर्ग्रन्थ परम्परा में एक नया मोड़ था। केशीकुमार पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म के स्थान पर पंचमहावत रूप धर्म को स्वीकार करते हैं। 336 वाणिज्यग्राम में भगवान पार्श्वनाथ के अनुयायी गांगेय अनगार और भगवान महावीर के बीच महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर हुए । भगवान महावीर को सर्वज्ञ सर्वदर्शी समझ संघ में सम्मिलित हुए ।३३८ निर्ग्रन्थ उढक पेढालपुत्र का मौतम के साथ संवाद हुआ और वह भी महावीर के संघ में सम्मिलित हुए। 33' Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर काल : पाश्र्वनाथ परम्परा का मिलन स्थविरों ने कालस्यवेषि को महावीर के दर्शन का परिचय दिया, परिचय प्राप्त कर वे भी महावीर के शासन में आए ।३४० भगवान महावीर की परिषद् में अन्यतीथिक संन्यासी भी उपस्थित होते थे। आर्य स्कंदक'४', अम्बड , पुद्गल और शिव आदि परिवाजकों ने भगवान् से अनेक प्रश्न किये और समाधान पाकर भगवान के शिष्य बने । भगवान् महावीर गहन से गहन प्रश्नों को भी अनेकान्त दृष्टि से शीघ्र ही सुलझा देते थे। सोमिल ब्राह्मण, तुगियानगरी के श्रमणोपासक राजकुमारी जयन्ती, माकन्दी रोहम पिङ्गल आदि के प्रश्नों के उत्तर इस बात के स्पष्ट प्रतीक हैं। भगवान् के उपदेश से आठ राजाओं ने राज्यश्री को छोड़कर संयम ग्रहण किया था। (१) वीरांगक, (२) वीरयश, (३) संजय,३४२ (४) एणेयक (५) सेय., (६) शिव, (७) उदयन, (८) शंख काशीवर्धन ४ ।। मगधाधीश सम्राट श्रेणिक के अभयकुमार आदि अनेक पुत्रो ने भगवान् के पास संयम लिया ४४ । श्रेणिक की सुकाली, महाकाली, कृष्णा आदि दम रानियों ने भी प्रव्रज्या ली ।१४५ धन्ना४६ और शालिभद्र ५४७ जैसे धनकुबेरों ने भी संयम मार्ग स्वीकार किया। आर्द्र कुमार जैसे आर्येतर जाति के युवकों ने और हरिकेशी४. जैसे चाण्डाल जातीय मुमुक्षुओं ने और अर्जुनमालाकार ५० जैसे हत्यारों ने भी अपनी वृत्तियों में उत्क्रान्ति करके भगवान् के श्रमण संघ में स्थान पाया था। वैशाली गणराज्य के प्रमुख महाराजा चेटक महावीर के मुख्य श्रावक थे।"१ उनके छहों जामाता ५२ उदायन, दधिवाहन, शतानीक, चन्द्रप्रद्योत, नन्दिवर्धन तथा श्रेणिक और नौ मल्लवी और नौ लिच्छवी ये अठारह गणनरेश भी भगवान के परम भक्त थे। ३५ भगवान् ने स्त्री-पुरुष, ब्राह्मण, शूद्र, क्षत्रिय, वैश्य, आर्य-अनार्य आदि सभी को बिना किसी भेद भाव के अपने धर्म-तीर्थ में स्थान दिया और अखिल विश्व के सभी मुमुक्षुओं के लिए धर्मसाधना का मंगल द्वार खोल दिया। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ भगवान के वर्षावास मूल कल्पसूच : तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे श्रद्वियगामं नीसाए पढमं अंतरावासं वासावासं उवागए ! चंपं च पिट्टिचपं च निस्साए तओ अंतरावासे वासावासं उवागए । वेसालिं नगरिं वाणियगामं च निस्साए दुवालस अंतरावासे वासावासं उवागए । रायगिहं नगरं नालंदं च बाहरियं निस्साए चोइस अंतरावासे वासावासं उवागए । व म्मिहिलाए दो भद्दियाए एगं आलंभियाए एगं सावत्थीए एगं पणीयभूमिए एगं पावाए मज्झिमाए हत्थिवालस्स रन्नो रज्जुगसहाए अपच्छिमं अंतरावासं वासावासं उवागए। १२२ । अर्थ-उस काल उस समय श्रमण भगवान् महावीर ने अस्थिक ग्राम की निश्राय (आश्रय लेकर ) में वर्षावास किया । अर्थात् भगवान् का प्रथम वर्षावास अस्थिक ग्राम में हुआ । चम्पानगरी मे और पृष्ठचम्पा में भगवान् ने तीन चातुर्मास किये। वैशाली नगरी में और वाणिया ग्राम मे भगवान् बारह बार चातुर्मास्य करने के लिए आये थे । राजगृह मे और उसके बाहर नालंदापाड़ा में भगवान् चौदह बार चातुर्मास करने के लिए आये थे । मिथिला नगरी में भगवान् छह बार चातुर्मास करने के लिए आये थे । भद्दिया नगरी में दो बार श्रावस्ती मे एक बार प्रणीत भूमि अर्थात् वज्रभूमि नामक अनार्य देश में एक बार भगवान् वर्षावास करने के लिए पधारे थे और अन्तिम चातुर्मास करने के लिए भगवान् मध्यम पावा के राजा हस्तिपाल की रज्जुक सभा में पधारे । 34४ • चातुर्मास सूची श्रमण भगवान महावीर ने ३० वर्ष की आयु में सर्वविरतिरूप श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण की। और ७२ वर्ष की आयु में भौतिक देह का त्यागकर Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिनिर्वाण १२८ अनन्त अव्याबाध अक्षय सुखमय मोक्षगति प्राप्त की। इस ४२ वर्ष की अवधि में भगवान ने जहां जहां पर अपने जितने-जितने चातुर्मास व्यतीत किये उनकी, सूची इस प्रकार है : १ अस्थिकग्राम (प्रथम) १ २ चम्पानगरी ३ ३ वैशाली-वाणियाग्राम १२ ४ राजगृह-नालंदापाडा १४ ५ मिथिला नगरी ६ ६ भद्दिया नगरी २ ७ आलंभिका १ ८ श्रावस्ती नगरी १ ६ वज्रभूमि (अनार्य) १ १० पावापुरी (अन्तिम) १ इनमे बारह चातुर्मास छद्मस्थ काल में व्यतीत किये, एवं ३. चातुर्मास तीर्थकर काल मे । तीर्थंकर काल का प्रथम चातुर्मास राजगृह मे व्यतीत किया जहां पर मेघकुमार को दीक्षा हुई। ----. परिनिर्वाण मल : तत्थ णं जे से पावाए मज्झिमाए हथिवालस्स रत्नो रज्जुगसभाए अपच्छिमं अंतरावासं वासावासं उवागए. तस्स णं अंतरावासस्स जे से वासाणं चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे कत्तियबहुले तस्स णं कत्तियबहुलस्स पन्नरसीपक्खेणं जा सा चरिमा रयणिं तं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए विइक्कते समुज्जाए छिन्नजाइजरामरणवंधणे सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिनिव्वुडे सव्व Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दुक्खपहीणे चंदे नाम से दोच्चे संवच्छरे पीतिवद्धणे पक्खे सुव्वयग्गी नाम से दिवसे उवसमि त्ति पवच्चइ देवाणंदा नाम सा रयणी निरइ ति पवच्चह अच्चे लवे मुहत्ते पाण थोवे सिद्धे नागे करणे सव्वसिद्धे मुहुत्ते साइणा नक्खत्तेणं जोगमुवागरणं कालगए विक्कते जाव सव्वदुक्खप्पही ॥ १२३ ॥ २०० अर्थ - भगवान अन्तिम वर्षावास करने के लिए मध्यमपावा नगरी के राजा हस्तिपाल की रज्जुक सभा में रहे हुए थे, चातुर्मास का चतुर्थ मास और वर्षाऋतु का सातवां पक्ष चल रहा था अर्थात् कार्तिक कृष्णा अमावस्या आई । अन्तिम रात्रि का समय था । उस रात्रि को श्रमण भगवान महावीर काल- धर्म को प्राप्त हुए । संसार को त्यागकर चले गये । जन्म ग्रहण की परम्परा का उच्छेद कर चले गये । उनके जन्म, जरा और मरण के सभी बन्धन नष्ट हो गए । भगवान सिद्ध हुए, बुद्ध हुए, मुक्त हुए, सब दुःखों का अन्त कर परिनिर्वाण को प्राप्त हुए । 1 श्रमण भगवान महावीर जिस समय काल धर्म को प्राप्त हुए उस समय चन्द्र नामक द्वितीय संवत्सर चल रहा था, प्रीतिवर्धन नामक मास था । नन्दिवर्धन नामक पक्ष था । अग्गिवेश - ( अग्निवेश्म) नामक दिन था जिसका द्वितीय नाम 'उवसम' भी कहा जाता है । देवानदा नामक रात्रि थी जिसका द्वितीय नाम "निरइ" कहा जाता है । उस रात्रि को अर्थ नामक लव था, मुहूर्त नामक प्राण था, सिद्ध नामक स्तोक था, नाग नामक करण था, सर्वार्थ सिद्ध नामक मुहूर्त था, और बराबर स्वाति नक्षत्र का योग आया हुआ था, ऐसे समय में भगवान् काल धर्म को प्राप्त हुए, संसार छोड़कर चले गए। उनके सम्पूर्ण दुःख नष्ट हो गये । 344 ३५५ मूल : जं रयणि च णं समणे भगवं महावीरे कालगए जाव सव्वदुक्खप्पहीणे सा णं रयणी बहूहिं देवेहि य देवेहि य ओवय Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ माणेहि य उप्पयमाणेहि य उज्जोविया यावि होत्था॥१२४॥ जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए जाव सम्बदुक्खप्पहीणे सा णं रयणी बहूहिं देवेहि य देवीहि य ओवयमाणेहि य उप्पयमा. णेहि य उप्पिंजलगमाणभूया कहकहगभूया या वि होत्था ॥१२५॥ ___ अर्थ-जिस रात्रि में श्रमण भगवान महावीर कालधर्म को प्राप्त हुए, यावत् उनके सम्पूर्ण दुःख पूर्ण रूप से नष्ट हो गये, उस रात्रि में बहुत-से देव और देवियाँ नीचे आ रही थी और ऊपर जा रही थीं जिससे वह रात्रि खूब उद्योतमयी हो गयी थी ॥१२४।। जिस रात्रि में श्रमण भगवान महावीर कालधर्म को प्राप्त हुए, यावत् उनके सम्पूर्ण दुःख पूर्णरूप से नष्ट हो गये, उस रात्रि में बहुत-से देव व देवियां आ-जा रही थीं, जिससे अत्यधिक कोलाहल और शब्द हो रहा था। मूल: जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए जाव मव्वदुक्खप्पहीणे तं रयणिं च णं जेटठस्स गोयमस्स इंदभूइस्स अणगारस अंतेवासिस्स नायए पेज्जबंधणे वोच्छिन्ने अणंते अणुत्तरे जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने ॥१२६॥ __अर्थ-जिस रात्रि में श्रमण भगवान् महावीर कालधर्म को प्राप्त हुए, यावत् उनके सम्पूर्ण दु ख नष्ट हो गये, उस रात्रि में उनके पट्टधर शिष्य गौतमगोत्र के इन्द्रभूति अनगार का भगवान् महावीर से जो प्रेम बन्धन था, वह विच्छिन्न हो गया, और इन्द्रभूति अनगार को अन्त रहित उत्तमोत्तम यावत् केवलज्ञान व केवलदर्शन उत्पन्न हुआ। विवेचन-इन्द्रभूति गौतम भगवान महावीर के ग्यारह गणधरों में प्रमुख थे । वे प्रकाण्ड पण्डित, चौदह पूर्व के ज्ञाता, चतुर्ज्ञानी, सर्वाक्षर सन्निपाती, तेजोलब्धि के धारक और घोरतपस्वी थे।३५ आगम साहित्य का अधिकांश भाग Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ कल्प मौतम की ही जिज्ञासा का समाधान है। वे ही ज्ञान-गंगा के मूल उद्गम स्रोत कहे जा सकते हैं। भगवान महावीर के प्रति गौतम का अत्यधिक अनुराग था। एक बार वे अपने से लघु-श्रमणों को केवलज्ञान की उपलिब्ध होते देखकर चिन्तित हो उठे कि 'अभी तक मुझे केवलज्ञान क्यों नही हुआ?' इस पर भगवान् ने केवलज्ञान की अनुपलब्धि का कारण बताते हुए कहा- गौतम ! चिरकाल से तू मेरे स्नेह में बंधा हुआ है । चिरकाल सेतू मेरी प्रशंसा करता रहा है, सेवा करता रहा है, मेरे साथ चिरकाल से परिचय रखता रहा है, मेरा अनुसरण करनेवाला रहा है। अनेक देव और मनुष्य भव में हम साथ-साथ रहे हैं और यहाँ से आयु पूर्ण करके भी दोनों एक ही स्थान पर पहुँचेंगे।'३५७ प्रभु का समाधान पाकर गौतम अत्यधिक आह्लादित हुए । परिनिर्वाण के पूर्व भगवान ने गौतम को सन्निकटवर्ती ग्राम में देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध देने के लिए भेज दिया था । वे पुन: लौटकर महावीर के चरणों में पहुंचना चाहते थे, पर सन्ध्या हो जाने से वही रुक गये। रात्रि में भगवान के निर्वाण के समाचार को सुनकर गौतम भाव-विह्वल होकर विचारो के सागर में डुबकियाँ लगाने लगे-'हे प्रभो ! निर्वाण के दिन किम कारण से आपने मुझे दूर भेजा ! हे प्रभो । इतने समय तक मैं आपकी सेवा करता रहा, अन्त समय मे मुझे दर्शन से क्यों वंचित रखा ।''.... कुछ क्षण तक इस प्रकार भाव-प्रवाह में बहने के बाद विचारों का प्रवाह बदल गया । 'अरे, मै यह क्या सोच रहा हूं।' भगवान वीतराग थे। वे राग और द्वेष से मुक्त थे। मैं उन पर मोह रख रहा था, पर वे मोहमुक्त थे।” इस प्रकार विचार आते ही वे शुक्लध्यान ध्याते हुए घातिकर्मों को नष्ट करने लगे। अनुराग की कड़ी को तोड़ डाली और उसी रात के अन्त में केवलज्ञान केवलदर्शन के धारक बन गए। कार्तिक अमावस्या की मध्यरात्रि में भगवान महावीर का परिनिर्वाण हुआ और अन्तिम रात्रि में गौतमस्वामी ने भी चार कर्मों का क्षय करके केवल ज्ञान केवलदर्शन प्राप्त कर लिया। इसी कारण कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा 'गौतम Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिनिर्वाण २०३ प्रतिपदा' के नाम से विश्रुत है । इसी दिन अरुणोदय के प्रारम्भ से ही अभिनव वर्ष का आरम्भ होता है । ५८ उसके पश्चात् बारह वर्षों तक केवलज्ञानी गौतम भव्य प्राणियों को प्रतिबोध देते हुए विचरते हैं। गौतम को केवलज्ञान होने पर समग्र संघ के संचालन का नायकत्त्व आर्य सुधर्मा पर आया । ग्यारह गणधरों में से अग्निभूति आदि नव गणधर तो भगवान के सामने ही निर्वाण को प्राप्त हो चुके थे, अतः सुधर्मा ने ही गण का नेतृत्त्व किया । गौतम के मोक्ष पधारने पर आर्य सुधर्मा को केवलज्ञान हुआ, और आठ वर्ष तक केवली अवस्था में रहे। सुधर्मा को केवल ज्ञान होने पर आर्य जम्बूस्वामी ने संघ का संचालन किया ।३५९ मल : जं रयणि च णं समणे जाव सम्बदुक्खप्पहीणे तं रयणिं च णं नव मल्लई नव लिच्छई कासीकोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो अमावसाए पाराभोयं पोसहोववासं पट्ठवइंसु, गते से भावुज्जोए दव्वुज्जोवं करिस्सामो ॥१२७॥ अर्थ-जिस रात्रि मे श्रमण भगवान महावीर कालधर्म को प्राप्त हुए, यावत् उनके सम्पूर्ण दु.ख नष्ट हो गए, उस रात्रि में काशी देश के, मल्लवी वंशीय नौ गणराजा और कौशल देश के, लिच्छवी वंशीय दूसरे नौ गणराजाइस प्रकार अठारह गण राजा अमावस्या के दिन, आठ प्रहर का पौषधोपावास करके वहाँ रहे हुए थे, उन्होने यह विचार किया कि भावोद्योत अर्थात् ज्ञानरूपी प्रकाश चला गया है अतः अब हम द्रव्योद्योत करेगे।। विवेचन- कार्तिक कृष्णा अमावस्या की रात्रि में भगवान् महावीर मोक्ष पधारे । वह रात्रि देवो के आवागमन से प्रकाशमय होगई । अठारह गणराजाओं ने उस समय पौषधोपवास किया हुआ था, उन्होंने देखा ज्ञानरूपी वह दिव्य प्रकाश चला गया है, समस्त संसार अंधकाराच्छन्न हो गया है। इसलिए देवों ने द्रव्योद्योठ किया है। अब हम भगवान् महावीर के ज्ञान के प्रतीक के रूप में Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ प्रतिवर्ष इस दिन दीप जलाकर प्रकाश करेंगे।' उस दिन दीप जलाकर प्रकाश करने से दीपावली पर्व प्रारम्भ हुआ। ३६० भगवान के निर्वाण का दुःखद वृत्तान्त सुनकर भगवान के ज्येष्ठ म्राता महाराज नन्दिवर्धन शोक-विह्वल हो गए। उनके नेत्रों से आंसुओं की वेगवती धारा प्रवाहित होने लगी। मन खिन्न हो गया । बहिन सुदर्शना ने उनको अपने यहां पर बुलवाया और सान्त्वना दी। तभी से भैयादूज के रूप में यह पर्व स्मरण किया जाता है।' -. भस्मग्रह : शक्र को प्रार्थना मल: जं रयणिं च णं समणे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे तं रयणि च चणं खुदाए भासरासीमहग्गहे दोवाससहस्सटिठई समणस्स भगवओ महावीरस्स जम्मनक्खत्तं संकंते ॥१२८॥ अर्थ-जिस रात्रि में श्रमण भगवान महावीर कालधर्म को प्राप्त हुए, यावत् उनके सम्पूर्ण दु:ख नष्ट हो गये, उस रात्रि मे भगवान महावीर के जन्म नक्षत्र पर क्षुद्र कर स्वभाव का दो हजार वर्ष तक रहने वाला भस्मराशि नामक महाग्रह आया था। मूल : ___ जप्पभिई च णं से खुड्डाए भासरासी महग्गहे दो वाससहस्सटिई समणस्स भगवओ महावीरस्स जम्मनक्खत्तं संकंते तप्पभिई च णं समणाणं निग्गंथाणं निग्गंथीण य नो उदिए उदिए पूयासकारे पवत्तति ॥१२॥ अर्थ-जब से क्षुद्र क्रूर स्वभाव वाला, दो हजार वर्ष तक रहने वाला भस्म राशि नामक महाग्रह भगवान महावीर के जन्म नक्षत्र पर आया तब से Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल्मग्रह:शकी प्रार्थना २०५ श्रमण निम्रन्थ और निग्रंथनियों के सत्कार और सम्मान में उत्तरोत्तर वृद्धि नही होती है। विवेचन-कहा जाता है कि श्रमण भगवान महावीर के परिनिर्वाण का समय सन्निकट जानकर शकेन्द्र आए और हाय जोड़कर निवेदन किया-'हे नाथ ! आपके गर्भ, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान के समय में हस्तोतरा नक्षत्र था और इस समय उसमें भस्मक-ग्रह संक्रान्त होने वाला है। आप श्री के जन्म-नक्षत्र में संक्रान्त वह ग्रह दो हजार वर्ष तक आपके श्रमण-श्रमणियों को अभिवृद्धि को कम करता रहेगा। अत: कृपा कर भस्मक-ग्रह जब तक आपके जन्म-नक्षत्र से संक्रमण करे, तब तक आपश्री प्रतीक्षा करें, क्योंकि वह आपको विद्यमानता में संक्रमण कर जायेगा तो आपके प्रबल प्रभाव से स्वत: निष्फल हो जायेगा, अतः एक क्षण तक अपनी जीवन घड़ी को दीर्घ कर रखें जिससे इस दुष्ट ग्रह का उपशम हो जाए।३६२ ___ इन्द्र की अभ्यर्थना पर भगवान् ने कहा-हे इन्द्र ! तुम यह जानते हो कि आयु को एक क्षण भर भी न्यूनाधिक करने की शक्ति किसी में नही है। फिर भी तुम शासन प्रेम मे मुग्ध होकर इस प्रकार अनहोनी बात कह रहे हो? आगामी दुषमा काल के प्रभाव से तीर्थ को हानि पहुँचने वाली है। उसमें भावी के अनुसार यह भस्मक-ग्रह भी अपना फल दिखायेगा ।'६३ मुल: जया णं से खुड्डाए जाव जम्मनक्खत्ताओ वीतिकते भविस्सइ तया णं समणाणं निग्गंथाणं निग्गंथीण य उदिए उदिए पूयासकारे पवत्तिस्सति ॥१३०॥ ___ अर्थ-जब वह क्षुद्र क र स्वभाव वाला भस्म-राशि ग्रह भगवान के जन्म नक्षत्र से हट जायेगा तब श्रमण निर्ग्रन्थ व निर्ग्रन्थनियों का सत्कार सम्मान दिन प्रतिदिन अभिवृद्धि को प्राप्त होगा। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ मूल : जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए जाव सव्वदुक्खप्पहीणे तं रयणिं च णं कुथ अणुद्धरी नाम समुप्पन्ना, जा ठिया अचलमाणा छउमत्थाणं निग्गंथाणं निग्गंथीण य नो चक्खुफास हव्वमागच्छइ, जा अठिया चलमाणा छउमत्थाणं निग्गंथाणं निग्गंथीण य चक्खुफासं हव्वमागच्छइ, जं पासित्ता बहूहिं निग्गंथेहिं निग्गंथीहि य भत्ताई पच्चक्खायाई ॥१३१॥ अर्थ-जिस रात्रि को श्रमण भगवान् महावीर कालधर्म को प्राप्त हुए, यावत् उनके सम्पूर्ण दुःख नष्ट हो गये, उस रात्रि को बचाई न जा सके ऐसी कुन्थवा३६४ नामक सूक्ष्म जीवराशि उत्पन्न हो गई। यदि वे जीव स्थिर हों, हलन-चलन न करते हों तो छमस्थ निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थ नियों को दृष्टि गोचर नही होते थे। जब वे जीव चलते-फिरते तब छद्मस्थ निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थनियों को दिखलाई देते थे। इस प्रकार जीवों की उत्पत्ति को देखकर बहत से निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थनियो ने अनशन स्वीकार कर लिया था । मूल : से किमाहु भंते! अज्जप्पभिई दुराराहए संजमे भविस्सइ।१३२॥ अर्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! यह किस प्रकार हुआ ? अर्थात् जीवों को निहार कर जो निम्रन्थ और निर्ग्रन्थनियों ने अनशन किया, वह अनशन क्या सूचित करता है ? ... उत्तर-आज से सयम का पालन करना अत्यन्त कठिन होगा, वह अनशन यह सूचित करता है । -. भगवान की शिष्य-संपदा मल: तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवत्रो महावीरस्स Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ भगवान की शिष्य-संपदा इंदभूइपामोक्खाओ चोइस समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समण संपया होत्था ॥१३३।। समणस्स भगवओ महावीरस्स अज्जचंदणापामोक्खाओ छत्तीसं अज्जियासाहस्सीओ उक्कोसिया अज्जियासंपया होत्था ॥१३४॥ समणस्स भगवओ महावीरस्स संखसयगपामोक्खाणं समणोवासगाणं एगा सयसाहस्सी अउणट्टि च सहस्सा उक्कोसियासमणोवासयाणं संपया होत्था॥१३५॥ समणस्स भगवओ महावीरस्स सुलसारेवईपामोक्खाणं समणोवामियाणं तिण्णिसयसाहस्सीओ अट्ठारम य सहस्मा उक्कोसिया समणोवासियाणं संपया होत्था ॥१३६॥ समणस्स णं भगवओ महावीरस्स तिनि सया चोद्दसपुवीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं सबक्खरसन्निवाईणं जिणो विव अवितहं वागरमाणाणं उक्कोसिया चोदसपुब्बीणं संपया होत्था ॥१३७॥ समणस्म णं भगवओ महावीरस्स तेरम मया ओहिनाणीणं अतिसेसपत्ताणं उक्कोमिया ओहिनाणीणं संपया होत्था ॥१३८॥ समणस्म णं भगवओ महावीरस्स सत्त मया केवलनाणीणं मंभिन्नवरनाणदंसणधराणं उक्कोसिया केवलनाणिसंपया होत्था ॥१३॥ ममणस्स णं भगवओ महावीरस्स सत्त सया वेउब्बीणं अदेवाणं देविडिपत्ताणं उक्कोसिया वेउब्विसंपया होत्था ॥१४॥ समणस्स णं भगवओमहावीरस्स पंचसया विउलमईणं अढाइज्जेसु दीवेसु दोसु य समुद्देसु सण्णीणं पंचिंदियाणं पज्जत्तगाणं जीवाणं मणोगए भावे जाणमाणाणं उक्कोसिया विउलमईसंपया होत्था ॥१४१॥ समणस्स णं भगवओ महावीरस्स चत्तारि सया वाईणं सदेवमणुयासुराए परिसाए वाए अपराजियाणं उक्कोसिया वाइसंपया होत्था ॥१४२॥ समणस्स णं भगवओ महावीरस्स सत्त Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ कल्प सूत्र अंतेवासिसयाई सिद्धाइं जाव सव्वदुक्खप्पहीणाई, चउद्दस अज्जियासयाई सिद्धाई ॥१४३॥ समणस्स णं भगवओ महावीरस्स अट्ठ सया अणुत्तरोववाइयाणं गइकल्लाणाणं ठिइकल्लाणाणं आगमेसिभदाणं उक्कोसिया अणुत्तरोववाइयाणं संपया होत्था।१४४॥ ____ अर्थ-उस काल उस समय श्रमण भगवान् महावीर के इन्द्रभूति आदि चौदह हजार श्रमणों की उत्कृष्ट श्रमण सम्पदा थी ।।१३३॥श्रमण भगवान् महावीर की आर्याचन्दना आदि छत्तीस हजार आर्यिकाओं की उत्कृष्ट श्रमणी सम्पदा थी ॥१३४॥ श्रमण भगवान महावीर के शंख शतक आदि एक लाख उनसठ हजार श्रावकों की उत्कृष्ट श्रमणोपासक-सम्पदा थी ॥१३५।। श्रमण भगवान् महावीर की सुलसा रेवती आदि तीन लाख अठारह हजार श्रमणोपासिकाओं की उत्कृष्ट श्राविका सम्पदा थी, ॥१३६॥ श्रमण भगवान् महावीर की जिन नही तथापि जिन के समान, सर्वाक्षर सन्निपाती, 'जिन के समान सत्य-तथ्य का स्पष्टीकरण करने वाले, तीन सौ चतुर्दश पूर्वधरों की उत्कृष्ट सम्पदा थी ।।१३७॥ श्रमण भगवान् महावीर के विशेष प्रकार को लब्धिवाले तेरहसो अवधिज्ञानियों की उत्कृष्ट सम्पदा थी ॥१३८॥ श्रमण भगवान् महावीर की सम्पूर्ण उत्तम केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त ऐसे सात सौ केवलज्ञानियों की उत्कृष्ट सम्पदा थी ।।१३।। श्रमण भगवान महावीर की देव नही, किन्तु देवों की ऋद्धि को प्राप्त ऐसे सात सौ वैनियलब्धि वाले श्रमणों की उत्कृष्ट सम्पदा थी॥१४॥ श्रमण भगवान् महावीर की अढ़ाई द्वीप में, और दो समुद्रों में रहने वाले, मन वाले, पर्याप्त पंचेन्द्रिय प्राणियों के मन के भावों को जानने वाले, पांच सौ विपुलमति मन पर्यवज्ञानी श्रमणों की उत्कृष्ट सम्पदा थी ॥१४१॥ श्रमण भगवान महावीर की देव, मानव और असुरों वाली सभाओं में वाद करते हुए, पराजित न होवें, ऐसे चारसी वादियों की अर्थात् शास्त्रार्थ करने वालों की उत्कृष्ट सम्पदा थी।।१४२॥ श्रमण भगवान् महावीर के सात सौ शिष्य सिद्ध हुए, यावत् उनके संपूर्ण दुःख नष्ट हो गये । निर्वाण को प्राप्त हुए और श्रमण भगवान् महावीर की चौदह सौ शिष्याएँ सिद्ध हुई । निर्वाण को प्राप्त हुई ॥१४३॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगवान को शिष्य-संपदा २०६ श्रमण भगवान महावीर के भविष्य गति में कल्याण प्राप्त करने वाले, वर्तमान स्थिति में कल्याण अनुभव करने वाले, और भविष्य में भद्र प्राप्त करने वाले ऐसे आठ-आठ सौ अनुत्तरोपपातिक मुनियों की उत्कृष्ट सम्पदा थी। अर्थात् ऐसे आठ सौ श्रमण थे जो अनुत्तर विमानो में उत्पन्न होने वाले थे ॥१४४॥ मल: समणस्स णं भगवओ महावीरस्स दुविहा अंतकडभूमी होत्था, तं जहा-जुगंतकडभूमी य परियायंतकडभूमी य । जाव तच्चाओ पुरिसजुगाओ जुगंतकडभूमी, चउवासपरियाए अंतमकासी ॥१४॥ ___ अर्थ-श्रमण भगवान् महावीर के समय में मोक्ष प्राप्त करने वाले साधकों की दो प्रकार को भूमिका थी,-युगान्तकृत् भूमिका और पर्यायान्तकृत् भूमिका । युगान्तकृत् भमिका-अर्थात् जो साधक अनुक्रम से मुक्ति प्राप्त करें, जैसे प्रथम गुरु मुक्ति प्राप्त करे, उसके पश्चात् उसका शिष्य मुक्ति प्राप्त करें और उसके पश्चात् उसका प्रशिष्य मुक्ति प्राप्त करें। इस प्रकार जो अनुक्रम से मुक्ति प्राप्त की जाती है वह युगान्तकृत् भूमिका कहलाती है। पर्यायान्तकृत् भूमिका-अर्थात् भगवान् को केवलज्ञान होने के पश्चात् जो साधक मुक्ति प्राप्त करे, उनकी वह मोक्ष सम्बन्धी पर्यायान्तकृत् भूमिका कहलाती है।३६७ भगवान् से तीसरे पुरुष तक युगान्तकृत् भूमिका थी। अर्थात् प्रथम भगवान् मोक्ष गए, उनके पश्चात् उनके शिष्य मोक्ष गये, और उनके पश्चात् उनके प्रशिष्य जम्बूस्वामी मोक्ष गए । यह युगान्तकृत् भूमिका जम्बूस्वामी तक चली, और उसके पश्चात् बंद हो गई । भगवान् को केवलज्ञान होने के चार वर्ष के बाद उनके शिष्यों का मुक्ति गमन प्रारम्भ हुआ और वह जम्बूस्वामी तक चलता रहा। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० मल: तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे तीसं वासाइं अगारवासमझे वसित्ता, साइरेगाई दुवालस वासाइं छउमत्थपरियागं पाउणित्ता, देसूणाई तीसं वासाइं केवलिपरियागं पाउणित्ता, बायालीसं वासाइं सामनपरियायं पाउणित्ता, बाबत्तरि वासाइं सव्वाउयं पालइत्ता, खीणे वेयणिज्जाउयनामगोत्ते इमीसे ओसप्पिणीए दुसमसुसमाए समाए बहुवीइकताए तिहिं वासेहि अद्धनवमेहि य मासेहिं सेसएहिं पावाए मज्झिमाए हत्थिपालगस्स रन्नो रज्जुगसमाए एगे अबीए छ?णं भत्तेणं अपाणएणं साइणा नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं पच्चूसकालसमयंसि संपलियंकनिसन्न पणपन्न अज्झयणाई कल्लाणफलविवागाई पणपन्न अज्झयणाई पावफलविवागाइं छत्तीसं च अपुढवागरणाई वागरित्ता पधाणं नाम अज्झयणं विभावमाणे विभावमाणे कालगए वितिकते समुज्जाए छिन्नजाइजरामरणबंधणे सिद्ध बुद्धे मुत्ते अंतकडे परिनिव्वुडे सव्वदुक्खप्पहीणे ॥१४६॥ अर्थ-उस काल उस समय श्रमण भगवान महावीर तीस वर्ष तक गृहवास में रहकर, बारह वर्ष से भी अधिक समय तक छद्मस्थ श्रमण पर्याय में रहकर, उसके पश्चात् तीस वर्ष से कुछ कम समय तक केवलपर्याय को प्राप्त कर, कुल बयालीस वर्ष तक श्रमण पर्याय को पालन कर, बहत्तर वर्ष का आयु पूर्ण कर वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्म क्षीण होने के पश्चात् इस अवसर्पिणी काल का दुषम-सुषम नामक चतुर्थ आरा बहुत कुछ व्यतीत होने पर तथा उस चतुर्थ आरे के तीन वर्ष और साढ़े आठ महीना शेष रहने पर मध्यम पावा नगरी में हस्तिपाल राजा की रज्जुक सभा में एकाकी, षष्ठम तप के साथ, स्वाति नक्षत्र का योग होते ही, प्रत्यूषकाल के समय (चार घटिका रात्रि अवशेष रहने Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिनिर्वाण २११ पर) पद्मासन से बैठे हुए भगवान कल्याणफल-विपाक के पचपन अध्ययन, और पाप-फल विपाक के दूसरे पचपन अध्ययन, और अपृष्ठ अर्थात् किसी के द्वारा प्रश्न न किये जाने पर भी, उनके समाधान करने वाले छत्तीस अध्ययनों को कहते-कहते कालधर्म को प्राप्त हुए, संसार को त्यागकर चले गये, उर्ध्वगति को प्राप्त हुए । उनके जन्म, जरा, मरण के बंधन विच्छिन्न हो गये । वे सिद्ध हुए बुद्ध हुए, मुक्त हुए, सम्पूर्ण कर्मों का उन्होंने नाश किया, सभी प्रकार के संतापों से मुक्त हुए, उनके सम्पूर्ण दुःख नष्ट हो गये। मल: समणस्स णं भगवओ महावीरस्स जाव सव्वदुक्खप्पहीणस्स नव वाससयाई विइक्कंताई,दसमस्स य वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरकाले गच्छइ । वायणंतरे पुण-अयं तेणउए संवच्छरकाले गच्छइ इति दीसइ ॥१४७॥ अर्थ-जिनके सम्पूर्ण दुःख नष्ट हो गये है ऐसे सिद्ध बुद्ध यावत् श्रमण भगवान् महावीर के निर्वाण होने को आज नौ सौ वर्ष व्यतीत हो गये है। उसके उपरांत यह हजारवे वर्ष का अस्सीवां वर्ष का समय चल रहा है अर्थात् भगवान् महावीर को निर्वाण प्राप्त हुए आज नौ सौ अस्सी (६८०) वर्ष व्यतीत हो गये। दूसरी वाचना मे कितने ही ऐसा भी कहते है-नौ सौ वर्ष उपरान्त हजारवे वर्ष के तेरानवे (६३) वर्ष का काल चल रहा है, ऐसा पाठ दृष्टिगोचर होता है, अर्थात् उनके मत से भगवान महावीर को निर्वाण के नौ सौ तेरानवे (६६३) वर्ष हुए है। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर की पूर्व परम्परा • पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्वनाथ मूल : तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए पंचविसाहे होत्था, तं जहा-विसाहाहिं चुए चइत्ता गभं वकते? विसाहाहिं जाए२ विसाहार्हि मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइए३ विसाहाहिं अणंते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुन केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्न ४ विसाहाहिं परिनिव्वुए५ ॥१४॥ ___ अर्थ-उस काल उस समय पुरुषादानीय' अर्हन्त पार्श्व पंच विशाखावाले थे। अर्थात् उनके पाँचों कल्याणकों में विशाखा नक्षत्र आया हुआ था। जैसे-(१) पार्श्व अरहन्त विशाखा नक्षत्र में च्युत हुए, च्युत होकर गर्भ में आये (२) विशाखा नक्षत्र में जन्म ग्रहण किया (३) विशाखा नक्षत्र में मुण्डित होकर घर से बाहर निकले अर्थात् उन्होंने अनगारत्त्व ग्रहण किया, (४) विशाखा नक्षत्र में उन्हें अनन्त, उत्तमोत्तम, व्याघातरहित, आवरणरहित, सम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण केवलज्ञान केवलदर्शन उत्पन्न हुआ, (५) भगवान् पार्श्व विशाखा नक्षत्र में ही निर्वाण को प्राप्त हुए। मल: तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए जे Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुषाबानीय अर्हत् पार्श्वनाथ : पूर्व भव २१३ से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चित्तबहुले तस्स णं चित्तबहुलस्स चउत्थीपक्खेणं पाणयाओ कप्पाओ वीसं सागरोवमद्वितीयाओ अणंतरं चयं चइत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वाणारसीए नयरीए आससेणस्स रन्नो वम्माए देवीए पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं आहारवक्कतीए भववकंतीए सरीखक्कंतीए कुच्छिसि गव्भत्ताए वकते ॥१४६॥ अर्थ-उस काल उस समय पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व, जब ग्रीष्म ऋतु का प्रथम मास, प्रथम पक्ष अर्थात् चैत्र मास का कृष्ण पक्ष था, उस चैत्र कृष्णा चतुर्थी के दिन बीस सागरोपम की आयु वाले प्राणत नामक कल्प से आयुष्य पूर्णकर दिव्य आहार, दिव्य जन्म और दिव्य शरीर छूटते ही शीघ्र च्यवन करके इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष की वाराणसी नगरी में अश्वसेन राजा की रानी वामादेवी की कुक्षि में, जब रात्रि का पूर्वभाग समाप्त हो रहा था और पिछला भाग प्रारम्भ होने जा रहा था, उस सन्धिवेला में मध्यरात्रि में विशाखा नक्षत्र का योग होते ही गर्भ रूप में उत्पन्न हुए। विवेचन-कोई भी जीव यकायक तीर्थकर नही बन जाता, किन्तु तीर्थकर बनने के पूर्व उस जीव को लम्बे समय तक साधना करनी पड़ती है। जैसे भगवान महावीर के जीव को सत्ताईस भव पूर्व सम्यक्त्व की उपलब्धि हुई थी वैसे ही भगवान पार्श्वनाथ के जीव को दस भव पूर्व सम्यक्त्व प्राप्त हुआ था। (१) मरुभूति-एक बार भगवान् पार्श्वनाथ का जीव जम्बूद्वीपस्थ भरतक्षेत्र के पोतनपुर में विश्वभूति पुरोहित का पुत्र मरुभूति बना। बड़े भ्राता का नाम कमठ था। पिता के स्वर्गस्थ हो जाने पर कमठ राजपुरोहित बना। मरुभति प्रकृति से सरल, विनीत और धर्मनिष्ठ था। कमठ कर, अभिमानी और व्यभिचारी था। मरुभूति की पत्नी वसुन्धरा के रूप पर वह मुग्ध हो गया। उसकी अभ्यर्थना पर वसुन्धरा भी अपने धर्म से च्युत हो गई। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ কৰ মুখ कमठ की पत्नी से उनका वह असद् व्यवहार छिप न सका। उसने पति को समझाया, पर वह नहीं माना, तब उसने मरुभूति से कहा । मरुभूति घर से निकल गया और कुछ दिनों के पश्चात् रूप परिवर्तन कर पुनः वहाँ आया। पत्नी और भ्राता के असद् व्यवहार को स्वयं के नेत्रों से निहारकर उसने राजा से निवेदन किया। राजा ने क्रुद्ध होकर कमठ को देश से निष्काषित कर दिया। कम तापस बनकर पोतनपुर के सन्निकट पर्वत पर उग्रतप करने लगा। तप का चमत्करी प्रभाव हुआ, जन-जन की जिह्वा पर कमठ का नाम चमकने लगा । मरुभूति ने भी उसकी प्रशसा सुनी। अपने कृत्य पर उसे पश्चात्ताप होने लगा। ज्येष्ठ भ्राता से क्षमायाचना करने के लिए वह वहां पहुँचा । चरणों में झुका, परन्तु क र कमठ ने नमन करते हुए मरुभूति के शिर पर बड़ा-सा पत्थर दे मारा, भयंकर वेदना से विकल मरुभूति का वही पर अन्त हो गया। (२) यूथपतिगज_आर्तध्यानवश आयुपूर्ण करने से मरुभूति का जीव विन्ध्याचल की अटवी में हाथियों के यूथ का स्वामी गजराज हुआ। कमठ की पत्नी वरुणा वहाँ से काल प्राप्त कर यूथपति गजराज की प्रिया हस्तिनी हुई। इधर राजा ने जब कमठ के द्वारा मरुभूति की हत्या के समाचार सुने तो राजा को भी संसार की स्वार्थपरायणता एव विषयान्धता से विरक्ति हुई । संयम ग्रहण किया। उत्कृष्ट साधना करते हुए वे एकदा उसी अटवी में ध्यान मुद्रा में खड़े थे कि मरुभूति का जीव, जो हाथी बना था, उधर आ निकला। मुनिको ध्यानमुद्रा में निहार कर उसे जातिस्मरण ज्ञान हुआ। पूर्व जन्म का स्मरण करके गजराज ने मुनि से श्रावक धर्म स्वीकार किया। एक बार वन में भयंकर अग्नि प्रकोप हुआ। सारा वन जलने लगा, तब अपने प्राण बचाने के लिए हाथी ने सरोवर में प्रवेश किया। इधर कमठ का जीव जो कुकुट जाति का सर्प बना था, वह आकाश में उडता हुआ वहाँ आया और हाथी को देखकर उसका वैर उबुद्ध हो गया। क्रोधवश हाथी के सिर पर दंश मारा, जिसके जहर से गजराज का सारा शरीर विषग्रस्त हो गया Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्वनाथ : पूर्व नव २१५ तथापि हाथी ने समभाव पूर्वक पीड़ा सहन को, समभाव में ही आयु पूर्ण किया। (३) आठवें देवलोक में-आयु पूर्णकर मरुभूति का जीव आठवें सहस्रार देवलोक में उत्पन्न हुआ। (४) किरण वेग-वहाँ से आयु पूर्ण होने पर मरुभूति का जीव जम्बूद्वीप के महाविदेह क्षेत्र में विद्युतगति विद्याधर राजा के वहाँ कनकवती रानी का पुत्र 'कि रणवेग' हुआ । यौवनावस्था में अपनी पत्नियों के साथ आमोद-प्रमोद कर रहा था कि-संध्या की लालिमा देखकर वैराग्य जागृत हुआ। दीक्षा ग्रहण की, मुनि बने । एक बार पुष्करवरद्वीप के वैताढ्य गिरि के हिम शैल पर्वत पर ध्यानारूढ़ थे । उस समय कमठ के जीव ने जो कुर्कट सर्प का आयुपूर्ण होने पर पाँचवे नरक में गया था और वहां से निकल कर वह पुनः सर्प बना था, ध्याना रूढ मुनि को देखा तो पूर्व वैर-वश क्रुद्ध होकर मुनि को इंसा, मुनि ने समभाव से आयुपूर्ण किया। (५) अच्युत कल्प में- वहाँ से मुनि बारहवें अच्युत कल्प नामक देवलोक में देव बने । (६) वज्रनाभ-बारहवें देवलोक से च्यवकर जम्बूद्वीप के पश्चिम महा विदेह में शुभंकरा नगरी के अधिपति वज्रवीर्य राजा की रानी लक्ष्मीवती का पुत्र वज्रनाभ हुआ। राज्यश्री का उपभोग करते हुए, क्षेमंकर तीर्थकर का उपदेश सुनकर प्रव्रज्या ग्रहण की। एक बार सुकच्छ विजय के मध्यवर्ती ज्वलंत पर्वत पर कायोत्सर्ग मुद्रा में अवस्थित थे। उधर कमठ का जीव, जो सर्प था वह वहाँ से मर कर पाँचवे नरक में गया था। नरक से निकलकर अनेक भवों में परिभ्रमण करता हुआ इस प्रदेश में कुरंगक नाम का भील बना । मुनि को देखकर पूर्व वैर उबुद्ध हुआ। वाण मारा, आहत होकर मुनि गिर पड़े तथा समभाव से आयु पूर्ण किया । (७) मध्यम ग्रंवेयक-मुनि वहाँ से मध्यम ग्रंवेयक में देव बने। और कमठ का जीव भील, वहाँ से मरकर सातवें नरक में गया । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ कल्प सूत्र (८) सुवर्णबाहु चक्रवर्ती-मध्यम ग्रंवेयक से आयु पूर्णकर मरुभूति का जीव जम्बूद्वीप के पूर्व महाविदेह में शुभकर विजय के पुराणपुर में कुशलबाहु राजा की सुदर्शना रानी का पुत्र सुवर्णबाहु चक्रवर्ती बना । षट्खण्ड के राज्य का उपभोग करने के पश्चात् संयम ग्रहण किया, और उग्र तपः साधना की। तीर्थंकर नामगोत्रोपार्जन के योग्य बीस स्थानको का सेवन किया। एक बार निर्जन वन में कायोत्सर्ग करके खड़े थे । कमठ का जीव सातवें नरक से निकल कर इसी अरण्य में सिह बना था। उसने ध्यानस्थ मुनि को देखा। पूर्व वैर उद्बुद्ध हुआ। मुनि पर झपटा । मुनि ने उस पीड़ा को समभाव पूर्वकर सहन कर अत्यन्त शुद्ध परिणामों के साथ आयु पूर्ण किया। (९) दसर्वे देवलोक में-मुनि, जो मरुभूति का जीव था, वहाँ से आयुपूर्ण कर दसवें देवलोक में बीस सागर की आयु वाला देव बना। कमठ का जीव, जो सिंह था, मरकर नरक में गया । (१०) पार्श्वनाथ-मरुभूति का जीव दसवें देवलोक से च्यवकर वाराणसी नगरी में अश्वसेन राजा की रानी वामादेवी की कुक्षि मे भगवान् पार्श्वनाथ के रूप में अवतरित हुआ। ---. जन्म मूल : पासे णं अरहा पुरिसादाणीए तिण्णाणोवगए यावि होत्थाचइस्सामि त्ति जाणइ. चयमाणे न जाणइ, चुए मि त्ति जाणइ, तेणं चेव अभिलावेणं सुविणदंसणविहाणेणं सव्वं जाव निययं गिहं अणुप्पविट्ठा जाव सुहं सुहेणं तं गम्भं परिवहइ ॥१५०॥ अर्थ-पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व तीन ज्ञान से युक्त थे। 'मैं यहाँ से च्युत होऊंगा' यह जानते थे ! च्युत होते हुए नही जानते थे, और 'च्युत हो गया' हूं' यह जानते थे। यहां से लेकर भगवान महावीर के प्रकरण में स्वप्न से सम्बन्धित सारा वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए । यावत् माता अपने गृह में प्रवेश करती है और सुखपूर्वक गर्भ को धारण करती है। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यावानीय महंत पानाथ : जन्म : नाग का मार २१७ मल: तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए जे से हेमंताणं दोच्चे मासे तच्चे पक्खे पोसबहुले तस्स णं पोसबहुलस्स दसमीपक्खेणं नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाण य राईदियाणं विइक्वताणं पुबरत्तावरत्तकालसमयंसि विसाहाहि नक्खत्तणं जोगमुवागएणं अरोगा अरोगं पयाया, जम्मणं सव्वं पासाभिलावेण भाणियव्वं जाव तं होउ णं कुमारे पासे नामेणं ॥१५॥ ___ अर्थ-उस काल उस समय हेमन्त ऋतु का द्वितीय मास, तृतीय पक्ष, अर्थात् पौष मास के कृष्ण पक्ष की दशमी के दिन, नौ माह पूर्ण होने पर और साढे सात रात-दिन व्यतीत होने पर रात्रि का पूर्व भाग समाप्त होने जा रहा था और पिछला भाग प्रारम्भ होने जा रहा था, उस सन्धि-वेला में, अर्थात् मध्यरात्रि में विशाखा नक्षत्र का योग होते ही, आरोग्य वाली माता ने आरोग्य पूर्वक पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व नामक पुत्र को जन्म दिया। जिम रात्रि को पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व ने जन्म ग्रहण किया, उस रात्रि को बहुत से देव और देवियाँ जन्म कल्याणक मनाने के लिए आई, जिससे वह रात्रि प्रकाशमान हो गई और देव देवियों के वार्तालाप से शब्दायमान भी हो गई। स्वप्न व जन्म सम्बन्धी अन्य सारा वृत्तान्त भगवान महावीर के वर्णन में आए हुए वृत्तान्त के समान यहां भी समझना चाहिए। विशेष भगवान् महावीर के स्थान पर भगवान पार्श्व का नाम लेना चाहिए। यावत् माता-पिता ने कुमार का नाम 'पार्श्व' रखा। विवेचन-राजकुमार पार्श्वनाथ बड़े होते हैं । युवावस्था आने पर उनका पाणिग्रहण कुशलस्थ (कन्नौज) के राजा प्रसेन जित् की पुत्री परम सुन्दरी प्रभावती के साथ हुआ। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ - नाग का उद्धार एक दिन राजकुमार पार्श्व राजप्रासाद के गवाक्ष में बैठे हुए नगरावलोकन कर रहे थे कि अर्चना की सामग्री लिए हुए जन-समूह को नगर के बाहर जाते हुए देखा । कुतूहलवश कुमार ने पूछा- 'क्या आज कोई महोत्सव है, या अन्य कोई विशेष प्रसंग है जिस कारण ये लोग जा रहे हैं ?' - उत्तर मिला कुमार वर । नगर के बाहर एक कमठ नापक उग्र तपस्वी आया हुआ है, जो पंचाग्नि-तप तप रहा है, वह बहत उग्र तपस्वी है। उसकी पूजा और अर्चना करने के लिए ही ये लोग जा रहे है । कुतूहलवश राजकुमार पाव भी कमठ को देखने के लिए चले। यह कमठ वही था जिसका सम्बन्ध पार्श्वनाथ के जीव के साथ पिछले अनेक भवो से चला आ रहा था। वह नरक से निकलकर एक अत्यन्त गरीब कुल मे जन्मा था, भूख व दरिद्रता से व्याकुल होकर उसने तापसी-प्रव्रज्या ग्रहण की थी। बहुत उग्र तपस्या करने से जनता मे उसके तप की धाक जम गई थी। राजकुमार पार्श्वनाथ ने देखा- 'तपस्वी पचाग्नि तप रहा है। चारो दिशाओ मे अग्नि जल रही है, और मस्तक पर सूर्य तप रहा है, अग्निकुण्ड में बडे-बडे लक्कड़ जल रहे हैं। उसमें एक सर्प भी जल रहा है। सर्प को देखकर पार्श्वकुमार का हृदय करुणा से द्रवित हो उठा । तापस के इस विवेकशून्य क्रियाकाण्ड को देखकर पार्श्वनाथ ने कहा--तपस्विन् ! यह कैसा अज्ञान तप है ! पचेन्द्रिय जीवों को भस्म कर तुम अपना कल्याण चाहते हो? तपस्वी- राजकुमार | तुम धर्म के रहस्य को नही समझते । राजपुत्र तो हाथी घोड़ों पर क्रीड़ा करना और युद्ध करना जानते हैं, धर्म के रहस्य को तो हमारे जैसे तपस्वी समझ सकते है । तुम यहाँ से चले जाओ, अभी तो दूध मुहेबच्चे हो । क्या तुम मेरी धूनी मे किसी जीव को जलता बता सकते हो ? राजकुमार--तपस्वी ! इस बड़े लकड़ में सर्प जल रहा है । तपस्वी-तुम्हारा कथन मिथ्या है । तभी राजकुमार ने अपने सेवक को आज्ञा दी, सेवक ने अग्निकुण्ड से उस लकड़ को बाहर निकाला और मावधानी से चीरा तो उस समय तिलमिलाता हुआ सर्प बाहर निकला । वह मरणा Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुषावामीय महत् पार्श्वनाथ : दोमा २१६ सन्न स्थिति में था। पार्श्वनाथ ने उसे नवकार मंत्र सुनाया। वह समाधिपूर्वक मर कर धरणेन्द्र (नागकुमार जाति के देवों का इन्द्र) देव हुआ। लोगों ने कमठ की भर्त्सना की, वे उसे धिक्कारने लगे। तापस पाश्र्बकुमार पर बहुत रुष्ट हुआ। पर करता भी क्या ? आखिर में अज्ञान-तप के कारण कमठ तापस वहाँ से मरकर मेघमाली नामक देव बना। भावी तीर्थंकरों द्वारा गृहस्थावास में इस प्रकार धर्म क्रान्ति का यह अद्वितीय उदाहरण है। मूल : पासे णं अरहा पुरिसादाणीए दक्खे दक्खपइण्णे पडिरूचे अल्लीणे भद्दए विणीए तीसं वासाई अगारवासमझे वसित्ता णं पुणरवि लोयंतिएहिं जियकप्पिएहिं देवेहिं ताहिं इटाहिं जाव एवं वयासी-जय जय नंदा जय जय भद्दा, भदं ते जाव जय जय मई पउंजंति ॥१५२॥ __ अर्थ-पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व दक्ष थे, दक्ष प्रतिज्ञा वाले थे, उत्तम रूप वाले, सर्व गुणो से युक्त भद्र व विनीत थे। वे तीस वर्ष तक गृहवास मे रहे । उसके पश्चात् अपनी परम्परा का पालन करते हुए लोकांतिक देवों ने आकर के इष्टवाणी के द्वारा इस प्रकार कहा-"हे नन्द ! (आनन्दकारो) तुम्हारी जय हो, विजय हो! हे भद्र ! तुम्हारी जय हो, विजय हो ! यावत् इस प्रकार जय-जय शब्द का प्रयोग करते हैं। --. दीक्षा मूल : पुबि पि णं पासस्स अरहओ पुरिसादाणियस्स माणुस्सगाओ गिहत्थधम्माओ अणुत्तरे आहोहियए तं चैव सब्वं जाव दायं दाइयाणं परिभाएत्ता जे से हेमंताणं दोच्चे मासे तच्चे पक्खे पोस Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० बहुले तस्स णं पोसबहुलस्स एकारसीदिवसेणं पुव्वण्हकालसमयंसि विसालाए सिवियाए सदेवमणुयासुराए परिसाए तं चैव सव्वं नवरं वाणारसिं नगरिं ममं मझणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव आसमपए उज्जाणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे सीयं ठावेइ, ठावित्ता सीयाओ पच्चोरुहइ, सीयाओ पच्चोरुहित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयति, ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, पंचमुट्ठियं लोयं करित्ता अट्टमेणं भत्तेणं अपाणएणं विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं एगं देवदूसमायाय तिहिं पुरिससएहिं सद्धि मुडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पब्वइए ॥१५३॥ अर्थ-पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व को मानवीय गृहस्थ-धर्म से पहले भी उत्तम आभोगिकज्ञान (अवधिज्ञान) था। वह सारा वर्णन भगवान् महावीर के वर्णन के समान यहाँ भी समझना चाहिए । अभिनिष्क्रमण के पूर्व वार्षिक दान देकर के, हेमन्त ऋतु के द्वितीय मास, तृतीय पक्ष, अर्थात् पोष मास के कृष्ण पक्ष की ग्यारस के दिन, पूर्व भाग के समय (चढ़ते हुए प्रहर मे) विशाला शिविका में बैठकर देव, मानव, और असुरों के विराट् समूह के साथ (भगवान महावीर के वर्णन के समान) वाराणसी नगरी के मध्य में होकर निकलते है । निकलकर जिस ओर आश्रमपद नामक उद्यान है, जहां पर अशोक का उत्तम वृक्ष है, उसके सन्निकट जाते है। सन्निकट जाकर के शिविका को खड़ी रखवाते है । शिविका खड़ी रखवाकर के शिविका से नीचे उत्तरते हैं। नीचे उतरकर, अपने ही हाथों से आभूषण, मालाएं और अलंकार उतारते हैं। अलकार उतारकर, स्वयं के हाथ से पंच-मुष्ठि लोच करते हैं। लोच करके निर्जल अष्टम भक्त करते हैं। विशाखा नक्षत्र का योग आते ही, एक देवदूष्य वस्त्र को लेकर दूसरे तीन सौ पुरुषों के साथ मुडित होकर गृहवास से निकलकर अनगार अवस्था को स्वीकार करते हैं। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्वनाथ : कमठ का उपसर्ग • कमठ का उपसर्ग मूल : २२१ पासे णं अरहा पुरिसादाणीए तेसीइं राइंदियाई निच्च वोसकाए चियत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पज्जंति, तं जहा - दिव्वा वा माणुस्सा वा, तिरिक्खजोणिया वा, अणुलोमा वा पडिलोमा वा, ते उप्पन्न सम्मं सहह तितिक्खर खमह अहियासेइ ॥ १५४ ॥ अर्थ - पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व तेरासी (८३) दिनों तक नित्य सतत शरीर की ओर से लक्ष्य को व्युत्सर्ग किए हुए थे । अर्थात् उन्होने शरीर का ख्याल छोड़ दिया था । इस कारण अनगार दशा में उन्हें जो कोई भी उपसर्ग हुए, चाहे वे दैविक थे, मानवीय थे, या पशु-पक्षियों की ओर से उत्पन्न हुए थे, उन उपसर्गों को वे निर्भय रूप से, सम्यक् प्रकार से सहन करते थे, तनिक मात्र भी क्रोध नहीं करते, उपसर्गों की ओर उनकी सामर्थ्य युक्त तितिक्षा वृत्ति रहती और वे शरीर को पूर्ण अचल और दृढ़ रखकर उपमर्गों को सहन करते थे । विवेचन - भगवान् पार्श्वनाथ ने पोष कृष्ण एकादशी के दिन संयम लेकर वाराणसी से प्रस्थान किया । संयम साधना, तप आराधना करते हुए एक ग्राम के सन्निकट तापसों के आश्रम में पधारे। कुए के सन्निकट वट वृक्ष के नीचे वे ध्यान लगाकर खड़े हो गये । कमठ तापस, जो मरकर मेघमाली देव बना था, अवधिज्ञान ( विभंगअज्ञान ) से भगवान् को ध्यानस्थ देखकर वहाँ आया । पूर्व वैर को याद करके सिंह हस्ती, रीछ, सर्प, बिच्छू, प्रभृति बनकर भगवान् को नाना प्रकार से कष्ट देने लगा, तथापि भगवान् सुमेरु की तरह स्थिर रहे, अपने अडिग धर्म ध्यान से विचलित नही हुए, तब उसने ख्रिमियाकर गंभीर गर्जना करते हुए अपार जलवृष्टि की । नासाग्र तक पानी आ जाने पर भी भगवान् का ध्यान भग्न नहीं हुआ । उस समय अवधिज्ञान मे धरणेन्द्र ने मेघमाली के उपसर्ग को देखा, तब धरणेन्द्र देव ने सात फनों से छत्र बनाकर उपसर्ग का निवारण किया । भक्ति भावना से गद्गद् होकर उसने भगवान् की स्तुति की। ध्यानमग्न समदर्शी भगवान् न तो स्तुति करने वाले धरणेन्द्र देव पर तुष्ट हुए और न Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ उपसर्ग करने वाले दुष्ट कमठ पर रुष्ट ही हुए। इसीलिए आचार्य हेमचन्द्र ने प्रभु पाश्वनाथ की स्तुति करते हुए कहा है - कमठे धरणेन्द्र च स्वोचिते कमकुर्वति । प्रमोस्तुल्य मनोवृत्तिः पार्श्वनाथः श्रियेऽस्तु वः॥" परानित हो मेघमाली भी भगवान् के चरणों मे गिर गया। अपराध की क्षमा याचना करने लगा। .. केवलज्ञान मल: तए णं से पासे भगवं अणगारे जाए इरियासमिए जाव अप्पाणं भावमाणस्म तेसीइं राइंदियाई विकताई चउरामीइमस्स राइंदियस्स अंतरा वट्टमाणे जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चित्तबहुले तस्स णं चित्तबहुलस्स चउत्थीपखणं पुण्हकालसमयंसि धायतिपायवस्म अहे छठेणं भत्तेणं अपाणएणं विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं झाणंतरियाए वट्टमाणस्म अणते अणुत्तरे निव्वाधाए निरावरणे जाव केवलवरनाणदंसणे ममुप्पन्ने जाव जाणमाणे पाममाणे विहरड् ॥१५५॥ ___ अर्थ-उसके पश्चात् भगवान् पार्श्व अनगार हुए, यावत् ईर्यासमिति से युक्त हुए और इस प्रकार आत्मा को भावित करते-करते तिरासी (८३) रात्रि दिन व्यतीत हो गये। चौरासीवाँ दिव चल रहा था। ग्रीष्म ऋतु का प्रथम मास, प्रथम पक्ष अर्थात् चैत्र मास का कृष्ण पक्ष आया, उस चैत्र मास की चतुर्थी को, पूर्वाह्न में आँवले (धातकी) के वृक्ष के नीचे षष्ठ तप किये हुए, शुक्ल ध्यान मे लीन थे। तब विशाखा नक्षत्र का योग आया, उन्हे उत्तमोत्तम केवलज्ञान केवलदर्शन उत्पन्न हुआ। यावत् वे सम्पूर्ण लोकालोक के भावों को देखते हुए विचरने लगे। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादानीय अर्हत् पार्श्वनाथ : शिष्य संपवा • शिष्य-संपदा मूल -- पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्म अटूठ गणा अट्ठ गणहरा होत्या, तं जहा सुभेय अज्जघोसे य वसिट्टे बंभयारि य । सोमे सिरिहरे चैव वीरभद्दे जमे विय ॥१५६॥ २२३ अर्थ - पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व के आठ गणधर थे । वे इस प्रकार है(१) शुभ, (२) अज्जघोष - आर्यघोष, (३) वसिष्ठ, (४) ब्रह्मचारी, (५) सोम (६) श्रीधर ( ७ ) वीरभद्र और (८) यश । मूल : G पासम्म णं अरहओ पुरिसादाणीयस्म अज्जदिण्णपामोक्खाओ सोलस्म ममणसाहस्मीओ उक्कोमिया समणसंपया होत्था । पामस्म णं अरहओ पुरिसादाणीयस्म पुष्फचूलापा मोक्खायो अटठत्तीसं अज्जिया साहस्मीओ उक्कोसिया अज्जियासंपदा होत्था । पामस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स सुनंदपा मोक्खाणं समणोवामगाणं एगा सयसाहस्सी चउस टिंठ च महस्सा उकोसिया समणोवासगसंपया होत्या । पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्म सुनंदापामोक्खाणं समणोवासिगाणं तिन्नि सयसाहस्मीओ सत्तावीस च सहस्सा कोसिया समणोवासियाणं संपया होत्था । पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स अट्ठसया चोहसपुव्वीणं अजिणाणं जिणसंकासाण सव्वक्खर जाव चोहसपुव्वीणं संपया होत्था । पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स चोदम सया ओहिनाणीणं, Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ दस सया केवलनाणीणं, एक्कारस सया वेउब्वियाणं, अद्धहमसया विउलमईणं, छस्सया वाईणं, छ सया रिउमईणं, बारस सया अणुतरोववाइयाणं संपया होत्था॥१५७॥ अर्थ-पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के संघ में अज्जदिण्ण (आर्यदत्त) आदि सोलह हजार साधुओं की उत्कृष्ट श्रमण-सम्पदा थी। पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के समुदाय में पुष्पचूला आदि अड़तीस हजार आयिकाओं की उत्कृष्ट आयिका-सम्पदा थी। पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के संघ में सुनन्द आदि एक लाख चौंसठ हजार श्रमणोपासकों की उत्कृष्ट श्रमणोपासक-संपदा थी। पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के समुदाय में सुनन्दा आदि तीन लाख और सत्तावीस हजार श्रमणोपासिकाओं की उत्कृष्ट श्रमणोपासिका-सम्पदा थी। पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के समुदाय में साढ़े तीन सौ जिन नही, किन्तु जिनके सदृश सर्वाक्षर संयोगों को जानने वाले यावत् चोदह-पूर्वधारियों की सम्पदा थी । पुरुषादानीय अर्हन पार्श्व के समुदाय में चौदह सौ अवधिज्ञानियों की सम्पदा थो। पुरुषादानीय अर्हत पाव के समुदाय में एक हजार केवलज्ञानियों की सम्पदा थी। ग्यारहमी वैक्रिय लब्धिवालों की तथा छह सौ ऋजुमति ज्ञान वालों की सम्पदा थी। भगवान पार्श्वनाथ के एक हजार श्रमण सिद्ध हुए, तथा उनकी दो हजार आयिकाएं सिद्ध हुई। पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के संघ में साढ़े सात सौ विपुलमतियों की (विपुलमति मनःपर्यव ज्ञान वालों की), छह सौ वादियों की और बारह सौ अनुत्तरोपपातिकों की-अर्थात् अनुत्तर विमान में जाने वालों की संपदा थी। मल : पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स दुविहा अंतकडभूमी होत्था, तं जहा-जयतकहभूमी य, परियायंतकडभूमी य। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ पुस्वादानीय महत् पार्श्वनाथ : परिनिर्वाण जाव चउत्थाओ पुरिसजगाओ जयंतकडभूमि तिवासपरियाए अंतमकासी ॥१५८॥ अर्थ-पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के समय में अन्तकृतों की भूमि अर्थात् सर्व दुःखों का अन्त करने वालो की भूमिका दो प्रकार की थी। जैसे कि एक तो युग-अतकृत भूमि, और दूसरी पर्याय-अन्तकृत् भूमि । यावत् अर्हत पार्श्व से चतुर्थ युगपुरुष तक युगान्तकृत भूमि थी अर्थात् चतुर्थ पुरुष तक मुक्ति मार्ग चला था । अर्हत् पार्श्व का केवलीपर्याय तीन वर्ष का होने पर अर्थात-उनको केवलज्ञान हुए तीन वर्ष व्यतीत होने पर किसी साधक ने मुक्ति प्राप्त की। अर्थात् मुक्तिमार्ग प्रारम्भ हुआ। वह उनके समय की पर्यायान्तकृतभूमि हुई। मल: तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए तीसं वासाई अगावासमज्झे वसित्ता, तेसीति राइंदियाई छउमस्थपरियाय पाउणित्ता, देसूणाई सत्तरि वासाई केवलिपरियायं पाउणित्ता, बहुपडिपुन्नाई सत्तरि वासाई सामनपरियायं पाउणित्ता, एक्क वाससयं सव्वाउयं पालित्ता खीणे वेयणिज्जाउयनामगोत्ते इमीसे ओसप्पिणीए दूसमसूसमाए समाए बहुवीइकताए जे से वासाणं पढमे मासे दोच्चे पक्खे सावणसुद्धे तस्स णं सावणसुद्धस्स अहमीपक्खेणं उप्पि सम्मेयसेलसिहरंसि अप्पचोत्तीसइमे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं पुव्वण्हकालसमयंसि वग्धारियपाणी कालगए जाव सव्वदुक्खप्पहीणे ॥१५॥ अर्थ- उस काल उस समय पुरिसादानीय अर्हत् पार्श्व तीस वर्ष तक गृहवास में रहकरके, तिरासी (८३) रात्रि दिन छप्रस्थ पर्याय में रह करके, पूर्ण Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पसूत्र २२६ नहीं, किन्तु कुछ कम सत्तर (७०) वर्ष तक केवलीपर्याय में रह करके, इस प्रकार पूर्ण सत्तर वर्ष तक श्रमणपर्याय का पालन करके, कुल सौ वर्ष तक अपना सम्पूर्ण आयु भोगकर वेदनीय कर्म, आयुष्यकर्म, नाम कर्म, और गोत्र कर्म के क्षीण होने पर दुषम- सुषम नामक अवसर्पिणी काल के बहुत व्यतीत हो जाने पर, वर्षाऋतु का प्रथम मास, द्वितीय पक्ष, अर्थात् जब श्रावण मास का शुक्ल पक्ष आया, तब श्रावण शुक्ला अष्टमी के दिन सम्मेद शिखर पर्वत पर अपने सहित चोतोस- पुरुषों के साथ ( १ पार्श्वनाथ और दूसरे तेतीस श्रमण इस प्रकार कुल ३४) मासिक भक्त का अनशन कर पूर्वाह्न के समय, विशाखा नक्षत्र का योग आने पर दोनों हाथ लम्बे किये हुए इस प्रकार ध्यान मुद्रा में अवस्थित रह कर काल धर्म को प्राप्त हुए, यावत् सर्वं दुःखों से मुक्त हुए । मूल : पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणियस्स कालगतस्स जाव सव्वदुक्खप्पहीणस्स दुवालस वाससयाडं विइक' ताई तेरसमस्स य वाससयस्स अयं तीसइमे संवच्छरकाले गच्छइ ॥ १६० ॥ अर्थ - पुरिसादानीय अर्हतु पार्श्व को कालधर्म प्राप्त हुए, यावत् सर्व दुःखों से पूर्ण तया मुक्त हुए बारह सौ वर्ष व्यतीत हो गये' और यह तेरह सौ वर्ष का समय चल रहा है । • अर्हत् अरिष्टनेमि मूल :--- तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिनेमी पंचचित्त होत्था, तं जहा - चित्ताहि चुए चइत्ता गब्र्भ वक्क ते जाव चित्ताहि परिनि ॥ १६९॥ अर्थ - उस काल उस समय अर्हत् अरिष्टनेमि पाँच चित्रा युक्त थे, अर्थात् Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मर्हत् अरिष्टनेमि जन्म पराक्रम दर्शन उनके जीवन के पाँच प्रसंगो मे चित्रा नक्षत्र आया था । जैसे- अर्हत् अरिष्टनेमि चित्रा नक्षत्र मे स्वर्ग से च्युत हुए, च्युत होकर गर्भ में आये, इत्यादि सम्पूर्णवृत्त चित्रा नक्षत्र के पाठ के साथ पूर्व के समान समझना चाहिए। यावत् चित्रा नक्षत्र में वे परिनिर्वाण को प्राप्त हुए । • जन्म मूल : २२७ तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिट्ठनेमी जे से वासाणं चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे कत्तियबहुले तस्स णं कत्तियबहुलस्स बारसीपक्खेणं अपराजियाओ महाविमाणाओ बत्तीसं सागरोवमद्वितीयाओ अनंतरं चयं चइत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारदेवासे सोरियपुरे नगरे समुद्दविजयस्स रन्नो भारियाए सिवाए देवीए पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि जाव चित्ताहिं गन्मत्ताए वक्क ते सव्वं तव सुमिणदंसणदविणसंहरणाइयं एत्थ भणियव्वं ॥ १६२ ॥ अर्थ--उस काल उस समय अर्हत् अरिष्ट नेमि, जब वर्षा ऋतु का चतुर्थ माम, मातवाँ पक्ष अर्थात् कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष का समय आया, तब कार्तिक कृष्णा द्वादशी के दिन, बत्तीस सागरोपम की आयुष्य मर्यादा वाले अपराजित नामक महाविमान से च्यवकर इसी जम्बूद्वीप में भारतवर्ष के सोरियपुर नामक नगर में समुद्रविजय राजा की पत्नी शिवादेवी की कुक्षि में, रात्रि के पूर्व और अपर भाग की सन्धि-वेला मे, अर्थात् मध्यरात्रि में चित्रा नक्षत्र का योग होने पर गर्भ रूप में उत्पन्न हुए। उसके पश्चात् का सभी वर्णन भगवान् महावीर के प्रकरण मे आये हुए स्वप्न दर्शन, धन-धान्य की वृद्धि इत्यादि के समान यहाँ पर भी कहना चाहिए । मूल : तेणं कालेणं तेणं समएणं अरिहा अरिट्ठनेमी जे से Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पसूत्र २२८ वासाणं पढमे मासे दोच्चे पक्खे सावणसुद्धे तस्स णं सावणसुद्धस्स पंचमीपक्खेणं नवण्हं मासाणं जाव चित्ताहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं अरोगा अरोगं पयाया । जम्मणं समुद्दविजयाभिवेणं नेतव्वं जाव तं होउ णं कुमारे अरिद्वनेमी नामेणं ।। १६३ ।। अर्थ - उस काल उस समय वर्षाऋतु का प्रथम मास, द्वितीय पक्ष अर्थात् श्रावण मास का शुक्ल पक्ष आया, उस समय श्रावण शुक्ला पचमी के दिन नौ मास और साढ़े सात दिन परिपूर्ण हुए, यावत् मध्यरात्रि को चित्रा नक्षत्र का योग होते ही, आरोग्य-युक्त (स्वस्थ ) माता ने आरोग्य पूर्वक अर्हत् अरिष्ट नेमि को जन्म दिया | जन्म का इतिवृत्त 'पिता समुद्रविजय' इस पाठ के साथ पूर्ववत् समझना चाहिए, यावत् इस कुमार का नाम अरिष्टनेमि कुमार हो इत्यादि सभी कह लेना चाहिए । १२ 3 १४ विवेचन- अर्हत् अरिष्टनेमि बाईसवें तीर्थकर थे। उनके पिता का नाम समुद्र विजय और माता का नाम शिवा था । उनके तीन भ्राता और थे जिनके नाम इस प्रकार हैं- रथनेमि, सत्यनेमि और दृढ़नेमि र उनका गोत्र गौतम था और कुल वृष्णि था, उनका शरीर श्यामवर्ण था । किन्तु मुखाकृति अत्यधिक मनमोहक थी। वे एक हजार आठ शुभ लक्षणों के धारक थे, "वज्र ऋषभ नाराचसंहनन और समचतुरस्र संस्थान वाले थे । मत्स्य के आकार का उनका उदर था, वे अतुल बली थे । उनके पराक्रम दर्शन का एक मधुर प्रसग है । 15 पराक्रम दर्शन एक बार घूमते-घामते अर्हत् अरिष्टनेमि श्रीकृष्ण की आयुधशाला में पहुँचे । स्नेही साथियों की प्रेरणा से प्रेरित हो वासुदेव श्री कृष्ण के सुदर्शन चक्र को अंगुली पर रखकर कुम्भकार के चक्र के समान फिरा दिया। शारंग धनुष को कमल की नाल की तरह मोड़ दिया। कौमुदी गदा सहज रूप से उठाकर स्कंध पर रख ली और पाँचजन्य शंख को इस प्रकार बजाया कि सारी द्वारिका भय से काँप उठी । उस ध्वनि को सुनकर श्रीकृष्ण का हृदय भी धड़कने लगा ।' शत्रु के भय से भयभीत बने श्रीकृष्ण आयुधशाला में आये । अरिष्टनेमि द्वारा ७ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महन् मरिष्टनेमि : राल को मंगनी २२ शंख बजाये जाने की बात जानकर चकित हुए। फिर भी शक्ति परीक्षण के लिए श्रीकृष्ण ने अरिष्टनेमि से कहा-चलिए व्यायामशाला में जहाँ अपने बाहुबल की परीक्षा करें। क्योंकि पांचजन्य शंख को फूकने की शक्ति मेरे अतिरिक्त अन्य किसी में नहीं है।। अरिष्टनेमि ने स्वीकृति दी, दोनों ही व्यायामशाला में पहुंचे । कृष्ण ने भुजा लम्बी की और कहा-जरा इसे झुका तो दो। अरिष्टनेमि ने उस भुजा को ऐसे झुका दिया जैसे वृक्ष की डाली को झुका दिया हो। जब अरिष्टनेमि ने भुजा लम्बी की तो कृष्ण, अत्यधिक प्रयत्न करने पर भी उसे नहीं झुका सके', यह घटना-चित्र उनके महान् धैर्य, शौर्य और प्रबल पराक्रम के भाव को उजागर कर रहा है। श्रीकृष्ण अरिष्टनेमि के अतुल बल को देखकर चकित हो गये, साथ ही चिन्तामग्न भी। तभी आकाशवाणी हुई कि अरिष्टनेमि कुमारावस्था में ही प्रव्रज्या ग्रहण करेंगे। --. राजुल की मंगनी श्रीकृष्ण ने कुमार नेमिनाथ को विवाह के लिए प्रेम पूर्वक आग्रह किया, पर वे स्वीकार नही हुए। वे चाहते थे कि नेमिकुमार विवाहित हो जाये तो इनका अतुलनीय पराक्रम क्षीण हो जायेगा और फिर मुझे कभी भी इससे भय व शंका नही होगी। इसके लिए सत्यभामा आदि को श्रीकृष्ण ने संकेत किया। श्रीकृष्ण के सकेतानुसार सत्यभामा आदि रानियों ने वसत ऋतु मे रैवताचल पर वसंत कीड़ा करते हुए हाव-भाव-कटाक्षादि के द्वारा नेमिकुमार के अन्तर्हृदय में वासना जागृत करने का प्रयास किया, किन्तु सफल न हो सकी। तब रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवती, पद्मावती, गांधारी, लक्ष्मणा आदि ने स्त्री के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए कहा-स्त्री के बिना मानव अपूर्ण है, स्त्री अमृत है, नारी ही नारायणी है, आदि । अपनी भाभियों के मोह भरे वचनों को सुनकर नेमिकुमार मौन रहे और उनकी अज्ञता पर मन ही मन मुस्कराने लगे। कुमार को मौन देखकर, 'अनिषिद्धम् अनुमतम्' के अनुसार सभी रानियां आनन्द से नाच उठी और सर्वत्र समाचार प्रसारित कर दिया कि अरिष्टनेमि विवाह के लिए प्रस्तुत हो गए हैं। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र श्रीकृष्ण ने महाराजा उग्रसेन की रूपवती कन्या राजीमतो की याचना की । राजीमती सर्वलक्षणों से सम्पन्न, विद्युत् और सौदामिनी के समान प्रभावाली राजकन्या थी । २१ राजीमती के पिता उग्रसेन ने कृष्ण से कहा- “कुमार, यहाँ बाएँ तो मैं उन्हें अपनी राजकन्या दूँ ।" श्री कृष्ण ने स्वीकृति प्रदान की । २३० दोनों ओर विवाह की तैयारियाँ होने लगी । मंगलगीत गाये जाने लगे। अरिष्टनेमि को सर्व औषधियाँ के जल से स्नान कराया गया, कौतुकमंगल किये गये, दिव्य वस्त्र और आभूषण पहिनाये गये । वासुदेव श्रीकृष्ण के मदोन्मत्त गधहस्ती पर वे आरूढ हुए । उस समय वे इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे मानो मस्तक पर चूडामणि हो । सिर पर छत्र सुशोभित हो रहा था। दोनो और चमर बीजे जा रहे थे । दशार्ह चक्र से वे चारो ओर से घिरे हुए थे। वाद्यों से नभ गूंज रहा था । चतुरगिनी सेना के साथ उनकी बरात आगे बढी चली जा रही थी। सभी का हृदय खुशी से उछालें मार रहा था । • तोरण से लौट गए उस युग में मांसाहार का बहुत अधिक प्रचार था। राजा उग्रसेन ने बरातियों के भोजन के लिए सैकड़ों पशु और पक्षी एकत्रित किये । वर के रूप में जब अरिष्टनेमि वहाँ पहुँचे, तो उन्हें एक वाड़े में बंद किए हुए पशुओ का करुण क्रन्दन सुनाई दिया। उनका हृदय दया से द्रवित हो गया । " भगवान् ने सारथी से पूछा - 'हे महाभाग ! ये सब सुखार्थी जीव वाड़ों और पिंजरों में किसलिए डाले गये हैं ? सारथी ने कहा- "ये समस्त भद्र प्राणी आपके विवाह कार्य मे आये हुए व्यक्तियों के भोजन के लिए हैं । २४ करुणामूर्ति अरिष्टनेमि ने सोचा- 'मेरे कारण से ये बहुत से जीव मारे जाते हैं, तो मेरे लिए यह भविष्य में कल्याणप्रद नही होगा । यह कहकर उन्होंने अपने कुण्डल, कटिसूत्र आदि आभूषण उतार कर सारथी को दे दिये और रथ को मोड़ने के लिए कहा - "सारथि ! वापस चलो ! मुझे इस प्रकार का हिंसाकारी विवाह नहीं करना है ।' श्रीकृष्ण आदि बहुतों के समझाने पर भी वे नही माने और द्वारिका की ओर बिना व्याहे ही लौट चले । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ बहत् अस्ष्टिनेमि : बीका राजीमती के चेहरे पर जो गुलाबी खुशियां छाई हुई थी, वह प्रभु के वापस लौट जाने पर गायब हो गई। वह अपने भाग्य को कोसने लगी। उसे बहुत ही दुःख हुआ, अरिष्टनेमि उसके हृदय में बसे हुए थे। माता, पिता और सखियों ने समझाया 'अरिष्टनेमि चले गए तो क्या हुआ बहुत से अच्छे वर प्राप्त हो जायंगे।' उसने दृढता से कहा-"विवाह का बाह्य रीतिरस्म (वरण) भले ही न हुआ हो किन्तु अन्तरंग हृदय से मैंने वरण कर लिया है, अब मैं आजन्म उसी प्रभु की उपासना करूंगी। - वीक्षा मल: __अरहा अरिहनेमी दक्खे जाव तिनि वाससयाई अगारवासमझे वसित्ता णं पुणरवि लोयंतिएहिं जीयकप्पिएहिं देवेहि तं चेव सव्वं भाणियव्वं जाव दायं दाइयाणं परिभाएत्ता जे से वासाणं पढमे मासे दोच्चे पक्खे सावणसुद्धै तस्स णं सावणसुद्धस्स छट्ठोपक्खेणं पुव्वण्हकालसमयंसि उत्तरकुराए सीयाए सदेवमणु यासुराए परिसाए अणु गम्ममाणमग्गे जावबारवईए नगरीए मज्झ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव वय उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे सीय ठावेइ, सीयं ठवित्ता सीयाए पच्चोरुहइ, सीयाए पचोरुहित्ता सयमेव आभरण मल्लालंकारं ओमुयइ, ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोय करेइ, करित्ता छ?र्ण भत्तेणं अपाणएणं चित्ताहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं एगं देवदूसमादाय एगेणं पुरिससहस्सेणं सद्धिं मुण्डे भवित्ता अगाराओ अणगारियौं पव्वइए ॥१६४॥ अर्थ-अर्हत् अरिष्टनेमि दक्ष थे, यावत् वे तीन सौ वर्ष तक कुमार Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ अवस्था में गृहवास में रहे। उसके पश्चात् जिनके कहने का आचार है ऐसे लोकान्तिक देवों ने आकरके उनसे प्रार्थना की, संसार का कल्याण करने के लिए इत्यादि कथन जो पूर्व आ गया है वैसा ही यहाँ पर भी कहना। यावत् अभिनिक्रमण के पूर्व एक वर्ष तक दान दिया। ___ जब वर्षा ऋतु का प्रथम माम, द्वितीय पक्ष, अर्थात् श्रावण मास का शुक्ल पक्ष आया, उस श्रावण शुक्ला छ? के दिन, पूर्वाह्न के समय जिनके पीछे देव, मानव और असुरों की मण्डली चल रही है, ऐसे अरिष्टनेमि उत्तरकुरा नामक शिविका मे बैठकर यावत् द्वारिका नगरी के मध्य-मध्य में होकर निकलते हैं। निकलकर जिस तरफ रैवत नामक उद्यान है,२६ वहाँ आते है, आकर के उत्तम अशोक वृक्ष के नीचे, शिविका को खड़ी रखते है, खड़ी रखकर शिविका से उतरते है, उतरकर अपने ही हाथो से आभरण, मालाएँ और अलकारों को नीचे उतारते हैं। उतार कर अपने ही हाथों से पचमुष्टि लोच करते हैं, लोच करके, पानी रहित, षष्ठभक्त करके, चित्रा नक्षत्र का योग आते ही, एक देवदूष्य वस्त्र को लेकर हजार पुरुषों के साथ, मुडित होकर गृहवास को त्यागकर अनगारत्व को स्वीकार करते है। विवेचन-हिंसा को रोकने के लिए भगवान् बिना विवाह किये ही लौटे, किन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि लौटकर सीधे ही शिविका मे बैठकर प्रव्रज्या के लिए प्रस्थित नहीं हुए। यदि सीधे ही प्रस्थित होते हैं तो प्रश्न यह है कि उन्होंने वर्षीदान कब दिया ? क्या दूल्हा बनकर आने के पूर्व ही वर्षीदान दे चुके थे? नहीं। वे वहाँ से लौटकर घर पर आते है, एक वर्ष तक वर्षीदान देते हैं। उसके पश्चात् एक हजार पुरुषों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण करत हैं । सामायिक चरित्र ग्रहण करते हुए प्रभु को मनः पर्यव ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। इस बीच प्रेममूर्ति राजीमती अरिष्टनेमि की अपलक प्रतीक्षा करतो रही। वह निरन्तर यह सोचती रही कि भगवान् मेरी अवश्य ही सुध लेंगे। पर उसकी वह भावना पूर्ण नहीं हो सकी । बारह मास तक उसके अन्तर्ह दय में विविध संकल्प विकल्प उबुद्ध होते रहे, जिन्हें कवियों ने बारह मासा के के रूप में चित्रित किया है। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महंत बरिष्टनेमि : केवलज्ञान २३३ --. केवल ज्ञान मूल : ____ अरहा णं अरिटुनेमी चउप्पन्न राइंदियाई निच्चं वोस?काए चियत्तदेहे तं चेव सव्वं जाव पणपन्नइमस्स राइंदियस्स अंत. रावट्टमाणे, जे से वासाणं तच्चे मासे पंचमे पक्खे अस्सोयबहुले तस्म णं अस्सोयवहुलस्स पन्नरसीपक्खेणं दिवसस्स पच्छिमे भागे उप्पिं उज्जितसेलसिहरे वेउपायवस्म अहे अटणं भत्तेणं अपाणएणं चित्ताहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं झाणंतरियाए वट्टमाणस्स जाव अणते अणुत्तरे जाव सव्वलोए सव्वजीवाणं भावे जाणमाणे पासमाणे विहरइ ॥१६॥ अर्थ-अर्हत् अरिष्टनेमि चौपन रात्रि-दिन ध्यान में रहे। उन्होंने शरीर के लक्ष्य को छोड दिया। शारीरिक वासना छोड दी थी। इत्यादि सभी जो पूर्व आ चुका है, यहाँ भी समझ लेना चाहिए । अर्हत् अरिष्टनेमि के इस प्रकार ध्यान में रहते हुए पचपनवाँ रात्रि-दिन आ गया। जब वे पचपनवें रात्रिदिन मे संचरण कर रहे थे तब वर्षाऋतु का तृतीय माम, पाँचवाँ पक्ष, अर्थात् आश्विन कृष्णा अमावस्या के दिन अपराह्न में उज्जयत शैल शिखर (रैवताचल पर्वत) पर वेंत (वेतस) के वृक्ष के नीचे पानी रहित, अष्टम भक्त का तप किए हुए थे, इसी समय चित्रा नक्षत्र का योग आने पर ध्यान मे रहे हुए उन्हें अनन्त यावत् उत्तम केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न हुआ। अब वे समस्त द्रव्य और उनकी सम्पूर्ण पर्यायों को जानते हुए, देखते हुए विचरने लगे। विवेचन-भगवान् नेमिनाथ के दीक्षा ग्रहण करने के बाद राजीमती के रूप पर भगवान् नेमिनाथ का लघुभ्राता रथनेमि मुग्ध हो गया था। वह राजी. मती को अपने वश मे करने के लिए नित्य-नवीन उपहार भेजता। भोली-भाली राजीमती उसकी वह कुटिल चाल न समझ सकी। वह अरिष्टनेमि का ही उपहार समझकर प्रेमपूर्वक ग्रहण करती रही। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ कल्पसूत्र एक दिन एकान्त में राजीमती को देख, रथनेमि ने अपने हृदय की इच्छा अभिव्यक्त की । राजीमती ने जब वह बात सुनी तो सारा रहस्य समझ गई। दूसरे दिन जब रथनेमि आया तब उसे समझाने के लिए उसने सुगंधित पय-पान किया, और उसके पश्चात् वमन की दवा ( मदनफल ) ली । जब दवा के प्रभाव से वमन हुआ तो उसे एक स्वर्णपात्र में ग्रहण कर लिया, और रथ नेमि से बोली - 'जरा इसका पान करिये ।' - रथनेमि ने नाक भौं सिकोड़ते हुए कहा- 'क्या मैं श्वान हैं, जो इसका पान करू ?' वमन का पान तो श्वान करता है, इन्सान नहीं ।' राजमती ने कहा- "बहुत अच्छा ! तो मैं भी अरिष्टनेमि के द्वारा वमन की हुई हैं, फिर मुझ पर मुग्ध होकर मेरी इच्छा क्यों कर रहे हो ? तुम्हारा विवेक क्यों नष्ट हो गया है ? क्या यह भी वमनपान नही है " राजीमती की फटकार से रथनेमि लज्जित होकर नीचा शिर किये अपने घर को चला आया । २७ भगवान् के केवलज्ञान की सूचना प्राप्त होते ही श्रीकृष्ण आदि पहुचे । भगवान् के उपदेश से वरदत्त आदि दो हजार राजाओं ने प्रवज्या ग्रहण की । प्रभु ने चतुर्विध संघ की स्थापना की । श्री कृष्ण ने भगवान् से जिज्ञासा प्रस्तुत की कि भगवन्! राजीमती का आप पर इतना अपार स्नेह क्यों है ? समाधान करते हुई भगवान् ने कहा- आज से नौवें भाव में मैं 'धन' नामक राजपुत्र था ओर यह राजीमती का जीव धनवती नाम की मेरी पत्नी थी । वहाँ से मैं प्रथम देवलोक में देव बना और यह देवी बनी। वहां से च्युत होकर मेरा जीव चित्रगति नामक विद्याधर हुआ, और यह मेरी रत्नवती नामक पत्नी हुई । वहाँ से हम दोनों चतुर्थदेव लोक में उत्पन्न हुए। वहाँ से च्युत होकर मैं अपराजित नामक राजा हुआ, और यह प्रियतमा नामक रानी हुई । वहाँ से हम दोनों ग्यारहवें देवलोक देव हुए, । तत्पश्चात् मैं शंख नामक में राजा हुआ, और यह यशोमती नामक रानी हुई। वहीं से हम दोनों अपराजित Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ पहत् मरिष्टनेमि : राजोमती को दोक्षा : रयनेमि को प्रतिबोध देवलोक में देव हुए और वहां से च्युत होकर मैं अरिष्टनेमि हुआ और यह राजीमती हुई है । पूर्वभवों का स्नेह सम्बन्ध होने के कारण ही इसका अत्यधिक अनुराग मेरे प्रति हैं। --- . राजीमती को दीक्षा . रथनेमि को प्रतिबोध भगवान् वहाँ से विहार करके रैवतक पर्वत पर पधारे । समवसरण को रचना हुई । राजीमती विचारने लगी. भगवान् को धन्य है, जिन्होने मोह को जीत लिया है। धिक्कार है मुझे जो मैं मोह के दल-दल में फसी हूँ। मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि मै दोक्षा ले लूं।" _ऐसा दृढ सकल्प करके राजीमती ने कांगसी-कधी से संवारे हुए भंवर सदृश काले केशों को उखाड़ डाला। सर्व इंद्रियों को जीतकर दीक्षा के लिए तैयार हुई । श्री कृष्ण ने आशीर्वाद दिया हे कन्या ! इस भयंकर संमार-सागर से तू शीघ्र ही तर ।" राजीमती ने दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा लेने के पश्चात् एक बार राजीमती रैवतक पर्वत की ओर जा रही थी कि मूसलाधार वर्षा होने से उसके वस्त्र भीग गये। साथ को अन्य साध्वियां भी इधर-उधर हो गई। राजीमती ने वर्षा से बचने के लिए एक अंधेरी गुफा का आश्रय लिया । एकान्त स्थान समझकर समस्त गीले वस्त्र उतारकर सूखने के लिए फैला दिये । राजीमती की फटकार से प्रतिबुद्ध होकर रथनेमि प्रवजित हो गए थे। और वह उसी गुफा में ध्यान मग्न थे। आज बिजली की चमक में राजीमती को अकेली और निर्वस्त्र देखकर उसका मन पुन चलित हो गया। इतने में एकाएक राजोमती को भी दृष्टि उन पर पड़ी। उन्हें देखते ही वह सहम गई, भयभीत बनी, अपने अंगों का गोपन कर जमीन पर बैठ गई।'' काम-विह्वल रथनेमि ने राजीमती से कहा- हे सुरूपे ! मै रथनेमि हूँ। तू मुझे अंगीकार कर । तनिक मात्र भी सकोच न कर। आओ! इस एकान्त स्थान में हम भोग भोगें और सांसारिक भोगों का आनन्द लेने के पश्चात् फिर सयम ले लेंगे । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ་ ་་ - राजीमती ने देखा - रथनेमि का मनोबल टूट गया है। वे वासनाविह्वल होकर संयम से भ्रष्ट हो रहे हैं। उसने धैर्य के साथ कहा - भले ही तुम रूप में वैश्रमण के सदृश हो, भोग-लीला मे नल-कुबेर या साक्षात् इन्द्र के समान हो, तो भी मैं तुम्हारी इच्छा नही करती । " अगंधनकुल में उत्पन्न हुए सर्प प्रज्वलित अग्नि में जलकर मरना पसंद करते हैं, किन्तु वमन किये हुए विष को पुन: पीने की इच्छा नहीं करते । हे कामी ! वमन की हुई वस्तु को खाकर तू जीवित रहना चाहता है। इससे तो मरना श्रेयस्कर है । ३२ साध्वी राजीमती के सुभाषित वचन सुनकर जैसे हम्ती अकुश से वश में आता है वैसे ही रथनेमि का मन स्थिर हो गया । रथनेमि ने भगवान के पास जाकर आलोचना की । वे उत्कृष्ट तप तपकर मोक्ष गये । राजीमती चार सौ वर्ष तक गृहस्थाश्रम में रही, एक वर्ष छद्मावस्था में रही और पॉचसौ वर्ष केवली पर्याय में रहकर मुक्त हुई । शिष्य-संपदा २३६ मूल : अरहओ णं अरिट्ठनेमिस्स अट्ठारस गणा गणहरा होत्था । अरहओ णं अरिष्टनेमिस्स वरदत्तपामोक्खाओ अट्ठारस समणसाहसीओ उक्कोसिया समणसंपया होत्था । अरहओ णं अरिनेमिम्स अज्जजक्खिणिपामोक्रवाओ चत्तालीसं अज्जियासाहसीओ उक्कोसिया अज्जिया संपया होत्था । अरहओ अरिट्ठनेमिस्स नंदपा मोक्खाणं समणोवासगाणं एगा रायसाहस्मी अउणत्तरि च सहस्मा उक्कोसिया समणोवासग संपया होत्था । अरहओ अरिष्टनेमिस्स अरिट्ठनेमिस्स महासुव्वयापामोक्खाणं तिन्नि सयसाहस्सीओ छत्तीसं च सहस्सा उक्कोसिया समणोवासियाणं संपया होत्था । अरहओ अरिट्ठनेमिस्स चत्तारि सया चोहसपुव्वीणं Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हत् अरिष्टनेमि: शिष्य-संपदा १३७ अजिणाणं जिणसंकासाणं सव्वक्खर जाव होत्था । पण्णरस सया ओहिनाणीणं, पन्नरस सया केवलनाणीणं, पन्नरस सया वेव्वियाणं, दस या विउलमतीणं, अठ सया वाईणं, सोलस सया अणुत्तरोववाइयाणं, पन्नरससमणसया सिद्धा, तीसं अज्जियासयाई सिद्धाई ॥ १६६॥ अर्थ - अर्हत् अरिष्टनेमि के तीर्थ में अठारह गण, और अठारह गणधर थे । अर्हत् अरिष्टनेमि के समुदाय में वरदत्त आदि अठारह हजार श्रमणों की उत्कृष्ट श्रमण संपदा थी । अर्हत् अरिष्टनेमि के समुदाय में आर्य-यक्षिणी आदि चालीस हजार आर्यिकाओं की उत्कृष्ट आर्यिका सम्पदा थी । अर्हत् अष्टमि के समुदाय में 'नन्द' आदि एक लाख उनहत्तर हजार श्रमणोपासकों की उत्कृष्ट श्रमणोपासक संपदा थी । अर्हत् अरिष्टनेमि के समुदाय के महासुव्रता आदि तीन लाख छत्तीस हजार श्रमणोपासिकाओं की उत्कृष्ट श्रमणसंपदा थी । अर्हन् अरिष्टनेमि के संघ में जिन नहीं, किन्तु जिन के समान, तथा सभी अक्षरों के संयोग को यथार्थ जानने वाले ऐसे चारसौ चौदह पूर्वधारियों की सम्पदा थी । इसी प्रकार पन्द्रहसो अवधिज्ञानियों को, पन्द्रहसौ केवलज्ञानियों की, पन्द्रह सौ वैयिलब्धि धारियों की, एक हजार विपुलमति मनःपर्यवज्ञानियों की. आठसौ वादियों की, और सौलहसौ अनुत्तरोपपातिकों की उत्कृष्ट सपदा थी । उनके श्रमण समुदाय में पन्द्रहसौ श्रमण सिद्ध हुए, और तीन हजार श्रमणियाँ सिद्ध हुईं । यह उनके सिद्धों की सम्पदा थी । -- मूल : अरहओ णं अरिटूटनेमिस्स दुविहा अंतकडभूमी होत्था, तं जहा - जुगंतकडभूमी य परियायंतकडभूमी य जाव अटूटमाओ पुरिसज्जुगाओ जुगंतकडभूमी दुवासपरियार अंतमकासी ॥ १६७॥ अर्थ - अर्हत् अरिष्टनेमि के समय में अन्तकृतों की अर्थात् निर्वाण प्राप्त Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ करने वालों की भूमिका दो प्रकार की थी। जैसे-युग अन्तकृत्भूमि और पर्याय अंतकृतभूमि । यावत् अर्हत् अरिष्टनेमि के पीछे आठवें युगपुरुष तक निर्वाण का मार्ग चलता रहा, वह उनकी युग-अंतकृत् भूमि थी। अर्हत् अरिष्टनेमि को केवलज्ञान होने के दो वर्ष पश्चात् किसी श्रमण ने सर्व दुःखों का अन्त कर निर्वाण प्राप्त किया, अर्थात् भगवान को केवलज्ञान होने के पश्चात् दो वर्ष के बाद निर्वाण मार्ग प्रारम्भ हुआ। --.परिनिर्वाण तेणं कालेणं तेणं समएणं अरिहा अस्टिनेमी तिन्नि वाससयाई कुमारवासमझे वसित्ता, चउप्पन्नं राइंदियाई छउमत्थपरियागं पाउणित्ता, देसूणाई सत्त वाममयाइं केवलिपरियागं पाउणित्ता, पडिपुन्नाई सत्त वाससयाई सामन्नपरियागं पाउणित्ता, एगं वाससहस्स सबाउयं पालइत्ता, खीणे वेयणिज्जाउयनामगोत्ते इमीसे ओसप्पिणीए दुसमसुसमाए ममाए बहुवीइक्कंताए जे मे गिम्हाणं चउत्थे मासे अटमे पक्खे आसाढसुद्धे तस्स णं आसाढसुद्धस्म अठटमीपखणं उप्पि उज्जितसेलसिहरंसि पंचहिं छत्तीसेहिं अणगारसएहिं सद्धिं मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं चित्ताहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं पुव्वरत्तावरत्तकालसमयसि नेसज्जिए कालगए जाव सब्बदुक्खप्पहीणे ॥१६॥ अर्थ-उस काल उस समय अर्हन अरिष्टनेमि तीन सौ वर्ष तक कुमार अवस्था मे रहे । चोपन रात्रि दिन छद्मस्थ पर्याय में रहे। कुछ कम सात सौ वर्ष तक केवलज्ञानी अवस्था मे रहे। यों पूर्ण सात सौ वर्ष तक श्रमण पर्याय को पालन करके, और कुल एक हजार वर्ष का आयुष्य भोग करके, वेदनीय कर्म, आयुष्य कर्म, नाम कर्म, और गोत्र कर्म इन चारों अघाती कर्मों को पूर्णतया क्षोण करके, दुःषमा-सुषमा नामक अवसर्पिणी काल के बहुत व्यतीत हो Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महत् मरिष्टनेमि : परिनिर्वाण २३६ जाने पर, जब ग्रोष्मऋतु के चतुर्थमास का आठवां पक्ष, अर्थात् आषाढ़ मास का शुक्ल पक्ष आया, तब आषाढ़ शुक्ला अष्टमी के दिन उज्जित [उज्जयंत] शैल शिखर पर दूसरे पांच सौ छत्तीस अनगारों के साथ उन्होंने निर्जल मासिक तप किया। उस समय चित्रा नक्षत्र का योग आने पर रात्रि के पूर्व और अपर भाग की सन्धिवेला मे, अर्थात् मध्यरात्रि को निषद्या में रहे हुए, [बैठे बैठे] अर्हत्-अरिष्टनेमि कालगत हुए । यावत् सभी दुखों से पूर्णतया मुक्त हुए । मल: __ अरहओ णं अरिठटनेमिस्स कालगयस्स जाव सव्वदुक्खपहीणस्स चउरासीइ वाससहस्साई विइक्कंताई, पंचासीइमस्स य वामसहस्सस्स नव वाससयाई विइक्कताइ, दसमस्स य वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छइ ॥१६॥ अर्थ-अर्हत अरिष्टनेमि को कालगत हुए, यावत् सर्व दुःखों से पूर्णतया मुक्त हुए, चौरासी हजार वर्ष व्यतीत हो गये । और उस पर पचासीवें हजार वर्ष के नौ सौ वर्ष भी व्यतीत हो गये। उस पर दशवीं शताब्दी का यह अस्सीवें वर्ष का समय चल रहा है । अर्थात् अर्हत् अरिष्टनेमि को कालगत हुए चौरासी हजार नौ सौ अस्सी वर्ष व्यतीत हो गए। - अर्हत्नमि से अहंद अजित मल : नमिस्स णं अरहओ कालगयस्स जाव पहीणस्स पंच वाससयसहस्साह चउरासीइंच वाससहस्साइं नव य वाससयाई विहक्कंताइ, दसमस्स य वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छह ॥१७॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० अर्थ - अर्हत् नमि को कालगत हुए हुए पाँच लाख चौरासी हजार नौ सौ वर्ष शताब्दी का यह अस्सीबें वर्ष का समय चल रहा है । मूल : कल्प सून यावत् सर्वदुःखों से पूर्णतया मुक्त व्यतीत हो गये, उस पर दशमी मुनिसुव्वयस्स णं अरहओ कालगयस्स जाव प्पहीणस्स एक्कास वासस्यसहस्साइं चउरासी च वासहस्सा नव य वाससयाई विक्कताई दसमस्स य वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे गच्छह || १७१ ॥ अर्थ - अर्हत् मुनिसुव्रत को यावत् सर्वदुःखो से मुक्त हुए ग्यारह लाख चौरासी हजार और नौ सौ वर्ष व्यतीत हो गए, उस पर यह दशवीं शताब्दी का अस्सीव वर्ष का समय चल रहा है । विवेचन - अर्हत् मुनिसुव्रत जैन परम्परा के बीसवे तीर्थकर हुए। उनका समय वर्तमान भारतीय कालगणना के साथ कुछ मेल नही खाता है, इसके कई कारण हो सकते हैं । किंतु उनकी ऐतिहासिकता तो इसी बात से सिद्ध है कि महापद्म चक्रवर्ती उन्ही के समय में हुए जिनका प्रधान नमुचि हुआ, जिससे विष्णुकुमार मुनि ने तीन चरण भूमि मांगकर श्रमणों का संकट मिटाया । नौवें बलदेव मर्यादा पुरुषोत्तम राम, वासुदेव लक्ष्मण एव प्रति वासुदेव रावण भो अर्हत् मुनिसुव्रत स्वामी के समय में हुए, ऐसा जैन इतिहासकारो का सुदृढ़ मत है । ४ 3 मूल -X मल्लिस णं अरहओ जाव प्पहीणस्स पन्नट्ठि वाससयसहस्साइं चउरासीइं वाससहस्साइं नव य वास सयाइ विइक्क - ताई, दसमस्स य वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छइ ।। १७२ ॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महंत मर-कुन्थु-शान्ति-धर्म-अनन्त अर्थ-अर्हत् मल्लि को यावत् सर्व दुःखों से पूर्णतया मुक्त हुए पैंसठ लाख चौरासी हजार नौ सौ वर्ष व्यतीत हो गये। अब उस पर दशवीं शताब्दी का अस्सीवें वर्ष का समय चल रहा है।३५ मल: अरस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स एगे वासकोडिसहस्से वितिकते, सेसं जहा मल्लिस्स । तं च एवं-पंचसर्टि लक्खा चउरासीइसहस्सा विइकता तम्मि समए महावीरो निव्वुओ, ततो परं नव सया विइकता, दसमस्स य वाससयस्स अयं असीइमे सवच्छरे गच्छइ । एवं अग्गओ जाव सेयंसो ताव दट्ठव्वं ॥१७३॥ अर्थ-अर्हत् जर को यावत् सर्व दुःखों से पूर्णतया मुक्त हुए एक हजार करोड़ वर्ष व्यतीत हो चुके । यहाँ सम्पूर्ण वृत्त श्री मल्लि भगवती के सम्बन्ध में कहा वैसा ही जानना । वह इस प्रकार कहा है-"अर्हत् 'अर' के निर्वाण गमन के पश्चात् एक हजार करोड़ वर्ष में श्री मल्लि अर्हत् का निर्वाण हुआ, और अर्हत मल्लि के निर्वाण के बाद, पैंसठ लाख चौरासी हजार वर्ष व्यतीत हो गये उस समय महावीर निर्वाण प्राप्त हुए। उनके निर्वाण के बाद नौ सौ वर्ष व्यतीत हो गये, उस पर यह दशवीं शताब्दी का अस्सीवां वर्ष चल रहा है। इसी प्रकार आगे श्रेयांसनाथ का इतिवृत्त आता है वहाँ तक समझना चाहिए । मूल : कुंथुस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स एगे चउभागपलिओवमे विइक ते पंचसहिं च सयसहस्सा सेसं जहा मल्लिस्स ॥१७४॥ __अर्थ-अहंत् कुन्थु को यावत् सर्व दुःखों से पूर्णतया मुक्त हुए एक पल्योपम का चतुर्थ भाग जितना समय व्यतीत हो गया। उसके पश्चात् पैंसठ लाख, Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ वर्ष व्यतीत होने पर इत्यादि जो कथन भगवती मल्लि के सम्बन्ध में कहा है वैसा ही सब समझना चाहिए । मल: संतिस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स एगे चउभागूणे पलितोवमे विइक्क ते पन्नहिं च, सेसं जहा मल्लिस्स ॥१७५॥ ____ अर्थ-अर्हत् शान्ति को यावत् सर्व दुःखोंसे पूर्णतया मुक्त हुए चार भाग कम एक पल्योपम अर्थात् अर्धपल्योपम जितना समय व्यतीत हो गया, उसके पश्चात् पैंसठ लाख वर्ष व्यतीत हुए, इत्यादि सभी वृत जैसा भगवती मल्लि के सम्बन्ध में कहा है वैसा ही समझना चाहिए ।३६ मूल : धम्मस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स तिन्नि सागरोवमाई विइकताई पन्नहिं च, सेसं जहा मल्लिस्स ॥१७६॥ ___अर्थ-अर्हत् धर्म को यावत् सर्व दु.खों से पूर्णतया मुक्त हुए तीन सागरोपम जितना समय व्यतीत हुआ, उसके पश्चात् पैसठ लाख वर्ष व्यतीत होने पर इत्यादि सभी जैसे भगवती मल्लि के सम्बन्ध में जैसा कहा है, वैसा ही यहाँ भी समझना चाहिए। मूल : अणंतस्स णं जाव प्पहीणस्स सत्त सागरोवमाई विइकताइं पन्नहिं च, सेसं जहा मल्लिस्स ॥१७७॥ ___अर्थ-अर्हत् अनन्त को यावत् सर्व दु:खोंसे पूर्णतया मुक्त हुए सातसागरोपम जितना समय व्यतीत हो गया, उसके पश्चात् पैंसठ लाख वर्ष व्यतीत होने पर इत्यादि सभी जैसे भगवती मल्लि के सम्बन्ध में कहा है, वैसे ही जानना चाहिए । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महत् विमल-वासुपूज्य-अयांस-शीतल-सुधिषि-वन्दप्रम २४३ मूल : विमलस्स णं जाव प्पहीणस्स सोलस सागरोवमाई विडकताई पन्नहि च सेसं जहा मल्लिस ॥१७॥ अर्थ-अर्हत् विमल को यावत् सर्व दुःखों से पूर्णतया मुक्त हुए सोलह सागरोपम व्यतीत हो गये, और उसके पश्चात् पैंसठ लाख वर्ष व्यतीत हुए इत्यादि सभी जैसा मल्लि भगवती के सम्बन्ध में कहा वैसा ही जानना। मूल : वासुपुज्जस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स छायालीसं सागरोवमाई विइकंताई सेसं जहा मल्लिस ॥१७॥ अर्थ-अर्हत् वासुपूज्य को यावत् सर्व दुःखोंसे पूर्णतया मुक्त हुए छियालीस सागरोपम जितना समय व्यतीत हुआ, और उसके बाद पैंसठ लाख वर्ष व्यतीत हो जाने पर, इत्यादि सभी वृत्त जैसे मल्लि भगवती के सम्बन्ध में कहा वैसे ही जानना। मल: सेज्जंसस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स एगे सागरोवमसए विइक्वते पन्नहिं च सेसं जहा मल्लिस्स ॥१८॥ ___अर्थ-अर्हत् श्रेयांस को यावत् सर्व दुःखों से पूर्णतया मुक्त हुए एक सौ सागरोपम जितना समय व्यतीत हो गया। उसके पश्चात पैंसठ लाख वर्ष व्यतीत होने पर इत्यादि सभी जैसे मल्लि भगवतो के सम्बन्ध में कहा, वैसे ही जानना । मल: सीयलस्स णं जाव प्पहीणस्स एगा सागरोवमकोडी तिवासअड्ढनवमासाहियबायालीसवाससहस्सेहिं उणिया विकता Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ एयम्मि समए वीरे निव्वुए, तओ वि य णं परं नव वाससयाई विकताई, दसमस्स य वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छइ ॥१८१॥ __अर्थ-अर्हत् शीतल को यावत् सर्व दु:खोंसे पूर्णतया मुक्त हुए बयालीस हजार तीन वर्ष और साढ़े आठ मास न्यून एक करोड़ सागरोपम व्यतीत होने पर भगवान महावीर निर्वाण को प्राप्त हुए, और उसके पश्चात् नौ सौ वर्ष व्यतीत हो गये, उसके उपरान्त यह दशवीं शताब्दी का अस्सीवां वर्ष चल रहा है। मूल: सुविहिस्स णं अरहओ पुष्पदंतस्स काल जाव सव्वदुक्खप्पहीणस्स दस सागरोवमकोडीओ विइकताओ, सेसं जहा सीअलस्स, तं च इमं-तिवासअद्धनवमासाहिअबायालीसवाससहस्सेहिं ऊणिआ विइकता इच्चाइ ॥१८२॥ अर्थ--अर्हत् सुविधि को यावत् सर्व दुःखों से पूर्णतया मुक्त हुए दस करोड़ सागरोपम का समय व्यतीत हो गया, अन्य सभी वृत्तान्त जैसा शीतल अर्हत् के सम्बन्ध में कहा है वैसा जानना। वह इस प्रकार है-अर्थात् दस करोड सागरोपम में से बयालीस हजार और तीन वर्ष, तथा सार्ध अष्टमास कम करके जो समय आता है उस समय महावीर निर्वाण को प्राप्त हुए। उसके पश्चात् नौ सौ वर्ष व्यतीत हुए, इत्यादि सभी पूर्ववत् कहना। मल: चंदप्पहस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स एगं सागरोवमकोडिसयं विइक्कत सेसं जहा सीतलस्स, तं च इमं-तिवासअद्धनवमासाहिय बायालीस (वास) सहस्सेहिं ऊणिगामिच्चाइ ।।१८३॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हत् सुपार्श्व पद्मप्रभ सुमति - प्रभिनंदन संभव ૧૪૧ अर्थ - अर्हत् चन्द्रप्रभ को यावत् सर्व दुःखों से मुक्त हुए एक सौ करोड़ सागरोपम जितना समय व्यतीत हो गया, शेष सभी जैसे शीतल अर्हत् के विषय में कहा वैसे जानना । वह इस प्रकार है- इन सौ करोड़ सागरोपम में से बयालीस हजार तीन वर्ष और साढ़े आठ मास व्यतीत होने पर जो समय आता है, उस समय महावीर निर्वाण प्राप्त हुए, और उसके पश्चात् नौ सौ वर्ष व्यतीत हो गए, इत्यादि पूर्ववत् समान समझना । मूल : सुपासस्स णं जाव प्पहीणस्स एगे सागरोवमकोडी सहस्से विइक ते, सेसं जहा - सीयलस्स, तं च इमं - तिवासअद्धनवमासाहियबायालीस सहस्सेहिं ऊणिया विइक्कता इच्चाइ ॥ १८४ ॥ अर्थ - अर्हत् सुपार्श्व को यावत् सर्व दुःखोंसे पूर्णतया मुक्त हुए एक हजार करोड़ सागरोपम जितना समय व्यतीत हो गया, शेष सभी जैसे शीतल के विषय में कहा है वैसे जानना । वह इस प्रकार है-एक हजार करोड़ सागरो पम में से बयालीस हजार तीन वर्ष और साढ़े आठ मास कम करके जो समय आता है उस समय भगवान् महावीर निर्वाण को प्राप्त हुए। इत्यादि सभी पूर्ववत् ही कहना चाहिए । मूल -- पउम पभस्स णं जाव प्पहीणस्स दससागरोवमकोडसहस्सा विक्कता, सेसं जहा -सीयलस्स, तिवासअद्धनवमासाहियबायालीससहस्सेहिं ऊणिया विइक्कता इच्चाइयं ॥ १८५ ॥ अर्थ - अर्हत् पद्मप्रभ को यावत् सर्व दुःखों से पूर्णतया मुक्त हुए दस हजार करोड़ सागरोपम जितना समय व्यतीत हो गया । शेष सारा वृत्त जैसे शीतल के सम्बन्ध मे कहा है वैसा जानना । वह इस प्रकार है- इन दस हजार करोड़ सागरोपम जितने समय में से बयालीस हजार, तीन वर्ष और साढ़े आठ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूध मास कम करके जो समय आता है उस समय महावीर का निर्वाण हुआ। इत्यादि सभी पूर्ववत् कहना चाहिए। मूल : सुमइस्स णं जाव प्पहीणस्स एगे सागरोवमकोडी सयसहस्से विइकते, सेसं जहा सीयलस्स, तिवासअद्धनवमासाहियबायालीससहस्सेहि इचाइयं ॥१८६॥ अर्थ-अर्हत् सुमति को यावत् सर्व दुःखोंसे पूर्णतया मुक्त हुए एक लाख करोड़ सागरोपम जितना समय व्यतीत हो गया, शेष सभी शीतल के सम्बन्ध में जो कहा वैसे ही जानना। वह इस प्रकार है- एक लाख करोड़ सागरोपम जितने समय मे से बयालीस हजार तीन वर्ष और साढ़े आठ मास कम करके जो समय आता है उस समय महावीर निर्वाण को प्राप्त हुए इत्यादि । मूल : अभिनंदणस्स णं जाव प्पहीणस्स दस सागरोवमकोडीसयसहस्सा विइक्कंता, सेसं जहा सोयलस्स, तिवासअद्धनवमासाहियबायालीससहस्सेहिं इच्चाइयं ॥ ७॥ अर्थ-अर्हत् अभिनन्दन को यावत् सर्व दु.खों से पूर्णतया मुक्त हुए दस लाख करोड़ सागरोपम जितना समय व्यतीत हो गया। शेष सभी जैसे शीतल के सम्बन्ध में कहा वैसे ही जानना। अर्थात् दस लाख करोड़ सागरोपम में से बयालीस हजार और तीन वर्ष तथा साढ़े आठ मास कम करने पर जो समय आता है, उस समय महावीर निर्वाण को प्राप्त हुए। इत्यादि सभी पूर्व के समान समझना। मूल : संभवस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स वीसं सागरोवम Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहत् अजित : भगवान बमदेव २४७ कोडिसयसहस्सा विकता सेसं जहा सीयलस्स, तिवासअद्धनवमासाहियबायालीसवाससहस्सेहिं इच्चाइयं ॥१८॥ अर्थ-अर्हत् संभव को यावत् सर्व दु.खों से मुक्त हुए बीस लाख करोड़ सागरोपम जितना समय व्यतीत हो गया। शेष सभी शीतल के सम्बन्ध में कहा वैसे ही जानना चाहिए। अर्थात् बीस लाख करोड़ सागरोपम जितने समय में से बयालीस हजार तीन वर्ष और साढ़े आठ मास को कम करके जो समय आता है उस समय महावीर निर्वाण को प्राप्त हुए। मूल :-- अजियस्स णं जाव प्पहीणस्स पन्नासं सागरोवमकोडिसयसहस्सा विइक्कता, सेसं जहा सीयलस्स, तिवासअद्धनवमासाहियबायालीसदाससहस्सेहिं इच्चाइयं ॥१८॥ अर्थ-अर्हत् अजित को यावत् सर्व दुःखों से मुक्त हुए पचास लाख करोड़ सागरोपम बीत गए । इस समय में बयालीस हजार तीन वर्ष और साढ़े आठ मास कम करके जो समय आता है उस समय महावीर निर्वाण को प्राप्त हुए इत्यादि सभी पूर्ववत् समझना। ----. भगवान ऋषभदेव मूल : तेणं कालेणं तेणं समएणं उसहे णं अरहा कोसलिए चउ उत्तरासाढे अभीइपंचमे होत्था, तं जहा-उत्तरासाढाहिं चुए चइत्ता गब्भ वक्ते जाव अभीइणा परिनिव्वुए ॥१०॥ ___ अर्थ-उस काल उस समय कौलिक (कोशला-अयोध्या नगरी में हुए) अर्हत् ऋषभ चार उत्तराषाढा वाले और पांचवें अभिजित नक्षत्र वाले थे। अर्थात् उनके चार कल्याणकों में उत्तराषाढा नक्षत्र आया था। पांचवें कल्याणक के समय अभिजित नक्षत्र था। जैसे-कोशलिक अर्हत् ऋषभदेव Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र उत्तराषाढा नक्षत्र में च्युत हुए और च्युत होकर गर्भ में आये, यावत् अभिजित नक्षत्र में निर्वाण को प्राप्त हुए । : मूल २४८ तेणं कालेणं तेणं समएणं उसमे णं अरहा कोसलिए जे से गिम्हाणं चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे आसाढ़बहुले तस्स णं आसाढ़बहुलस्स चउत्थीपक्खेणं सव्वद्वसिद्धाओ महाविमाणाओ तेत्तीस सागरोमद्वितीयाओ प्रणंतरं चयं चइता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भार वासे इक्खागभूमीए नाभिस्स कुलगरस्स मरुदेवीए भारियाए पुव्वरत्तावरत्त कालसमयंसि आहारवक्कंतीए जाव गभत्ताए वक्कते ॥ १६१॥ अर्थ - उस काल उस समय कोशलिक अर्हत् ऋषभ ग्रीष्म ऋतु का चतुर्थ मास, सातवाँ पक्ष अर्थात् आषाढ मास का कृष्ण पक्ष आया, तब उस आषाढ कृष्णा चतुर्थी के दिन जिसमें तेतीस सागरोपम की आयु होती है, उस सर्वार्थसिद्ध नामक महाविमान में से आयुष्य आदि पूर्ण होने पर, दिव्य आहार आदि छूट जाने पर यावत् शीघ्र ही व्यवकर इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, इक्ष्वाकुभूमि में नाभि कुलकर की भार्या मरुदेवो को कुक्षि में रात्रि के पूर्वान्ह और अपरान्ह की सन्धिवेला में, अर्थात् मध्यरात्रि में उत्तराषाढा नक्षत्र का योग होने पर गर्भ रूप में उत्पन्न हुए । • पूर्वभव विवेचन - भगवान् श्री ऋषभदेव के जीव को सर्व प्रथम धन्ना सार्थवाह के भव में सम्यग्दर्शन का आलोक प्राप्त हुआ था । उस समय वे मिथ्यात्व से मुक्त हुए थे, अतः ऋषभदेव के तेरह पूर्व भवों का उल्लेख अनेक ग्रन्थों में किया गया है। (१) धना सार्थवाह - भगवान् श्री ऋषभदेव का जीव एक बार अपर महाविदेह क्षेत्र के क्षितिप्रतिष्ठ नगर में धन्य नामक सार्थवाह हुआ । उसके 315 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् अषमदेव : पूर्वमव २४६ पास विपूल वैभव था। वह सुदूर विदेशों में व्यापार करता था। एक बार उसने यह उद्घोषणा करवाई कि जिसे वसन्तपुर व्यापारार्थ चलना हो वह मेरे साथ चले। मैं उसे सभी प्रकार को सुविधाएं दूंगा। शताधिक व्यक्ति व्यापारार्थ उसके साथ प्रस्थित हुए। धर्मघोष आचार्य शिष्यों सहित वसन्तपुर धर्म प्रचारार्थ जाना चाहते थे। विकट संकटमय पथ होने से बिना साथ के जाना असंभव था, उद्घोषणा सुन, आचार्य श्रेष्ठी के पास गये और माथ चलने की भावना अभिव्यक्त की। श्रेष्ठी ने अपने भाग्य की सराहना करते हुए अनुचरों को आदेश दिया कि श्रमणों के लिए भोजनादि की सुविधा का पूर्ण ध्यान रखना। आचार्य ने श्रमणाचार का विश्लेषण करते हुए बताया कि श्रमण के लिए औद्देशिक, आधार्मिक आदि दोषयुक्त आहार निषिद्ध है। उसी समय एक अनुचर आम लेकर आया । श्रेष्ठी ने आम ग्रहण करने के लिए प्रार्थना की। आचार्य ने बताया कि जैन श्रमण के लिए सचित्त पदार्थ भी अग्राह्य है। श्रमण की कठोरचर्या को सुनकर श्रेष्ठी श्रद्धावनत हो गया। ___ आचार्य भी सार्थ के साथ पथ को पार करते हुए बढ़े जा रहे थे । वर्षा ऋतु आई । आकाश में उमड़-घुमड़कर घनघोर घटाएं छाने लगी और रिमझिम वर्षा बरसने लगी। उस समय सार्थ भयानक अटवी में से गुजर रहा था। मार्ग कीचड़ से व्याप्त था। सार्थ उसी अटवी में वर्षावास व्यतीत करने हेतु रुक गया । आचार्य भी निर्दोष स्थान में स्थित हो गये। उस अटवी में सार्थ को संभावना से अधिक रुकना पड़ा, अत: साथ की खाद्य-सामग्री समाप्त हो गयी। क्षुधा से पीड़ित हो सार्थ के लोग अरण्य में कन्द मूलादि की अन्वेषणा कर जीवन व्यतीत करने लगे। वर्षावास के उपसहार काल में धन्य सार्थवाह को अकस्मात् स्मृति आई कि मेरे साथ जो आचार्य प्रवर आये थे, मैंने उनकी सुध नहीं ली। उनके आहार की क्या व्यवस्था है ? वह शीघ्र ही आचार्य के पास गया, और आहार की अभ्यर्थना की। आचार्य ने उसे कल्प और अकल्प को समझाया, कल्प और Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० अकल्प का परिज्ञान कर उसने उत्कृष्ट भावना से प्रासुक विपुल घृत दान दिया। शुद्ध भावना के फलस्वरूप सम्यक्त्व की उपलब्धि हुई । ३९ (२) उत्तर कुरु में मनुष्य-वहाँ से धन्य सार्थवाह का जीव आयुपूर्णकर दान के प्रभाव से उत्तर कुरु मे मनुष्य हुआ। (३) सौधर्म देवलोक-वहाँ से धन्ना सार्थवाह का जीव सौधर्म कल्प में देव रूप में उत्पन्न हुआ। (४) महाबल-वहां से च्यवकर धन्ना सार्थवाह का जीव पश्चिम महाविदेह के गंधिलावती विजय में वैताढ्य पर्वत की विद्याधरश्रेणी के अधिपति शतबल राजा का पुत्र महाबल हुआ। महाबल के पिता को संसार से विरक्ति हुई पुत्र को राज्य देकर स्वय श्रमण बन गये। __एक बार सम्राट महाबल अपने प्रमुख अमात्यों के साथ राज-सभा मे बैठे हुए मनोविनोद कर रहे थे । तब स्वय बुद्ध अमात्य ने राजा को धर्म का मर्म समझाया, राजा पुत्र को राज्य देकर मुनि बना, दुष्कृत्यो की आलोचना की और बाईस दिन का संथारा कर समाधिपूर्वक आयु पूर्ण किया। (५) ललिताङ्ग देव-वहाँ से धन्ना सार्थवाह का जीव ऐशानकल्प में ललिताङ्ग देव बना, वहाँ स्वयप्रभा देवी मे वह इतना आसक्त हो गया कि स्वयं प्रभादेवी का च्यवन होने पर ललितांग देव उसके विरह मे आकुल-व्याकुल बन गया। तब स्वयं बुद्ध अमात्य के जीव ने जो उसी कल्प में देव हुआ था, आकर उसे सांत्वना दी। स्वयं प्रभादेवी भी वहा से च्यवकर मानव लोक में निर्यामिका नाम की बालिका हुई। केवली के उपदेश से श्राविका बनकर पुन: आयु पूर्णकर उसी कल्प में स्वयंप्रभा देवी हो गई। ललिताङ्गदेव पुनः उसमें आसक्त हो गया । जीवन के अन्त में नमस्कार महामत्र का जाप करते हुए आयु पूर्ण की। (६) वनजंघ-वहाँ से च्यवकर ललिताङ्गदेव का जीव जम्बूद्वीप की पुष्कलावती विजय में लोहार्गला नगर के अधिपति स्वर्णगंध सम्राट् की पत्नी लक्ष्मी देवी की कुक्षि में उत्पन्न हुआ। वज्रजघ नाम दिया गया। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् अपमदेव : पूर्वमव २५१ ___स्वयंप्रभा देवी भी वहाँ से आयु पूर्ण कर पुण्डरीकिनी नगरी में वज्रसेन राजा की पुत्री 'श्रीमती' हुई । एक बार 'श्रीमती' महल की छत पर घूम रही थी कि उस समय पास के एक उद्यान में मुनि को केवलज्ञान हुआ। उसके महोत्सव करने हेतु देव-गण आकाश मार्ग से जा रहे थे । आकाश मार्ग से जाते हुए देव समूह को निहारकर श्रीमती को पूर्व भव की स्मृति उबुद्ध हुई। उसने वह स्मृति एक चित्रपट्ट पर अंकित की। पण्डिता परिचारिका उम चित्रपट्ट को लेकर राजपथ पर, जहाँ चक्रवर्ती वज्रसेन की वर्षगांठ मनाने हेतु अनेक देशों के राजकुमार आ-जा रहे थे, वहाँ खड़ी हो गई। वज्रजंघ राजकुमार ने ज्योंही वह चित्र देखा त्योंही उसे भी पूर्वभव की स्मृति जागृत हो गई। चित्र-पट्ट का सारा इतिवृत्त पण्डिता परिचारिका को बताया। परिचारिका ने श्रीमती को, और पुनः श्रीमती की प्रेरणा से चक्रवर्ती वज्रसेन को परिचय दे श्रीमती का वज्रजंघ के साथ पाणिग्रहण करवाया। श्रीमती के पिता वज्रसेन ने संयम ले लिया । तब सीमा प्रान्तीय नरेश सम्राट् पुष्करपाल की आज्ञा का उल्लंघन करने लगे। वज्रजंघ उसकी सहायतार्थ गया एव शत्रुओं पर विजय वैजयंती फहराकर वह पुनः अपनी राजधानी को लौट रहा था, उसे ज्ञात हुआ कि प्रस्तुत अरण्य में दो मुनियों को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है, उनके दिव्य प्रभाव से दृष्टिविष सर्प भी निर्विष हो गया । वज्रजंघ मुनियों के दर्शन करने के लिए गया। उपदेश सुन वैराग्य हुआ। पुत्र को राज्य देकर संयम ग्रहण करूँगा, इस भावना के साथ वह वहाँ से प्रस्थान कर राजधानी पहुँचा । इधर पुत्र ने सोचा कि पिताजी जीते जी मुझे राज्य देंगे नही, अतएव राज्य लोभ में फंसकर उसने उसी रात्रि को वज्रजंघ के महल में जहरीला धुआ फैलाया, जिसकी गंध से वज्रजंघ और 'श्रीमती' दोनों ही मृत्यु को प्राप्त हुए। (७) युगलिक-वहाँ से दोनों ही आयु पूर्ण कर उत्तरकुरु में युगल-युगलिनी बने। (८) सौधर्म कल्प-वहाँ से आयु पूर्ण कर सौधर्म कल्प में देव बने । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूम (६) जीवानन्द वैद्य - वहाँ से व्यवकर धन्नासेठ का जीव जीवानन्द वैद्य बना । उस समय वहाँ पाँच अन्य जीव भी उत्पन्न हुए (१) राजा का पुत्रमहीधर, (२) मत्रीपुत्र सुबुद्धि, (३) सार्थवाह पुत्र पूर्णभद्र, (४) श्रेष्ठीपुत्र गुणाकर ( ५ ) ईश्वरदत्त पुत्र केशव ( जो श्रीमती का जीव था ) इन छहों मित्रों में पयः पानी जैसा प्रेम था । २५२ अपने पिता की तरह जीवानन्द वैद्य भी आयुर्वेद विद्या में प्रवीण था । उसकी प्रतिभा की तेजस्विता से सभी प्रभावित थे । एक दिन सभी स्नेही साथ वार्तालाप कर रहे थे कि वहाँ एक दीर्घतपस्वी मुनि भिक्षा के लिए आये । वे कृमि कुष्ठ की भयंकर व्याधि से ग्रसित थे । सम्राट् पुत्र महीधर ने जीवानंद से कहा - मित्रवर ! आप अन्य गृहस्थ लोगों की चिकित्सा करने में दक्ष हैं, पर कृमिकुष्ट रोग से ग्रसित इन तपस्वी मुनि को निहार करके भी उनकी चिकित्सा हेतु प्रवृत्त क्यों नही होते ? जीवानन्द - मित्र, तुम्हारा कथन सत्य है, पर मेरे पास लक्षपाक तैल के अतिरिक्त अन्य आवश्यक औषधियाँ अभी उपलब्ध नही हैं । उन्होंने कहा—- बताइए, क्या औषधियाँ चाहिए ? हम मूल्य देंगे, जहाँ भी उपलब्ध हो सकेंगी, लाने का प्रयास करेंगे । जीवानन्द - दो वस्तुएँ चाहिए, रत्न- कंबल, और गोशीर्ष चन्दन ? पाँचों ही साथी औषधि लाने के लिए एक श्रेष्ठी की दुकान पर पहुंचे । श्रेष्ठी ने कहा- प्रत्येक वस्तु का मूल्य एक-एक लाख दीनार है । वे उस मूल्य को देने के लिए ज्योंही प्रस्तुत हुए, त्योंही श्रेष्ठी ने प्रश्न किया कि ये अमूल्य वस्तुएँ किसलिए चाहिए ? उन्होंने कहा- मुनि की चिकित्सा के लिए । मुनि का नाम सुनकर वे दोनों ही वस्तुएँ बिना मूल्य लिये श्रेष्ठी ने दे दी। वे उन वस्तुओं को लेकर वैद्य के पास गए। साथियों के साथ ही जीवानन्द वंद्य औषधियां लेकर मुनि के पास गया। मुनि ध्यानमुद्रा मे लीन थे। मुनि की बिना स्वीकृति लिये ही मुनि को आरोग्य प्रदान करने हेतु उन्होंने तेल का मर्दन किया । उष्णवीर्य तैल के प्रभाव Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान ऋषभदेव : पूर्वभव से कृमियां बाहर निकलने लगीं। तो शीतवीर्य रत्न कम्बल से उनके शरीर को आच्छादित कर दिया गया, जिससे वे कृमियाँ रत्न - कम्बल में आ गई । उसके पश्चात् रत्न-कम्बल की कृमियों को गो-चर्म में रख दिया। पुनः मर्दन किया, तो मांसस्थ कृमियाँ निकल गईं, तृतीय बार के मर्दन से अस्थिगत कृमियाँ निकल गई । उसके पश्चात् गोशीर्ष चन्दन का लेप किया, जिससे मुनि पूर्ण स्वस्थ हो गये। छहों मित्र मुनि की स्वस्थता देखकर बहुत प्रमुदित हुए । २५३ छहों मित्रों को संसार से विरक्ति हुई। उन्होंने दीक्षा ग्रहणकर उत्कृष्ट तपः साधना की । (१०) बारहवें देवलोक में - वहाँ से आयु पूर्णकर बारहवें अच्युत देव लोक में वे उत्पन्न हुए । (११) वष्त्रनाभ - जीवानंद का जीव वहाँ से आयु समाप्त होने पर पुष्कलावती विजय की पुण्डरीकिणी नगरी के अधिपति वज्रसेन राजा की धारिणी रानी की कुक्षि में उत्पन्न हुआ । उत्पन्न होते ही माता ने चौदह महास्वप्न देखे | जन्म होने पर पुत्र का नाम वज्रनाभ रखा गया। पूर्व के पांचों साथियों में से चार तो क्रमशः बाहु, सुबाहू, पीठ, महापीठ, उनके भ्राता हुए और एक उनका सारथी हुआ । वज्रनाभ को राज्य देकर वज्यसेन ने संयम ग्रहण किया और उत्कृष्ट सयम साधना कर कैवल्य प्राप्त किया । वह तीर्थकर बने । सम्राट् वज्रनाभ ने भी चक्र रत्न उत्पन्न होने पर षट्खण्ड को विजय कर चक्रवर्ती पद प्राप्त किया । दीर्घकाल तक षट्खण्ड का राज्य किया और अन्त में पिता वज्रसेन के उपदेशप्रद प्रवचन सुनकर विरक्ति हुई । वज्रनाभ भी अपने प्रिय भ्राताओं और सारथी के साथ प्रव्रजित हुआ । आगमों का गम्भीर चिन्तन मनन किया, उत्कृष्ट तप की साधना की, अनेक चामत्कारिक लब्धियाँ प्राप्त हुई । तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया। अन्त में मासिक संलेखना पूर्वक पादपोपगमन संथारा कर समाधिपूर्वक आयु पूर्ण किया । यहाँ पर स्मरण रखना चाहिए कि वज्रनाभ के शेष चारों लघु Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૪ अल्प भ्राताओं ने एकादश अंगों का अध्ययन किया। उनमे से बाहमुनि मुनियों की वयावृत्य करता, और सुबाहुमुनि परिश्रान्त मुनियों को विश्रामणा देता, अर्थात् थके हुए मुनियों के अवयवों के मर्दन आदि रूप अन्तरंग मेवा करता। दोनों को सेवा-भक्ति को निहारकर वज्रनाभ अत्यधिक प्रसन्न हुए और उनकी प्रशसा करते हुए कहा-तुमने सेवा और विश्रामणा के द्वारा अपने जीवन को सफल किया है। ___ ज्येष्ठ भ्राता के द्वारा अपने मझले भ्राताओं की प्रशंसा सुनकर पीठ, महापीठ मुनि के अन्तर्मानस में ये विचार उत्पन्न हुए कि हम स्वाध्याय आदि मे तन्मय रहते हैं, हमारी कोई प्रशंसा नहीं करता, पर वैयावृत्य करने वालों की प्रशंसा होती है । इस प्रकार मन में ईष्या उत्पन्न हुई। उस ईा-बुद्धि से व माया की तीव्रता से मिथ्यात्व आया और स्त्री वेद का बन्धन हुआ । कृतदोष की आलोचना नही की । यदि नि शल्य होकर आलोचना करते तो जीवन अवश्य ही विशुद्ध बनता।' (१२) सर्वार्थसिद्ध में-वहाँ से आयु पूर्णकर वज्रनाभ आदि पाँचो भाई सर्वार्थसिद्ध विमान मे उत्पन्न हुए । वहा तेतीम सागरोपम तक सुख के सागर में निमग्न रहे। (१३) ऋषभदेव-वहाँ से सर्वप्रथम आयु पूर्णकर वज्रनाभ का जीव, भगवान् ऋषभदेव हुआ। बाहुमुनि का जीव वैयावृत्य के प्रभाव से श्री ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती के रूप में जन्मा, सुबाहुमुनि का जीव मुनियों को विश्रामणा देने से विशिष्ट बाहुबल का अधिपति ऋषभदेव का पुत्र बाहुबली हुआ। पीठ, महापीठ मुनि के जीव कृत-दोषों की आलोचना न करने से ऋषभदेव की पुत्रियाँ ब्राह्मी और सुन्दरी हुई। और सारथी का जीव श्रेयांसकुमार हुआ। मूल : उसभे अरहा कोसलिए तिन्नाणोवगए होत्था तं जहाचहस्सामि त्ति जाणइ जाव सुमिणे पासइ, तं जहा-गय उसह० Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ সমান যেমন : জম २५५ गाहा, सव्वं तहेवं, नवरं सुविणपाढगा, गत्थि, नाभी कुलगरो वागरेइ ॥१६२॥ अर्थ-कौश लिक अर्हत् ऋषभ तीन ज्ञान से युक्त थे। वह इस प्रकार'मैं च्युत होऊँगा', इस प्रकार वे जानते थे, इत्यादि सभी पहले भगवान् महावीर के प्रकरण में जो कहा है वैसा ही कहना, यावत् माता स्वप्न देखती है । वे स्वप्न इस प्रकार है गज, वृषभ आदि । विशेष यह कि वह प्रथम स्वप्न में वृषभ को मुख में प्रवेश करती हुई देखती है । (स्मरण रखना चाहिए कि अन्य सभी तीर्थंकरों की माताएँ प्रथम स्वप्न में मुख में प्रवेश करते हुए हाथी को देखती हैं) स्वप्न का सारा वृत्तान्त मरुदेवी नाभि कुलकर से कहती है । यहाँ स्वप्नों के फल बताने वाले, स्वप्न पाठक नही है । अतः स्वप्नों के फल को नाभि कुलकर स्वय कहते हैं। ---• जन्म मल : तेणं कालेणं तेणं समएणं उसमे अरहा कोसलिए जे से गिह्माणं पढमे मासे पढमे पक्खे चित्तबहुले तस्म णं चित्तबहुलस्स अट्ठमीपक्खेणं नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अद्धट्ठमाण य राइंदियाणं जाव आसाढाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं आरोग्गा आरोग्गं पयाया, तं चेव जाव देवा देवीओ य वसुहारवासं वासिंसु सेसं तहेव चारगसोहणं माणुम्माणवडणं उस्सुकमाईयं ठिइपडियवज्ज सव्वं भाणियव्वं ॥१३॥ अर्थ- उस काल उस समय ग्रीष्म ऋतु का प्रथम मास, प्रथम पक्ष, अर्थात् जब चैत्र मास का कृष्ण पक्ष आया, तब चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन, नौ मास और ऊपर साढ़े सात रात्रि दिन व्यतीत होने पर, यावत् आषाढ़ा नक्षत्र का योग होते ही आरोग्यवाली माता ने आरोग्यपूर्वक कोशलिक अर्हत् ऋषभ नामक पुत्र को जन्म दिया । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ यहां पहले कहे हुए के समान जन्म सम्बन्धी सारा वृत्त कहना। यावत् देव-देवियाँ आती हैं, वसुधाराएँ वर्षाती है आदि, किन्तु कारागृह से बन्दियो को मुक्त करना, कर माफ करना, परम्परानुसार जन्मोत्सव आदि प्रस्तुत वर्णन जो पूर्व पाठ में आया है वह यहां पर नहीं कहना चाहिए, क्योंकि उस युग में न कारागृह थे और न कर आदि ही थे। मल: उसमे णं कोसलिए कासवगुत्तेणं, तस्स णं पंच नामधिज्जा एवमाहिज्जंति,तं जहा-उसमे इवा, पढमराया इवा, पढमभिक्खाचरे इवा, पढमजिणे इ वा, पढमतित्थकरे इ वा ॥१६४॥ ___ अर्थ - कौशलिक अर्हत ऋषभ काश्यपगोत्रीय थे। उनके पाँच नाम इस प्रकार कहे जाते हैं (१) ऋषभ, (२) प्रथम राजा, (३) प्रथम भिक्षाचर, (४) प्रथम जिन और (५) प्रथम तीर्थंकर । भगवान ऋषभदेव के जन्म से पहले योगलिक काल था, किन्तु उसमें परिवर्तन होता जा रहा था। अनुक्रम से आवश्यकताएं तो बढ़ रही थीं, पर कल्पवृक्षों की शक्ति क्षीण होती जाने से आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पारही थी। साधनाभाव से परस्पर संघर्ष होने लगा। अपराधी मनोवृत्ति जब व्यवस्था का अतिक्रमण करने लगी, तब अपराधों के निरोध के लिए कुलकर व्यवस्था आई, जिसने सर्वप्रथम दण्डनीति का प्रचलन किया।४३ तीन नीति :हाकार नीति-प्रथम कुलकर विमलवाहन के समय हाकार नीति का प्रचलन हुआ। उस युग का मानव आज के मानव की तरह अमर्यादित व उच्छृखल नही था। वह स्वभाव से संकोचशील एवं लज्जालु था। अपराध करने पर अपराधी को इतना ही कहा जाता– 'हा ! तुमने यह क्या किया ?' बस, यह शब्द-प्रताडना उस युग का महानतम दण्ड था। इसे सुनते ही अपराधी पानी-पानी हो जाता।" यह नीति द्वितीय कुलकर चक्षुष्मान के समय तक चलती रही। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान ऋषभदेव : प्रथम राजा २५७ माकार नीति- जब 'हाकार नीति' असफल होने लगी, तब माकार नीति का प्रयोग प्रारंभ हुआ ।" तृतीय और चतुर्थ कुलकर 'यशस्वी' और 'अभिचन्द्र' कुलकरों के समय तक लघु अपराध के लिए 'हाकार' नीति और गुरुतर अपराध के लिए 'माकार' नीति का प्रयोग चलता रहा । 'मत करो' इस निषेधाज्ञा को बहुत बड़ा दड समझा जाता था । धिक्कार नीति- जब माकार नीति भी विफल होने लगी, तब 'धिक्कार' नीति का प्रादुर्भाव हुआ । यह नीति पाँचवें प्रसेनजित्, छठे मरुदेव और सातवें कुलकर नाभि तक चलती रही। इस प्रकार खेद, निषेध और तिरस्कार ये मृत्यु दण्ड से भी अधिक प्रभावशाली सिद्ध हुए । क्योकि उस समय की प्रजा स्वभाव से सरल, मानस से कोमल, स्वयं शासित और मर्यादाप्रिय थी । ४६ अन्तिम कुलकर नाभि के समय यौगलिक सभ्यता तेजी से क्षीण होने लगी। ऐसे समय मे भगवान् ऋषभदेव का जन्म हुआ । ७ माता मरुदेवी ने जो चौदह महास्वप्न देखे थे, उनमें सर्वप्रथम ऋषभ ( वृषभ ) का स्वप्न था और जन्म के पश्चात् शिशु के उरु-स्थल पर ऋषभ का लांछन था, अत: उनका नाम ऋषभ रखा गया ।" वंश उत्पत्ति - जब ऋषभदेव एक वर्ष से कुछ कम थे, उस समय पिता नाभि की गोद में बैठे हुए क्रीड़ा कर रहे थे। तब शक्रेन्द्र हाथ में इक्षु लेकर आया । बालक ऋषभदेव ने लेने के लिए हाथ आगे बढ़ाया। बालक ने इक्षुआकु (इक्षु भक्षण करना चाहा, इस दृष्टि से उनका वंश इक्ष्वाकुवंश के नाम से विश्व में विश्रुत हुआ / विवाह परम्परा - यौगलिक परम्परा में एक ही माता के उदर से एक साथ जन्मा नर-नारी का युगल ही पति व पत्नी के रूप में परिवर्तित हो जाता था । सुनन्दा के भ्राता की अकाल-मृत्य हो जाने से ऋषभदेव ने सुनन्दा व सहजात सुमङ्गला के साथ पाणिग्रहण कर नई व्यवस्था का सूत्रपात भरत और ब्राह्मी को तथा सुनन्दा ने बाहुबली और उसके पश्चात् सुमंगला के क्रमश: अट्ठानवें पुत्र और किया । ५० सुमंगला ने सुन्दरी को जन्म दिया। हुए । ५१ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ भरत और बाहुबली का विवाह श्री ऋषभदेव ने यौगलिक धर्म को निवारण करने के लिए जब भरत और बाहुबली युवा हुँए तब भरत की सहजात ब्राह्मी का पाणिग्रहण बाहुबली से करवाया और बाहुबली की सहजात सुन्दरी का पाणिग्रहण भरत से करवाया ।५२ इन विवाहों का अनुसरण कर जनता ने भी भिन्न गोत्र में समुत्पन्न कन्याओ को उनके माता पिता आदि अभिभावकों द्वारा दान में प्राप्तकर पाणिग्रहण करना शुरू किया।५३ इस प्रकार एक नवीन परम्परा प्रारम्भ हुई । यहीं से विवाह प्रथा का आरम्भ हुआ। -~-~. प्रथम राजा पहले बताया जा चुका है कि ऋषभदेव के पिता 'नाभि' अन्तिम कुलकर थे। जब उनके नेतृत्व में ही धिक्कार नीति का उल्लघन होने लगा तब घबराकर यूगलिक श्री ऋषभदेव के पास पहुँचे, और उन्हें सारी स्थिति का परिज्ञान कराया। भगवान ऋषभदेव ने कहा-जो मर्यादाओं का अतिक्रमण कर रहे है, उन्हे दण्ड मिलना चाहिए और यह व्यवस्था राजा ही कर सकता है, क्योंकि शक्ति के सारे स्रोत उसमें केन्द्रित होते हैं । समय के पारखी कुलकर नाभि ने युगलिको की विनम्र प्रार्थना पर ऋषभदेव का राज्याभिषेक कर उन्हें 'राजा' घोषित किया ।५४ ऋषभ देव प्रथम राजा बने, और शेष जनता प्रजा। इस प्रकार पूर्व चली आ रही 'कुलकर' व्यवस्था का अन्त हुआ और नवीन राज्य व्यवस्था का प्रारम्भ । राज्याभिषेक के समय युगल समूह कमल पत्रों में पानी लाकर ऋषभदेव के पाद-पद्यों का सिंचन करने लगे। उनके विनीत स्वभाव को अनुलक्ष में रखकर नगर का नाम 'विनीता' रखा।५५ उसका दूसरा नाम अयोध्या भो है।५६ उस प्रान्त का नाम 'विनीत भूमि'५७ और 'इक्खाग भूमि'५८ पड़ा। कुछ समय के बाद वह मध्यदेश के नाम से विख्यात हुई । राज्य व्यवस्था का विकास-राजा बनने के पश्चात् ऋषभदेव ने राज्य की सुव्यवस्था हेतु आरक्षक दल को स्थापना की। जिसके अधिकारी 'उग्र' कहलाये। मंत्रि-मण्डल बनाया जिसके अधिकारी 'भोग' नाम से प्रसिद्ध हुए। सम्राट के समीपस्थ जन जो परामर्श प्रदाता थे वे 'राजन्य' के नाम से विख्यात हुए और अन्य राजकर्मचारी 'क्षत्रिय' नाम से विश्रुत हुए। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान ऋषभदेव : प्रथमराजा २५६ राज्य के सरक्षणार्थ चार प्रकार की सेना व सेनापतियों का निर्माण साम, दाम, दण्ड और भेद नीति का प्रचलन किया। चार प्रकार की दण्डव्यवस्था - परिभाष, (२) मण्डल वन्ध, (३) चारक, (४) छविच्छेद का निर्माण किया । किया । ६१ परिभाष- कुछ समय के लिए सापराध व्यक्ति को आक्रोश पूर्ण शब्दों के साथ नजरबन्दी आदि का दण्ड देना । मण्डल बन्ध-सीमित क्षेत्र में रहने का दण्ड देना । (एक प्रकार की नजर कैद ) arth - बन्दीगृह में बन्द करने का दण्ड देना । ( कारावास ) छविच्छेद- हाथ पैर आदि अगोपाङ्गो के छेदन का दण्ड देना । 52 ये चार नीतियाँ कब चलीं, इसमें विद्वानों के विभिन्न मत हैं । कुछ विद्वानो का मन्तव्य है कि प्रथम दो नीतियाँ ऋषभ के समय चली और दो भरत के समय । आचार्य अभयदेव के मन्तव्यानुसार ये चारों नीतियाँ भरत के समय मे चली । `४ आचार्य भद्रबाहु " और आचार्य मलयगिरि के अभिमतानुसार बन्ध ( बेडी का प्रयोग ) और घात ( डन्डे का प्रयोग ) ऋषभनाथ के समय प्रारम्भ हो गये थे । मृत्यु दण्ड का आरम्भ भरत समय हुआ । ७ ६ ६ ६७ खाद्य समस्या का समाधान - ऋषभदेव के पूर्व मानवों का आहार कन्द, मूल, पत्र, पुष्प और फल था । किन्तु जनसंख्या की अभिवृद्धि होने पर कन्द, सुल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध न होने से मानवों ने अन्नादि ( कच्चे ) का उपयोग प्रारम्भ किया । किन्तु पकाने के साधन न होने से कच्चा अन्न दुष्पच होने पर लोग ऋषभदेव के पास पहुँचे और उनसे अपनी समस्या का समाधान मांगा । ऋषभदेव ने हाथ से मलकर खाने की सलाह दी। जब वह भी दुष्पच हो गया तो पानी में भिगोकर और मुट्ठी व बगल मे रखकर गर्म कर खाने की राय दी । उससे भी अजीर्ण की व्याधि समाप्त नही हुई । भगवान् श्री ऋषभदेव अग्नि के सम्बन्ध में जानते थे, पर वह काल Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र २६० एकान्त स्निग्ध था, अतः अग्नि उत्पन्न नहीं हो सकती थी । अग्नि की उत्पत्ति के लिए एकान्त स्निग्ध और एकान्त रुक्ष दोनों ही काल अनुपयुक्त होते हैं । समय के कदम आगे बढ़े। जब काल स्निग्ध से रुक्ष हुआ तब लकड़ियों को घिस कर अग्नि पैदा की और पाक निर्माण कर तथा पाकविद्या सिखाकर खाद्य समस्या का समाधान किया । " 3 कला का अध्ययन - जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति की वृत्ति के अनुसार सम्राट् ऋषभदेव ने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को बहत्तर कलाएँ और कनिष्ट - पुत्र बाहुबली को प्राणिलक्षण का ज्ञान कराया । प्रियपुत्री ब्राह्मी को अठारह लिपियों का अध्ययन कराया और सुन्दरी को गणितविद्या का परिज्ञान कराया ।' व्यवहार साधन हेतु मान ( माप) उन्मान ( तोला, मासा आदि वजन ) अवमान ( गज फुट इंच ) प्रतिमान ( छटांक, सेर, मन आदि) प्रचलित किए और मणि आदि पिरोने की कला बताई । 30 इस प्रकार सम्राट् ऋषभदेव ने प्रजा के हित के लिए, अभ्युदय के लिए पुरुषों को बहत्तर कलाएँ, स्त्रियों को चौसठ कलाएँ और सौ शिल्पों का परिज्ञान कराया । असि, मषि और कृषि (सुरक्षा, व्यापार, उत्पादन) की व्यवस्था की, कलाओं का निर्माण किया, प्रवृत्तियों का विकास कर जीवन को सरस, शिष्ट और व्यवहार योग्य बनाया । अन्त में अपनी राज्य व्यवस्था का भार भरत को सौंपकर और शेष निन्यानवें पुत्रों को अलग-अलग राज्य दे, दीक्षा ग्रहण के लिए प्रस्तुत हुए । प्रथम मिक्षाचर मूल :-- उसमे अरा कोसलिए दवखे पनि पडिरूवे अल्लीणree वीणीए वीसं पुव्वसयसहरसाई कुमारवासमज्के वसई, वीसं पुव्वसयसहस्साइं कुमारवासमज्भे वसित्ता तेवट्ठि पुव्वसयसहस्साई रज्जवासमझे वसमाणे लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ सउणरुयप Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ मयवान शषमदेव : प्रथम मिक्षाचर ज्जवसाणाओ बाहत्तरं कलाओ चोवर्द्धि महिलागुणे सिप्पसयं च कम्माणं तिनि वि पयाहियाए उवदिसइ, उवदिसित्ता पुत्तसयं रज्जसए अभिसिंचइ, अभिसिंचित्ता पुणरवि लोयंतिएहिं जिअकप्पिए० सेसं तं चेव सव्वं भाणियब्वं जाव दायं दाइयाणं परिभाएत्ता जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चेत्तबहुले तस्स णं चेत्तबहुलस्स अट्टमीपक्खेणं दिवसस्स पच्छिमे भागे सुदंसणाए सिवियाए सदेवमणुयासुराए परिसाए समणुगम्ममाणमग्गे जाव विणीयं रायहाणिं मझ मज्झणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव सिद्धत्थवणे उज्जाणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे जाव सयमेव चउमुटिठयं लोयं करेइ, लोयं करित्ता छ?णं भत्तेणं अप्पाणएणं आसाढाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं उग्गाणं भोगाणं राइन्नाणं च खत्तियाणं च चरहिं सहस्सेहिं सद्धि एग देवदूसमादाय मुडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पब्वइए॥१६॥ ___ अर्थ - कौश लिक अर्हत् ऋषभदेव दक्ष थे । दक्ष प्रतिज्ञा वाले, उत्तम रूप वाले, सर्व गुणों से युक्त भद्र और विनीत थे। वे बीस लाख पूर्व तक कुमार अवस्था में रहे। उसके पश्चात् श्रेसठ लाख पूर्व वर्ष तक राज्यवास में रहे। वेसठ लाख पूर्व वर्ष तक राज्य अवस्था में रहते हुए उन्होंने जिस कला में गणित प्रथम है और शकुनरुत अर्थात् पक्षी के शब्द से शुभाशुभ जानने की कला अन्तिम है, ऐसी बहत्तर कलाएँ व महिलाओं के चोंसठ गुण तथा सौ शिल्प ये तीनों चीजें प्रजा के हित के लिए उपदेश की। इन सभी का अध्ययन करवाने के पश्चात् सौ राज्यों में सौ पुत्रों का अभिषेक कर दिया। उसके पश्चात् जिनका कहने का आचार है ऐसे लोकान्तिक देव उनके पास आए। उन्होंने प्रिय वाणी से भगवान को कहा, इत्यादि सभी पूर्व कथन के समान यहाँ भी कहना नाहिए। यावत् वार्षिकदान देकर के, ग्रीष्म ऋतु का प्रथम मास, Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ प्रथम पक्ष अर्थात् जब चैत्र मास का कृष्ण पक्ष आया तब चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन पिछले प्रहर में जिनके पीछे मार्ग में देव, मानव और असुरों को विराट मण्डली चल रही है ऐसे कौशलिक अर्हत् ऋषभ सुदर्शन नामक शिविका में बैठकर यावत् विनीता राजधानी के मध्य-मध्य में होकर निकलते हैं। निकलकर जिस ओर सिद्धार्थ वन नामक उद्यान है, जिस तरफ अशोक का उत्तम वृक्ष है, उस तरफ आते हैं, आकर के अशोक के उत्तम वृक्ष के नीचे, शिविका खड़ी रखते हैं। इत्यादि पूर्व कहे हुए के समान यहाँ भी कथन करना चाहिए । यावत् स्वयं अपने हाथों से चार मुष्टि लोच करते है। उन्होंने उस समय पानी रहित षष्ठ भक्त का तप कर रखा था। आषाढा नक्षत्र का योग होते ही उग्रवंश के, भोगवंश के, राजन्यवश के और क्षत्रियवंश के चार हजार पुरुषो के साथ एक देवदूष्य वस्त्र को लेकर मुंडित होकर गृहवास से निकलते हैं और अनगार-दशा को स्वीकार करते हैं। विवेचन-भगवान ने चार हजार साधको को अपने हाथ से प्रव्रज्या प्रदान नही की, किन्तु उन्होंने भगवान् का अनुकरण कर स्वयं लुचन आदि क्रियाएं की। श्रमण बनने के पश्चात् भगवान् अखण्ड मौनव्रती बनकर एकात-शान्त स्थान मे ध्यानस्थ होकर रहने लगे। घोर अभिग्रहों को ग्रहण कर अनासक्त बन भिक्षा हेतु ग्रामानुग्राम विचरण करते, पर भिक्षा और उसकी विधि से जनता अनभिज्ञ होने से भिक्षा उपलब्ध नहीं होती। वे चार सहस्र श्रमण चिरकाल तक यह प्रतीक्षा करते रहे कि भगवान् मौन छोड़कर हमारी सूधबुध लेंगे । सुख-सुविधा का प्रयत्न करेंगे, पर भगवान् आत्मस्थ थे, कुछ बोले नहीं । वे श्रमण भूख प्यास से संत्रस्त हो सम्राट भरत के भय से पुनः गृहस्थ न बनकर वल्कलधारी तापस आदि हो गये । २ वस्तुतः विवेक के अभाव में साधक साधना से पथभ्रष्ट हो जाता है । भगवान् ऋषभदेव अम्लान चित्त से, अव्यथित मन से भिक्षा के लिए नगरों व ग्रामों में परिभ्रमण करते । भावुक मानव भगवान् को निहार कर भक्ति भावना से विभोर होकर अपनी रूपवती कन्याओं को, सुन्दर वस्त्रों को, Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान अषमदेव : प्रथम मिक्षावर २६३ अमूल्य आभूषणों को और गज, तुरङ्ग, रथ, सिहासन आदि ग्रहण करने के लिए अभ्यर्थना करते, पर कोई भी भिक्षा के लिए नहीं कहता। भगवान उन वस्तुओ को बिना ग्रहण किए जब उल्टे पैरों लौट जाते तो वे नहीं समझ पाते कि भग वान् को किस वस्तु को आवश्यकता है ? एक वर्ष पूर्ण हुआ । कुरुजनपदीय गजपुर के अधिपति बाहुबली के पुत्र सोमप्रभ राजा के पुत्र श्रेयांस ने स्वप्न देखा कि “सुमेरु पर्वत श्यामवर्ण का हो गया है। उसे मैंने अमृत कलश से अभिषिक्त कर पुनः चमकाया।"७3 सुबुद्धि नगर श्रेष्ठी ने भो स्वप्न देखा "सूर्य की हजार किरणें अपने स्थान से चलित हो रही थी कि श्रेयांम ने उन रश्मियों को पुनः सूर्य में संस्थापित कर दिया।" राजा सोमप्रभ ने स्वप्न देखा कि "एक महान् पुरुष शत्रुओं से युद्ध कर रहा है, श्रेयाँस ने उसे सहायता प्रदान की। उससे शत्रु का बल नष्ट हो गया ।" प्रातः होने पर सभी स्वप्न के सम्बन्ध में चिन्तन मनन करने लगे। चिन्तन का नवनीत निकला कि अवश्य ही श्रेयाँस को विशिष्ट लाभ होगा। ७४ भगवान् उसी दिन विचरण करते हुए गजपुर पधारे। चिरकाल के पश्चात् भगवान् को देख पौरजन आह्लादित हुए। श्रेयॉस को भी अत्यधिक प्रसन्नता हुई । भगवान् परिभ्रमण करते हुए श्रेयाँस के यहाँ पधारे । भगवान् के दर्शन और चिन्तन से पूर्वभव की स्मृति उद्बुद्ध हुई । स्वप्न का सही तथ्य परिज्ञात हुआ। उसने भक्ति-विभोर हृदय से ताजे आये हुए इक्षु रस के कलश को हाथ में ग्रहण कर भगवान के कर कमलों में रस प्रदान किया । भगवान् ने भी विशुद्ध आहार जानकर ग्रहण किया। इस प्रकार भगवान् श्री ऋषभदेव को एक संवत्सर के पश्चात् भिक्षा प्राप्त हुई और सर्वप्रथम इक्षु-रस का पान करने के कारण वे काश्यप नाम से भी विश्रुत हुए। ६ ___ प्रस्तुत अवसर्पिणी काल में सर्वप्रथम वैशाख शुक्ला तृतीया को श्रेयाँस ने इक्षु रस का दान दिया. अतः वह तृतीया 'इक्षु-तृतीया' या 'अक्षय तृतीया' के रूप में प्रसिद्ध हुई । उस महान दान से तिथि भी अक्षय हो गई। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ मूल : उसमे गं अरहा कोसलिए एगं वाससहस्सं निच्चं वोसट्ठकाये चियत्तदेहे जाव अप्पाणं भावेमाणस्स एक्कं वाससहस्सं विइक्कतं तओ णं जे से हेमंताणं चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे फग्गुणबहुले तस्स णं फग्गुणबहुलस्म एक्कारसीपक्खेणं पुवण्हकालसमयंसि पुरिमतालस्स नयरस्स बहिया सगडमुहंसि उज्जाणंसि नग्गोहवरपायवस्स अहे अठमेणं भत्तेणं अपाणएणं आसाढाहिं नक्खतेणं जोगमुवागएणं झाणंतरियाए वट्टमाणस्स अणंते जाव जाणमाणे पासमाणे विहरइ ॥१६॥ अर्थ-कौशलिक अर्हत् ऋषभदेव ने अपने शरीर की ओर लक्ष्य देना छोड़ दिया था। उन्होंने शरीर की संभाल छोड़ दी थी। इस प्रकार अपनी आत्मा को भावित करते-करते एक हजार वर्ष व्यतीत हो गये, तब हेमन्त ऋतु के चतुर्थ मास और सातवें पक्ष, अर्थात् फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन, पूर्वाह्न में, पुरिमताल नगर के बाहर, शकटमुख नामक उद्यान मे, उत्तम वट वृक्ष के नीचे, रहकर ध्यान कर रहे थे। उस समय निर्जल अष्टम तप किया हुआ था, आषाढ़ा नक्षत्र का योग आने पर, ध्यान में रहे हुए भगवान् को उत्तम अनन्त केवलज्ञान केवलदर्शन उत्पन्न हुआ। उससे वे सभी लोकालोक के भाव जानते-देखते हुए विचरने लगे। विवेचन-भगवान् श्री ऋषभदेव को केवलज्ञान की उपलब्धि बट वृक्ष के नोचे हुई थी अत वह आज भी आदर की दृष्टि से देखा जाता है । जिस समय भगवान् ऋषभदेव को केवलज्ञान की उपलब्धि हुई उसी समय सम्राट भरत की आयुधशाला में चक्ररत्न भी उत्पन्न हुआ। और उसकी सूचना एक साथ ही यमक और शमक दूतों के द्वारा सम्राट् भरत को मिली ।“ भरत एक साथ दो सूचनाएं मिलने से एक क्षण असमजस में पड़ गये। उन्होंने सोचा-प्रथम चक्ररत्न की अर्चना करनी चाहिए, या भगवान Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान ऋषभदेव : प्रथम धर्म चक्रवर्ती २६५ की उपासना करनी चाहिए । कहाँ अभय का प्रदाता केवलज्ञान और कहाँ प्राणियों का विनाश करने वाला चक्ररत्न, मुझे प्रथम चत्ररत्न को नही, किन्तु भगवान् की उपासना करनी चाहिए।" ऐसा सोच सम्राट् भरत भगवान् के दर्शन हेतु सपरिजन प्रस्थित हुए ।" " माँ मरुदेवा भी अपने लाड़ले पुत्र के दर्शन हेतु चिरकाल से छटपटा रही थी । पुत्र के वियोग से वह व्यथित थी । उसके दारुण कष्ट की कल्पना करके वह कलप रही थी । प्रतिपल प्रतिक्षण लाड़ले लाल की स्मृति से उसके नेत्रों से आँसू बरस रहे थे । जब उसने सुना कि ऋषभ विनीता के बाग में आया है, तो वह भरत के साथ ही हस्ती पर आरूढ होकर चल पडी । भरत के विराट् वैभव को देखकर उसने कहा- बेटा भरत एक दिन मेरा प्यारा ऋषभ भी इसी प्रकार राज्यश्री का उपभोग करता था । पर इस समय वह क्षुधा पिपासा से पीड़ित होकर कही कष्टों को सहन करता होगा ? पुत्र प्रेम से आँखें छलछला आई । भरत के द्वारा तीर्थकरों की दिव्य विभूति का शब्द चित्र सुनने पर भी माता के हृदय को संतोष नहीं हो रहा था । समवसरण के सत्रिकट पहुँचने पर ज्योंही भगवान् ऋषभ को इन्द्रों द्वारा अर्चित देखा, त्योंही माता का चिन्तन का प्रवाह बढता गया। आर्तध्यान से शुक्लध्यान में लीन हो गई । ध्यान का उत्कर्ष बढ़ा। मोहकर्म का बन्धन टूटा, फिर ज्ञानावरण, दर्शनाकरण और अन्तराय को नष्ट कर केवलज्ञान केवलदर्शन प्राप्त कर लिया । उसी क्षण शेष कर्मो को भी नष्ट कर हस्ती पर आरूढ़ हुई सिद्ध बुद्ध और मुक्त हो गई ।" कितने ही आचार्यों का अभिमत है कि भगवान् के शब्द उनके कानों में गिरने से, उन्हें आत्मज्ञान हुआ और मुक्ति प्राप्त हुई । २ प्रस्तुत अवसर्पिणी काल में सर्व प्रथम केवलज्ञान श्री ऋषभदेव को प्राप्त हुआ और मोक्ष मरुदेवा माता को । प्रथम धर्म चक्रवर्ती- भगवान् ऋषभदेव का प्रथम प्रवचन फाल्गुन कृष्णा एकादशी को हुआ । उसे श्रवणकर सम्राट् भरत के पाँच सौ पुत्रो और सात सौ पौत्रों ने, तथा ब्राह्मी आदि ने प्रव्रज्या ग्रहण की । भरत आदि ने श्रावकव्रत ग्रहण किये और सुन्दरी ने भी । इस प्रकार श्रमण, श्रमणी श्रावक, Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ की संस्थापना कर वे सर्वप्रथमतीर्थकर बने । श्रमण धर्म के लिए पांच महाव्रत और गृहस्थ धर्म के लिए द्वादश व्रतों का निरुपण किया, इसीलिए भगवान् ऋषभदेव को धर्म का मुख कहा है।४ __ भगवान् के प्रथम गणधर सम्राट भरत के पुत्र ऋषभमेन हुए। उन्हे ही सर्वप्रथम भगवान ने आत्म-विद्या का परिज्ञान कराया। भगवान् को केवल ज्ञान की सूचना प्राप्त होते ही पूर्व दीक्षित श्रमण, जो क्षुधा-पिपासा से पीड़ित होकर तापस बन गए थे, भगवान् की सेवा में आ गए। उन्होंने पुनः विधिवत् प्रव्रज्या ग्रहण की, सिर्फ कच्छ और सुकच्छ ही ऐसे थे जो नहीं आए।'५ सुन्दरी का संयम-भगवान श्री ऋषभ के प्रथम प्रवचन को श्रवणकर सुन्दरी भी संयम ग्रहण करना चाहती थी, उमने यह भव्य भावना अभिव्यक्त भी की थी, किन्तु सम्राट् भरत के द्वारा आज्ञा प्राप्त न होने से वह श्राविका बनी। उसके अन्तर्मानस में वैराग्य का सागर उछालें मार रहा था। वह तन से गृहस्थाश्रम मे थी, पर उसका मन संयम मे रम रहा था। षट्खण्ड पर विजय-वैजयन्ती फहराकर जब सम्राट भरत दीर्घकाल के पश्चात् विनीता लोटे तब सुन्दरी के कृश शरीर को देखकर वे चकित रह गए । प्रश्न करने पर ज्ञात हुआ कि यह अवस्था जिस दिन से दीक्षा ग्रहण का निषेध किया था उस दिन से निरन्तर आचाम्ल व्रत करने से हुई है। सुन्दरी की संयम लेने की प्रबल भावना को देखकर भरत ने अनुमति प्रदान की और सुन्दरी ने ऋषभदेव की आज्ञानुवर्तिनी ब्राह्मी के पास दीक्षा ग्रहण की । ८ । अट्टान भ्राताओं को दीक्षा. बताया जा चुका है कि श्री ऋषभदेव अपने सौ पुत्रों को पृथक्-पृथक् गज्य देकर श्रमण बने थे। सम्राट भरत चक्रवर्ती बनना चाहते थे। उन्होंने अपने लघु भ्राताओं को अपने अधीन करने के लिए उनके पास दूत भेजे । अठ्ठानवें भ्राताओं ने मिलकर परस्पर परामर्श किया, परन्तु वे निर्णय पर नहीं पहुंच सके। उस समय भगवान् अष्टापद मागध में विचर रहे थे। वे सभी भगवान् श्री ऋषभदेव के पास पहुंचे। स्थिति का परिचय देते हुए निवेदन किया-"प्रभो ! आपके द्वारा प्रदत्त राज्य Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवानपदेव: प्रथम धर्म चक्रवर्ती २६७ पर भाई भरत ललचा रहा है, वह हमारा राज्य लेना चाहता है। क्या बिना युद्ध किये हम उसे राज्य दे दें ? यदि देते है तो उसको साम्राज्य-लिप्सा बढ़ जायगी और हम पराधीनता के पत्र में डूब जायेंगे। यदि हम अपने ज्येष्ठ भ्राता से युद्ध करते हैं तो भ्रातृ युद्ध की एक अनुचित परम्परा प्रारम्भ हो जायेगी । हमें क्या करना चाहिए ?" भगवान् बोले-पुत्रो ! तुम्हारा चिन्तन ठोक है। युद्ध भी बुरा है, और कायर बनना भी बुरा है। युद्ध इसलिए बुरा है कि उसके अन्त में विजेता और पराजित दोनों को सताप एवं ही निराशा मिलती है। अपनी सत्ता को गवाकर पराजित पछताता है और कुछ नही पाकर विजेता पछताता है । कायर बनने का भी मैं तुम्हें परामर्श नही दे सकता । मैं तुम्हें ऐमा राज्य देना चाहता हूं, जो युद्ध और वलीवत्व से ऊपर है । भगवान् की आश्वासन भरी वाणी को सुनकर सभी के मुख कमल खिल उठे, मन मयूर नाच उठे। वे अनिमेष दृष्टि से भगवान् को निहारने लगे। भगवान को भावना को वे छु नही सके । यह उनकी कल्पना मे नही आ सका कि भौतिक राज्य के अतिरिक्त भी कोई राज्य हो सकता है। वे भगवान के द्वारा कहे गये राज्य को पाने के लिए व्यग्र हो गये। उनकी तीव्र लालसा देख कर भगवान् बोले- 'एक लकड़हारा था, वह भाग्यहीन और मूर्ख था । प्रतिदिन कोयले बनाने के लिए वह जंगल मे जाता और जो कुछ भी प्राप्त होता उससे अपना भरण पोषण करता । एक बार वह भीष्म-ग्रीष्म की चिलचिलाती धूप में थोडा-सा पानी लेकर जगल में गया और सूखी लकड़ियां एकत्रित कर कोयले बनाने के लिए उन लकड़ियों में आग लगादी । चिलचिलाती धूप व प्रचण्ड ज्वाला के कारण उसे अत्यधिक प्यास लगी। साथ में जो पानी लाया था वह पी गया, पर प्याम शान्त नहीं हुई। इधर उधर जंगल में पानी की अन्वेषणा की, परन्तु कहीं भी पानी उपलब्ध नहीं हुआ। मन्निकट कोई भी गाँव नहीं था। प्यास से गला सूख गया था । घबराहट बढ़ रही थी, वह एक वृक्ष के नीचे लेट गया । नीद आ गई । उसने स्वप्न देखा Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ कल्प सूत्र कि घर में जितना भी पानी है वह पी गया है, तथापि प्यास शान्त नहीं हुई। कुए पर गया, और वहाँ का भी सारा पानी पी गया, पर प्यास न बुझी । नदी, नाले, और द्रहों का पानी पीता हुआ समुद्र पर पहुँचा, सारा पानी पी लेने पर भी उसकी प्यास कम नहीं हुई। प्यास से छटपटाता हुआ वह समुद्र के किनारे भीने हुए तिनकों को निचोड़कर प्यास बुझाने का प्रयास कर रहा था कि नींद खुल गई।" रूपक का उपसंहार करते हुए भगवान के कहा—क्या पुत्रो ! उन भीगे हुए तिनकों से उसकी प्यास शान्त हो सकती है, जबकि कुए और समुद्र के पानी से नही हुई ? पुत्रों ने कहा-नहीं भगवन् ! भगवान् ने अपने अभिमत की ओर पुत्रों को आकृष्ट करते हुए कहाभौतिक राज्यश्री से तृष्णा को शान्त करने का प्रयास भी भीगे हुए तिनकों को निचोड़ने के समान है। स्वर्गीय सुखों से भी जब तृष्णा शान्त नही हुई, तो इस तुच्छ और अल्पकालिक राज्य से शान्त होना कैसे सम्भव है ? अतः सम्बोधि प्राप्त करो। वस्तुतः भौतिक राज्य से आध्यात्मिक राज्य महान् है, सासारिक सुखों से आध्यात्मिक सुख उत्तम है। इसे ग्रहण करो, इनमें न कायरता को आवश्यकता है और न युद्ध का ही प्रसंग है। जब तक स्वराज्य नहीं मिलता तब तक पर-स्वराज्य की कामना रहती है। स्वराज्य मिलने पर परस्वराज्य का मोह नहीं रहता। भगवान् के उपदेश से प्रभावित हो अठ्ठानवें ही भ्राताओं ने राज्य त्यागकर संयम ग्रहण कर लिया। भरत को यह सूचना प्राप्त होते ही वह दौड़े-दौड़े आए।' भ्रातृ-प्रेम से उनकी आँखें गीली हो गई। पर उनकी गीली आँखें अठानवें भ्राताओं को पथ से विचलित नहीं कर सकी। भरत निराश होकर पुनः अपने घर लौट गए। भ्रातृ-युद्ध-सम्राट भरत एक शासन सूत्र में समग्र भारतवर्ष को पिरोना चाहते थे । अत: अपने लघुभ्राता बाहुबली को यह सन्देश पहुँचाया कि वह चक्रवर्ती की अधीनता स्वीकार कर ले। भरत का यह सन्देश सुनते ही बाहुबली की Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान बमदेव : भरत-बाहुबली का भात-युट भृकुटि तन गई। क्रोध उभर आया। दांतों को पीसते हुए उसने कहा-क्या भाई भरत की भूख अभी तक शान्त नहीं हुई है ? अपने लघु भ्राताओं के राज्य को छीन करके भी उसे सन्तोष नहीं हुआ ! क्या वह मेरे राज्य को भी हड़पना चाहता है। यदि वह यह समझता है कि मैं शक्तिशाली हूँ और शक्ति से सभी को चट कर जाऊँ तो यह शक्ति का सदुपयोग नहीं, दुरुपयोग है। मानवता का भयंकर अपमान है और कुल मर्यादा का अतिक्रमण है। हमारे पूज्य पिता व्यवस्था के निर्माता हैं, और हम उनके पुत्र होकर व्यवस्था को भग करते हैं, तो यह हमारे लिए उचित नही है। बाह-बल में मैं भरत से किसी भी प्रकार कम नही हूँ, यदि वह अपने बड़प्पन को विस्मृत कर अनुचित व्यवहार करता है तो मैं चुप्पी नही साध सकता। मैं दिखा दूंगा भरत को कि आक्रमण करना कितना अनुचित है । भरत विराट् सेना लेकर बाहुबली से युद्ध करने के लिए 'बहली' की सीमा पर पहुँच गये। और बाहुबली भी अपनी छोटी सेना को सजाकर युद्ध के मैदान में आ गया। बाहुबलो के वीर सैनिकों ने भरत की विराट सेना के छक्के छुडा दिये । लम्बे समय तक युद्ध चलता रहा, पर न भरत जीते और न बाहबली हो। हार-जीत का कोई फैसला नहीं हआ। आखिर बाहुबली ने मनुष्यो का यह रक्त बहता देखकर नरसंहार बन्द करके द्वन्द्व युद्ध के लिए आमंत्रित किया ।९१ दृष्टियुद्ध, वाक्युद्ध, बाहुयुद्ध, मुष्टियुद्ध और दण्डयुद्ध निश्चित हुए। सभी में सम्राट भरत पराजित हुए और बाहुबली विजयी हुए। भरत को अपने लघुभ्राता से पराजित होना अत्यधिक अखरा। आवेश में आकर और मर्यादा को विस्मृत कर बाहुबली का शिरोच्छेदन करने हेतु भरत ने चक्र का प्रयोग किया। यह देख बाहुबली का खून उबल गया। बाहुबली ने उछलकर चक्र को पकड़ना चाहा, पर चक्र बाहुबली की प्रदक्षिणा कर पुनः भरत के पास लौट गया । वह बाहुबली का बाल भी बांका न कर सका । यह देख सभी सन्न रह गये। बाहुबली की विरुदावलियों से भू-नभ गूंज उठा। भरत अपने कृत्य पर लज्जित हो गये। भाई भरत की भूल को भुलाने के लिए लाखों कण्ठों से ये स्वर-लहरियां Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० फूट पड़ी-"सम्राट भरत ने भूल की है, पर आप भूल न करें। लघु भाई के द्वारा बड़े भाई की हत्या अनुचित ही नही, अत्यन्त अनुचित है। महान् पिता के पुत्र भी महान होते हैं, क्षमा कीजिए, क्षमा करने वाला कभी छोटा नहीं होता।" बाहुबली का रोष कम हुआ, हृदय प्रबुद्ध हुआ। कुल-मर्यादा और युग की आवश्यकता को ध्यान में रखकर वे चिन्तनमग्न हो गए। भरत को मारने के लिए उठा हुआ हाथ भरत पर नही पड़कर, स्वयं के सिर पर गिरा और वे लुचन कर श्रमण बन गये । राज्य को ठुकरा कर पिता के चरण-चिह्नों पर चल पड़े। बाहुबली को केवल ज्ञान-बाहबली के पर चलते-चलते रुक गये। वे पिता की शरण में पहुँचने पर भी चरण मे नही पहुँच सके। पूर्व दीक्षित लघुभ्राताओं को नमन करने की बात स्मृति में आते ही उनके चरण एकान्त-शान्न कानन में ही स्तब्ध हो गये। असन्तोष पर विजय पाने वाले बाहुबली अस्मिता से पराजित हो गये । एक वर्ष तक हिमालय की तरह अडोल ध्यान-मुद्रा में अवस्थित रहने पर भी केवलज्ञान का दिव्य आलोक प्राप्त नहीं हो सका। शरीर पर लताएँ चढ़ गई, पक्षियो ने घोंसले बना दिये, तथापि मफलता नही मिल सकी । केवलज्ञान नहीं हुआ। "हस्ती पर आरूढ व्यक्ति को कभी केवलज्ञान की उपलब्धि नही होती, अतः भाई नीचे उतरो" ये शब्द एकदिन बाहुबली के कानों में पड़े। बाहुबली ने चिन्तन किया-मैं हाथी पर कहाँ आरुढ़ हूँ ? फिर विचारधारा ने मोड़ लिया, नेत्र खोले, सामने विनीत मुद्रा मे भगिनियों को निहार कर सोचने लगे—मै व्यर्थ ही अभिमान के हाथी पर चढ़ा था। मैं अवस्था के भेद में उलझ गया। वे भाई आयु में मुझ से भले ही छोटे हैं, पर चारित्रिक दृष्टि से बडे है । मुझे नमन करना चाहिए।" नमन करने के लिए ज्यों ही पैर उठे त्यों ही बन्धन टूट गए । विनय ने अहंकार को पराजित कर दिया। बाहुबली वही पर केवली बन गये। भगवान् श्री ऋषभदेव को नमन कर केवलीपरिषद् मे आकर सम्मिलित हुए । १६ भरत को कैवल्य-राजनैतिक व सांस्कृतिक एकता के लिए भरत ने Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ भगवान शिवमदेव : शिष्य-संपदा भ्राताओं के साथ जो व्यवहार किया था उससे वे स्वयं लज्जित थे। भ्राताओं को गंवाकर राज्य प्राप्त कर लेने पर भी उनके मानस को प्रसन्नता नहीं हुई। विराट् राज्य का उपभोग करते हुए भी वे अब उसमें आसक्त नहीं थे । सम्राट होने पर भी वे साम्राज्यवादी वृत्ति के नहीं थे। दीर्घकाल तक राज्यश्री का उपयोग करने के पश्चात् भगवान् श्री ऋषभदेव के मोक्ष पधारने के बाद एक बार भरत वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर आदर्श भवन (काँच के महल) मे गए। अंगुली से अंगठी गिर गई जिससे वह असुन्दर प्रतीत हो रही थी। भरत ने देखा तो अन्य आभूषण भी उतारे, सुन्दरता का रूप बदला देखकर चिन्तन का प्रवाह उमड़ पड़ा । भरत सोचने लगे-"यह सब सौन्दर्य कृत्रिम है, कृत्रिमता सदा क्षण भंगुर होती है। सुन्दरता तो वह है जो अक्षय, अजर, अमर हो, जो किसी अन्य की अपेक्षा से नही, किन्तु स्वयं के रूप में ही सुन्दर हो, वह सौन्दर्य बाहर में नही, भीतर में हैं, आत्मा के भीतर...अनन्त ज्ञान ! अनन्त दर्शन । यही मेरे अक्षय सौन्दर्य का भण्डार है।" इस प्रकार चिन्तन करते हुए कृत्रिममौन्दर्य से आत्म-सौन्दर्य में पहुँच गए। कर्ममल का प्रक्षालन करते-करते केवल ज्ञानी बन गये । इस प्रकार भगवान के सौ ही पुत्रों ने तथा ब्राह्मी सुन्दरी दोनों पुत्रियो ने श्रमणत्व स्वीकार कर कैवल्य प्राप्त किया और मोक्ष गये । -. भगवान ऋषभदेव को शिष्य संपदा ___ उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स चउरासीइं गणा चउरासीइं गणहरा होत्था। उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स उसभसेणपामोक्खाओ चउरासीइं समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपया होत्था । उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स बंभीसुन्दरिपामोक्खाणं अज्जियाणं तिन्नि सयसाहस्सीओ उक्कोसिया अज्जियासंपया होत्था। उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स सेज्जसपामोक्खाणं समणोवासागाणं तिनि सयसाहस्सीओ पंच सहस्सा उक्कोसिया समणोवासयसंपया होत्था। उसमस्स णं Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ अल्प सूत्र अरहओ कोसलियस्स सुभहापामोक्खाणं समणोवासियाणं पंच सयसाहस्सीओ चउप्पन्न च सहस्सा उक्कोसिया समणोवासियाणं संपया होत्था। उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स चत्तारि सहस्सा सत्त सया पन्नासा चोहसपुव्वीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं उक्कोसिया चोहसपुव्विसंपया होत्था । उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स नव सहस्सा ओहिनाणीणं उक्कोसिया संपया होत्था । उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स वीससहस्सा केवलणाणीणं उक्कोसिया संपया होत्था । उसभस्स णं अरहओ वीससहस्स छच्च सया वेउब्वियाणं उक्कोसिया संपया होत्था। उसभरस णं अरहओ कोसलियस्स बारससहस्सा छच्च सया पन्नासा विउलमईणं अड्ढाइज्जेसु दीवसमुद्देसु सन्नीणं पंचिदियाणं पज्जत्तगाणं मणोगए भावे जाणमाणाणं पासमाणाणं उक्कोसिया विपुलमइ संपया होत्था। उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स बारससहस्सा छच्च सया पन्नासा वाईणं संपया होत्था । उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स बीसं अंतेवासि सया सिद्धा, चत्तालीसं अज्जियासाहस्सीओ सिद्धाओ। बावीस सहस्सा नव य सया अणुत्तरोववाइयाणं गति कल्लाणाणं जाव भदाणं उक्कोसिया संपया होत्था ॥१६७॥ अर्थ-कौगलिक अर्हत् ऋषभ के चौरासी गण और चौरासी गणधर थे। कौशलिक अर्हत् ऋषभ के संघ में ऋषभसेन प्रमुख चौरासी हजार श्रमणों की उत्कृष्ट श्रमण संपदा थी। कोशलिक अर्हत् ऋषभ के समुदाय में ब्राह्मी आदि तीन लाख आयिकाओं की उत्कृष्ट आर्यिका सम्पदा थी। कौशलिक अर्हत् ऋषभ के समुदाय में श्रेयांस प्रमुख तीन लाख और पांच हजार श्रमणोपासकों की उत्कृष्ट श्रमणोपासक संपदा थी। कौगलिक अर्हत् ऋषभ के समुदाय में Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् बलमदेव : शिष्य संपरा २७३ सुभद्रा प्रमुख पाँच लाख चौवन हजार श्रमणोपासिकाओं की उत्कृष्ट संपदा थी। कौशलिक अर्हत् ऋषभ के समुदाय में जिन नही किन्तु 'जिन' के समान चार हजार सात सौ पचास चौदह पूर्वधारियों की उत्कृष्ट संपदा थी । कोशलिक अर्हत् ऋषभ के समुदाय में नौ हजार अवधिज्ञानियों की उत्कृष्ट सपदा थी। कौशलिक अर्हत् ऋषभ के समुदाय में बीस हजार केवलज्ञानियों की उत्कृष्ट केवलज्ञानी-सम्पदा थी। कौशलिक अर्हत् ऋषभ के समुदाय में बीस हजार छ: सौ वैक्रिय लब्धिधारियों की उत्कृष्ट संपदा थी। कोशलिक अर्हत् ऋषभ के समुदाय में ढाई द्वीप में और दोनों समुद्रों में रहते हुए पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रियों के मनोभावों को जानने वाले ऐसे विपलमति मनःपर्यवज्ञानियों की बारह हजार छ: सौ पचास जितनी उत्कृष्ट संपदा थी। कौशलिक अर्हत् ऋषभ के समुदाय में बारह हजार छ सौ पचास वादियों की उत्कृष्ट सपदा थी । कोशलिक अर्हत् ऋषभ के संघ में से उनके बीस हजार अन्तेवासी शिष्य और चालीस हजार आर्यिकाएँ सिद्ध हुई । कोशलिक अर्हत् ऋषभ के समुदाय में बावीस हजार नौ सौ कल्याण गति वाल, यावत् भविष्य में भद्र प्राप्त करने वाले अनुत्तरोपपातिकों की अर्थात् अनुत्तर विमान में जाने वालों की उत्कृष्ट संपदा थी। मूल : उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स दुविहा अंतगडभूमी होत्था, तं जहा-जुगंतकडभूमी य परियायंतकडभूमी य । जाव असंखेज्जाओ पुरिसजुगाओ जुगंतगडभूमी, अंतोमुहुत्तपरियाए अंतमकासी॥१६॥ __ अर्थ-कौशलिक अर्हत् ऋषभ की दो प्रकार की अन्तकृत् भूमि थी। युगान्तकृत् भूमि और पर्यायान्तकृत् भूमि । श्री ऋषभ के निर्वाण के पश्चात् असंख्ययुग पुरुषों तक मोक्ष मार्ग चलता रहा, यह उनकी युगान्तकृत् भूमि है । श्री ऋषभ को केवलज्ञान होने पर अन्तर्मुहूंत के पश्चात् मोक्ष मार्ग चालू हुआ। अर्थात् श्री ऋषभ का केवलीपर्याय अन्तमुहर्त का होते ही मरुदेवा माता ने Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान अषमदेष : परिनिर्वाण २७५ आयुकर्म, नामकर्म, गोत्रकर्म क्षीण होते ही इस अवसर्पिणी काल के सुषमदुषम नामक आरे का बहुत समय व्यतीत हो जाने और तीन वर्ष और साढे आठ माम अवशेष रहने पर हेमन्तऋतु के तृतीय मास, पांचवे पक्ष, अर्थात् माघ मास का कृष्ण पक्ष आया, उस माघ कृष्णा त्रयोदशी के दिन, अष्टापद पर्वत के शिखर पर श्री ऋषभदेव अर्हत्, दूसरे दस हजार अनगारों के साथ, पानी रहित, चतुर्दश भक्त का तप करते हुए, अभिजित नक्षत्र का योग होते हो, पूर्वाह्न में पल्यंकामन से रहे हुए कालगत हुए, यावन् सर्व दुःखों से पूर्णतया मुक्त हुए. निर्वाण को प्राप्त हुए। मल: ___ उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स कालगयस्स जाव सव्वदुक्खप्पहीणस्स तिनि वासा अद्धनवमा य मासा विइकता, तओ वि परं एगा सागरोवमकोडाकोडी तिवासअद्धनवमासाहिएहिं बायालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणिया वीइकता, एयम्मि समए समणे भगवं महावीरे परिनिव्वुडे, तओ वि परं नव वाससया वीइक्कता, दसमस्स य वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरकाले गच्छइ ॥२०॥ अर्थ -- कोशलिक अर्हत् ऋषभ को निर्वाण हुए, यावत् उनको सर्वदुःखों से मुक्त हुए, तीन वर्ष साढ़े आठ मास व्यतीत हो गये, उसके पश्चात् बयालीस हजार तीन वर्ष और साढे आठ मास कम एक कोटाकोटि सागरोपम जितना समय व्यतीत हुआ। उस समय श्रमण भगवान महावीर परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। उसके पश्चात् भी नौ सौ वर्ष व्यतीत हो गये और अब दशवी शताब्दी का यह अस्सोवा वर्ष चल रहा है।" Page #313 --------------------------------------------------------------------------  Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविरावली -. गणधर चरित्र मूल : तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स नव गणा एकारस गणहरा होत्था ॥२०१॥ अर्थ-उस काल उस समय श्रमण भगवान महावीर के नौ गण और ग्यारह गणधर थे। मूल : से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-समणरस भगवओ महावीरस्स नव गणा एकारस गणहरा होत्था ? । समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे इंदभूई अणगारे गोयमे गोत्तणं पंच समणसयाइं वातेइ, मज्झिमे अणगारे अग्गिभूई नामेणं गोयमे गोत्तेणं पंच समणसयाइं वाएइ, कणीयसे अणगारे वाउभूई नामेणं गोयमे गोत्तेणं पंच समणसयाइं वाएइ, थेरे अज्जवियत्ते भारदाये गोत्तेणं पंच समणसयाई वाएइ, थेरे अजसुहम्मे अग्गिवेसायणे गोत्तेणं पंच समणसयाई वाएइ, थेरे मंडियपुत्ते वासिह गोत्तेणं अद्भुढाई समणसयाई वाएइ, थेरे मोरियपुत्ते कासवगोत्तेणं अद्भुहाइं समणसयाई वाएइ, थेरे अकंपिए गोयमे गोत्तेणं, थेरे अयलभाया हारियायणे गोत्तेणं ते दुनि Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविरावली : गणधर - चरित्र २७७ वि थेरा तिन्नि तिन्नि समणसयाई वाइंति, थेरे मेयज्जे थेरे य भासे एए दोन्नि वि थेरा कोडिन्ना गोत्तेणं तिन्नि तिन्नि समणसयाई वाएंति से एतेणं अद्वेणं अज्जो ! एवं वुच्चइसमणस्स भगवओ महावीरस्स नव गणा एक्कारस गणहरा होत्था ॥ २०२ ॥ अर्थ - -प्रश्न- - भगवन् ! यह किस दृष्टि से कहा जाता है कि श्रमण भगवान महावीर के नौ गण और ग्यारह गणधर थे ? उत्तर- श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभूति नामक गौतम गोत्रीय अनगार पाँचसो श्रमणों को वाचना देते थे । द्वितीय शिष्य अग्निभूति नामक गौतम गोत्रीय अनगार ने पाँचसी श्रमणों को वाचना दी । तृतीय शिष्य लघु अनगार वायुभूति गौतम गोत्रीय ने पांच सौ श्रमणों को वाचना दी । चतुर्थ शिष्य आर्य व्यक्त भारद्वाज गोत्रीय स्थविर ने पांच सौ श्रमणों को वाचना दी । पाँचवें शिष्य आर्य सुधर्मा नामक अग्निवेशायन गोत्रीय स्थविर ने पाँच सौ श्रमणों को वाचना दी । छट्ठे शिष्य मण्डितपुत्र नामक वासिष्ठ गोत्रीय स्थविर ने तीन सौ पचास श्रमणों को वाचना दी। सातवें शिष्य मौर्यपुत्र नामक काश्यप गोत्रीय स्थविर ने तीन सौ पचास श्रमणों को वाचना दी। आठवें शिष्य अकंपित नामक गोत्रीय स्थविर ने और नौवें शिष्य अचलभ्राता नामक हरितायन गोत्रीय स्थविर ने तीन सौ श्रमणों को वाचना दी। दशवें शिष्य मेतार्य नामक कौडिन्य गोत्रीय स्थविर ने और ग्यारहवें शिष्य प्रभास नामक स्थविर ने तीन सौ-तीन सौ श्रमणों को वाचना दी । एतदर्थ हे आर्यो ! ऐसा कहा जाता है कि श्रमण भगवान महावीर के नौ गण और ग्यारह गणधर थे । अर्थात् आठवें नौवें गणधर की एक वाचना थी और दशवें व ग्यारहवें गणधर की भी एक वाचना थी । श्रमण भगवान महावीर के विराजते हुए ही नौ गणधर अपना गण आर्य सुधर्मा को देकर मोक्ष चले गये थे । ' विवेचन - इन्द्रभूति गौतम भगवान् महावीर के प्रधान शिष्य थे । मगध की राजधानी राजगृह के पास गोर्वर ( गोबर गाँव) ग्राम के रहने वाले थे, ૨ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ कम्प सूत्र जो आज नालन्दा का ही एक विभाग माना जाता है । उनके पिता वसुभूति' और माता 'पृथ्वी' थी। उनका नाम यद्यपि इन्द्रभूति था पर अपने गोत्राभिधान 'गौतम"" इस नाम से ही वे अधिक विश्रुत थे। पचास वर्ष की आयु में आपने पांच सौ छात्रों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की, तीस वर्ष तक छद्मस्थ रहे, और बारह वर्ष जीवन्मुक्त केवली । गुणशील चैत्य में मासिक अनशन करके बानवे (९२) वर्ष की उम्र में निर्वाण को प्राप्त हुए ।". ___ अग्निभति-अग्निभूति इन्द्रभूति गौतम के मझले भाई थे। छयालीस वर्ष की अवस्था मे दीक्षा ग्रहण की, बारह वर्ष तक छद्मस्थावस्था में तप जप कर केवलज्ञान प्राप्त किया । सोलह वर्ष तक केवली अवस्था में विचरण कर, भगवान महावीर के निर्वाण से दो वर्ष पूर्व राजगृह के गुणशील चैत्य में मासिक अनशन कर चौहत्तर (७४) वर्ष की अवस्था में निर्वाण को प्राप्त हुए। वायुभूति-ये इन्द्रभूति के लघु भ्राता थे । बयालीस वर्ष की अवस्था में गृहवास को त्यागकर श्रमण धर्म स्वीकार किया था। दस वर्ष छद्मस्थावस्था मे रहे।" अठारह वर्ष केवली अवस्था में रहे । ६ सत्तर वर्ष की अवस्था मे राजगृह के गुणशील चैत्य में मासिक अनशन के साथ निर्वाण प्राप्त हुए । ये तीनों ही गणधर सहोदर थे, और वेदों आदि के प्रकाण्ड पण्डित थे । (४) आर्यव्यक्त-ये कोल्लागसंनिवेश के निवासी थे और भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण थे ।१९ उनके पिता का नाम धनमित्र और माता का नाम वारुणी था ।२१ पचास वर्ष की अवस्था में पांच सौ छात्रों के साथ श्रमणधर्म स्वीकार किया,२२। बारह वर्ष तक छद्मस्थावस्था में रहे और अठारह वर्ष तक केवलीपर्याय पालकर२४, अस्सी वर्ष की अवस्था में मासिक अनशन के साथ राजगृह के गुणशोल चैत्य में निर्वाण को प्राप्त हुए । (५) सुधर्मा-ये कोल्लागसं निवेश के निवासी,२६ अग्नि वैश्यायन गोत्रीय ब्राह्मण थे ।२७ इनके पिता धम्मिल थे८ और माता महिला थी।२९ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ स्यविरावली : गणपर चरित्र पांचसौ छात्र इनके पाम अध्ययन करते थे। पचास वर्ष की अवस्था में शिष्यों के साथ प्रव्रज्या ली। बयालीस वर्ष पर्यन्त छद्मस्थावस्था में रहे।३१ महावीर के निर्वाण के बाद बारह वर्ष व्यतीत होने पर केवली हुए और आठ वर्ष तक केवली अवस्था में रहे। श्रमण भगवान के सर्व गणधरों में सुधर्मा दीर्घजीवी थे, अत: अन्यान्य गणधरों ने अपने अपने निर्वाण के समय अपने गण सुधर्मा को अर्पित कर दिए थे। महावीर-निर्वाण के १२ वर्ष बाद सुधर्मा को केवलज्ञान प्राप्त हुआ और बीस वर्ष के पश्चात् सौ वर्ष की अवस्था मे मासिक अनशन पूर्वक राजगृह के गुणशील चैत्य में निर्वाण प्राप्त किया । ३२ (६) माण्डिक_माण्डिक मौर्य संनिवेश के रहने वाले वासिष्ठ गोत्रीय ब्राह्मण थे।33 इनके पिता धनदेव३४ और माता विजयदेवा थी।३५ इन्होंने तीन मौ पचास छात्रो के साथ पन (५३) वर्ष की अवस्था में प्रव्रज्या ली। मड़सठ (६७) वर्ष की अवस्था में केवलज्ञान प्राप्त किया, और तिरासी वर्ष को अवस्था में गुणशील चैत्य में निर्वाण को प्राप्त हुए।३८ । (७) मौर्यपुत्र-ये काश्यपगोत्रीय ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम मौर्य' और माता का नाम विजयदेवा था। १ मौर्यमन्निवेश के निवासी थे। तीन सौ पचास छात्रों के साथ वेपन वर्ष की अवस्था में दीक्षा ली। उनामी वर्ष की अवस्था में केवलज्ञान प्राप्त किया, और भगवान् के अन्तिम वर्ष मे तिरासो (८३) वर्ष ५ को अवस्था में मासिक अनशन पूर्वक राजगृह के गुणशील चैत्य में निर्वाण प्राप्त किया। (E) अकम्पित -ये मिथिला के रहने वाले गौतम गोत्रीय ब्राह्मण थे।७ इनके पिता देव और माता जयन्ती थी। तीन सौ छात्रों के साथ अड़तालीस वर्ष की अवस्था में दीक्षा ली। सत्तावन वर्ष की अवस्था में केवल ज्ञान प्राप्त किया और भगवान महावीर के अन्तिम वर्ष में अठहत्तर वर्ष को" अवस्था में राजगृह के गुणशील चैत्य में निर्वाण प्राप्त किया। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० (8) अचलमाता-ये कोशला ग्राम के निवासी २ हारीत गोत्रीय ब्राह्मण थे। आपके पिता वसु५४ और माता नन्दा थी।५५ तीन सौ छात्रों के साथ छयालीस वर्ष की अवस्था में श्रमणत्व स्वीकार किया। बारह वर्ष तक छद्मस्थावस्था मे रहे और चौदह वर्ष केवली अवस्था में विचरण कर, बहत्तर वर्ष की५७ अवस्था में मासिक अनशन के साथ राजगृह के गुणशील चैत्य में निर्वाण को प्राप्त हुए। (१०) मेतार्य-ये वत्सदेशान्तर्गत तुगिक सनिवेश के निवासी५८, कौडिन्य गोत्रीय ब्राह्मण थे ।५९ इनके पिता का नाम दत्त था और माता का नाम वरुणदेवा था।६। इन्होंने तीन सौ छात्रों के साथ छत्तीस वर्ष की ६२ अवस्था में दीक्षा ग्रहण की। दस वर्ष तक छद्मस्थावस्था में रहे, और सोलह वर्ष तक केवली अवस्था में रहे। भगवान् महावीर के निर्वाण से चार वर्ष पूर्व बासठ वर्ष की अवस्था में, राजगृह के गुणशील चैत्य में निर्वाण हुआ। (११) प्रभास-ये राजगृह के निवासी ४, कौडिन्यगोत्रीय ब्राह्मण थे।६५ इनके पिता का नाम 'बल'६६ और माता का नाम 'अतिभद्रा' था।" इन्होंने सोलह वर्ष की अवस्था में श्रमण धर्म स्वीकार किया, आठ वर्ष तक छद्मस्थावस्था में रहे और सोलह वर्ष तक केवली अवस्था मे। भगवान् महावीर के सर्वज्ञ जीवन के पच्चीसवें वर्ष में गुणशील चैत्य में मासिक अनशन पूर्वक चालीस वर्ण को अवस्था में निर्वाण प्राप्त किया। इन ग्यारह ही ब्राह्मण विद्वानों ने भगवान के द्वितीय समवसरण पावा में दीक्षा ग्रहण की और सभी गणधर के महत्त्वपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित मल: सव्वे एए समणस्स भगवओ महावीरस्स एक्कारस वि गणहरा दुवालसंगिणो चोदसपुग्विणो समत्तगणिपिडगधरा रायगिहे नगरे मासिएणं भत्तिएणं अपाणएणं कालगया जाव सब्बदु. Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पविरावली : गणधर चरित्र क्खपहीणा थेरे इंदभूई थेरे अज्जसुहम्मे सिद्धिं गए महावीरे पच्चा दोन वि परिनिव्वुया ॥ २०३ ॥ २०१ अर्थ - श्रमण भगवान् महावीर के ये ग्यारहों गणधर द्वादशाङ्गी के ज्ञाता थे, चौदह पूर्व के वेत्ता थे, और समग्र गणिपिटक के धारक थे। ये सभी राजगृह नगर में एक मास तक पानी रहित अनशन कर कालधर्म को प्राप्त हुए, सर्व दुःखों से रहित हुए । भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् स्थविर इन्द्रभूति और स्थविर आर्य सुधर्मापरिनिर्वाण को प्राप्त हुए । मूल : जे इमे अज्जत्ताते समणा निग्गंथा विहरंति एए णं सव्वे अज्जमुहम्मस्स अणगारस्स आवच्चिज्जा, अवसेसा गणहरा निरबच्चा वोच्छिन्ना ॥२०४॥ अर्थ - आज जो श्रमण निर्ग्रन्थ विचरते हैं, या विद्यमान हैं, वे सभी आर्य सुधर्मा अनगार की सन्तान हैं। शेष सभी गणधरों की शिष्य परम्परा व्युच्छन्न हो गई । आर्य जम्बू मूल : समणे भगवं महावीरे कासवगोत्तेणं समणस्स णं भगवओ महावीरस्स कासवगोत्तस्स अज्ज सुहम्मे थेरे अन्तेवासी अग्निवेसायणगोत्ते थेररस णं अज्जसुहम्सस्स श्रभ्गिवेसायण सगोत्तरस अज्जजंबुनामे थेरे अंतेवासी कासवगोत्ते । थेरस्स णं अज्जजंबुनामस्स कासवगोत्तस्स अज्जप्पभवे थेरे अंतेवासी कच्चायणसगोत्ते । थेरस्स णं अज्जप्पभवस्स कच्चायणसगोत्तस्स अज्जसेज्जंभवे थेरे अंतेवासी मणगपिया वच्छगोत्ते । थेरस्स णं अज्जसेज्जंभवस्स Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पसू २२ मणगपिउणो वच्छसगोत्तस्स अज्जजसभद्दे थेरे अंतेवासी तुगियायणसगोत्ते ॥२०॥ अर्थ-श्रमण भगवान महावीर काश्यपगोत्री थे। काश्यपगोत्री श्रमण भगवान् महावीर के अग्निवैशायन गोत्री स्थविर आर्यसुधर्मा नामक अन्तेवासी शिष्य थे। अग्निवैशायन गोत्री स्थविर आर्यसुधर्मा के काश्यपगोत्री स्थविर आर्य जम्बू नामक अन्तेवासो रे । काश्यपगोत्री स्थविर आर्य जम्बू के कात्यायन गोत्री स्थविर आर्य प्रभव नामक अन्तेवासी थे। कात्यायन गोत्री स्थविर आर्य प्रभव के वात्स्यगोत्री स्थविर आर्य सिज्जभव (शय्यभव) नामक अन्तेवासी थे। मनक के पिता और वात्स्यगोत्री स्थविर आर्यसिज्जंभव के तुगियायन गोत्री स्थविर जसभ६ (आर्य यशोभद्र) नामक अन्तेवासी थे। विवेचन-श्रमण भगवान महावीर के परिनिर्वाण के सोलह वर्ष पूर्व मगध की राजधानी राजगृह में जम्बूकुमार का जन्म हुआ। उनके पिता का नाम श्रेष्ठी ऋषभदत्त और माता का नाम धारिणी था। ये अपने माता-पिता के इकलौते पुत्र थे। सोलह वर्ष की उम्र में आठ कन्याओं के साथ पाणिग्रहण हुआ। पाणिग्रहण से पूर्व ही संयम लेने का सकल्प किया, किन्तु माता-पिता के आग्रह पर सुन्दरियों से पाणिग्रहण किया, दहेज में 8 करोड़ का धन मिला। किन्तु सुधर्मा स्वामी के वैराग्यरंग से परिप्लावित प्रवचन को सुनकर इतने विरक्त हुए कि बिना सुहाग रात मनाये ही आठ सुन्दर पत्नियों का, एवं अपार वैभव का परित्याग कर भगवान् सुधर्मा के चरणों में दीक्षा ग्रहण की। जम्बू के साथ ही उनके माता-पिता ने तथा आठों पत्नियां और उनके भी माता-पिताओं ने, तथा दस्युराज प्रभव व उसके साथ के पांच सौ चोरों ने इस प्रकार पांच सौ सत्तावीस व्यक्तियों ने एक साथ दीक्षा ग्रहण की। करोड़ों का धन जनकल्याण के लिए न्यौच्छावर कर दिया। सोलह वर्ष की उम्र में दीक्षा ग्रहण की । बारह वर्ष तक सुधर्मा स्वामी से आगम की वाचना प्राप्त करते रहे। वीर निर्वाण संवत् एक में दीक्षा ग्रहण Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविरावली : मार्यजम्यू २८३ की, वीर संवत् १३ में सुधर्मास्वामी के केवलज्ञानी होने के पश्चात् उनके पट्ट पर आसीन हुए । आठ वर्ष तक संघ का कुशल नेतृत्व करने के पश्चात् वीर संवत् बोस में केवल ज्ञान प्राप्त किया और वीर संवत् चौंसठ में अस्सी वर्ष की आयु पूर्ण कर मथुरा नगरी में निर्वाण प्राप्त किया । आज जो आगम- साहित्य उपलब्ध है उसका बहुत सारा श्रेय जम्बूस्वामी को ही है । उनकी प्रबल जिज्ञासा से ही सुधर्मा स्वामी ने आगम की वाचना दी । जम्बूस्वामी इस अवसर्पिणी कालचक्र के अन्तिम केवली थे । उनके पश्चात् कोई भी मोक्ष नहीं गया । उनके मोक्ष पधारने के पश्चात् निम्न दस बातें विच्छिन्न हो गई : (१) मनः पर्यबज्ञान, (२) परमावधिज्ञान, (३) पुलाक लब्धि, (४) आहारक शरीर, (५) क्षपक श्रेणी, (६) उपशम श्रेणी, (७) जिनकल्प, ( ८ ) संयम त्रिक ( परिहार विशुद्ध चारित्र, सूक्ष्मसांपराय चारित्र, यथाख्यात चारित्र), (६) केवल ज्ञान (१०) और सिद्धपद | B • आर्य प्रभव स्वामी आर्य प्रभव विन्ध्याचल के सन्निकटवर्ती जयपुर के निवासी थे । पिता का नाम विन्ध्य राजा था। एक बार किसी कारणवश पिता से अनबन हो जाने के कारण अपने पांच सौ साथियों के साथ राज्य को छोड़कर निकल पड़े । अपने साथियों के साथ इधर उधर डाका डालना और लूट मार करना, इस प्रवृत्ति से प्रभव राजकुमार दस्युराज के रूप में विख्यात हो गए। उनके नाम से लोग कांपने लगे । जिस दिन जम्बूकुमार का विवाह था, उसी दिन वहां डाका डालने के लिए प्रभव उनके घर पर पहुँचे । प्रभव के पास दो विद्याएँ थी, तालोद्घाटनी ( ताला तोड़ने की ) एवं अवस्वापिनी ( नींद दिलाने की) उनकी विद्या के प्रभाव से घर के सभी सदस्य सो गए, पर, ऊपर जम्बूकुमार अपनी नवपरिणीता पत्नियों के साथ वैराग्यचर्चा कर रहे थे । प्रभव वहां पहुँचा, छुपकर सुनने लगा, वैराग्य रस से छलछलाते हुए उपदेश को सुनकर प्रभव ससार से विरक्त हो गये । अपने साथियों के साथ ही उन्होंने तीस वर्ष Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ कल्प-सूत्र की अवस्था में प्रव्रज्या ग्रहण की। पचास वर्ष की अवस्था में आचार्यपद पर प्रतिष्ठित हुए, और एक सौ पाँच वर्ष की उम्र में अनशन कर स्वर्गवासी हुए । आर्य शय्यंभव • आचार्य प्रभव स्वामी के स्वर्गस्थ होने पर आर्य शय्यंभव उनके पट्ट पर आसीन हुए। ये राजगृह के निवासी वत्स गोत्रीय ब्राह्मण थे । वैदिक साहित्य के उद्भट विद्वान् थे । एक समय वे बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे थे । आर्य प्रभव के आदेशानुसार कुछ शिष्य उनके समीप आए और कहते हुए आगे निकल गए 'अहो कष्टमहो कष्टं पुनस्तत्वं न ज्ञायते' "अत्यन्त खेद है कि तत्व को कोई नहीं जानता ।" यह वाक्य शय्यंभव के पाण्डित्य पर एक करारी चोट थी। उन्होने गहराई से सोचा, पर तत्व का रहस्य ज्ञात न हो सका, तब उन्होंने इन्ही मुनियों से पूछा-तत्व क्या है ? बताओ ! शिष्यों ने कहा - तत्व क्या है ? यह तो हमारे गुरु बताएँगे । यदि तत्व की जिज्ञासा हैं तो हमारे गुरु आर्य प्रभव के चरणों में चलो। उसी क्षण शय्यंभव आर्य प्रभव के पास आये । प्रभवस्वामी ने बताया- " यज्ञ करना एक तत्व है, पर वह यज्ञ बाह्य नहीं, आभ्यन्तर होना चाहिए, विकारों के पशुओं को होमना ही यज्ञ का तत्व है ।" प्रभव स्वामी के प्रभावपूर्ण प्रवचन से प्रबुद्ध होकर प्रब्रज्या ग्रहण की। चतुर्दश पूर्व का अध्ययन किया । जब इन्होंने प्रव्रज्या ग्रहण की थी तब पत्नी सगर्भा थी । पश्चात् पुत्र लघुवय में ही चम्पानगरी में हुआ । 'मनक' नाम रखा गया । 'मनक' ने आपके दर्शन किये, और वह भी मुनि बन गया । विशिष्ट ज्ञान से पुत्र को छह मास का अल्पजीवी समझकर अल्पकाल में ही श्रमणाचार का सम्यक् परिचय देने हेतु पूर्वश्रुत के आधार से आचार संहिता का संकलन किया। उसके दस अध्ययन थे । विकाल में रचा जाने के कारण उसका नाम 'दशवैकालिक' रखा गया। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविरावली : मार्यशम्यंमत्र : मार्य यशोमय २८५ ___ इन्होंने अठ्ठाईस वर्ष की वय में प्रव्रज्या ग्रहण की। चौंतीस वर्ष साधारण मुनि अवस्था में रहे और तेवीस वर्ष युग प्रधान आचार्य पद पर । वीर सं० ६८ में ८५ वर्ष की आयु पूर्णकर स्वर्गस्थ हुए। - आर्य यशोभद्र ये आचार्य शय्यंभव के परम मेधावी शिष्य थे। तुगियायन गोत्रीय ब्राह्मण थे। उनके जीवन वृत्त के सम्बन्ध में विशेष सामग्री उपलब्ध नहीं है। पाटलिपुत्र का नन्द-राजवंश और मंत्री-वंश इनके प्रभाव से पूर्ण प्रभावित था। तथा विदेह, मगध और अंग आदि आपके पाद-पद्मों से सदा पावन होते रहे । बावीस वर्ष की अवस्था में दीक्षा ग्रहण की। चौदह वर्ष तक मुनि अवस्था में रहे, और पचास वर्ष युगप्रधान आचार्य पद पर रहे। वीर संवत् १४८ में ८६ वर्ष की आयु पूर्णकर स्वर्गस्थ हुए । यहाँ यह स्पष्टीकरण कर देना आवश्यक है कि स्थविरावली का लेखन एक समय में नही हुआ है, जैसे आगमों को तीन बार व्यवस्थित किया गया था वैसे ही स्थविरावली भी तीन भागों में व्यवस्थित की गई है। आर्य यशोभद्र तक स्थविरावली की एक परम्परा रही है। उसके पश्चात् दो धाराएँ हो गई, एक संक्षिप्त और दूसरी विस्तृत । आर्य यशोभद्र तक की स्थविरावली भगवान महावीर के निर्वाण से करीब १६० वर्ष पश्चात् पाटलिपुत्र में जो प्रथम वाचना हुई थी उसके पूर्व की है। उसके पश्चात् की संक्षिप्त और विस्तृत दोनों ही स्थविरावलियां, जिनकी परिसमाप्ति क्रमशः आर्य तापस और फगुमित्र तक हुई है। द्वितीय वाचना के समय मूल के साथ सम्मिलित की गई हैं। संक्षिप्त स्थविरावली में मूल परम्परा के स्थविरों का ही मुख्यतः निर्देश किया गया है और विस्तृत स्थविरावली में मूल पट्टधरों के अतिरिक्त उनके गुरुभ्राता और उनसे प्रादुर्भूत होने वाले गण, गणों के कुल और शाखाओं का भी वर्णन किया गया है। आर्य तापस और फग्गुमित्र के पश्चात् स्थविरावली ततीय वाचना के समय पूर्वतन स्थविरावली में संलग्न करदी गई। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ मूल : सखित्तवायणाए अज्जजसभदाओ अग्गओ एवं थेरावली भणिया, तं जहा-थेरस्स णं अज्जजसभहस्स तुगियायणसगोत्तस्स अंतेवासी दुवे थेरा-थेरे अज्जसंभूयविजए माढरसगोत्ते; थेरे अज्जभदबाहू पाइणसगोत्ते । थेरस्स णं अज्जसंभूयविजयस्स माढरसगोत्तस्स अंतेवासी थेरे अज्जथूलभद्दे गोयमसगोत्ते। थेरस्स णं अज्जथूलभदस्स गोयमसगोत्तस्स अंतेवासी दुवे थेरा-थेरे अज्जमहागिरी एलावच्छसगोत्ते । थेरस्स णं अज्जसुहत्थिस्स वासिट्ठसगोत्तस्स अंतेवासी दुवे थेरा सुट्टियसुपडिबुद्धा कोडियकाकंदगा वग्यावच्चसगोत्ता। थेराणं सुठिसुपडिबुद्धाणं कोडियकाकंदगाणं वग्यावच्चसगोत्ताणं अंतेवासी थेरे अज्जइंददिन्न कोसियगोत्ते । थेरस्स णं अज्जइंददिन्नस्स कोसियगोत्तस्स अंतेवासी थेरे अज्जदिन्न गोयमसगोत्ते । थेरस्स णं अज्जदिन्नस्स गोयमसगोत्तस्स अंतेवासी थेरे अज्जसीहगिरी जाइस्सरे कोसियगोत्ते । थेरस्स णं अज्जसीहगिरिस्स जातिसरस्स कोसियगोत्तस्स अंतेवासी थेरे अज्जवइरे गोयमसगोत्ते । थेरस्स णं अज्जवइरस्स गोयमगोत्तस्स अंतेवासी चत्तारि थेरा-थेरे अज्जनाइले, थेरे अज्जपोगिले थेरे अज्जजयंते, थेरे अज्जतावसे । थेराओ अजनाइलाओ अजनाइला साहा निग्गया, थेराओ अज्जपोगिलाओ अज्जपोगिला साहा निग्गया, थेराओ अज्जजयंताओ अजजयंती साहा निग्गया, थेराओ अज्जतावसाओ अज्जतावसी साहा निग्गया इति ॥२०६॥ अर्थ-आर्य यशोभद्र से आगे की स्थविरावलि संक्षिप्त वाचना के द्वारा Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वविरावली: विधि शाखाए २८७ 1 1 इस प्रकार कही गई है । जैसे - तु गियायन गोत्रीय स्थविर आर्य यशोभद्र के दो स्थविर अन्तेवासी थे । एक माठरगोत्र के स्थविर आर्य संभूतविजय और दूसरे प्राचीन गोत्र के स्थविर आर्य भद्रबाहु । माठर गोत्रीय स्थविर आर्य सभूतविजय के गौतम गोत्रीय आर्य स्थूलभद्र नामक अन्तेवासी थे । गौतम गोत्रीय स्थविर आर्य स्थूलभद्र के दो स्थविर अन्तेवासी थे । प्रथम एलावच्च गोत्रीय (एलावत्स ) स्थविर आर्यमहागिरि, और दूसरे वासिष्ठगोत्रीय स्थविर आर्यसुहस्ती । वासिष्ठगोत्रीय स्थविर आर्यसुहस्ती के दो स्थविर अन्तेवासी थे । प्रथम सुस्थित स्थविर और द्वितीय सुप्पडिबुद्ध ( सुप्रतिबुद्ध) स्थविर । ये दोनों कोडिय - काकंदक" कहलाते थे और ये दोनों वग्धावच्च ( व्याघ्रापत्य) गोत्र के थे । कोडियकाकदक के रूप में प्रसिद्ध हुए और वग्घावच्चगोत्री (व्याघ्रापत्यगोत्री ) सुस्थित और सुप्पडिबुद्ध स्थविर के कौशिक गोत्री आर्य इंद्र दिन्न नामक स्थविर अन्तेवासी थे । कौशिक गोत्रीय आर्य इन्द्रदिन स्थविर के गौतम गोत्रीय स्थविर आर्यदिन नामक अंतेवासी थे । गौतमगोत्रीय स्थविर आर्यंदिन के कौशिक गोत्रीय आर्यंसिंहगिरि नामक स्थविर अन्तेवासी थे । आर्यंसिंहगिरि को जातिस्मरण ज्ञान हुआ था । जातिस्मरण ज्ञान को प्राप्त कौशिकगोत्रीय आर्यसंहगिरि स्थविर के गौतमगोत्रीय आर्य वज्रनामक स्थविर अन्तेवासी थे । गौतमगोत्रीय स्थविर आर्य वज्र के उक्कोसियगोत्री आर्य वज्रसेन नामक स्थविर अन्तेवासी थे । उक्कोसियगोत्री आर्य वज्रसेन स्थविर के चार स्थविर अन्तेवासी थे - ( १ ) स्थविर आर्य नाईल, (२) स्थविर आर्य पोमिल (पद्मिल) (३) स्थविर आर्य जयंत ( ४ ) और स्थविर आर्य तापस । स्थविर आर्य नाईल से आर्य नाईला शाखा निकली । स्थविर आर्य पोमिल (पद्मिल) से आर्य पोमिला (पद्मिला) शाखा निकली । स्थविर आर्य जयंत से आर्य जयंती शाखा निकली। स्थविर आर्य तापस से आर्य तापसी शाखा निकली । मूल : वित्थरवायणाए पुण अज्जजसमद्दाओ परओ थेरावली Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ कम्प सूत्र एवं पलोइजइ, तं जहा-थेरस्स णं अजजसभहस्स इमे दो थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिन्नाया होत्था, तं जहा-थेरे अज्जमहबाहू पाईणसगोत्ते, थेरे अज्ज संभयविजये माढरसगोत्ते । थेरस्स णं अज्जभद्दबाहुस्स पाईणगोत्तस्स इमे चत्तारि थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिण्णाया होत्था, तं जहा-थेरे गोदासे थेरे अग्गिदत्ते थेरे जण्णदत्ते थेरे सोमदत्ते कासवगोत्ते णं। थेरेहिंतो णं गोदासेहिंतो कासवगोत्तेहिंतो एत्थ णं गोदासगणे नामं गणे निग्गए, तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ एवमाहिज्जंति, तं जहातामलित्तिया कोडीवरिसिया पोंडवद्धणिया दासीखब्वडिया।२०७॥ अर्थ-अब आर्य यशोभद्र से आगे की स्थविरावली विस्तृत वाचना से इस प्रकार दृष्टिगोचर होती है। जैसे तुगियान गोत्रीय स्थविर आर्य यशोभद्र के पुत्र-समान ये दो प्रख्यात स्थविर अन्तेवासी थे। जैसे-प्राचीन गोत्रीय आर्य भद्रबाहु स्थविर और माठर गोत्री आर्य संभूतविजय स्थविर । प्राचीन गोत्रीय आर्य भद्रबाहु स्थविर के पुत्र के समान, प्रख्यात ये चार स्थविर अन्तेवासी थे। जैसे- १) स्थविर गोदास, (२) स्थविर अग्निदत्त, (३) स्थविर यज्ञदत्त और (४) स्थविर सोमदत्त, ये चारों स्थविर काश्यप गोत्रीय थे। काश्यप गोत्रीय स्थविर गोदास से गोदास गण प्रारम्भ हुआ। उस गण की ये चार शाखाएँ इस प्रकार हैं। जैसे-(१) तामलित्तिया (ताम्रलिप्तिका), (२) कोडिवरिसिया (कोटिवर्षीया), (३) पंडुबद्धणिया (पौण्ड्रवर्धनिका), (४) दासी खब्बडिया (दासीकर्पटिका)। विवेचन-संक्षिप्त स्थविरावली में आर्य संभूतविजय का नाम प्रथम आया है और आर्य भद्रबाहु का द्वितीय । किन्तु इस विस्तृत स्थविरावली में प्रथम भद्रबाहु का नाम आया है और फिर संभूतविजय का। पट्टवलीकार का भी यही अभिमत है कि संभूतविजय के लघु गुरुभ्राता भद्रबाहु थे और यशोभद्र के पश्चात् उनके दोनों ही शिष्य पट्टधर बने थे। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थली आये भद्रबाहु २८६ आर्य · भद्रबाहु ये जैन संस्कृति के एक ज्योतिर्धर आचार्य थे। जैन आगमों पर सर्वप्रथम व्याख्यात्मक चिन्तन के रूप में आपने ही नियुक्तियों की सर्जना की है। मंत्रशास्त्र और ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान थे। जैन साहित्य सर्जना के ये आदिपुरुष माने जा सकते हैं । आगमव्याख्याता, इतिहासकार और साहित्य के नवसर्जक के रूप में वस्तुत. आचार्य भद्रबाहु अपने युग के बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न एवं प्रभावशाली आचार्य थे । आपका जन्म प्रतिष्ठानपुर नगर में हुआ था । ४५ वर्ष की वय में आर्य यशोभद्र के पास प्रब्रज्या ग्रहण की, सत्तरह वर्ष तक साधारण मुनि अवस्था में रहे और चौदह वर्ष तक युगप्रधान आचार्य पद पर । वीर संवत् १७० में ७६ वर्ष की आयु में स्वर्गस्थ हुए । आर्य प्रभव से प्रारम्भ होने वाली श्रुतकेवली परम्परा में भद्रबाहु पंचम श्रुतकेवली है, चतुर्दश पूर्वधर हैं । उनके पश्चात् कोई भी साधक चतुपूर्वी नहीं हुआ । अतः ये अन्तिम श्रुतकेवली माने जाते हैं । 1 3 दशाश्रुत, बृहत्कल्प, व्यवहार और कल्पसूत्र ये आपके द्वारा रचे गये हैं । आवश्यक निर्युक्ति आदि दस निर्युक्तियों की रचना भी आपने की है । आवश्यक नियुक्ति तो वस्तुत: जैन साहित्य का एक 'आकर' ग्रन्थ है, जिसमें सर्वप्रथम इस अवसर्पिणी काल के जैन महापुरुषों का जीवन चरित्र ग्रथित हुआ | आपने सपादलक्ष गावाबद्ध वसुदेव चरित्र ( प्राकृत भाषा में) लिखा था । चमत्कारी उवसग्गहर स्तोत्र भी आप ही की रचना है। इस कृति के सम्बन्ध में अनुश्रुति है कि वराहमिहिर संहिता का रचयिता वराहमिहिर आपका लघुभ्राता था । उसने भी आर्हती दीक्षा ग्रहण की थी। जब स्थूलिभद्र को आचार्य पद देना निश्चित हुआ तब वह ईर्ष्या से भ्रमण परिधान का परित्याग कर गृहस्थ बन गया, और वराहमिहिर संहिता का निर्माण किया । विद्वानों की यह धारणा है कि वर्तमान में जो वराहमिहिर संहिता उपलब्ध है, वह उससे भिन्न है। जब वह मरकर व्यन्तर देव हुआ तब पूर्व वैर से जैन शासनानुरागियों को उपसर्गं देने लगा, तब आचार्य ने प्रस्तुत स्तोत्र की रचना की, जिसके पाठ से सारे उपसर्ग नष्ट हो गये । ७४ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० कल्प सूध कहा जाता है कि प्राकृत भाषा में आपने भद्रबाहु संहिता नामक ज्योतिष ग्रन्थ लिखा था, जो आज अनुपलब्ध है । उसके प्रकाश में ही द्वितीय भद्रबाहु ने संस्कृत भाषा में भद्रबाहुं सहिता का निर्माण किया । ७५ आगमों की प्रथम वाचना पाटलीपुत्र में आपके द्वारा ही सम्पन्न हुई थी । उस समय ( वी० नि० १५५ के आसपास) द्वादशवर्षीय भयंकर दुष्काल पड़ा । श्रमण संघ समुद्र तट पर चला गया । अनेक श्रुतधर काल-कवलित हो गए | दुष्काल आदि अनेक कारणों से यथावस्थित सूत्र पारायण नही हो सका, जिससे आगम ज्ञान की श्रृंखला छिन्न-भिन्न हो गई । दुर्भिक्ष समाप्त हुआ । उस समय विद्यमान विशिष्ट आचार्य पाटलीपुत्र में एकत्रित हुए । एकादश अंग संकलित किए गए। बारहवें अंग के एक मात्र ज्ञाता भद्रबाहु स्वामी उस समय नेपाल में महाप्राणध्यान की साधना कर रहे थे। संघ के आग्रह से उन्होंने स्थूलभद्र मुनि को बारहवें अंग की वाचना देना स्वीकार किया। दस पूर्व अर्थ सहित सिखाए, ग्यारहवें पूर्व की वाचना चल रही थी कि एक बार आर्य स्थूलभद्र से मिलने के लिए, जहाँ वे ध्यान कर रहे थे वहाँ उनकी बहनें आईं। बहनो को चमत्कार दिखाने के कौतुक वश स्थूलिभद्र ने सिंह का रूप बनाया । इस घटना पर, भद्रबाहु ने आगे वाचना देना बन्द कर दिया कि वह ज्ञान को पचा नही सकता । पर संघ के अत्याग्रह से अन्तिम चार पूर्वो की वाचना तो दो, पर अर्थ नहीं बताया और दूसरों को उसकी वाचना देने की स्पष्ट मनाई की" । अर्थ की दृष्टि से अन्तिम श्रुत केवली भद्रबाहु ही हैं । स्थूलिभद्र शाब्दिक दृष्टि से चौदहपूर्वी थे और अर्थ दृष्टि से दसपूर्वी थे । 1 मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त आपके अनन्य भक्त थे । उनके द्वारा देखे गये १६ स्वप्नों का फल आपने बताया था जिनमें पंचमकाल की भविष्यकालीन स्थिति का रेखाचित्र था । संभवतः भद्रबाहु के इस विराट् व्यक्तित्त्व के कारण हो श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में उनके प्रति समान श्रद्धाभाव है । दोनों ही उन्हें अपनी परम्परा के ज्योतिर्धर आचार्य मानते हैं । वी० सं० १७० में अर्थात् वि० पू० ३०० में उनका स्वर्गवास माना जाता है । Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविराबलो : प्रार्य स्थलि भत्र २६१ मल: थेरस्स णं अज्जसंभूयविजयस्स माढरसगोत्तस्स इम दुवालस थेरा अंतेवासी अहावचा अभिण्णाया होत्था, तं जहा नंदणभद्दे उवनंदभद्द तह तीसभद्द जसभद्दे । थेरे य सुमिणभद्दे मणिभद्दे य पुन्नभद्दे य ॥१॥ थेरे य थूलभदे उज्जमती जंबुनामधेज्जे य । थेरे य दीहभद्दे थेरे तह पंडुभद्दे य ॥२॥ थेरस्स णं अज्जसंभूइविजयस्स माढरसगोत्तस्स इमाओ सत्त अंतेवासिणीओ अहावच्चाओ अभिन्नताओ होत्था, तं जहा जक्खा य जक्खदिन्ना भूया तह होइ भूयदिन्ना य । सेणा वेणा रेणा भगिणीओ थूलभद्दस्स ।१॥२०॥ अर्थ-माढरगोत्रीय स्थविर आर्य संभूतिविजय के पुत्र समान एवं प्रख्यात ये बारह स्थविर अंतेवासी थे। जैसे-(१) नन्दनभद्र, (२) उपनन्दन भद्र, (३) तिष्यभद्र, (४) यशोभद्र, (५) स्थविर सुमनभद्र, (स्वप्नभद्र) (६) मणिभद्र, (७) पुण्यभद्र (पूर्णभद्र), (८) आर्य स्थूलभद्र (९) ऋजुमति, (१०) जम्बू, (११) स्थविर दीर्घभद्र, (१२) स्थविर पाण्डुभद्र। माढर गोत्रीय स्थविर आर्य संभूतविजय की पुत्री समान तथा प्रख्यात ये सात अंतेवासिनियाँ (शिष्याएँ) थीं, जैसे कि-(१) यक्षा, (२) यक्षदत्ता, (३) भूता, (४) भूतदत्ता (५) सेणा,(६) वेणा,(७) और रेणा ये सातों ही आर्य स्थूलभद्र की बहिनें थीं। विवेचन-आचार्य संभूतविजय माढर गोत्रीय ब्राह्मण विद्वान थे। आर्य यशोभद्र के पास ४२ वर्ष की वय में दीक्षा ग्रहण की, ४० वर्ष सामान्य साधु अवस्था में रहे और ८ वर्ष युगप्रधान आचार्य पद पर । ६० वर्ष की आयु में वीर सं० १५६ में स्वर्गवासी हुए। ___ आपका शिष्य परिवार बहुत ही विस्तृत था। यहां तो प्रमुख १२ शिष्यों का ही नाम निर्देश किया गया है। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ - आर्य स्थूलिभद्र मल: थेरस्स णं अज्जथूलभदस्स गोयमगोत्तस्स इमे दो थेरा अहावचा अभिन्नाया होत्था, तं जहा-थेरे अज्जमहागिरी एलावच्छसगोत्ते, थेरे अज्ज सुहत्थी वासिहसगोत्ते । थेरस्स णं अज्जमहागिरिस्स एलावच्छसगोत्तस्स इमे अह अंतेवासी अहावच्चा अभिन्नाया होत्था, तं जहा-थेरे उसरे थेरे बलिस्सहे थेरे धणड्ढे थरे कोडिन्न थेरे नागे थेरे नागमित्ते थेरे छलुए रोहगुत्ते कोसिए गोत्तेणं । थेरेहिंतो णं छलुएहितो रोहगुत्ते हितो कोसियगोत्तेहिंतो तत्थ णं तेरासिया निग्गया। थेरेहिंतो णं उत्तरबलिस्सहेहितो तत्थ णं उत्तरबलिस्सहगणे नामं गणे निग्गए । तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ एवमाहिज्जति, तं जहा-कोसंबिया सोतित्तिया कोडवाणी चंदनागरी ॥२६॥ अर्थ-गौतम गोत्रीय आर्य स्थूलिभद्र, स्थविर के पुत्र समान एवं प्रख्यात ये दो स्थविर अन्तेवासी थे जैसे कि-एक ऐलावच्च (एलावत्स) गोत्रीय स्थविर आर्य महागिरि, और दूसरे वसिष्ठ गोत्रीय स्थविर आयं सुहस्ती। ऐलावच्चगोत्रीय स्थविर आर्य महागिरि के पुत्र समान प्रख्यात ये आठ स्थविर अन्तेवासी थे । जैसे-(१) स्थविर उत्तर, (२) स्थविर बलिस्सह, (३) स्थविर धणड्ढ (धनाढ्य), (४) स्थविर सिरिड्ढ (श्रीआळ्य), (५) स्थविर कोडिन्न (कौडिन्य), (६) स्थविर नाग, (७) स्थविर नागमित्त (नागमित्र), (८) षडुलूक, कौशिकगोत्रीय स्थविर रोहगुप्त। कौशिक गोत्रीय स्थविर षडुलूक रोहगुप्त से राशिक सम्प्रदाय निकला। स्थविर उत्तर से और स्थविर बलिस्सह से 'उत्तरबलिस्सह" नामक गण Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ erferent : मार्य स्थूलभद्र २८३ निकला । उसकी ये चार शाखाएं इस प्रकार कही जाती है। जैसे - (१) कोसं(२) सोईतिया ( शुक्तिमतीया) ७८ (३) कोडंबाणी " बिया ( कौशाम्बिका) ( ४ ) चन्दनागरी । " P विवेचन - आर्य स्थूलभद्र जैन जगत् के वे उज्ज्वल नक्षत्र हैं, जिनकी जीवन-प्रभा से आज भी जन जीवन आलोकित हैं। मगलाचरण में तृतीय मंगल के रूप में उनका स्मरण किया जाता है । ये मगध की राजधानी पाटलीपुत्र के निवासी थे । इनके पिता का नाम शकडाल था, जो नन्द साम्राज्य के महामन्त्री थे । वे विलक्षण प्रतिभा के धनी और राजनीतिज्ञ थे । जब तक वे विद्यमान रहे तब तक नन्द साम्राज्य प्रतिदिन विकास करता रहा । । स्थूलभद्र के लघुभ्राता श्रेयक थे यक्षा आदि सात भगिनियाँ थीं । स्थूलभद्र जब यौवन की चौखट पर पहुँचे तब कोशागणिका ( युग की सुन्दरी गणिका तथा नर्तकी) के रूप- जाल में फंस गए । महापण्डित वररुचि के षड़यंत्र से श्रेय ने पिता को मार दिया । पिता के अमात्यपद को ग्रहण करने के लिए स्थूलभद्र से निवेदन किया गया । किन्तु पिता की मृत्यु से उन्हें वैराग्य हो गया उन्होने आचार्य सभूतिविजय से प्रव्रज्या ग्रहण को । प्रथम वर्षावास का समय आया । अन्य साथी मुनियों में से एक ने सिंह गुफा पर चातुर्मास रहने की आज्ञा मांगी। दूसरे ने दृष्टि विष सर्प की बाँबी पर, तीसरे ने कुएं के कोठे पर, और स्थूलिभद्र ने कोशा की चित्रशाला में । गुरुआज्ञा लेकर स्थूलभद्र कोशा के भवन पर पहुँचे । चारों ओर वासना का वातावरण, कोशा वेश्या के हाव भाव और विभाव से भी स्थूलिभद्र चलित न हुए । अन्त में स्थूलभद्र के त्यागमय उपदेश से वह श्राविका बन गई । वर्षावास पूर्ण होने पर सभी शिष्य गुरु के चरणों में लौटे, । तीनों का 'दुष्करकारक' तपस्वी के रूप में स्वागत किया गया । स्थूलिभद्र के लौटने पर गुरु सात-आठ कदम सामने गये और 'दुष्कर - दुष्कर कारक तपस्वी' कहकर स्वागत किया । सिंहगुफा बासी मुनि यह देखकर क्षुब्ध हुआ । आचार्य ने ब्रह्मचर्य की दुष्करता पर प्रकाश डाला, पर उसका क्षोभ शान्त नहीं हुआ । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ दूसरे वर्ष सिंहगुफावासी मुनि कोशा वेश्या के यहाँ पहुँचा। वेश्या ने परीक्षा के लिए ज्योंही कटाक्ष का बाण छोड़ा कि घायल हो गया और व्रतभंग करने के लिए प्रस्तुत हो गया । कोशा ने प्रतिबोध देने हेतु नेपाल नरेश के यहां के रत्नकम्बल की याचना की। विषयाकुल बना हुआ वह वर्षावास में ही नेपाल पहुँचा। रत्नकम्बल लेकर लौट रहा था कि मार्ग में चोरों ने उसे अनेक कष्ट दिए। बहुत-सी कठिनाइयों को सहता हुआ पुनः पाटलिपुत्र पहुँचा। रत्नकम्बल वेश्या को दिया। वेश्या ने गन्दे पानी की नाली में उसे फेंक दिया। आक्रोश पूर्ण भाषा में साधु ने कहा -- अत्यन्त कठिनता से जिस रत्नकम्बल को प्राप्त किया गया है उसको गन्दी नाली में डालते हुए तुम्हे लज्जा नहीं आती ? वेश्या ने कहा-रत्न-कम्बल से भी अधिक मूल्यवान संयम रत्न को क्षणिक वासना के लिए भंग करना क्या संयम रतन को गंदी नाली में डालना नहीं है ? वेश्या के एक ही वाक्य से सिंह गुफा वासी मुनि को अपनी भूल मालूम हो गई। उसे गुरु के कथन का रहस्य ज्ञात हो गया। आकर गुरु से क्षमा याचना को। आचार्य स्थूलिभद्र का महत्त्व कामविजेता होने के कारण ही नहीं, अपितु पूर्वधारी होने के कारण भी रहा है । वीर संवत् ११६ में इनका जन्म हुआ। तीस वर्ष की वय में दीक्षा ग्रहण की । २४ वर्ष तक साधारण मुनि पर्याय में रहे, भौर ४५ वर्ष तक युग प्रधान आचार्य पद पर । ६६ वर्ष का आयु भोगकर वैभारगिरि पर्वत पर पंद्रह दिन का अनशन कर वीर संवत् २१५ (मतान्तर से २१६) में स्वर्गस्थ हुए। २ आचार्य प्रवर स्थूलिभद्र के पट्ट पर उनके शिष्य रत्न, महान् मेधावी और चारित्रनिष्ठ आयं महागिरि और आर्य सुहस्ती आसीन हुए। ये दोनों ही आर्य स्थूलिभद्र की बहिन यक्षा साध्वी द्वारा प्रतिबुद्ध हुए थे। आर्य महागिरि उग्र तपस्वी थे। दस पूर्व तक अध्ययन करने के पश्चात् संघ संचालन का उत्तरदायित्त्व अपने लघु गुरुभ्राता आर्य सुहस्ती को समर्पित Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विराबली: विमिस शाखाएँ २६५ कर स्वयं आर्य जम्बू के समय से विच्छिन्न जिनकल्प की अत्यन्त कठोर साधना करने के लिए एकान्त-शान्त कानन में चले गये। अनुश्रुति है कि एक बार दोनों आचार्य कौशाम्बी में गये। दुष्काल से असित एक द्रमक (भिखारी) को प्रव्रज्या दी । यही द्रमक समाधि पूर्वक आयु पूर्णकर कुणालपुत्र संप्रति हुआ। अवन्ती (उज्जयनी) में आर्य सूहस्ती के दर्शन कर जातिस्मरण हुआ और प्रवचन सुनकर जैनधर्मावलम्बी बना। यह बड़ा ही प्रतापी राजा हुआ। हृदय से दयालु प्रकृति का था। इसने ७०० दानशालाएँ खुलवाई, और जैनधर्म के प्रचार के लिए अपने विशिष्ट अधिकारियो को श्रमणवेश में आन्ध्र आदि प्रदेशों में भेजा। दोनों ही आचार्यों की शिष्य परम्पराएँ बहुत ही विस्तृत रही है, जिनका वर्णन मूलार्थ मे किया गया है। आर्य महागिरि का जन्म वीर संवत् १४५ में हुआ, और दीक्षा १७५ मे हुई, २१५ में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए और २४५ में १०० वर्ष की आयु पूर्णकर दशाणं प्रदेशस्थ गजेन्द्र पद तीर्थ में स्वर्गस्थ हुए। आर्य मुहस्ती का जन्म वीर संवत् १६१ में हुआ, दीक्षा २१५ में हुई, युगप्रधान आचार्य पद पर २४५ में प्रतिष्ठित हुए और १०० वर्ष की आयु पूर्णकर उज्जयिनी में २६१ में स्वर्गस्थ हुए। __आर्य सुहस्ती की शिप्य सम्पदा अगले सूत्र में स्वय सूत्रकार निर्दिष्ट कर रहे हैं। मल : थेरस्स ण अज्जसुहत्थिस्स वासिहसगोत्तस्स इमे दुवालस थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिन्नाया होत्था, तं जहा थेरे स्थ अजरोहण, भदजसे मेहगणी य कामिड्ढी। सुहियसुप्पडिबुद्धे, रक्खिय तह रोहगुत्ते य ॥१॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसिगुत्ते सिरिगुत्ते, गणी य बंभे गणो य तह सोमे । दस दो य गणहरा, खलु एए सीसा सुहत्थिस्स ॥२॥२१०॥ अर्थ-वासिष्ठ गोत्रीय स्थविर आर्य सुहस्ती के पुत्र समान एवं प्रख्यात ये बारह स्थविर अन्तेवासी थे। जैसे (१) स्थविर आर्य रोहण, (२) जसभद्र (भद्रयशा), (३) मेहगणी (मेघगणी), (४) कामिड्ढि (कामादि), (५) सुस्थित, (६) सुप्पडिबुद्ध (प्रतिबुद्ध), (७) रक्षित, (८) रोहगुप्त, (६) ईसीगुप्त (ऋषिगुप्त). (१०) सिरिगुप्त (श्री गुप्त), (११) बंभगणि (ब्रह्मणि), (१२) और सोमगणि, बारह गणधर के समान, ये बारह शिष्य सुहस्ती के थे। विवेचन-इन बारह शिष्यों में आर्य सुस्थित और आर्य सुप्पडिबुद्ध (सुप्रतिबुद्ध) ये दोनों आचार्य बने। ये दोनों काकंदी नगरी के निवासी थे, राजकुलोत्पन्न व्याघ्रापत्य गोत्रीय सहोदर थे। कुमारगिरि पर्वत पर दोनों ने उग्र तप साधना की । संघ संचालन का कार्य सुस्थित के अधीन था और वाचना का कार्य सुप्रतिबुद्ध के । हिमवन्त स्थविरावली के अभिमतानुसार इनके युग में कुमारगिरि पर एक छोटा-सा श्रमण सम्मेलन हुआ था। और द्वितीय आगम वाचना भी। ३१ वर्ष की अवस्था में आर्य सुस्थित ने प्रव्रज्या ग्रहण की, १७ वर्ष साधारण श्रमण अवस्था में रहे और ४८ वर्ष आचार्य पद पर रहे ९६ वर्ष की अवस्था में वीर स० ३३६ में कुमारगिरि पर्वत पर स्वर्गस्थ हुए । मूल : थेरेहितो णं अजरोहणेहितो कासवगुत्तेहितो तत्थ णं उद्दहगणे नामं गणे निग्गए। तस्सिमाओ चत्तारि साहाओ निग्गयाओ छच्च कुलाइं एवमाहिज्जंति । से कि तं साहाओ? एवमाहिज ति-उदुंबरिजिया मासयूरिया मतिपत्तिया सुवन्नप Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पविरावली : विभिन्न शाखाएँ २६७ त्तिया, से तं साहाओ। से किं तं कुलाई ? एवमाहिज ति, तं जहा पढमं च नागभूयं, बीयं पुण सोमभूइयं होइ । अह उल्लगच्छ तइयं, चउत्थयं हथिलिजतु ॥१॥ पंचमग नंदिज, छ8 पुण पारिहासियं होइ । उद्द हगणस्सेते, उच्च कुला होति नायव्वा ॥२॥२११॥ अर्थ – काश्यपगोत्रीय स्थविर आर्य रोहण से यहां पर उद्देहगण नामक गण निकला । उनकी ये चार शाखाएँ और छह कुल इस प्रकार कहलाते हैं प्रश्न-वे शाखाएं कौनसी-कौनसी हैं ? उत्तर-वे शाखाएँ इस प्रकार कही जाती हैं । जैसे-(१) उदुबरिज्जिया (उदुम्बरीया)५ (२) मासपूरिआ" (या) (३) मईपत्तिया (४) पुण्णपत्तिया। प्रश्न-वे कुल कौन से हैं ? __उत्तर-वे कुल इस प्रकार कहलाते हैं-जैसे (१) नागभूय (नागभूत), (२) सोमभूतिक, (३) उल्लगच्छ (आर्द्र कच्छ), (४) हत्थलिज्ज (हस्तलेह्य) (५) नन्दिज्ज (नन्दीय), (६) पारिहासिय (पारिहासिक) ये उद्देहगण के छह कुल जानना। मूल : थेरेहितो णं सिरिगुत्तेहितो णं हारियसगोत्तेहित्तो एत्थ णं चारणगणे नामं गणे निग्गए। तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ सत्त य कुलाई एवमाहिति । से किं तं साहातो ? एवमाहिज्जंति, तं जहा-हारियमालागारी संकासिया गवेधूया वजनागरी, से तं साहाओ। से किं तं कुलाइं? एवमाहिजति, तं जहा Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ पढमेत्थ वच्छलिज, बीयं पुण वीचिधम्मकं होइ ।' तइयं पुण हालिज, चउत्थगं पूसमित्तेज्जं ॥१॥ पंचमगं मालिज, छट्ठ पुण अज्जचेडयं होइ। सत्तमगं कण्हसहं, सत्त कुला चारणगणस्स ॥२॥२१२॥ अर्थ-हारियगोत्रीय स्थविर सिरिगुत्त से यहाँ चारणगण नाम का गण निकला । उसकी ये चार शाखाएँ और सात कुल हुए। प्रश्न-वे शाखाएँ कौनसी-कौनसी हैं ? उत्तर-शाखाएँ इस प्रकार हैं:-(१) हारियमालागारी (२) संकासोआ (३) गवेधुया (४) वज्जनागरी ये चार शाखाएँ हैं। प्रश्न-वे कुल कौनसे हैं ? उत्तर-कुल इस प्रकार हैं-(१) प्रथम वत्सलीय, (२) द्वितीय पीईधम्मिअ (प्रीतिधर्मक), (३) तृतीय हालिज्ज (हालीप), (४) चतुर्थ पूसमित्तिज्ज (पुष्पमित्रीय), (५) पांचवें मालिज्ज (मालीय), (६) छठे अज्जचेडय (आर्यचेटक), (७) सातवें कण्हसह (कृष्णसख)। चारण गण के ये मात कुल हैं। मूल : थेरेहिंतो भदजसेहिंतो भारहायसगोत्तेहिंतो एत्थ णं उडुवाडियगये नामं गणे निग्गए। तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ तिन्नि कुलाइंएवमाहिज्जति । से किं तं साहाओ ? एवमाहिज्जति, तं जहा-चंपिजिया भदिदजिया काकंदिया मेहलिजिया, से तं साहाओ । से किं तं कुलाई ? एवमाहिजति भदजसियं तह भदगुत्तियं, तइयं च होइ जसभदं । एयाइं उडुवाडियगणस्स, तिन्न व य कुलाइं ॥१॥२१३॥ • गोयं पुण पोइषम्मयं होड। -पाठान्तरे Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाबरावली: विभिन्न शाखाएँ २६६ अर्थ-भारद्वाज गोत्रीय स्थविर भद्दजस (भद्रयश) से यहां उड़वाड़ियगण (ऋतुवाटिक) नामक गण निकला। उसकी ये चार शाखाएँ निकली, और तीन कुल निकले, इस प्रकार कहा जाता है। प्रश्न-वे कौनसी-कौनसी शाखाएं हैं ? उत्तर - वे शाखाएँ ये हैं, जैसे- (१) चंपिज्जिया, (२) भद्दिज्जिया (भद्रीया)" (३) काकंदीया, (४) मेहलिज्जिया'", (मैथिलीया)। प्रश्न-वे कुल कौन से है ? उत्तर-वे कुल इस प्रकार हैं-(१) भद्दजसिय (भद्रयशीय), (२) भद्रगुत्तिय (भद्रगुप्तीय), (३) जसभद्र (यशोभद्रीय) कुल ये तीनों कुल, उडुवाडिय (ऋतुवाटिका)", कुल के है । मूल : थेरेहिंतो णं कामिड्ढिहितो कुडिलसगोत्तेहिंतो एत्थ णं वेसवाडियगणे नामं गणे निग्गए ! तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ चत्तारि कुलाइं एवमाहिजति । से किं तं साहाओ? एवमाहिजति-सावत्थियारजपालिया अन्तरिजिया खेमलिज्जिया से तं साहाओ। से किं तं कुलाई ? एवमाहिज्जति गणियं मेहिय कामड्ढियं च, तह होइ इंदपुरगं च। एयाई वेसवाडियगणस्स चत्तारि उ कुलाइ ॥१॥२१४॥ अर्थ-कुडिलगोत्रीय कामिड्डि स्थविर से यहाँ वेसवाडियगण नामक गण निकला। उससे चार शाखाएँ और चार कुल निकले। प्रश्न-वे शाखाएँ कौनसी-कौनसी हैं । उत्तर-वे शाखाएँ इस प्रकार हैं-(१) सावत्थिया (श्रावस्तिका), (२) Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० रज्जपालिया (राज्यपालिता ) (३) अन्तरिज्जिया ( अन्तरंजिया ) ( ४ ) खेमलिज्जिया ( क्षौमिलीया ) " ये चार शाखाएं हैं । कुल कौनसे कौनसे हैं ? प्रश्न_वे उत्तर- वे कुल इस प्रकार हैं (१) गणिय ( गणिक) (२) मेहिय (मेधिक) (३) कामड्डअ ( कामर्द्धिक) ( ४ ) और इन्दपुरग ( इन्द्रपुरक) । deवाडियगण ( वंशवाटिक) के ये चार कुल हैं । मूल : थेरेर्हितो णं इसिगोतर्हितो णं काकंदएहिंतो वासिद्वसगोतहिंतो एत्थ णं माणवगणे नामं गणे निग्गए । तरस णं इमाओ चत्तारि साहाओ तिष्णि य कुलाई एवमा हिज्जंति । से किं तं साहाओ ? सहाओ एवमाहिज्जेति - कासविज्जिया, गोयमिज्जिया वासिट्टिया सोरडिया, से त्तं साहाओ । से किं तं कुलाई ? कुलाई एवमाहिज्जंति, तं जहा इसिगोत्तियत्थपढमं, बिइयं इसिदत्तियं मुणेयव्वं । तइयं च अभिजसंतं, " तिन्नि कुला माणवगणस्स ॥ १ ॥ २१५ ॥ अर्थ - वासिष्ठगोत्री और काकंदक ईसिगुप्त (ऋषिगुप्त ) स्थविर से माणवगण (मानवगण) नामक गण निकला, उनकी चार शाखाएँ और तीन कुल इस प्रकार हैं । प्रश्न - वे शाखाएं कौन सो कौनसी हैं ? उत्तर - वे शाखाएँ इस प्रकार हैं - ( 1 ) कासविज्जिया ( काश्यपीया ) (२) गोयमिज्जिया ( गौतमीया), (३) वासिट्टिया ( वासिष्ठीया), (४) सौरट्ठीया ( सौराष्ट्रीया) ये चार शाखाएँ हैं । 'अमित' इति कल्याणविजयः । - पट्टावली परागे Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पविरामली: विनिमशालाएँ प्रश्न-वे कुल कौनसे-कौनसे हैं ? उत्तर-वे कुल इस प्रकार हैं। (१) ईसिगोत्तिय (ऋषिगुप्तिक), (२) ईसिदत्तिय (ऋषिदत्तिक) (३) और अभिजसंत-ये तीनों कुल माणवक (मानवक) गण के हैं। मल: थेरेहितो णं सुद्वियसुप्पडिबुद्धहितो कोडियकाकदिएहितो वग्धावच्चसगोत्तेहिंतो एत्थ णं कोडियगणे नामं गणे निग्गए। तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ चत्तारि कुलाई एवमाहिज्जंति । से किं तं साहाओ ? एवमाहिज्जंति, तं जहा उच्चानागरि विज्जाहरी य, वइरी य मज्झिमिल्ला य । कोडियगणस्स एया, हवं ति चत्तारि साहाओ॥१॥ से किं तं कुलाई ? कुलाई एवमाहिज्जति, तं जहापढमेत्थ बंभलिज्जं, बितियं नामेण वच्छलिजं तु । ततियं पुण वाणिज्ज, चउत्थयं पन्नवाहणयं ॥१॥२१६॥ अर्थ--कोटिक काकंदक कहलाने वाले और वग्धावच्च (व्याघ्रापत्य) गोत्रीय स्थविर सुट्ठिय (सुस्थित) और सुष्पडिबुद्ध (सुप्रतिबुद्ध) से यहाँ कोडियगण४ नामक गण निकला। उनकी चार शाखाएँ और कुल इस प्रकार हैं प्रश्न-वे शाखाएँ कौनसी कौनसी हैं ? उत्तर-वे शाखाएँ इस प्रकार हैं--(१) उच्चानागरी ५ (२) विज्जाहरि (विद्याधरी), (३) वईरी, (वाजी) (४) मज्झिमिल्ला (मध्यमा) ।" ये चारों शाखाएं कोटिकगण की हैं। प्रश्न. वे कुल कौनसे कौनसे हैं ? उत्तर-वे कुल इस प्रकार हैं- प्रथम बंभलिज्ज 'ब्रह्मलीय'"कुल, द्वितीय Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ वच्छलिज्ज 'वस्त्रलीय' कुल, तृतीय वाणिज्ज 'वाणिज्य'" कुल, और चतुर्थ प्रश्नवाहनक 'प्रश्नवाहन' कुल । मल: थेराणं सुढियसुपडिबुद्धाणं कोडियकाकंदाणं वग्यावच्चसगोत्ताणं इमे पंच थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिन्नाया होत्था, तं जहा-थेरे अज्जइंददिन्न थेरे पियगंथे थेरे विज्जाहरगोवाले कासवगोत्ते णं थेरे इसिदत्ते थेरे अरहदत्ते । थेरेहितो णं पियगंथेहिंतो एत्थ णं मज्झिमा साहा निग्गया। थेरेहिंतो णं विज्जाहरगोवालेहितो तत्थ णं विज्जाहरी साहा निग्गयां ॥२१७॥ अर्थ- कोटिककाकंदक कहलाने वाले और वग्घावच्च (व्याघ्रापत्य) गोत्रीय स्थविर सुस्थित तथा सुप्रतिबुद्ध के ये पांच स्थविर पुत्र समान एव प्रख्यात अन्तेवासी थे। जैसे (१) स्थविर आर्य इन्द्रदिन्न, 'इंद्रदत्त' (२) स्थविर पियगंथ, "प्रियग्रन्थ' (३) स्थविर विद्याधर गोपाल काश्यपगोत्री, (४) स्थविर ईसीदत्त 'ऋषिदत्त' (५) और स्थविर अरहदत्त 'अर्हदत्त। ___ स्थविर प्रियग्रन्थ से यहाँ मध्यमाशाखा निकली । काश्यपगोत्री स्थविर विद्याधर गोपाल से विद्याधरीशाखा प्रारम्भ हुई। विवेचन-आचार्य इन्द्रदिन्न (इन्द्रदत्त) युग प्रभावक आचार्य थे । आपके जीवन के सम्बन्ध में विशिष्ट जानकारी प्राप्त नहीं है। आपके लघु गुरुभ्राता आर्य पियगंथ (प्रियग्रन्थ) भी अपने युग के परम प्रभावक युग पुरुष थे। आपने हर्षपुर में होने वाले अजमेध का निवारण किया और हिंसाधर्मी ब्राह्मणविज्ञों को अहिंसा धर्म का पाठ पढ़ाया। मल: थेरस्स णं अज्जइंददिन्नस्स कासवगोत्तस्स अज्जदिन्न Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३ स्थविरावली : विभिन्न शाखाएं :मार्यकालक थेरे अंतेवासी गोयमसगोत्ते । थेरस्सणं अज्जदिन्नस्स गोयमसगोत्तस्स इमे दो थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिनाया वि होत्था, तं जहा-थेरे अज्जसंतिसेणिए माढरसगोत्ते थेरे अज्जसीहगिरी जाइस्सरे कोसियगोत्ते। थेरेहितो णं अज्जसंतिसेणिएहिंतो णं माढरसगोहितो एत्थ णं उच्चानागरी साहा निग्गया ॥२१८॥ अर्थ-काश्यपगोत्री स्थविर आर्य इन्द्रदत्त के गौतम गोत्रीय स्थविर आर्य दिन्न (दत्त) अन्तेवासी थे। गौतम गोत्रीय स्थविर आर्य दिन के ये दो स्थविर पूत्र समान एवं प्रख्यात अन्तेवासी थे। आर्य संत्तिसेणिय [शान्तिश्रेणिक] स्थविर माढरगोत्री और जातिस्मरण ज्ञान वाले कौशिक गोत्री स्थविर आर्य सिंहगिरि । माढरगोत्री [माठरगोत्री] स्थविर आर्य शान्ति श्रेणिक से उच्चानागरी शाखा प्रारम्भ हुई। --. आर्य कालक विवेचन- आर्य दिन्न (इन्द्रदत्त) एक प्रतिभा सम्पन्न आचार्य थे। आपने दक्षिण में कर्नाटक पर्यन्त सुदूर प्रदेशों में धर्म की ध्वजा फहराई थी। आपका विशेष परिचय उपलब्ध नहीं है। आर्य सन्तिसेणिय (शान्तिश्रेणिक) से उच्चा नागर शाखा का प्रादुर्भाव हुआ। इसी शाखा में प्रतिभामूर्ति आचार्य उमास्वाति हुए, जिन्होने सर्व प्रथम दर्शन शैली से तत्त्वार्थ सूत्र का निर्माण किया। आपके ही निकट समय में आर्यकालक, आर्य खपुटाचार्य, इन्द्रदेव, श्रमणसिंह, वृद्धवादी और सिद्धसेन आदि आचार्य हुए हैं। आर्य कालक के नाम से चार आचार्य हुए हैं। प्रथम कालक, जिनका दूसरा नाम श्यामाचार्य भी विश्रुत है, और जिन्होंने प्रज्ञापना सूत्र का निर्माण किया। ये द्रव्यानयोग के विशिष्टज्ञाता थे। कहा जाता है कि शकेन्द्र ने एक बार भगवान् श्री सीमन्धर स्वामी से निगोद पर गम्भीर विवेचन सुना । उन्होंने यह जिज्ञासा व्यक्त की कि इस प्रकार की व्याख्या भरत क्षेत्र में कोई कर Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ सकता है ? भगवान् सीमन्धर स्वामी ने आचार्य कालक का नाम बताया । वे सीधे ही कालकाचार्य के पास आए। जैसा भगवान् ने कहा था वैसा ही वर्णन सुनकर अत्यन्त आह्लादित हुए । आपका जन्म वीर संवत् २८० में हुआ, वीर सं० ३०० में दीक्षा ली, ३३५ में युगप्रधान आचार्य पद पर आसीन हुए, और ३७६ में स्वर्गारोहण हुआ । (२) द्वितीय आचार्य कालक भी इन्हीं के सन्निकटवर्ती हैं । ये धारा नगरी के निवासी थे । इनके पिता का नाम राजा वीरसिंह और माता का नाम सुरसुन्दरो था । इनको एक छोटी बहिन थी, जिसका नाम सरस्वती था । वह अत्यन्त रूपवती थी । दोनों ने ही गुणाकर सूरि के पास प्रव्रज्या ग्रहण की । एक बार साध्वी सरस्वती के रूप पर मुग्ध होकर उज्जयिनी के राजा गर्दभिल्ल ने उसका अपहरण किया । आचार्य कालक को जब यह वृत्त ज्ञात हुआ तो वे अत्यन्त क्रुद्ध हुए । उन्होंने शक राजाओं से मिलकर गर्दभिल्ल का साम्राज्य नष्ट भ्रष्ट किया । कहा जाता है कि वे सिंधु सरिता को पार कर फारस (ईरान) तथा वर्मा और सुमात्रा भी गए । इन्होंने ही भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी को पर्युषण पर्व की आराधना की थी । वह प्रसंग इस प्रकार है एक बार आचार्य का वर्षावास दक्षिण के प्रतिष्ठानपुर में था । वहाँ का राजा सातवाहन जैन धर्मावलम्बी था । उस राज्य में भाद्रपद शुक्लापंचमी को इन्द्रपर्व मनाया जाता था जिसमें राजा से लेकर रंक तक सभी को सम्मि लित होना अनिवार्य माना जाता था । राजा ने आचार्यकालक से निवेदन किया -- मुझे भी संवत्सरी महापर्व की आराधना करनी है एतदर्थ संवत्सरी महापर्व छट्ट को मनाया जाय तो श्रेयस्कर है। आचार्य ने कहा--उस दिन का उल्लंघन कदापि नहीं किया जा सकता। राजा के आग्रह वश आचार्य ने कारण से चतुर्थी को संवत्सरी पर्व मनाया । यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि आचार्य ने अपवाद रूप में चतुर्थी को सम्वत्सरी पर्व की आराधना की है, न कि उत्सर्ग- १०० सामान्य स्थिति के रूप में । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थचिरापली : विमिस शाखाएँ ३०५ । अजतावस को एत्थ णं अज्जकुबरा मल: थेरस्स णं अजसंतिसेणियस्स माढरसगोत्तस्स इमे चत्तारि थेरा अंतेवासी अहावचा अभिन्नाया होत्था, तं जहा-थेरे अजसेणिए थेरे अन्जतावसे थेरे अज्जकुबेरे थेरे अज्जइसिपालिते। थेरेहितो णं अज्जसेणितेहिंतो एत्थ णं अज्जसेणिया साहा निग्गया। थेरैहितो णं अज्जकुबेरेहिंतो एत्थ णं अज्जकुबेरा साहा निग्गया। थेरेहितो णं अज्जइसिपालेहिंतो एत्थ णं अज्जइसिपालिया साहा निग्गया ॥२१॥ अर्थ--माढरगोत्री स्थविर आर्यसन्तिसेणिय के चार स्थविर पुत्र समान अन्तेवासी थे। जैसे (१) स्थविर आर्यसेणिय (आर्यश्रेणिक) (२) स्थविर आर्य तापस (३) स्थविर आर्य कुबेर (४) स्थविर आर्य इसिपालित (ऋषिपालित)। स्थविर आर्यसेणिय से यहाँ आर्यसेणिया (श्रेणिका) शाखा निकली। स्थविर आर्य तापस से यहाँ आर्यतापसी शाखा निकली। स्थविर आर्य कुबेर से यहाँ आर्य कुबेरी शाखा निकली। स्थविर आर्य ईसिपालित (ऋषिपालित) से यहाँ आर्य ईसिपालिता (ऋषिपालिता) शाखा निकली। मूल : थेरस्स णं अज्जसीहगिरिस्स जातीसरस्स कोसियगो. तस्स इमे चत्तारि थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिण्णाया होत्था, तं जहा-थेरे धणगिरी थेरे अज्जवइरे थेरे अज्जसमिए थेरे अरहदिन्ने । थेरेहिंतो णं अज्जसमिएहिंतो एत्थ णं बभदेवीया साहा निग्गया । थेरेहिंतो णं अज्जवइरेहितो गोयमसगोत्तेहिंतो एत्थ णं अज्जवइरा साहा निग्गया ॥२२०॥ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ अर्थ-जातिस्मरणज्ञान वाले कौशिकगोत्रीय आर्यसिंहगिरि स्थविर के ये चार स्थविर पुत्र समान सुविख्यात अन्तेवासी थे। जैसे-(१) स्थविर धनगिरि (२) स्थविर आर्यवज्र (३) स्थविर आर्यसमित और (४) स्थविर अरहदत्त (अर्हदत्त)। स्थविर आर्यसमित से यहाँ पर बंभदेवीया 'ब्रह्मदीपिका' शाखा प्रारम्भ हुई। गौतम गोत्रीय स्थविर आर्यवज्र से आर्य वज्री शाखा निकली। विवेचन-आर्य सिहगिरि के जोवन वृत्त के सम्बन्ध में विशेष सामग्री अनुपलब्ध है । यहाँ पर उन्हे कौशिक गोत्रीय बताया है, तथा जातिस्मरण ज्ञान वाला कहा है। इनके चार मुख्य शिष्य थे-आर्य समित, आर्य धनगिरि आर्य वज्रस्वामी और आर्य अर्हद्दत्त । आर्य समित का जन्म अवन्ती देश के तुम्बवन ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम धनपाल था, ये जाति से वैश्य थे। इनकी एक बहिन थी जिसका नाम सुनन्दा था। उसका पाणिग्रहण तुम्बवन'०१ के धनगिरि के साथ हुआ था।०२ आर्य समित योगनिष्ठ और उग्र तपस्वी थे। अनुश्रुति है कि आभीर देश के अचलपुर ग्राम में इन्होंने कृष्णा और पूर्णा सरिताओं को योग बल से पार किया, और ब्रह्मद्वीप पहुँचे। ब्रह्मद्वीपस्थ पाँच सौ तापसों को अपने चमत्कार से चमत्कृतकर उन सबको अपने शिष्य बनाये । आर्य वज्र स्वामी—आर्य समित की बहिन का विवाह इब्भपुत्र धनगिरि के साथ हुआ था।०३ धनगिरि धर्मपरायण व्यक्ति थे। जब उनके सामने धनपाल की ओर से विवाह का प्रस्ताव आया तब उसने स्पष्ट अस्वीकार करते हुए कहा कि मैं विवाह नहीं करूंगा, संयम लूगा। परन्तु धनपाल ने उनके माथ विवाह कर दिया । विवाह हो जाने पर भी उनका मन संसार में न लगा। अपनी पत्नी को गर्भवती छोड़कर ही उन्होंने आर्य सिंहगिरि के पास दीक्षा ग्रहण को । जब बच्चे का जन्म हुआ तब उसने पिता की दीक्षा की बात सुनी । सुनते ही जातिस्मरण ज्ञान हुआ, माता के मोह को कम करने के लिए वह रात दिन रोने लगा। एक दिन धनगिरि और समित भिक्षा हेतु जा रहे थे, तब आर्य Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पविरावली : विभिन्न शाखाएँ : मार्य बलस्वामी ३०७ सिंहगिरि ने शुभ लक्षण देखकर शिष्यों को आदेश दिया कि जो भी भिक्षा में मिले उसे ले लेना । दोनों ही भिक्षा के लिए सुनन्दा के यहाँ पर पहुँचे । सुनन्दा बच्चे से ऊब गई थी। ज्योंही भिक्षा के लिए पात्र आगे रक्खा कि सुनन्दा ने आवेश में आकर बालक को पात्र में डाल दिया, और बोली आप तो चले गये, और इसे छोड़ दिया, रो-रोकर इसने मुझे परेशान कर लिया, इसे भी ले जाइए।' धनगिरि ने समझाने का प्रयास किया, पर वह न समझो। धनगिरि ने छह मास के बालक को ले लिया और लाकर गुरु को सौंप दिया । अति भारी होने के कारण गुरु ने बच्चे का नाम वज्र रख दिया ।१०४ पालन पोषण हेतु वह गृहस्थ को दे दिया गया। श्राविका के साथ वह उपाश्रय जाता। साध्वियों के सम्पर्क में रहने से, और निरन्तर स्वाध्याय सुनने से उसे ग्यारह अंग कंठस्य हो गए। जब बच्चा तीन वर्ष का हुआ तब उसकी माता ने बच्चे को लेने के लिए राजसभा में विवाद किया। माता ने बालक को अत्यधिक प्रलोभन दिखाए, पर बालक उधर आकृष्ट नहीं हुआ और धनगिरि के पास आकर रजो हरण उठा लिया। जब बालक की उम्र आठ वर्ष की हुई तब गुरु धनगिरि ने उसे दीक्षा दे दी व वज्रमुनि के नाम से प्रसिद्ध हुए। जृभक देवों ने अवन्ती में आहार शुद्धि की परीक्षा ली, आप पूर्ण खरे उतरे। देवताओं ने लघुवय में ही आपको वक्रियलब्धि और आकाशगामिनी विद्या दे दी। एक बार उत्तर भारत में भयंकर दुभिक्ष पड़ा । उस समय विद्या के बल से आप श्रमण संघ को कलिंग प्रदेश में ले गए थे। पाटलीपूत्र के इभ्यश्रेष्ठी धनदेव की पुत्री रुक्मिणी आपके अनुपम रूप पर मुग्ध हो गई । धनश्रेष्ठी ने भी पुत्री के साथ करोड़ों की सम्पत्ति दहेज में देने का प्रस्ताव किया, पर तनिक मात्र भी कनक और कान्ता के मोह में उलझे नहीं, किन्तु रुक्मिणी को प्रतिबोध देकर प्रव्रज्या प्रदान की । वज्रस्वामी के चमत्कारों की अनेक घटनाएँ जैन साहित्य में उदृङ्कित हैं। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ कल्प सूत्र वज्रस्वामी की शाखा में अनेक वज्र नाम के प्रभावशाली, युगपुरुष, दार्शनिक और भविष्यद्रष्टा आचार्य हुए हैं। ईस्वी सन् ६४६ में चीनी यात्री हुएनत्सांग भारत आया था । नालन्दा से वह पुनः अपने देश जाना चाहता था, किन्तु असहाय था । उस समय वज्र स्वामी ने उससे कहा- तुम चिन्ता न करो असम के राजा कुमार और कान्यकुब्ज के राजा श्रीहर्ष तुम्हारी सहायता करेंगे । राजा कुमार का दूत तुम्हें लिवाने के लिए आ रहा है। वज्रस्वामी की ये भविष्य वाणियां पूर्ण सत्य सिद्ध हुई। हुएनत्साग ने अपनी यात्रा की पुस्तक में उनका महान् भविष्यद्रष्टा के रूप में उल्लेख किया है । एक बार वज्रस्वामी को कफ को व्याधि हो गई। तदर्थ उन्होने एक सोंठ का टुकड़ा भोजन के पश्चात् ग्रहण करने हेतु कान में डाल रखा था, पर वे उसे लेना भूल गए। सांध्य प्रतिक्रमण के समय वन्दन करते समय वह नीचे गिर गया। अपना अन्तिम समय सनिकट समझ अपने शिष्य वज्रसेन से कहाद्वादशवर्षीय दुष्काल पड़ेगा, अतः साधु संघ के साथ तुम सौराष्ट्र और कोंकण प्रदेश में जाओ और मैं रथावर्त पर्वत पर अनशन करने जाता हूं। जिस दिन तुम्हें लक्ष मूल्य वाले चावल में से भिक्षा प्राप्त हो, उसके दूसरे दिन सुकाल होगा, ऐसा कह आचार्य संथारा करने हेतु चल दिये।। ___ वज्र स्वामी का जन्म वीर निर्वाण स० ४६६ में हुआ। ५०४ (पाँच सौ चार) में दीक्षा ग्रहण की, ५३६ मे आचार्य पद पर आसीन हुए और ५८४ में स्वर्गस्थ हुए । मल: थेरस्स णं अज्जवइरस्स गोतमसगोत्तस्स इमे तिन्नि थेरा अन्तेवासी अहावचा अभिन्नाया होत्था, तं जहा-थेरे अज्जवइरसेणिए थेरे अज्जपउमे थेरे अज्जरहे। थेरेहितो णं अज्जवइरसेणिएहिंतो एत्थ णं अज्जनाइली साहा निग्गया। थेरेहिंतो णं Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ स्थविरावली : विभिन्न शाखाए : आर्य रक्षित अज्जपउमेहिंतो एत्थ णं अज्जपउमा साहा निग्गया। थेरेहितो णं अज्जरहेहिंतो एत्थ णं अज्जजयंती साहा निग्गया ॥२२१॥ ___अर्थ-गौतमगोत्रीय स्थविर आर्यवज्र के ये तीन स्थविर पुत्र समान एवं सुख्यात अन्तेवासी थे। जैसे कि-(१) स्थविर आर्यवज्रसेन, (२) स्थविर आर्य पद्म, (३) स्थविर आर्य रथ । स्थविर आर्यवज्रसेन से आर्य नाईली (नागिलो) शाखा निकली, स्थविर आर्यपद्म से आर्य पद्मा शाखा निकली, और स्थविर आर्य रथ से आर्य जयन्ती शाखा निकली। विवेचन-आर्य वज्रस्वामी के पद पर आर्य वज्रसेन आसीन हए । इनके समय भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। निर्दोष भिक्षा का मिलना असंभव हो गया, जिसके कारण ७८४ श्रमण अनशन कर परलोकवासी हुए । क्षुधा से सभी छटपटाने लगे। जिनदास श्रेष्ठी ने एक लाख दीनार से एक अजलि अन्न मोल लिया । वह दलिया में विष मिलाकर समस्त परिवार के साथ खाने को तैयारी कर रहा था कि आचार्य वज्रस्वामी के कहने के अनुसार आपने सुभिक्ष की घोषणा की और सबके प्राणों की रक्षा की। दूसरे ही दिन अन्न से परिपूर्ण जहाज आ गए। जिनदास ने वह अन्न लेकर बिना मूल्य लिए दोनों को वितरण कर दिया । कुछ समय के पश्चात् वर्षा हो जाने से सर्वत्र आनन्द की मियां उछलने लगी । जिनदास सेठ ने अपनी विराट सम्पत्ति को जनकल्याण के लिए न्यौछावर कर अपने नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर आदि चार पुत्रों के साथ दीक्षा ग्रहण की। आर्य वज्रसेन प्रतिभा सम्पन्न आचार्य थे । दुकाल के परिसमाप्त होने पर उन्होंने पुनः श्रमण संघ को एकता के सूत्र में पिरोया और श्रमण संघ में अभिनव चेतना जागृत की। कितु इस दुष्काल से अनेक श्रमणों का स्वर्गवास हो जाने से कई वंश, कुल, व गण विच्छेद हो गए। • आर्य रक्षित आर्य वज्रसेन के ही समय में आगमवेत्ता आर्यरक्षित सूरि हुए । उनकी Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्मभूमि दशपुर (मन्दसौर) थी। पिता का नाम रुद्रसोम था। आप जब काशी से गंभीर अध्ययन करके लौटे तब भी माता प्रसन्न नहीं हुई। माता की प्रबल प्रेरणा से उत्प्रेरित होकर दृष्टिवाद का अध्ययन करने के लिए उसी समय दशपुर के इसुवन में विराजित आचार्य तोसलीपुत्र के पास गए और श्रमण बने । तोसली पुत्र से आगम का अध्ययन किया। उसके पश्चात् दृष्टिवाद का अध्ययन करने हेतु आर्य वज्रस्वामी के पास पहुंचे। साढ़े नौ पूर्व तक अध्ययन किया। आपने अनुयोगद्वार सूत्र की रचना की और आगमों को द्रव्यानुयोग, चरणकरणानुयोग गणितानुयोग और धर्मकथानुयोग के रूप में विभक्त किया। आपके समय तक प्रत्येक आगम पाठ को द्रव्य आदि रूप में चार-चार व्याख्याएँ की जाती थी। आपने श्रुतधरों की स्मरणशक्ति के दौर्बल्य को देख कर जिन पाठों से जो अनुयोग स्पष्ट रूप से प्रतिभासित होता था, उसी प्रधान अनुयोग को रखकर शेष अन्य गौण अर्थों का प्रचलन बन्द कर दिया। जैसे-- ग्यारह अंगों-महाकल्पश्रत और छेदसूत्रों का समावेश चरणकरणानुयोग में किया गया । ऋषिभाषितों का धर्मकयानुयोग में, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि का गणितानुयोग में और दृष्टिवाद का समावेश द्रव्यानुयोग में किया गया ।।१०६ इस प्रकार जब अनुयोगों का पार्थक्य किया गया तब से नयावतार भी अनावश्यक हो गया।'०७ यह कार्य द्वादशवर्षीय दुष्काल के पश्चात् दशपुर में किया गया था । इतिहासज्ञों का अभिमत है कि प्रस्तुत आगमवाचना वीर संवत् ५६२ के लगभग हुई थी। इस आगमवाचना में वाचनाचार्य आर्य नन्दिल, युगप्रधान आचार्य आर्यरक्षित और गणाचार्य वज्रसेन आदि उपस्थित थे। विद्वानों की यह भी धारणा है कि आगम साहित्य में उत्तरकालीन महत्त्वपूर्ण घटनाओं का जो चित्रण हुआ है उसका श्रेय भी आर्यरक्षित को ही है। वीर संवत् ५९७ में आर्य रक्षित स्वर्गस्थ हुए। उनके उत्तराधिकारी दुर्बलिका पुष्यमित्र हुए । आर्य रथस्वामी-आर्य रथस्वामी आर्य वज्रस्वामी के द्वितीय पट्टधर थे। आप वसिष्ठगोत्रीय थे और बड़े ही प्रभावशाली थे। आपका अपरनाम आर्य जयन्त भी था, जिसके नाम पर ही जयन्ती शाखा का प्रादुर्भाव हुआ ! आपके जीवनवृत्त के सम्बन्ध में विशेष सामग्री नहीं मिलती। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविरावली : विभिन्न शालाएं ३११ मूल : थेरस्स णं अज्जरहस्स वच्छसगोत्तस्स अज्जपूसगिरी थेरे अंतेवासी कोसियगोत्ते । थेरस्स णं अज्जपूसगिरिस्स कोसियगोत्तस्सअज्जफग्गुमित्त थेरे अंतेवासी गोयमसगुत्ते ॥२२२॥ __ अर्थ-वात्स्यगोत्रीय स्थविर आर्य रथ के कौशिक गोत्रीय स्थविर आर्यपुष्यगिरि अन्तेवासी थे। कौशिकगोत्रीय स्थविर आर्यपुष्यगिरि के गौतमगोत्रीय स्थविर आर्य फग्गुमित्त अन्तेवासी थे। थेरस्म ण अज्जफग्गुमित्तस्म गोयमसगुत्तस्स । अज्जधणगिरी थेरे अंतेवासी वासिट्ठसगोत्ते ॥३॥ थेरस्स णं अज्जधणगिरिस्स वासिठ्ठसगोत्तस्स । अज्जमिवभूई थेरे अंतेवासी कुच्छसगोत्ते ॥४॥ थेरस्स ण अज्जसिवभूइस्स कुच्छसगोत्तस्स ।। अज्जभद्दे थेरे अन्तेवासी कासवगुत्ते ॥५॥ थेरस्म ण अजभहस्स कासवगुत्तस्स । अज्जनक्खत्ते थेरे अन्तेवासी कासवगुत्ते ॥६॥ थेरस्स णं अज्जनक्खत्तस्स कासवगुत्तस्स । अज्जरक्खे थेरे अन्तेवासी कासवगुत्ते ॥७॥ थेरस्स णं अज्जरक्खस्स कासवगुत्तस्स । अज्जनागे थेरे अन्तेवासी गोयमसगोत्ते ।।८।। थेरस्स णं अज्जनागस्स गोयमसगुत्तस्स । अज्जजेहिले हेरे अन्तेवासी वासिट्ठसगुत्ते ॥६॥ थेरस्स णं अज्जजेहिलस्स वासिठ्ठसगुत्तस्स । अज्जविण्ह थेरे अन्तेवासी माढरसगोत्ते॥१०॥ थेरस्स णं अज्जविण्हुस्स माढरसगुत्तस्स । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ कल्पसूत्र मल: वंदामि फग्गुमित्तं च गोयमं धणगिरिं च वासिह। कोच्छि सिवभूई पि य, कोसिय दोजितकंटे य ॥१॥ तं वंदिऊण सिरसा चित्तं वदामि कासवं गोतं । णक्खं कासवगोत्तं रक्खं पि य कासवं वंदे ॥२॥ अज्जकालए थेरे अन्तेवासी गोयमसगोत्ते ।।११।। थेरस्स णं अज्जकालगस्स गोयमसगुत्तस्स । इमे दुवे थेरा अन्तेवासी गोयमसगोत्ताथेरे अज्जसंपलिए थेरे अज्जभद्दे ॥१२॥ एएसि दुण्ह वि थेराण गोयमसगुत्ताणं । अज्जवुड्ढे थेरे अन्तेवासी गोयमसगुत्ते ॥१३॥ थेरस्स णं अज्जवुड्ढस्स गोयमसगोत्तस्स । अज्जसंघपालिए थेरे अन्तेवासी गोयमसगोत्ते ॥१४॥ थेरस्स णं अज्जसंघपालियस्स गोयमसगोत्तस्स ।। अज्जहत्थी थेरे अन्तेवासी कासवगुत्ते ॥१५॥ थेरस्स णं अज्जहत्थिस्स कासवगुत्तस्स । अज्जधम्मे थेरे अन्तेवासी सुब्बयगोत्ते ॥१६॥ थेरस्स णं अज्जधमस्स सुब्बयगोत्तस्स । अज्जसीहे थेरे अन्तेवासी कासवगुत्ते ॥१७॥ थेरस्स णं अज्जसीहस्स कासवगुत्तस्स । अज्जधम्मे थेरे अन्तेवासी कासवगुत्ते ॥१८॥ थेरस्स णं अज्जधम्मस्स कासवगुत्तस्स । अज्जसंडिल्ले अन्तेवासी ॥१९॥ -अर्वाचीनासु प्रतिषु पाठः Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वषिरावली : विभिन्न शाखाएँ वंदामि अज्जनागं च गोयमं जेहिलं च वासिह। विण्९ माटरगोत्तं कालगमवि गोयमं वंदे ॥३॥ गोयमगोत्तमभारं* सप्पलयं तह य भइयं वंदे। 'थेरं च संघवालियकासवगोत्तं पणिवयामि ॥४॥ • गोयमगोत्तकुमारं- इतिकल्याणविजय- पट्टावलीपरागे पृ० २६ थेरं च अज्जवुड्ढं, गोयमगुत्तं नमसामि ॥४॥ तं वंदिऊण सिरसा थिरसत्तचरित्तनाणसंपन्न । थेरं च संघवालिय गोयमगुत्तं पणिवयामि ॥५॥ वंदामि अज्जहथि च कासवं खंतिसागरं धीरं । गिम्हाणपढममासे कालगयं चेव सुद्धस्स ।।६।। वंदामि अज्जधम्मं च सुव्वयं सीललद्धिसंपन्नं । जस्स निक्खमणे देवो छत्तं वरमुत्तमं वहइ ॥७॥ हत्थि कासवगुत्तं धम्मं सिवसाहगं पणिवयामि। सीहं कासवगुत्तं धम्मं पिअ कासवं वंदे ॥८॥ तं वंदिऊण सिरसा थिरसत्तचरित्तनाणसंपन्न। थेरं च अज्जजंबु गोअमगुत्तं नमसामि ॥६ मिउमदवसंपन्नं उवउत्तं नाणदसणचरित्ते। थेरं च नंदिरं पि य कासवगुत्तं पणिवयामि ॥१०॥ तत्तो अ थिरचरितं उत्तमसम्मत्तसत्तसंजुत्तं । देसिगणिखमासमणं माढरगुत्तं नमसामि ॥११॥ तत्तो अणुओगधरं धीरं मइसागरं महोसत्तं। थिरगुत्तखमासमणं वच्छसगुत्तं पणिवयामि ॥१२॥ तत्तो य नाणदंसणचरित्ततवसुट्ठिअंगुणमहंतं । थेरं कुमारधम्मं वंदामि गणि गुणोवेयं ॥१३॥ सुत्तत्थरयणभरिए, खमदममद्दवगुणेहिं संपन्ने। देविड्डिखमासमणे कासवगुत्ते पणिवयामि ॥१४॥ -अर्वाचीनासु प्रतिषु पाठः Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ वंदामि अजहत्थि च कासवं खंतिसागरं धीरं । गिम्हाण पढममासे कालगयं चेत्तेसुद्धस्स ॥५॥ वंदामि अजधम्मं च सुव्वयं सीसलद्धिसंपन्न। जस्स निक्खमणे देवो छत्तं वरमुत्तमं वहइ ॥६॥ हत्थं कासवगोत्तं धम्मं सिवसाहगं पणिवयामि । सीहं कासवगोत्तं धम्म पि य कासवं वंदे ॥७॥ सुत्तत्थरयणभरिए खमदममवगुणेहिं संपन्न । देविढिखमासमणे कासवगोत्ते पणिवयामि ॥८॥२२३॥ अर्थ-गौतमगोत्रीय फग्गुमित्र (फल्गुमित्र) को, वासिष्ठगोत्रीय धनगिरि को, कौत्स्यगोत्री शिवभूति को और कौशिकगोत्री दोज्जत कटक को वंदन करता हूँ । उन सभी को मस्तिष्क झुकाकर वन्दन करके काश्यपगोत्री चित्त को वन्दन करता हूँ। काश्यपगोत्री नक्षत्र को और काश्यपगोत्रीय रक्ष को भी वन्दन करता हूँ। गौतम गोत्री आर्य नाग को और वासिष्ठगोत्री जेहिल (जेष्ठिल) को तथा माढरगोत्री विष्णु को और गौतम गोत्री कालक को भी वन्दन करता हूँ । गोतम गोत्री मभार को, अथवा अभार को, सप्पलय (संपलित) को तथा भद्रक को वन्दन करता हूँ। काश्यपगोत्री स्थविर संघपालित को नमस्कार करता हूं। काश्यपगोत्री आर्य हस्ती को वन्दन करता हूं। ये आर्य हस्ती क्षमा के सागर और धीर थे तथा ग्रीष्मऋतु के प्रथम मास में शुक्ल पक्ष के दिनों में कालधर्म को प्राप्त हुए थे। जिनके निष्क्रमण-दीक्षा लेने के समय में देव ने उत्तम छत्र धारण किया था, उन सुव्रत वाले, शिष्यों की लब्धि से सम्पन्न आर्य धर्म को वन्दन करता हूँ। काश्यपगोत्री 'हस्त' को और शिवसाधक धर्म को नमस्कार करता हूँ। काश्यपगोत्री 'सिंह' को और काश्यपगोत्री 'धर्म' को भी वन्दन करता हूँ। सूत्ररूप और उसके अर्थ रूप रत्नों से भरे हुए क्षमा सम्पन्न, दम संपन्न, और मार्दव गुण सम्पन्न काश्यपगोत्री देवढिक्षमाश्रमण को प्रणिपात करता हूँ। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविरावली: देवद्विगणी क्षमाश्रमण विवेचन - आर्य धर्म के आर्य स्कन्दिल और आर्य जम्बू ये दो प्रमुख शिष्य रत्न थे । आर्य स्कन्दिल की जन्मभूमि मथुरा थी । गृहस्थाश्रम में आपका नाम सोमरथ था । आर्य सिंह के वैराग्य रस से परिपूर्ण प्रवचन को श्रवणकर संसार से विरक्ति हुई और आर्य धर्म के सन्निकट प्रव्रज्या स्वीकार की । ब्रह्मदीपिका शाखा के वाचनाचार्य आर्यसिंह सूरि से आगमों (पूर्वी) का तलस्पर्शी अध्ययन किया और वाचक पद प्राप्त किया तथा युग प्रधान आचार्य बने । २१५ इतिहासज्ञो का अभिमत है कि उस समय भारत की विचित्र परिस्थिति थी । हूणों और गुप्तों में भयकर युद्ध हुआ था । द्वादशवर्षीय दुष्काल से मानव समाज जर्जरित हो चुका था । १०" जैन, बौद्ध और वैदिक धर्म के अनुयायी भी एक दूसरे का खण्डन मण्डन कर रहे थे । इत्यादि अनेक कारणों से आगमज्ञ श्रुतधरों की संख्या दिनानुदिन कम होती चली जा रही थी । उस विकट वेला मे आर्य स्कन्दिल ने श्रुत की सुरक्षा के लिए मथुरा में उत्तरापथ के मुनियों का एक सम्मेलन बुलवाया और आगमों का पुस्तकों के रूप में लेखन किया । यह सम्मेलन वीर सं० ८२७ से ८४० के आस पास हुआ था ।" उधर आचार्य नागार्जुन ने भी वल्लभी ( सौराष्ट्र ) में दक्षिणापथ के मुनियों का सम्मेलन बुलाया और आगमों का लेखन व संकलन किया । यह सम्मेलन दूर-दूर होने के कारण स्थविर एक दूसरे के विचारों से अवगत नहीं हो सके अतः पाठों में कुछ स्थलों पर भेद हो गये । उपर्युक्त वाचनाओं को सम्पन्न हुए लगभग डेढ़ सौ वर्ष से भी अधिक समय व्यतीत हो गया तब वलभी नगर मे देवधिगणी क्षमा श्रमण की अध्यक्षता में श्रमण संघ एकत्रित हुआ। दोनों वाचनाओं के समय जिन-जिन विषयों में मतभेद हो गया था उन भेदों का देवद्धिगणी क्षमा श्रमण ने समन्वय किया । जिन पाठों में समन्वय न हो सका उन स्थलों पर स्कन्दिलाचार्य के पाठ को प्रमुखता देकर नागार्जुन के पाठों को पाठान्तर के रूप में स्थान दिया । टीकाकारों ने 'नागार्जुनीयास्तु पठन्ति' के रूप में उनका उल्लेख किया है । यह आगमों की चतुर्थ वाचना है । आचार्य dafaगणी - आचार्य प्रवर देवगणी क्षमाश्रमण जैन आगम साहित्य के प्रकाशमान नक्षत्र हैं। उनकी प्रखर प्रभा से आज भी जैन साहित्य Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सू ३१६ जगमगा रहा है । आगम साहित्य वर्तमान में जिस रूप में आज उपलब्ध है उसका सम्पूर्ण श्रेय आचार्य देवद्धिगणी क्षमाश्रमण को ही है । आपका जन्म वेरावल (सौराष्ट्र) में हुआ था । आपके पिता का नाम काम और माता का नाम कलावती था। कहा जाता है कि भगवान् महावीर के समय जो सौधर्मेन्द्र शक्रेन्द्र का सेनापति हरिणगमेषी देव था वहो आयु पूर्ण कर देवधिगणी बना । प्रस्तुत स्थविरावली के अनुसार कुमार धर्मगणी के पट्टधर देवधिगणी हैं । नन्दी सूत्र की चूर्णि के अनुसार उनके गुरु का नाम दुष्य गणी है और नन्दी सूत्र की पट्टावली के अनुसार उनके गुरु का नाम आचार्य लोहित्यसूरि था । उपकेशगच्छीय आर्य देवगुप्त के पास उन्होंने एक पूर्व तक अर्थ सहित और दूसरे पूर्व का मूल पढ़ा था । आप अन्तिम पूर्वधर थे । आपके बाद कोई भी पूर्वघर नहीं हुआ । ११० आपका द्वितीय नाम देववाचक भी विश्रुत 1 एक विराट् १११ है ।"" वीर सवत् ६८० के आसपास वलभी ( सौराष्ट्र) में श्रमण सम्मेलन हुआ, जिसका कुशल नेतृत्व आप ही ने किया । वहाँ पाँचवी आगम वाचना हुई । आगम पुस्तकारूढ़ किये गये । इस आगम वाचना में नागार्जुन की चतुर्थ वलभी वाचना के गम्भीर अभ्यासी चतुर्थ कालकाचार्य विद्यमान थे । ये बही कालकाचार्य थे जिन्होंने वीर संवत् ६६३ में आनन्दपुर में राजा ध्रुवसेन के सामने श्री संघ को कल्पसूत्र सुनाया था । इस प्रकार आचार्य देवधिगणी को नमस्कार के साथ यह स्थविरावली का प्रकरण समाप्त होता है । स्थविरावली सम्पूर्ण Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचारी --. वर्षावास कल्प मूल : तेणं काले णं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे विइक्कते वासावासं पजोसवेइ ॥२२४॥ अर्थ-उस काल उस समय श्रमण भगवान महावीर वर्षाऋतु का बीस रात्रि सहित एक मास व्यतीत होने पर अर्थात् आषाढ़ी चातुर्मासी होने के पश्चात् पचास दिन व्यतीत होने पर वर्षावास रहे ।' मूल : से केण?णं भंते ! एवं बुचइ-समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे विइक ते वासावासं पज्जोसवेइ ? जतो णं पाएणं अगारीण अगाराइं कडियाइं उक्त पियाई छन्नाई लित्ताई घट्ठाई महाई संपधूमियाइं खाओदगाइं खातनिद्धमणाई अप्पणो अहाए कयाई परिभोत्ताई परिणामियाई भवंति से एतेण ऽहणं एवं वुच्चइ समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे वीइक ते वासावासं पज्जोसवेति ॥२२५॥ अर्थ प्रश्न-हे भगवन् ! किस कारण से इस प्रकार कहा जाता है कि श्रमण भगवान महावीर वर्षाऋतु का बीस रात्रि सहित एक मास व्यतीत होने पर वर्षावास रहे ? Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ན་ उत्तर - कारण यह है कि प्रायः उस समय गृहस्थो के गृह चारों ओर से चटाई आदि से आच्छादित होते हैं । चूने आदि से पोते हुए होते हैं । घास आदि से ढंके हुए होते हैं । चारदीवारी से सुरक्षित होते हैं । घिसघिसाकर विषम भूमि को सम किए हुए व मुलायम बनाये हुए होते हैं । सुवासित धूपों से सुगन्धित किए हुए होते हैं । पानी निकलने के लिए परनाले आदि बनाए हुए होते हैं, घरों के बाहर नालियां आदि खुदवाई हुई होती हैं । वे घर, गृहस्थ स्वय के लिए अच्छा करता है । वे घर गृहस्थ के उपयोग में लिए हुए होते हैं । स्वयं के रहने के लिए वह उन्हें साफ कर जीव जन्तु रहित बनाता है एतदर्थ यह कहा जाता है कि श्रमण भगवान् महावीर वर्षाऋतु के बीस रात्रि सहित एक मास व्यतीत होने पर वर्षावास रहे । मल : ३१८ जहा णं समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे aisa'ते वासावासं पज्जोसवेइ तहा णं गणहरा वि वासाणं सवीसइराए मासे विइक्क ते वासावासं पज्जोसविंति ॥ २२६ ॥ अर्थ - जैसे श्रमण भगवान महावीर वर्षाऋतु का बीस रात्रि सहित एक मास व्यतीत होने पर वर्षावास रहे हैं वैसे ही गणधर भी वर्षाऋतु का बीस रात्रि सहित एक मास व्यतीत होने पर वर्षावास रहे हैं । मूल :-- जहा णं गणहरा वासाणं जाव पज्जोसर्वेति तहा णं गणहरसीसा वि वासाणं जाव पज्जोसविंति ॥ २२७॥ अर्थ – जैसे गणधर वर्षाऋतु के बीस रात्रि सहित एक मास व्यतीत होने पर वर्षावास रहे, वैसे ही गणधरों के शिष्य भी वर्षाऋतु के बीस रात्रि सहित एक मास व्यतीत होने पर वर्षावास रहे हैं । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचारी : बर्षावास कल्प ३१६ मूल : जहा णं गणहरसीसा वासाणं जाव पजोसर्विति तहा णं थेरा वि वासाणं जाव पजोसर्विति ॥२२८॥ अर्थ-जैसे गणधरों के शिष्य वर्षाऋतु का बीस रात्रि सहित एक मास व्यतीत होने पर वर्षावास रहे हैं वैसे ही स्थविर भी वर्षाऋतु का बीस रात्रि सहित एक मास व्यतीत होने पर वर्षावास रहे है । मूल : जहा णं थेरा वासाणं जाव पजोसर्विति तहा णं जे इमे अजत्ताए समणा निग्गंथा विहरति एए वि णं वासाणं जाव पजोसर्विति ॥२२६॥ अर्थ - जैसे स्थविर वर्षाऋतु का बीस रात्रि सहित एक मास व्यतीत होने के पश्चात् वर्षावास रहे, वैसे ही आजकल जो श्रमण निर्ग्रन्थ विचरते हैंया विद्यमान है, वे भी वर्षाऋतु के बीस रात्रि सहित एक मास व्यतीत होने पर वर्षावास रहते है। मूल : जहा णं जे इमे अज्जत्ताए समणा निग्गंथा वासाणं सवीसइराए मासे विइक ते वासावासं पज्जोसर्विति तहा णं अम्हं पि आयरियउवज्झाया वासाणं सवीसइराए मासे विइकते वासावासं पज्जोसर्वेति ॥२३०॥ अर्थ-जैसे आजकल श्रमण निग्रन्थ वर्षाऋतु का बोस रात्रि सहित एक मास व्यतीत होने पर वर्षावास रहते हैं, वैसे ही हमारे भी आचार्य उपाध्याय वर्षाऋतु का बीस रात्रि सहित एक मास व्यतीत होने पर वर्षावास रहते हैं। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० मूल : जहा णं अम्हं आयरियउवज्झाया वासाणं जाव पज्जोसर्वेति तहा णं अम्हे वि अज्जो! वासाणं सवीसइराए मासे विइक ते वासावासं पज्जोसवेमो । अंतरा वि य से कप्पइ पज्जो. सवित्ताए नो से कप्पइ तं रयणि उवायणावित्तए ॥२३१॥ - अर्थ जैसे हमारे आचार्य, उपाध्याय, यावत् वर्षावास रइते हैं, वैसे ही हम भी वर्षाऋतु का बीस रात्रि सहित एक मास व्यतीत होने पर वर्षावास रहते हैं । इस समय से पूर्व भी वर्षावास रहना कल्पता है, परन्तु उस रात्रि को उल्लंघन करना नहीं कल्पता । अर्थात् वर्षाऋतु के बीस रात्रि सहित एक मास की अन्तिम रात्रि को उल्लंघन करना नहीं कल्पता एतदर्थ इस अन्तिम रात्रि के पूर्व ही वर्षावास करना चाहिए । मूल : वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गथीण वा सव्वओ समंता सकोसं जोयणं उग्गहं ओगिण्हित्ता णं चिहिउ अहालंदमवि उग्गहे ॥२३२॥ अर्थ-वर्षावास रहे हुए निम्रन्थ और निर्ग्रन्थिनियों को सभी ओर पांच कोस तक अवग्रह को स्वीकार कर रहना कल्पता है। पानी से आर्द्र बना हुआ हाथ जब तक न सूखे तब तक भी अवग्रह में रहना कल्पता है, और बहुत समय तक भी अवग्रह में रहना कल्पता है, किन्तु अवग्रह से बाहर रहना नहीं कल्पता। - भिक्षावरी कल्प वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गं Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचारी : मिक्षाचारीकल्प ३२१ थीण वा सव्वओ समंता सकोसं जोयणं भिक्खायरियाए गंतु पडियत्तए । जत्थ णं नई निचोयगा निचसंदणा नो से कप्पइ सव्वओ समंता सकोसं जोयणं भिक्खायरियाए गंतु पडियत्तए । rade कुणाला जत्थ चक्किया एगं पायं जले किच्चा एगं पायं थले किच्चा एवं चक्किया एवं णं कप्पइ सव्वओ समंता सकोसं जोयणं भिक्खायरियाए गंतु पडियत्तए, एवं नो चक्किया एवं णं नो कप्पइ सव्वओ समंता सकोसं जोयणं गंतु पडिनियत्तए ॥ २३३ ॥ अर्थ - वर्षावास रहे हुए निग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनियों को चारों ओर पांच कोस तक भिक्षाचार्य के लिए जाना कल्पता है, और पीछा आना कल्पता है । जहाँ पर नदी हमेशा अच्छे पानी से भरो हुई रहती है, नित्य बहती रहती है, वहाँ पर सभी ओर पांच कोस तक भिक्षाचार्य के लिए जाना और पीछा लौटना नहीं कल्पता । ऐरावती नदी कुणाला नगरी में में रखकर चला जा सकता है और एक पैर स्थल में चला जा सकता है अर्थात् ऐसे स्थल पर चारों ओर पाँच कोस तक भिक्षा के लिए जाना और पीछा लोटना कल्पता है | है, वहाँ एक पैर पानी पानी से बाहर रखकर मूल : वासावासं पज्जोसविताणं अत्थेगतियाणं एवं वृत्तपुव्वं भवइ 'दावे भंते!' एवं से कप्पइ दावित्तए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए || २३४ || अर्थ - वर्षावास में रहे हुए कितने ही श्रमणों को प्रारम्भ में ही इस प्रकार कहा हुआ होता है कि 'भगवन् ! तुम देना' तो उन्हें इस प्रकार देना कल्पता है, किन्तु उन्हें स्वयं के लिए लेना नहीं कल्पता' अर्थात् वर्षावास स्थित श्रमण श्रमणियों को गुरुजनों ने यह आदेश दिया हो कि अमुक ग्लानादि के लिए अमुक अशनादि लाकर देना तो वह लाया हुआ अशनादि स्वयं को भोगना नहीं कल्पता । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ कल्पस वासावासं पज्जोसवियाणं अत्थेगईयाणं एवं वृत्तपुव्वं भवइ 'पडिगाहे भंते !' एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए नो से कप्पइ दावित्तए ॥२३॥ अर्थ-वर्षावास में रहे हुए कितने ही श्रमणों को इस प्रकार प्रारम्भ में ही कहा हुआ होता है, "भगवन् ! तू लेना', तो उसको इस प्रकार स्वयं लेना कल्पता है, किन्तु दूसरों को देना नहीं कल्पता ।' मल: वासावास पज्जोसवियाणं अत्थेगईयाणं एवं वृत्तपुव्वं भवइ 'दावे भंते ! पडिगाहे भंते ! एवं से कप्पइ दावित्तए वि पडिगाहित्तए वि ॥२३६॥ अर्थ-वर्षावास में रहे हुए कितने ही श्रमणो को पूर्व ही इस प्रकार कहा हुआ होता है कि हे भगवन् ! तू, दूसरों को भी देना और स्वयं भी लेना' तो उसको इस प्रकार दूसरों को देना और स्वयं को लेना कल्पता है।" मूल : वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंथाण का निग्गंथीणं वा हट्ठाणं आरोग्गाणं बलियसरीराणं इमाओ नवरसविगईओ अभिक्खणं अभिक्खणं आहारित्तए, तं जहा-खीरं दहिं नवणीयं सप्पि तिल्लं गुडं महुं मज्जं मंसं ॥२३७॥ अर्थ-वर्षावास में रहे हुए निर्ग्रन्थ और निम्रन्थिनियां हृष्टपुष्ट हों, नीरोग हों, बलवान् देहवाले हों, उनको ये नौ रस-विकृतियों का बार-बार खाना नहीं कल्पता, जैसे- (१) क्षीर-दूध, (२) दही, (३) मक्खन, (४) घृत, (५) तेल, (६) गुड, (७) मधु, (८) मद्य, (६) मांस । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचारी : मिक्षाचरीकल्प क विवेचन - आगम साहित्य में दूध-दही आदि को कही पर विकृति " कहा गया है और कहीं पर 'रस' कहा है। दूध, दही आदि विकार - वृद्धि करते हैं एतदर्थ इनका नाम विकृति है । ग प्रस्तुत सूत्र की तरह स्थानाङ्ग में भी नौ विकृतियों का वर्णन है । स्थानाङ्ग में तेल, घृत, वसा ( चर्बी ) और मक्खन को स्नेह - विकृत भी कहा है च और आगे चलकर मधु, मद्य, मांस और मक्खन को महाविकृति भी कहा है । छ विकृति खाने से मोह का उदय होता है ज एतदर्थ उन्हें बार-बार खाने का निषेध किया गया है । मद्य-मांस ये दो विकृतियाँ और वसा चर्बी ) अभक्ष्य है । कुछ आचार्य मधु और मक्खन को भी अभक्ष्य मानते है और कुछ आचार्य मधु और मक्खन को विशेष परिस्थिति में भक्ष्य भी मानते हैं । जो विकृतियाँ भक्ष्य हैं, उन्हीं विकृतियों को पुनः पुनः खाने का निषेध किया गया है । मद्य और मांस तो श्रमण के लिए सर्वथा त्याज्य है ही, अत: उसके खाने का प्रसंग हो नहीं उठ सकता । मूल : ३२३ वासावासं पज्जोसवियाणं अत्थेगतियाणं एवं वुत्तपुव्वं भवइ 'अट्ठो भंते! गिलाणस्स ?' से य वयिज्जा 'अट्ठो' से य पुच्छियव्वे सिया 'केवईएणं अट्ठो !' से य वएज्जा 'एवइएणं अट्ठो गिलाणस्स' । जं से पमाणं वदति से पमाणतो घेत्तव्वे । से य विन्नवेज्जा, से य विन्नवेमाणे लभिज्जा, से य पमाणपत्ते, 'होउ, अलाहि' इति वत्तव्वं सिया । से किमाहु भंते ! एवइएणं अट्ठो गिलाणस्स । सिया णं एवं वयंतं परो वएज्जा 'पडिग्गाहेहि अज्जो ।' तुमं पच्छा भोक्खसि वा देहिसि वा' एवं से कप्पइ पडिग्गाहित्तए, नो से कप्पइ गिलाणनीसाए पडिग्गाहित्तए ॥ २३८ ॥ अर्थ - वर्षावास में रहे हुए कितने ही श्रमणों को पूर्व ही इस प्रकार कहा हुआ होता है - 'हे भगवन् ! अस्वस्थ व्यक्ति के लिए आवश्यकता है ? यदि वह Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ कहे कि आवश्यकता है, तो उसके पश्चात् उस अस्वस्थ व्यक्ति से पूछना चाहिए कि कितने प्रमाण में (दूध आदि की ) आवश्यकता है और दूध आदि का प्रमाण अस्वस्थ व्यक्ति से जान लेने के पश्चात् वह कहे कि इतने प्रमाण में अस्वस्थ व्यक्ति (सन्त) को दूध की आवश्यकता है। बीमार जितने प्रमाण में कहे उतने ही प्रमाण में लाना चाहिए। लाने के लिए जाने वाला प्रार्थना करे और प्रार्थना करता हुआ दूध आदि प्राप्त करे । जब दूध आदि प्रमाणयुक्त प्राप्त हो जाय तब उसे पर्याप्त (बस) है, इस प्रकार कहना चाहिए। उसके पश्चात् दूध देने वाला उस श्रमण से कहे कि - 'हे भगवन् ! 'बस, पर्याप्त है' ऐसा आप कैसे कह रहे हैं। उत्तर में लेने वाला भिक्षुक कहे, कि बीमार के लिए इतने की ही आवश्यकता है । इस प्रकार कहते हुए भिक्षुक को दूध आदि प्रदान करने वाला गृहस्थ कदाचित् यह कहे कि हे आर्य ! आप ले जावें बाद में आप खा लेना, या पी लेना, इस प्रकार वार्ता हुई हो तो उसे अधिक लेना कल्पता है, किन्तु लाने वाले को बीमार व्यक्ति के बहाने अधिक लाना नही कल्पता । मूल :वासावासं पज्जोसवियाणं अत्थि णं थेराणं तहप्पगाराई कुलाई कडाई पत्तियाइं थेज्जाई वेसासियाई सम्मयाई बहुमयाई अणुमयाई भवति तत्थ से नो कप्पड़ श्रहख वहत्तए 'अत्थि ते आउसो ! इमंवा इमं वा ? से किमाहु भंते! सड्ढी गिही गिन्हइ वा तेणियं पि कुज्जा ॥ २३६ ॥ अर्थ- वर्षावास में रहे हुए स्थविरों के तथा प्रकार के कुल आदि किये हुए होते हैं, जो कुल प्रीतिपात्र होते हैं स्थिरता वाले होते हैं, विश्वास वाले होते हैं, सम्मत होते हैं, बहुमत होते हैं और अनुमति वाले होते हैं, उन कुलों में जाकर आवश्यक वस्तु न देखकर उन स्थविरों को इस प्रकार कहना नहीं कल्पता कि हे आयुष्मन् ! यह वस्तु या यह वस्तु तुम्हारे यहाँ पर है ? उन्हें इस प्रकार कहना नहीं कल्पता, यह किस प्रश्न- हे भगवन् ! उद्देश्य से कहा गया है ? Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचारी : मिक्षाचरीकल्प ३२५ उत्तर- र - हे आयुष्मन् ! ऐसा कहने से श्रद्धावान् गृहस्थ वह वस्तु न होने पर नवीन ग्रहण करे, सल्य से खरीदकर लाये, अथवा चोरी करके भी ले आए । मूल :-- वासावासं पज्जोसवियाणं निच्चभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्प एवं गोयरकालं गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पवेसितए वा नन्नत्थ आयरियवेयावच्चेण वा उवज्झायवेयावच्चेण तवस्सिगिलाणवेयावच्चेण खुडण्णं वा अवणजायपणं ॥ २४० ॥ अर्थ - वर्षावास में रहे हुए नित्यभोजी भिक्षु को गोचरी के समय में आहार के लिए अथवा पानी के लिए गृहस्थ के कुल की तरफ एक बार निकलना कल्पता है और एक बार प्रवेश करना कल्पता है। सिवाय इसके कि आचार्य की सेवा का कारण हो, उपाध्याय की सेवा का कारण हो, तपस्वी या रुग्ण सन्त की सेवा का कारण हो, जिनके दाढ़ो छ अथवा बगल में केश न आये हों ऐसे लघु (बाल) श्रमण और श्रमणियों की सेवा का कारण हो । अर्थात् यदि इनमे से कोई कारण विद्यमान हो तो एक से अधिक बार भी भिक्षा के लिए जाना कल्पता है । मूल : वासावासं पज्जोसवियाणं चउत्थभत्तियस्स भिक्खुस्स अयं एवइए विसेसे जं से पाओ निक्खम्म पुव्वामेव वियडगं भोच्चा पेच्चा पडिग्गहगं संलिहिया संपमज्जिया, से य संथरिज्जा कप्पइ से तद्दिवसं तेणेव भत्तट्ठे णं पज्जोसवित्तए, से य नो संथरिज्जा एवं से कप्पइ दोच्चं पि गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्त वा पविसित्तए वा ॥ २४९ ॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ अर्थ-वर्षावास में रहे हुए चतुर्थ भक्त करने वाले भिक्षु के लिए यह विशेषता है कि वह उपवास के पश्चात् प्रात गोचरी के लिए निकलकर प्रथम विकटक (स्पष्ट-शुद्ध) अर्थात् निर्दोष भोजन करके और निर्दोष पानक पीकर के पश्चात् पात्र को साफ करके, धोकर के, यदि उतने ही आहार पानी से निर्वाह हो सकता हो तो, उतने ही भोजन पानी से चलावे । यदि उतने से निर्वाह नहीं हो सकता हो, तो उसको गृहपति के कुल की तरफ द्वितीय बार भी निकलना और प्रवेश करना कल्पता है। मल: ___ वासावासं पजोसवियाणं छट्ठभत्तियस्स भिक्खुस्स कपंति दो गोयरकाला गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा॥२४॥ अर्थ-वर्षावास में रहे हुए षष्ठ भक्त करने वाले भिक्ष को गोचरी के समय आहार के लिए अथवा पानी के लिए गृहस्थ के कुल की ओर दो बार निकलना और प्रवेश करना कल्पता है।" मूल : वासावासं पज्जोसवियाणं अहमभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पंति तओ गोयरकाला गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा ॥२४३॥ अर्थ-वर्षावास में स्थित अष्टभक्त करने वाले भिक्ष क को गोचरी के समय आहार के लिए अथवा पानी के लिए गृहस्थों के कुल की ओर तोर बार निकलना और प्रवेश करना कल्पता है । मल: वासावासं पज्जोसवियाणं विकिहमत्तियस्स भिक्खुस्स Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ समाचारी : मिक्षावरीकल्प कप्पति सव्वे वि गोयरकाला गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा ॥२४॥ अर्थ-वर्षावास रहे हुए विकृष्टभक्त (अष्टम भक्त से अधिक तप) करने वाले भिक्षुक को आहार के लिए अथवा पानी के लिए गृहस्थ के कुल की ओर जिस समय इच्छा हो उस समय निकलना और प्रवेश करना कल्पता है । अर्थात् विकृष्ट भक्त करने वाले भिक्षुक को गोचरी के लिए सभी समय प्रवेश करने की आज्ञा है । मल: वासावासं पजोसवियाणं निच्चभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पंति सव्वाइं पाणगाइं पडिगाहित्तए ॥२४५॥ अर्थ-वर्षावास में रहे हुए नित्यभोजी भिक्षुक को सभी प्रकार का पानी लेना कल्पता है। मल: वासावासं पजोसवियाणं चउत्थभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पंति तओ पाणगाइं पडिगाहेत्तए, तं जहा-उस्सेइमं संसेइमं चाउलोदगं ॥२४६॥ अर्थ-वर्षावास में रहे हुए चतुर्थभक्त करने वाले भिक्षुक को तीन प्रकार के पानी लेना कल्पता है। जैसे कि उत्स्वेदिम (आटे का धोवन) संस्वेदिम, (उष्ण, उबाला हुआ जल) चाउलोदक (चावल का धोवन)। मूल : वासावासं पज्जोसवियाणं छ?भत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पति तओ पाणगाइं पडिगाहेत्तए, तं जहा-तिलोदए तुसोदए जवोदए ॥२४॥ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-वर्षावास में रहे हए षष्ठभक्त करने वाले भिक्षक को तीन प्रकार का पानी पीना कल्पता है जैसे कि-तिलोदक, तुषोदक और जवोदक । मल: वासावासं पजोसवियाणं अट्ठमभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पंति तओ पाणयाई पडिगाहित्तए, तं जहा-आयामए सोवीरए सुद्धवियडे ॥२४॥ अर्थ-वर्षावास रहे हुए अष्टम भक्त करने वाले भिक्षुक को तीन पानी लेना कल्पता हैं । जैसे - आयाम, सौवीर (कांजी) और शुद्धविकट (उष्णोदक)। मूल : वासावासं पज्जोसवियाणं विकिट्ठभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पइ एगे उसिणोदए वियडे पडिगाहेत्तए, से वि य णं असित्थे णो वि य णं ससित्थे ॥२४॥ __ अर्थ-वर्षावास में अवस्थित विकृष्ट भक्त करने वाले भिक्षुक को एक उष्णबिकट (शुद्ध उष्णोदक) पानी लेना कल्पता है, वह भी अन्नकण रहित, अन्नकण युक्त नहीं। मूल : वासावासं पजोसवियाणं भत्तपडियाइक्खियस्स भिक्खुस्स कप्पइ एगे उसिणोदए पडिगाहित्तए, से वि य णं असित्थे नो चेव णं ससित्थे, से वि य णं परिपूते नो चेव णं अपरिपूए, से वि य णं परिमिए नो चेव णं अपरिमिए से वि य णं बहुसंपण्णे नो चेव णं अबहुसंपण्णे ॥२५०॥ अर्थ-वर्षावास रहे हुए भक्त प्रत्याख्यानी भिक्षुक को एक उष्ण बिकट Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचारी : मिक्षाचरी कल्प ३२६ पानी लेना कल्पता है, वह भी अन्नकण रहित, अन्नकण युक्त नहीं । वह भी कपड़े से छाना हुआ, बिना छाना हुआ नहीं। वह भी परिमित, अपरिमित नहीं । वह भी जितनी आवश्यकता हो उतना, पूरा, अधिक या कम नहीं । मूल : वासावासं पज्जोसवियाणं संखादत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पंति पंच दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहित्तए पंच पाणगस्स, अहवा चत्तारि भोयणस्स पंच पाणगस्स अहवा पंच भोयणस्स चत्तारि पाणगस्स, तत्थ णं एगा दत्ती लोणासायणमेत्तमविपडिगाहिया सिया कप से तद्दिवसं तेणेव भत्तट्ठणं पज्जोसवित्तए, नो से कप्पइ दोच्चं पि गाहावइकुल भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्त वा पविसित्तए वा ।। २५९ ।। अर्थ -- वर्षावास में रहे हुए नियत संख्या वाली दत्ति प्रमाण (एक बार में दी जाने वाली थोड़ी सी भी परिमित भिक्षा एक दत्ति होती है) आहार लेने वाले भिक्षुक को भोजन की पांच दत्तियां और पानी की पांच दत्तियां लेनी योग्य है । अथवा भोजन की चार दत्तियां और पानी की पांच दत्तियां भी लो जा सकती हैं । तथा भोजन की पांच दत्तियां और पानी की चार दत्तियां ली जा सकती हैं। नमक के एक कण जितना भी जिसका आस्वाद लिया जा सके वह भी एक दत्तिक गिनी जाती है। ऐसी दत्ति ले लेने के पश्चात् उस भिक्षुक को उस दिन उस भोजन से ही निर्वाह करना चाहिए । उस भिक्षुक को दूसरी बार पुनः गृहपति के कुल की ओर भोजन के लिए या पानी के लिए निकलना और प्रवेश करना नही कल्पता । " मूल : वासावासं पज्जोसवियाणं नो से कप्पति निग्गंथाण वा Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० निग्गंथीण वा जाव उवस्सयाओ सत्तघरंतरं संखडिसन्नियट्टचारिस्स एत्तए । एगे पुण एवमाहंसु - नो कप्पड़ जाव उवस्सयाओ परेण संखडि सन्नियट्टचारिस्स एत्तए । एगे पुण एवमाहंसु-नो कप्पइ जाव उवस्सयाओ परंपरेण संखर्डि सन्नियट्टचारिस्स एत्तए ।। २५२ ॥ कल्प सूत्र अर्थ — वर्षावास में हुए निषिद्ध घर का त्याग करने वाले निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनियों को उपाश्रय से लेकर सात घर तक जहाँ सखडि ( जीमनवार ) हो, वहाँ जाना नहीं कल्पता । कितने ही ऐसा कहते हैं कि उपाश्रय से लगाकर आगे आने वाले घरों में जहां संखडि हो वहाँ निषिद्ध घर का त्याग करने वाले निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनियों को जाना नहीं कल्पता । कितने ही ऐसा भी कहते हैं कि उपाश्रय से लगा कर परम्परा से आते हुए घरों में जहां जीमनवार होती हो वहां निषिद्ध घर का त्याग करने वाले निर्ग्रन्थ और निग्रन्थिनियो को जाना नहीं कल्पता । मूल : वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पइ पाणिपडिग्गहियस्स भिक्खुस्स कणगफुसिय मित्तमवि वुट्टिकायंसि निवयमाणंसि गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खभित्तए वा पविसित्तए वा । २५३ | अर्थ – वर्षावास में रहे हुए कर पात्रो भिक्षुक को, कणमात्र भी स्पर्श हो इस प्रकार का वृष्टिकाय (ओस और घुन्ध ) गिरता हो तब गृहपति के कुल की ओर भोजन और पानी के लिए निकलना और प्रवेश करना नही कल्पता । १२ मूल : वासावासं पज्जोसवियरस पाणिपडिग्गाहियस्स भिक्खुस्स Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सपाचारी : मिक्षावरी कल्प नो कप्पइ अगिहंसि पिंडवायं पडिग्गाहित्ता पज्जोसवित्तए, पजोसवेमाणस्स सहसा बुटिकाए निवडिज्जा देसं भोचा देसमायाय पाणिणा पाणि परिपिहित्ता उरंसि वा णं निलिजिज्जा, कक्खंसि वा णं समाहडिजा, अहाछन्नाणि वा लयणाणि उवागच्छिज्जा, रुक्खमूलाणि वा उवागच्छिज्जा, जहा से पाणिसि दते वा दतरए वा दगफुसिया वा नो परियावज्जइ ॥२५४॥ अर्थ-वर्षावास में रहे हुए कर पात्री भिक्षुक को पिण्डपात्र भिक्षा-लेकर के जहां घर न हो वहाँ अर्थात् खुले आकाश में रहकर भोजन करना नहीं कल्पता । खुले आकाश में रहकर खाते समय अचानक वृष्टिकाय गिरे तो जितने भाग को खा लिया है उसे खाकर के और बचे हुए अवशेष भाग को लेकर के उसे हाथ से ढंक करके और उस हाथ को सीने से चिपकाकर रखे या कक्षा (कांख) में छिपाकर रखे । ऐसा करने के पश्चात् गृहस्थों ने अपने लिए सम्यक् प्रकार से जो घर छाये हों उस ओर जाये, अथवा वृक्ष के मूल (नीचे) की ओर जाये, जिस हाथ में भोजन है उस हाथ से जिस प्रकार पानी की बूंदों की या फुहारों आदि की विराधना न हो इस प्रकार प्रवृत्ति करे। मल: वासावासं पज्जोसवियाणं पाणिपडिग्गहियस्स भिक्खुस्स जं किंचि कणगफुसियमित्तं पि निवडइ नो से कप्पइ भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा ॥२५॥ अर्थ-वर्षावास में रहे हुए करपात्री भिक्ष क को कणमात्र भी स्पर्श हो, इस प्रकार अत्यन्त हल्की बूदें आती हों तब भोजन और पानी के लिए गृहस्थ के घर की ओर निकलना और प्रवेश करना नही कल्पता। मल: वासावासं पज्जोसवियाणं पडिग्गहधारिस्स भिक्खुस्स Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ नो कप्पइ वग्धारियबुठ्ठिकार्यसि गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा कप्पइ से अप्पबुट्ठिकार्यसि संतरुत्तरंसि गाहावइकुलं भत्ताए पाणाए वा निमित्तए वा पविसित्तए वा ॥२५६॥ __ अर्थ-वर्षावास में रहे हुए पात्रधारो भिक्षुक को अविच्छिन्न धारा (वग्घारिय वुट्टिकायंसि) से वर्षा बरस रही हो तब भोजन और पानी के लिए गृहपति के कुल की ओर जाना नहीं कल्पता, और प्रवेश करना भी नहीं कल्पता। कम वर्षा (अल्प वर्षा) बरस रही हो, तब अन्दर सूती वस्त्र और उसके ऊपर ऊनी वस्त्र ओढ़कर रजोहरण एव पात्र को प्रावरण से ढक कर भोजन के लिए अथवा पानी के लिए गृहपति के कुल की ओर निकलना और प्रवेश करना कल्पता है। विवेचन-प्रस्तुत पाठ में जोरदार वर्षा-जब अविच्छिन्नधारा से वर्षा बरस रही हो उस समय भिक्षा के लिए जाने का निषेध किया है और आगे हलकी वर्षा में जाने की अनुमति दी है। पाठ में 'संत्तरुत्तरसि' शब्द आया है। यह शब्द आचारांग और उत्तराध्ययन' में भी मिलता है, पर वहाँ पर प्रकरण के अनुसार टीकाकारों ने दूसरा अर्थ किया है। यहाँ पर कल्पसूत्र के चूर्णिकार और टिप्पणकार ने अन्तर शब्द के तीन अर्थ किए हैं-(१) सूती वस्त्र, (२) रजोहरण, (३) और पात्र । तथा उत्तर शब्द के दो अर्थ किए हैं (१) कम्बल और (२) ऊपर ओढ़ने का उत्तरीय वस्त्र ।'६ सारांश यह है कि हलकी वर्षा में भीतर सूती वस्त्र और ऊपर ऊनी वस्त्र ओढ़कर भिक्षा के लिए जाय। ओधनियुक्ति, धर्मसंग्रह वृत्ति और योगशास्त्र स्वोपज्ञवृत्ति में प्रस्तुत परम्परा का उल्लेख किया है। किन्तु आचारांग में "तिव्वदोसीयं वासं वासमाणं पेहाए के द्वारा तेज वर्षा में जाने का निषेध किया है। दशवैकालिक में भी 'न चरेज्ज वासे वासंते" पाठ में स्पष्ट रूप से वर्षा बरसते समय भिक्षा के लिए जाने का निषेध है । अगस्त्यसिंह स्थविर२२ जिनदास महत्तर और आचार्य हरिभद्र २४ ने भी अपनी चूणि और टीका में बताया है कि भिक्षा Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचारी : मिक्षाचरीकल्प ३३३ २५ का काल होने पर यदि वर्षा हो रही हो तो भिक्षुक बाहर न निकले । भिक्षा के लिए निकलने के पश्चात् यदि वर्षा होने लगे तो ढके हुए स्थान में खड़ा हो जाय, आगे न जाय। उक्त प्रकरण के सन्दर्भ में अल्पवृष्टि में जाने का उल्लेख नहीं हुआ है, अपितु निषेध ही है । तीव्र वृष्टि, धुन्ध " और कुहरा गिर रहा हो उस समय नहीं जाना और अल्पवृष्टि में जाना यह श्रमणाचार की विधि के अनुसार किस प्रकार संगत हो सकता है यह गीतार्थ श्रमणों व आगम मर्मज्ञों के लिए विचारणीय है । हमारी दृष्टि से वर्षा में भिक्षा के लिए जाने की परम्परा विशुद्ध श्रमणाचार की परम्परा नही है । ६ मूल : वासावासं पज्जोसवियाणं निग्गंथस्स निग्गंधीए वा गाहा व कुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठस्स निगिज्झिय निगिज्झिय वुट्टिकाए निवएज्जा कप्पइ से अहे आरामंसि वा अहे उवस्यं वा अहे वियडगिहंसि वा अहे रुक्खमूलंसि, वा उवागच्छित्तए, तत्थ से पुव्वागमणेणं पुव्वाउत्ते चाउलोदणे पच्छाउत्ते भिलंग सूवे कप्पर से चाउलोदणे पडिग्गाहित्तए नो से कप्पइ भलिंगसूवे पडिग्गाहित्तए तत्थ से पुव्वागमणेणं पुव्वाउत्ते मिलिंग सूवे पच्छाउत्ते चाउलोदणे कप्पइ से भिर्लिंगसूवे पडिग्गा हित्तए नो से कप्पइ चाउलोदणे पडिग्गाहित्तए, तत्थ से पुव्वागमणेणं दो विपुव्वाउत्ताइं वहति कप्पंति से दो वि पडिगाहित्तए, तथ से पुव्वागमणेणं दो वि पच्छाउत्ताइं नो से कप्पंति दो वि पडिग्गाहित्तए, जे से तत्थ पुव्वागमणेणं पुव्वाउत्ते से कप्पइ पडिगाहित्तए, जे से तत्थ पुव्वागमणेणं पच्छाउत्ते से नो कप्प पडग्गाहित्तए || २५७॥ " अर्थ- वर्षांवास में रहे हुए और भिक्षा लेने की इच्छा से गृहस्थ के कुल Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ में प्रवेश किए हुए निग्रन्थ और निम्रन्थिनियों को रह रहकर थोड़ी-थोड़ी देर से वर्षा गिर रही हो तब बगीचे में अथवा उपाश्रय में, अथवा विकटगृह में जहां गांव के लोग एकत्र होकर बैठते है, उस सभा भवन में अथवा वृक्ष के नीचे जाना कल्पता है । उपर्युक्त स्थानों पर जाने के पश्चात् वहां यदि पहुँचने के पूर्व ही तैयार किया हुआ चावलओदन मिलता हो तो निर्ग्रन्थ और निम्रन्थिनी ग्रहण कर सकते हैं। उनके पहुँचने के पश्चात् पीछे से तैयार किया हुआ भिलिंगसूप२७ अर्थात् मसूर की दाल, उड़द की दाल या तेल वाला सूप मिलता हो तो उन्हें चावलओदन लेना तो कल्पता है पर भिलिंगसूप लेना नहीं कल्पता ।। वहाँ यदि श्रमणों के पहुँचने के पूर्व ही तैयार किया हुआ भिलिंगसूप मिलता हो और चावलओदन उनके पहुंचने के पश्चात् पीछे से तैयार किया हुआ प्राप्त होता हो, तो उन्हें भिलिंगसूप तो लेना कल्पता है पर चावलओदन लेना नहीं कल्पता। वहां पर पहुँचने के पूर्व ही यदि दोनों वस्तुएं तैयार की हुई मिलती हों तो उन्हें दोनों ही वस्तुएं लेनी कल्पती हैं। वहां पर पहुँचने के पूर्व यदि दोनों ही वस्तुएँ प्रारम्भ से ही तैयार की हई नहीं मिलती हैं, और उनके पहुंचने के पश्चात् तैयार की हुई प्राप्त होती हैं तो उन्हें दोनों ही वस्तुएं लेना नहीं कल्पता। उनके पहुंचने के पूर्व जो वस्तुएँ तैयार की हुई हैं, उन्हें लेना कल्पता है, पर पहुंचने के पश्चात् तैयार की हुई वस्तु लेना नहीं कल्पता । मूल : __ वासावासं पज्जोसवियाणं निग्गंथस्स गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविहस्स निगिझिय निगिन्मिय बुटिकाए निवएज्जा कप्पइ से अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा अहे वियडगिहंसि वा अहे रुक्खमूलंसि वा उवागच्छित्तए, नो से कप्पइ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचारी : मिक्षाघारी कल्प ३३५ पुव्वगहिएणं भत्तपाणेणं वेलं उवाइणावित्तए, कप्पइ से पुवामेव वियडगंभोचा पिच्चा पडिग्गहगंसंलिहिय संलिहिय पमजिय पमजिय एगायगं भंडगं कटु जाव सेसे सूरिए जेणेव उवस्सए तेणेव उवागच्छित्तए,नोसे कप्पइ तं रयणि तत्थेव उवायणावित्तए॥२५८।। अर्थ-वर्षावास में रहे हए और भिक्षा लेने की वृत्ति से गृहस्थ के कुल में प्रवेश किये हुए निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनियों को जब रह रहकर वर्षा बरस रही हो तब उन्हे या तो उद्यान के मूल के नीचे, (बाग की दीवाल की छाया में) जहाँ छींटे न लगे या उपाश्रय के नीचे, या विकटग्रह के नीचे, या वृक्ष के मूल के नीचे चला जाना कल्पता है। वहाँ जाने के पश्चात् पूर्व लाये हुए आहार पानी को रखकर समय को नष्ट करना नही कल्पता । वहां पहुँचते ही विकटक (निर्दोष आहार-पानो) को खा पीकर पात्र को साफ कर एक साथ सम्यक् प्रकार से बांधकर सूर्य अवशेष रहे वहा तक उपाश्रय की ओर जाना कल्पता है, किन्तु वहो पर उस रात्रि को व्यतीत करना नहीं कल्पता। मूल : वासावासं पजोसवियाणं निग्गंथस्स गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठस्स निगिज्झिय निगिझिय वुट्टिकाए निवइज्जा कप्पइ से अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा जाव उवागच्छित्तए, तत्य नो कप्पइ एगस्स य निग्गंथस्स एगाए य निग्गंथीए एगयओ चिहित्तए, तत्थ नो कप्पइ एगस्स निग्गंथस्स दोण्ह य निग्गंथीणं एगयओ चिट्टित्तए, तत्थ नो कप्पइ एगस्स निग्गंथस्स दोण्ह य निग्गंथीणं एगयओ चिहित्तए, तत्थ नो कप्पइ दोण्ह य निग्गंथाणं एगाए य निग्गंथीए एगयओ चिद्वित्तए, तत्थ नो कप्पइ दोण्ह य निग्गंथाणं दोण्ह य निग्गंथीणं एगयओ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ የዩ चिद्वित्तए, अस्थि या इत्थ केइ पंचमए खुहुए वा खुडिया वा अन्नसिं वा संलोए सपडिदुवारे एवण्हं कप्पइ एगयओ चिद्वित्तए ॥२५६॥ अर्थ-वर्षावास में रहे हुए और भिक्षा लेने की वृत्ति से गृहस्थ के कुल में प्रवेश किये हुए निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थिनियों को जब रह रहकर अन्तरसहित वर्षा गिर रही हो तब उन्हें या तो बगीचे के नीचे, या उपाश्रय के नीचे, यावत् चला जाना कल्पता है। (१) वहाँ पर उस अकेले साधु को अकेली साध्वी के साथ सम्मिलित रहना नहीं कल्पता । (२) वहां पर उस अकेले निर्ग्रन्थ को दो निम्रन्थिनियों के साथ सम्मिलित रहना नहीं कल्पता । (३) वहाँ पर दो निर्ग्रन्थों को अकेली निर्गन्थिनी के साथ सम्मिलित रहना नहीं कल्पता । (४) वहाँ पर दो निर्ग्रन्थों को दो निम्रन्थिनियों के साथ सम्मिलित रहना नहीं कल्पता। वहाँ पर किसी पांचवें की साक्षी रहनी चाहिए । भले ही वह क्षुल्लक हो या क्षुल्लिका हो, अथवा दूसरे उन्हें देख सकते हों, दूसरों की दृष्टि में वे आ सकते हो, अथवा घर के चारों ओर के द्वार खुले हुए हों तो इस प्रकार उनको अकेला रहना कल्पता है । मल: वासावासं पजोसवियाणं निग्गथस्स गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठस्स निगिज्झिय बुठिकाए निवएजा कप्पइ से अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा उवागच्छित्तए, तत्थ नो कप्पइ एगस्स निग्गंथस्स एगाए य अगारीए एगयओ चित्तिए, एवं चउभंगो, अत्थि या इत्थ केइ पंचमए थेरे वो थेरिया वा अन्ने सि वा संलोते सपडिदुवारे एवं कप्पइ एगयओ चित्तिए ॥२६०॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचारी : मिक्षावरी कल्प ३१७ मर्थ-वर्षावास में रहे हुए और भिक्षा लेने की वृत्ति से गृहस्थ के कुल में प्रवेश किए हुए निर्ग्रन्थ को जब रह रहकर सान्तर वर्षा गिर रही हो, तब उसे या तो बगीचे की छाया में, या उपाश्रय के नीचे जाना कल्पता है। वहां पर अकेले निर्ग्रन्थ को अकेली महिला के साथ सम्मिलित रहना नही कल्पता । यहां पर भी सम्मिलित नहीं रहने के सम्बन्ध में पूर्व सूत्र की तरह चार भंग समझ लेने चाहिए। वहाँ पर पांचवा कोई भी स्थविर या स्थविरा होनी चाहिए। अथवा दूसरों की दृष्टि से देखे जा सकें ऐसा होना चाहिए, अथवा घर के चारों तरफ के द्वार खुले रहने चाहिए। इस प्रकार उन्हे अकेला रहना कल्पता है। मूल : एवं चेव निग्गंथीए अगारस्स य भाणियव्वं ॥२६१॥ अर्थ और इसी प्रकार अकेली निर्गन्थिनी और अकेले गृहस्थ के सम्मिलित नही रहने के सम्बन्ध में चार भंग समझने चाहिए। विवेचन-प्रस्तुत विधान व्यवहार शुद्धि और ब्रह्मचर्य की विशुद्धि के लिए किया गया है। ब्रह्मचारी साधक को सतत जागरूक रहने की आवश्यकता है। जरा-सी असावधानी भी साधक को पथ से विचलित कर सकती है, अतः शास्त्रकार ने सजग रहने की प्रेरणा दी है । दूसरी बात साधक स्वयं में भले ही जागृत हो किन्तु अगर व्यवहार अशुद्ध हो तो ऐसे स्थान में भी नहीं रहना चाहिए । इसीलिए कहा गया है-'यद्यपि शुद्धं लोकविरुद्ध नाचरणीयं न करणीयम् ।' मूल : वासावासं पजोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अपरिन्नएणं अपरिग्नयस्स अट्ठाए असणं वा ४ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० कल्प जाव पडिग्गाहित्तए, से किमाहु भंते ! इच्छा परो अपडिन्नते भुजिजा, इच्छा परो न भुजिज्जा ॥२६२॥ ___ अर्थ-वर्षावास मे रहे हुए निर्ग्रन्थ को या निर्ग्रन्थिनियों को दूसरे किसी के कहे बिना या दूसरे को सूचना किये बिना उनके लिए अशन, पान, खादिम, स्वादिम चारों प्रकार का आहार लाना नहीं कल्पता । प्रश्न-हे भगवन् ! इस प्रकार क्यों कहते हैं ? उत्तर-हे शिष्य ! दूसरे के द्वारा बिना कहे हुए या दूसरे के द्वारा बिना सूचित किये हुए, लाया गया आहार आदि यदि उसकी इच्छा होगी तो वह खायेगा, यदि इच्छा न होगी तो वह नही खायेगा । अर्थात् दूसरे के लिए बिना पूछे या दूसरे के बिना कहे आहार आदि नहीं लाना चाहिए । क्योंकि बिना पूछे लाया गया आहार यदि उसको इच्छा नहीं है और बिना इच्छा के वह खाता है तो या तो उसे रोग हो जायगा, और यदि वह नहीं खाएगा तो परिष्ठापनदोष लगेगा। मल: वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा उदउल्लेण वा ससणिद्वेण वा कारणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारित्तए ॥२६३॥ ____ अर्थ-वर्षावास रहे हुए निर्ग्रन्थ या निम्र न्थिनियों को उनके शरीर पर से पानी गिरता हो या उनका शरीर आर्द्र हो तो अशन, पान, खादिम और स्वादिम को खाना नहीं कल्पता।। मूल : से किमाहु भंते ! सत्त सिणेहायतणा, तं जहा-पाणी, पाणीलेहा, नहा, नहसिहा, भमुहा, अहरोहा, उत्तरोहा । अह Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचारी : भिक्षाचरी कल्प: आठ सूक्ष्म ३३८ पुण एवं जाणेज्जा - विगओअए से काए छिन्नसिणेहे एवं से कप्पर असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारितए || २६४ || अर्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! किस दृष्टि से आप ऐसा कहते हैं ? उत्तर - शरीर में सात भाग स्नेहायतन बताये गये हैं अर्थात् शरीर में सात भाग ऐसे हैं जहाँ पर पानी टिक सकता है, जैसे- (१) दोनों हाथ, (२) दोनों हाथों की रेखाएं, (३) नाखून, (४) नाखून के अग्रभाग, (५) दोनों भौंहें, (६) नीचे का ओष्ठ अर्थात् ढाढ़ी, (७) ऊपर का ओष्ट अर्थात् सूछें । जब निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनियों को ऐसा ज्ञात हो कि अब मेरे शरीर पानी का आप बिल्कुल नही रहा है तो उनको अशन, पान, खादिम और स्वादिम का आहार करना कल्लता है । आठसूक्ष्म मूल --- वासावासं पज्जोसवियाणं इह खलु निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाई अट्ठ सुहुमाई, जाई छउमत्येणं निग्गंथेण वा निग्गंथीए वा अभिक्खणं अभिक्खणं जाणियव्वाइं पासियव्वाइं पडिले हियव्वाइं भवति, तं० पाणसुहुमं पणगसुहुमं बीयसुहुमं, हरियसुहुमं पुप्फसुमं अंडसुहुमं लेणसुहुमं सिणेहसहुमं ।। २६५।। - अर्थ - यहाँ (निर्ग्रन्थ शासन में ) वर्षावास रहे हुए निर्ग्रन्थ और निग्रॅन्थिनियों को ये आठ सूक्ष्म जानने योग्य हैं । प्रत्येक छद्मस्थ निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थिनी को पुनः पुनः सम्यक् प्रकार से आठ सूक्ष्म जानने ( आगम से ) योग्य हैं, देखने (चक्षु से ) योग्य हैं - और सावधानी पूर्वक प्रतिलेखना करने योग्य हैं । जैसे कि - (१) प्राणसूक्ष्म, (२) पनक सूक्ष्म, (३) बीज सूक्ष्म, (४) हरित सूक्ष्म, (५) पुष्प सूक्ष्म, (६) अण्डसूक्ष्म (७) लयन सूक्ष्म, और (८) स्नेह सूक्ष्म । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० मल - से किं तं पाणहुमे ! पाणसुहुमे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहाकि, नीले, लोहिए, हालिद्द, सुकिले, अत्थि कुंथू अणुद्धरी नामं जा ठिया अचलमाणा छउमत्थाणं णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा नो चक्खुफासं हव्वमागच्छर, जा अनिया चलमाणा छउमत्थाणं चक्खुफासं हव्वमागच्छइ, जा छउमत्थेणं निग्गंथेण वा निग्गंथीए वा अभिक्खणं अभिक्खणं जाणियव्वा पासियव्वा पडिलेहियव्वा भवइ, से त्तं पाणसुहुमे १ ।। २६६ ॥ अर्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! वह प्राण सूक्ष्म क्या है ? मूल कल्पसूत्र उत्तर - प्राणसूक्ष्म अर्थात् अत्यन्त बारीक जो साधारण नेत्रों से न देखा जा सके, वैसे बेइन्द्रिय आदि सूक्ष्म प्राणी । प्राणसूक्ष्म के पाँच प्रकार बताये हैं । जैसे - ( १ ) कृष्ण रंग के सूक्ष्म प्राणी । ( २ ) नीले रंग के सूक्ष्म प्राणी, (३) लाल रंग के सूक्ष्म प्राणी, (४) पीले रंग के सूक्ष्म प्राणी, ( ५ ) श्वेत रग के सूक्ष्म प्राणी । अनुद्धरी कुंथुआ नामक सूक्ष्म प्राणी जो यदि स्थिर हो, चलता फिरता न हो, तो छद्मस्थ निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थिनी की दृष्टि में शीघ्र नहीं आ सकता । यदि वह स्थिर न हो, चलता फिरता हो तो छद्मस्थ निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनी को शीघ्र ही दृष्टि गोचर हो सकता है । अतः छद्मस्थ निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनी को पुनः पुनः उसे जानना चाहिए, देखना चाहिए, सावधानी से तल्लोनता पूर्वक प्रतिलेखना करनी चाहिए। यह प्राणसूक्ष्म की व्याख्या * से किं तं पणगसुहमे ? पणगसुहुमे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा - किण्हे नीले लोहिए हालिद े सुकिले, अस्थि पणगसुहुमे Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचारी : मिक्षाचरीकल्प : आठ सूक्ष्म ३४१ तद्दव्वसमाणवन्नए नामं पण्णत्ते, जे छउमत्थेणं निग्गंथेण वा निग्गंथीए वा जाव पडिलेहियव्वे भवति से तं पणगसुहुमे २ ॥ २६७॥ अर्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! वह पनक सूक्ष्म क्या है ? उत्तर - अत्यन्त बारीक जो साधारण नेत्रों से न देखी जा सके वैसी लीलन फूलन ( सेवाल ) पनक सूक्ष्म है । पनक सूक्ष्म के पाँच प्रकार बताये हैं, जैसे -- (१) कृष्ण पनक, (२) नीली पनक, (३) लाल पनक, (४) पीली पनक और ( ५ ) श्वेत पनक । तात्पर्य यह है कि लीलन - फूलन, फुगी या सेवाल, जो अत्यन्त बारीक होती है, वस्तु के साथ मिली होने के कारण, उस जैसे रंग की होती है, अत: वह शीघ्र दिखलाई नहीं देती है । अतएव छद्मस्थ निर्ग्रन्थ और निर्ग्रथिनी को सम्यक् प्रकार से जानना चाहिए, देखना चाहिए और उसकी प्रतिलेखना करना चाहिए। यह है पनक सूक्ष्म की व्याख्या । मूल : से किं तं बीयसुहुमे ? बीयसुहुमे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा - किण्हे जाव सुकिल्ले, अत्थि बीयसहुमे कण्णियासमाणवन्नए नामं पण्णत्ते, जे छउमत्थेणं निग्गंथेण वा निग्गंथीए वा जाव पडिलेहियव्वे भवइ, से त्तं बीयसुहुमे ३ ॥ २६८ ॥ अर्थ प्रश्न हे भगवन् ! बीज सूक्ष्म क्या है ? उत्तर - जो बीज साधारण नेत्रों से न देखा जा सके, वह बीज-सूक्ष्म हैं । वह बीजसूक्ष्म पाँच प्रकार का है, जैसे - ( १ ) श्याम बीज सूक्ष्म, (२) नीला बीज सूक्ष्म, (३) लाल बीज सूक्ष्म, (४) पीला बीज सूक्ष्म, (५) श्वेत बीज सूक्ष्म । लघु लघु कण के समान रंगवाला बीज सूक्ष्म कहा है । अर्थात् जिस रंग के अन्न के कण हो उसी रंग के बीज सूक्ष्म होते हैं । छद्मस्थ निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थनो को उन्हें बारम्बार जानना चाहिए, और प्रतिलेखना करनी चाहिए। यह बीज सूक्ष्म की व्याख्या हुई । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ मूल : से किं तं हरियसुहुमे ? हरियसुहुमे पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा-किण्हे जाव सुकिल्ले, अस्थि हरियसुहुमे पुढवीसमाणवन्नए, जे छउमत्येणं निग्गंथेण वा निग्गंथीण वा, अभिक्खणं अभिक्खणं जाणियव्वे जाव पडिलेहियब्वे भवइ,सेत्तं हरियसुहुमे ४॥२६६।। अर्थ-प्रश्न-हे भगवन् वह हरितसूक्ष्म क्या है ? उत्तर-हरित अर्थात् अभिनव उत्पन्न हुआ अत्यन्त बारीक नेत्रों से भी न निहारा जाग वैसा हरित । वह हरित सूक्ष्म पाँच प्रकार का कहा गया है । वह जैसे-(१) कृष्ण हरित सूक्ष्म, (२) नीला हरित सूक्ष्म, (३) लाल हरित सूक्ष्म, (४) पीला हरित सूक्ष्म, (५) श्वेत हरित सूक्ष्म । ये हरित सूक्ष्म पृथ्वी पर उत्पन्न होते हैं। जिस पृथ्वी का जैसा रंग होता है वैसा ही रग उस हरित सूक्ष्म का होता है । छमस्थ निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनी को उसे बारम्बार जानना, देखना और प्रतिलेखन करना चाहिए । यह हरित सूक्ष्म का कथन हुआ। मल: से किं तं पुप्फसुहुमे ? पुप्फसहुमे पंचविहे पन्नत्ते, तं जहाकिण्हे जाव सुकिल्ले, अत्थि पुप्फसहुमे रुक्खसमाणवन्ने नाम पन्नत्ते, जे छउमत्थेणं निग्गथेण वा निगंथीण वा अभिक्खणं अभिक्खणं जाणियव्वे जाव पडिलेहियव्वे भवति, से तं पुप्फसुहमे ५॥२७॥ अर्थ - प्रश्न-हे भगवन् ! वह पुष्पसूक्ष्म क्या है ? उत्तर-जो पुष्प अत्यन्त बारीक हो, साधारण नेत्रों से न निहारा जा सके । जैसे वट उदुम्बर आदि के फूल श्वास मात्र से जिनकी विराधना हो सकती है, वह पुष्पसूक्ष्म होता है। यह पुष्प सूक्ष्म पांच प्रकार का है- (१) Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचारी : मिक्षाचरी कल्प : पाठ सूक्ष्म कृष्ण पुष्प सूक्ष्म, (२) नीला पुष्प सूक्ष्म, (३) लाल पुष्प सूक्ष्म, (४) पीला पुष्प सूक्ष्म (५) श्वेत पुष्प सूक्ष्म । ये पुष्प सूक्ष्म जिस वृक्ष पर उत्पन्न होते हैं उस वृक्ष के रंग के सदृश रंग वाले होते है। छद्मस्थ निग्रन्थ या निर्गन्थिनी को उन्हें सम्यक् प्रकार जानना चाहिए, देखना चाहिए और प्रतिलेखन करना चाहिए । यह पुष्पसूक्ष्म की विवेचना हुई। मल: से किं तं अंडसहुमे ? अंडसहुमे पंचविहे पन्नत्ते, तं जहाउद्दसंडे उक्कलियंडे पिपीलियंडे हलियंडे हल्लोहलियंडे, जे छउमत्थेणं निग्गंथेण वा निग्गंथीण वा जाव पडिलेहियब्वे भवइ, से तं अंडसुहुमे ६ ॥२७१॥ अर्थ-प्रश्न-हे भगवन् वह अंड सूक्ष्म क्या है ? उत्तर-जो अण्डा अत्यन्त बारीक हो, आंखों से भी नहीं देखा जा सके वह अण्ड सूक्ष्म है । अण्डसूक्ष्म पांच प्रकार का है। जैसे (१) मधुमक्षिका आदि दंश देने वाले प्राणियों के अण्डे । (२) मकड़ी के अण्डे, (३) चींटियों के अण्डे (४) छिपकली के अण्डे, (५) काकोडा (गिरगिट) के अण्डे । छद्मस्थ निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनियों को, ये अण्डे सम्यक् प्रकार जानने चाहिए, देखने चाहिए और प्रतिलेखन करने चाहिए । यह अण्डसूक्ष्म की विवेचना हुई। मूल : से कि तं लेणसुहुमे ? लेणसुहुमे पंचविहे पन्नत्ते, तं जहाउत्तिंगलेणे भिंगुलेणे उज्जुए तालमूलए संवोकावट्टे नाम पंचमे, जे छउमत्येणं निग्गंथेण वा निग्गंथीए वा अभिक्खणं अभिक्खणं जाणियव्वे जाव पडिलेहियव्वे भवइ से तं लेणसुहमे ७ ॥२७२॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૪ अर्थ- प्रश्न - हे भगवन् लयन सूक्ष्म क्या है । उत्तर - लेण (लयन) अर्थात् बिल जो अत्यन्त बारीक होने से साधारण आंखों से देखा न जा सके, वह लयनसूक्ष्म है । लयनसूक्ष्म पाँच प्रकार का है, जैसे - गधेया आदि जीव अपने रहने हेतु पृथ्वी में जमीन को खोदकर बिल बनाते हैं वह उत्तिगण है । (२) पानी सूखने के पश्चात् जहाँ पर बड़ी-बड़ी दरारें पड़ गई हों उनमें जो बिल बनाये गये हों वह भिगुलेण है । (३) बिलभोण (४) ताड़ के मूल जैसी आकृतिवाला बिल जो ऊपर से संकुचित और अन्दर से विस्तृत होता है वह तालमूलक है । (५) शंख के सदृश आकृति वाला जो बिल होता है वह शंबूकावर्त है, जैसे भ्रमर के बिल । छद्मस्थ निम्र न्य और निर्ग्रन्थी को ये बिल बारम्बार जानने, देखने और प्रतिलेखना करने योग्य है । यह लेणसूक्ष्म की विवेचना हुई । मूल : से किं तं सिणेहसुदुमे ? सिणेहसुहुमे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा - उस्सा हिमए महिया करए हरतणुए, जे छउमत्थेणं निम्गंथेण वा निग्गथीण वा जाव पडिलेहियव्वे भवह, से त्तं सिणेह सुहुमे ८ ॥ २७३॥ अर्थ - प्रश्न - वह स्नेह सूक्ष्म क्या है ? उत्तर - स्नेह अर्थात् आर्द्रता, जो आर्द्रता शीघ्र ही दृष्टिगोचर न हो ( जसे - धुअर, ओले, बर्फ, ओस आदि ) वह स्नेह सूक्ष्म है । स्नेह सूक्ष्म पांच प्रकार का है। जैसे - (१) ओस, (२) हिम, (३) घूमस, (४) गडे, (५) हरतनु-भूमि से उठकर घास के अग्रभाग पर अवस्थित पानी की सूक्ष्म बूदें । astr निग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनियों को ये पाँच स्नेह सूक्ष्म अच्छी प्रकार जानने, देखने और प्रतिलेखन करने योग्य है । इस प्रकार यह आठ सूक्ष्मों की विवेचना हुई । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचारी : मिक्षाचरी कल्प ३४५ मल: वासवासं पज्जोसविए भिक्खु इच्छिज्जा गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा उवज्झायं वा थेरं वा पवत्ति वा गणिं वा गणहरं वा गणावच्छेययं वा जंवा पुरओ काउं विहरइ, कप्पइ से आपुच्छिउँ आयरियं जाव जं वा पुरओ काउ विहरइ-इच्छामि णं भंते ! तुब्भेहिं अब्भणुन्नाए समाणे गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ गाहावइकुलं भत्ताए वा जाव पविसित्तए वा, ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ गाहावइ कुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, से किमाहु भत्ते ! ? आयरिया पच्चवायं जाणंति ॥२७४॥ अर्थ-वर्षावास में रहे हए भिक्षु को आहार के लिए या पानी के लिए गृहस्थ के घर जाने की या प्रवेश करने की इच्छा हो तो आचार्य से, अथवा उपाध्याय से, अथवा स्थविर से, अथवा प्रवर्तक से, अथवा गणि से, अथवा गणधर से, अथवा गणावच्छेदक से, अथवा जिस किसो को प्रमुखमान कर विचरण करता हो, उससे बिना पूछे उसे इस प्रकार करना नहीं कल्पता है। आचार्य, अथवा उपाध्याय, अथवा स्थविर, अथवा प्रवर्तक, अथवा गणि अथवा गणधर अथवा गणावच्छेदक अथवा जिसको मुखिया करके विचरता है उससे पूछकर उसे जाना एवं प्रवेश करना कल्पता है। भिक्षु उन्हें इस प्रकार पूछता है- हे भगवन् ! आपकी आज्ञा प्राप्त होने पर मैं गृहपति के कुल की ओर आहार के लिए या पानी के लिए, जाने की एवं प्रवेश करने की इच्छो करता हूँ। इस प्रकार पूछने के पश्चात् जो वे अनुमति दें तो उस भिक्षु को गृहस्थ के कुल की ओर आहार के लिये या पानी के लिए निकलना अथवा प्रवेश करना कल्पता है। जो वे Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ པཿལ ་ ३४६ अनुमति न दें तो भिक्षु को आहार के लिए अथवा पानी के लिए गृहस्थ के कुल की ओर निकलना और उसमें प्रवेश करना नहीं कल्पता । प्रश्न - हे भगवन् ! आप ऐसा क्यों कहते हैं ? उत्तर - अनुमति देने में अथवा न देने में आचार्य प्रत्यवाय (विघ्न) आदि को जानते होते हैं । मूल : एवं विहारभूमिं वा वियारभूमिं वा अन्नं वा जं किं पि पयणं, एवं गामाणुगामं दुइज्जित्तए || २७५॥ अर्थ - इस प्रकार विहारभूमि की ओर जाने के लिए, अथवा विचार भूमि की ओर जाने के लिए, अथवा अन्य किसी भी प्रयोजन के लिए या एक गाँव से दूसरे गाँव जाना आदि सभी प्रवृत्तियों के लिए इसी प्रकार अनुमति प्राप्त करना चाहिए । मूल : वासावासं पज्जोसविए भिक्खु य इच्छिज्जा अन्नयरिं विग आहारितए नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेययं वा जं वा पुरओ कट्टु विहरइ, कप्पड़ से आपुच्छित्ता णं तं चेव-इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुन्नाए समाणे अन्नयरिं विगई आहारितए, तं एवइयं वा एवतिक्खुत्तो वा, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अन्नयरिं विगई आहारितए, ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ अन्नयरिं विगई आहरित्तए, से किमाहु ते !! आर्यारया पच्चवायं जाणंति || २७६॥ ? अर्थ - वर्षावास में रहा हुआ भिक्षु किसी भी एक विगय को खाने की इच्छा करे तो आचार्य से अथवा उपाध्याय से, स्थविर से, प्रवर्तक से, गणि से, Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचारी : भिक्षावरी कल्प ३४७ गणधर से, गणावच्छेदक से, अथवा जिसे भी प्रमुख मानकर विचरण करता हो उससे बिना पूछे उसे वैसा करना नहीं कल्पता है। आचार्य अथवा उपाध्याय, अथवा स्थविर, अथवा प्रवर्तक, गणि, गणधर, गणावच्छेदक अथवा जिस किसी को प्रमुख मानकर विचरण करता हो उससे पूछकर उसे इस प्रकार करना कल्पता है । भिक्षु उन्हें इस प्रकार पूछे- "हे भगवन् ! आपकी आज्ञा प्राप्त होने पर मैं कोई भी एक विगय को इतने प्रमाण में और इतनी बार खाना चाहता हूं।" इस प्रकार पूछने पर जो वे उसे अनुमति प्रदान करे तो इस प्रकार उस भिक्षु को कोई एक विगय खाना कल्पता है । जो वे उसे अनुमति प्रदान न करे तो उस भिक्षु को कोई भी एक विगय खाना नहीं कल्पता। प्रश्न- हे भगवन् ! आप इस प्रकार किसलिए कहते हैं ? उत्तर-आचार्य प्रत्यवाय को और अप्रत्यवाय को, अर्थात् हानि और लाभ को जानते होते हैं ।२९ मूल :-- वासावासं पज्जोसवियाणं भिक्खु य इच्छेज्जा अन्नयरिं तेइ छ आउट्टित्तए, त चेव सव्वं ॥२७७॥ अर्थ-वर्षावास में स्थित भिक्षु यदि किसी प्रकार की चिकित्सा करवाने की इच्छा करे तो इस सम्बन्ध में भी पूर्ववत् ही जानना चाहिए । मूल : वासावासं पज्जोसवियाणं भिक्खु य इच्छिज्जा अन्नयरं ओरालं तवोकम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, तं चेव सव्वं ॥२७८।। ___अर्थ-वर्षावास में रहा हुआ भिक्षु, कोई एक प्रकार का प्रशस्त, कल्याण कारी, उपद्रवों को दूर करने वाला, जीवन को धन्य करने वाला, मंगल करने वाला, सुशोभन, और बड़ा प्रभावशाली तपकर्म स्वीकार कर विचरने की इच्छा Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करे तो उस सम्बन्ध में भी पूर्ववत् ही कहना चाहिए । अर्थात् गुरुजनों की आज्ञा प्राप्त करके ही तप करना चाहिए । मुल: वासवासं पज्जोसविए भिक्खु य इच्छिज्जा अपच्छिममारणंतियसंलेहणाजूसणाभूसिए भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगए कालं अणवकखमाणे विहरत्तए वा निक्खमित्तएवा पविसित्तए वा, असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा आहारित्तए वा, उच्चारपासवणं वा परिहावित्तए सज्झायं वा करित्तए धम्मजागरियं वा जागरित्तए नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता तं चेव ॥२७६ ।। अर्थ-वर्षावास में रहे हुए भिक्षु को सबसे अन्तिम, मारणान्तिक संलेखना का आश्रय लेकर के उसके द्वारा शरीर को खपाने की वृत्ति से आहार पानी का त्याग करके, पादपोपगत (वृक्ष की तरह निश्चल) होकर मृत्यु की अभिलाषा नहीं रखते हुए विचरण करने को इच्छा करे और संलेखना की दृष्टि से गृहस्थ के कुल की ओर निकलने की और उसमें प्रवेश करने की इच्छा करे अथवा अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार की इच्छा करे अथवा मलसूत्र के परिस्थापन की इच्छा करे अथवा स्वाध्याय करने की इच्छा करे अथवा धर्म जागरण के साथ जागने की इच्छा करे तो यह सभी प्रवृत्ति भी आचार्य आदि से बिना पूछे करनी नहीं कल्पती है। इन सभी प्रवृत्तियों के सम्बन्ध में पूर्व प्रमाण ही कहना चाहिए । मूल : __ वासावासं पज्जोसविए भिक्खु य इच्छिज्जा वत्थं वा पडिग्गरं वा कंबलं वा पायपुछणं वा अन्नयरिं वा उवहिं आयावित्तए वा पयावित्तए वा, नो से कप्पइ एगंवा अणेगं वा अपडिण्णवित्ता गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचारी : मिक्षाचरी कल्प वा पविसित्तए वा असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा आहारित्तए, बहिया विहारभूमी वा वियारभूमि वा सज्झायं वा करित्तए, काउस्सग्गं वा ठाणं वा ठाइत्तए, अस्थि या इत्थ केइ अहासन्निहिए एगे वा अणेगे वा कप्पइ से एवं वदित्तए-इमं ता अजो ! तुमं मुहत्तगं जाणाहि जाव ताव अहं गाहावइकुलं जाव काउस्सग्गं वा ठाणं वा ठाइत्तए, से य से पडिमुणिज्जा एवं से कप्पइ गाहावइ तं चेव, से य से नो पडिसुणिजा एवं से नो कप्पड़ गाहावइकुलं जाव काउस्सग्गं वा ठाणं वा ठाइत्तए ॥२८॥ ____ अर्थ-वर्षावास में रहा हुआ भिक्षु वस्त्र को, पात्र को अथवा कम्बल को, अथवा पादप्रोच्छन को, अथवा अन्य किसी भी उपाधि को धूप में तपाने को इच्छा करे, अथवा धूप मे बारम्बार तपाने की इच्छा करे तो एक व्यक्ति को या अनेक व्यक्तियों को सम्यक् प्रकार से बताए बिना गृहपति के कुल की ओर आहार के लिए, अथवा पानी के लिए निकलना और प्रवेश करना नहीं कल्पता है। अथवा अशन, पान, खादिम और स्वादिम का आहार करना नहीं कल्पता, बाहर विहार भूमि अथवा विचार भूमि की ओर जाना नहीं कल्पता, अथवा स्वाध्याय करना, कायोत्सर्ग करना, या ध्यान के लिए अन्य आसन आदि से खड़ा रहना नहीं कल्पता। कोई एक अथवा अनेक साधु जो उपस्थित हों उनसे भिक्ष को इस प्रकार कहना चाहिए. हे आर्यो ! आप कुछ समय तक इधर ध्यान रखें जब तक कि मैं गृहपति के कुल की ओर जाकर आता हूं यावन् कायोत्सर्ग करके आता हूं अथवा ध्यान के लिए किसी आसन से खड़ा रहकर आता हूं। जो वे भिक्षुक की बात को स्वीकार करें और ध्यान रखने की स्वीकृति दें तो भिक्षुक को गृहपति के कुल की ओर आहार के लिए अथवा पानी के लिए निकलना और प्रवेश करना कल्पता है, यावत् कायोत्सर्ग करना, या ध्यान के लिए किसी आसन से खड़ा रहना कल्पता है । जो वे साधु या साध्वियां उस भिक्षु की बात Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्प-सूत्र ३५० स्वीकार न करें, अथवा ध्यान रखने की अस्वीकृति करें तो उस भिक्षु को गृहपति के कुल की ओर निकलना और प्रवेश करना नहीं कल्पता यावत् कायोत्सर्ग करना या ध्यान के लिए किसी आसन से खड़ा रहना नहीं कल्पता । विवेचन - प्रस्तुत विधान अध्काय के जीवों की विराधना न हो इत्यादि दृष्टि से किया गया है । धूप में वस्त्रों को सुखाकर यदि श्रमण आहारा दि के लिए बाहर चला गया या साधना-आराधना में तल्लीन हो गया, उस समय कदाचित् वर्षा आ जाय तब उसके वे वस्त्रादि आर्द्र हो जाएँगे । अतः प्रत्येक साधना करते समय अहिंसा और विवेक की दृष्टि रखना अतीव आवश्यक हैं । ० मूल : वासवासं पज्जोसवियाणं नो कप्पड़ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अणभिग्ग हियसेज्जासणियं होत्तए, आयाणमेतं, अणभि गहियसेज्जासणियस्सअणुच्चाकुइयस्स अणट्टाबंधिस्स अमियासणियस्स अणातावियरस असमियरस अभिक्खणं अभिक्खणं अप्पडिलेहणासीलस्स अप्पमज्जणासीलस्स तहा तहां णं संजमे दुराराहए भवइ, अणायाणमेतं, अभिग्गहियसेज्जासणियस्स उच्चाकुवियस्स अट्ठाबंधिस्स मियासणियस्स आयाविस्स समियस्स अभिक्खणं अभिक्खणं पडिलेहणासीलस्स पमज्जणासीलस्स तहा तहा णं संजमे सुआराहए भवइ ॥ २८९ ॥ अर्थ — वर्षावास में रहे हुए श्रमणों और श्रमणियों को शय्या और आसन का अभिग्रह किए बिना रहना नहीं कल्पता । इस प्रकार रहना आदान है, अर्थात् कर्मबन्ध या दोष का कारण है । जो श्रमण और श्रमणियां आसन का अभिग्रह नहीं करते, शय्या या आसन को जमीन से ऊंचा नहीं रखते तथा स्थिर नहीं रखते, बिना कारण ही Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचारो : भिक्षावरी कल्प ३५१ उन्हें बांधते रहते हैं, प्रमाण रहित आसन रखते हैं, आसन आदि को धूप दिखाते नहीं है, पांच समितियों में सावधानी नही रखते हैं, पुनः पुनः प्रतिलेखना नहीं करते हैं, प्रमार्जन करने में सावधानी नहीं रखते हैं, उनको संयम की आराधना करना कठिन होता है। यह आदान (दोष) नहीं है जो निग्रन्थ और निर्ग्रन्थी शय्या और आसन का अभिग्रह करते हैं, उनको ऊँचे और स्थिर रखते हैं, उनको प्रयोजन के बिना पुनः पुनः बांधते नही हैं, प्रमाण पुरस्सर आसन रखते हैं, शय्या और आसन को धूप दिखाते हैं, पांच समिति में सावधान रहते हैं, बारम्बार प्रतिलेखना करते हैं, प्रमार्जना करने में पूर्ण सावधानी रखते है, उनको संयम की आराधना करना सुगम है । मल: ___ वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गथीण वा तओ उच्चारपासवणभूमीश्रो पडिलेहित्तए न तहा हेमंतगिम्हासु जहा णं वासावासेसु, से किमाहु भंते !? वासावासएसु णं ओसन्नं पाणाय तणा य बीया य पणगा य हरियायणा य भंवति ॥२८॥ अर्थ-वर्षावास में रहे हुए श्रमण और श्रमणियों को शौच के लिए या लघुशंका के लिए तीन स्थानों की प्रतिलेखना करना कल्पता है। जिस प्रकार वर्षाऋतु में करने का होता है उस प्रकार हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में करने का नहीं होता। प्रश्न- हे भगवन् ! यह किस दृष्टि से कहा है ? उत्तर-वर्षाऋतु में प्रायः इन्द्रगोपादि लघुजीव, बीज पनक, (लीलनफूलन) और हरित ये सभी प्रायः बारम्बार होते रहते । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ मूल -- वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पड़ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तओ मत्तगाईं गिण्हित्तए, तंजहा - उच्चारमत्त ए पासवणमत्त खेलमत्तए || २८३ || कल्पसूत्र अर्थ - वर्षावास में रहे हुए श्रमणों और श्रमणियों को तीन पात्र ग्रहण करना कल्पता है । वे इस प्रकार ( १ ) शौच के लिए एक पात्र ( २ ) लघुशंका के लिए द्वितीय पात्र, (३) कफ आदि थूकने के लिए तृतीय पात्र । केश लुंचन मूल : वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पड़ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा परं पज्जोसवणाओ गोलोमप्पमाणमित्ते वि केसे तं स्यणि उवायणावित्त, पक्खिया आरोवणा, मासिते खुरमुडे अद्धमासिए कत्तरिमुडे, छम्मा सिए लोए, संवच्छरिए वा थेरकप्पे ॥२८४|| अर्थ - वर्षावास में रहे हुए निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थिनियों को सिर पर गाय के रोम जितने भी केश हों, तो इस प्रकार पर्युषणा के पश्चात् उस रात्रि को उल्लंघन करना नहीं कल्पता । अर्थात् वर्षाऋतु के बीस रात्रि सहित एक मास की अन्तिम रात्रि को गाय के रोम जितने भी केश शिर पर रखना नही कल्पता । अर्थात् इससे पहले ही केश लुंचन कर लेना चाहिए । पक्ष पक्ष में आरोपणा करनी चाहिए। एक एक माह से मुण्ड होना चाहिए। कैंची से मुण्ड होना चाहिए, लुचन से मुण्ड होने वाले चाहिए और स्थविरों को वार्षिक लोच करना चाहिए ।" उस्तरे से मुण्ड होने वाले को मुण्ड होने वाले को पन्द्रह दिन को छह मास से मुंड होना Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधारी : केश लुचन ३५३ विवेचन- हाथ से नोचकर बालों को निकालना केशलोच है। सभी तीर्थकर प्रव्रज्या ग्रहण करते समय अपने हाथ से पंचमुष्टि लोच करते हैं,३२ एतदर्थ यह परम्परा भगवान् ऋषभदेव से चली आ रही है । लोच उग्र तप है, कष्ट-सहिष्णुता की बड़ी-भारी कसौटी है। आचार्य हरिभद्र ने दशवकालिक वृत्ति में लोच को काय-क्लेश माना है, वह संसार विरक्ति का मुख्य कारण है। काय-क्लेश के वीरासन, उकडूआसन, और लोच मुख्य भेद हैं। तथा लोच करने से (१) निर्लेपता, (२) पश्चात् कर्म वर्जन, (३) पुरः कर्म वर्जन, (४) कष्ट सहिष्णुता ये चार गुण प्राप्त होते हैं। हां तो, प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि संवत्सरी के पूर्व लोच अवश्य करना चाहिए । लोच करने के कुछ हेतु चूणि और व्याख्या साहित्य; में इस प्रकार बताये गये हैं:-(१) केश होने से अप्काय के जीवों की हिंसा होती है। (२) भींगने से जुएं उत्पन्न होती हैं। (३) खुजलाता हुआ श्रमण उसका हनन कर देता है। (४) खुजलाने से सिर में नख-क्षत हो जाते हैं (५) यदि कोई मुनि क्षुर (उस्तरे) या कैंची से बालों को काटता है तो उसे आज्ञा भंग का दोष होता है । (६) ऐसा करने से संयम और आत्मा दोनों की विराधना होती है । (७) जुएँ मर जाती हैं। (८) नाई अपने उस्तरे और कैंची को सचित्त जल से साफ करता है, एतदर्थ पश्चात् कर्म दोष होता हैं। (8) जैन शासन की अवहेलना होती है। इन हेतुओं को संलक्ष्य में रखकर मुनि केशों को हाथ से नोंच डाले, यही उसके लिए श्रेयस्कर है। प्रस्तुत सूत्र में आपवादिक स्थिति का उल्लेख किया गया है, पर जैन धर्म के मर्म को समझने के लिए उत्सर्ग और अपवाद मार्ग को समझना आवश्यक है । आगमों के कितने ही विधान उत्सर्ग मार्ग के हैं और कितने ही विधान अपवाद मार्ग के हैं। अपवाद मार्ग के विधानों को जब कभी उत्सर्ग का रूप दे दिया जाता है, तब अर्थ का अनर्थ हो जाता है। श्रमण के लिए हाथ से केशलोच करना उत्सर्ग मार्ग है। उसके लिए अनिवार्य है कि वह लोच करे, पर रोगादि की विशेष परिस्थिति में अपवाद रूप से छुरा कैंची आदि अन्य साधन का भी उपयोग किया जा सकता है, परन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि वह उत्सर्ग मार्ग नहीं है। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ -- कठोर वाणी : क्षमापना मूल : वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गं थीण वा परं पज्जोसवणाओ अहिगरणं वदित्तए, जो णं निग्गंथो वा २ परं पज्जोसवणाओ अहिगरणं वयइ से णं अकप्पेणं अज्जो ! वयसी, ति वत्तव्वे सिया, जो णं निग्गंथो वा २ परं पज्जोसवणाओ अहिगरणं वयइ से णं निहियब्वे सिया ॥२८॥ अर्थ-वर्षावास में रहे हुए निर्ग्रन्थों और निम्रन्थिनियों को पर्युषणा के पश्चात् अधिकरण वाली वाणी अर्थात् हिसा असत्य आदि दोष से दूषित वाणी बोलना नहीं कल्पता है । जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थिनी पर्युषणा के पश्चात् ऐसौ अधिकरण वाली वाणी बोले उसे इस प्रकार कहना चाहिए-हे आर्य ! इस प्रकार की वाणी बोलने का आचार नहीं है। जो आप बोल रहे है वह अकन्प नीय है, आपका ऐसा आचार नही है। जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थिनी पर्युषणा के पश्चात् अधिकरण वाली वाणी बोलता है उसे गच्छ से बाहर कर देना चाहिए। विवेचन-अधिकरण वाली वाणी का प्रयोग साधु और साध्वी को यद्यपि पर्युषणा से पहले भी नही करना चाहिए मगर बाद मे तो करना ही नहीं चाहिए। पर्युषणा से पूर्व अधिकरण-वाणी का प्रयोग किया गया हो तो पर्युषणा के अवसर पर अध्यवसाय आदि की विशिष्ट निर्मलता होने से क्षमापना का प्रसंग सहजतया प्राप्त हो सकता है, किंतु पर्युषणा के बाद में वैसी निर्मलता का प्रसंग दुर्लभ होता है । सम्भवत: इसी विचार से यह विधान किया गया है । श्रमण-श्रमणी का कर्तव्य है कि जिस दिन ऐसी वाणी का प्रयोग हो जाय उसी दिन उसके लिए क्षमापना करले। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचारी : कठोर वाणी : समापना मल: वासावासं पज्जोसवियाणं इहखलु निग्गंथाण वा निग्गं थीण वा अज्जेवं कक्खडे कडुए बुग्गहे समुप्पज्जिज्जा सेहे राइणियं खामिज्जा, राइणिए वि सेहं खामिज्जा, खमियव्वं खमावेयव्वं, उपसमियव्वं उवसमावेयव्वं, सम्मुइसंपुच्छणाबहुलेणं होयव्वं, जो उवसमइ तस्स अत्थि आराहणा, जो न उवसमइ तस्स नत्थि आराहणा, तम्हा अप्पणा चेव उवसमियब्वं, से किमाहु भंते ! ? उवसमसारं खु सामण्णं ॥२८॥ अर्थ-निश्चय ही यहाँ पर वर्षावास रहे हुए निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थिनियों को आज ही पर्युषणा के दिन ही-कर्कश और कटुक क्लेश उत्पन्न हो तो शैक्ष-लघु श्रमण रात्निक गुरुजन श्रमणों को खमाले। और रात्निक (गुरुजन) भी शैक्ष को खमाले । खमना, खमाना, उपशमन करना, उपशमन करवाना, कलह के समय श्रमण को सन्मति रखकर सम्यक् प्रकार से परस्पर पृच्छा करने की विशेषता रखनी चाहिए। जो (कषायों का) उपशमन करता है, उसकी आराधना होती है और जो उपशमन नहीं करता है उसकी आराधना नहीं होती। अतः स्वयं को उपशम (शान्त) रखना चाहिए। प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा किसलिए कहा है ? उत्तर-श्रमणत्व का सार उपशम ही है, अतः ऐसा कहा है। विवेचन-श्रमण धर्म का सार उपशम है, क्षमा है। क्रोध, विग्रह आदि होना तो एक मानवीय दुर्बलता है, पर होने के बाद उसे मन में गाँठ बांध के रखना यह सबसे बड़ा आत्मिक दोष है। इसलिए यहां पर इसी बात पर बल दिया गया है कि पर्युषण के दिन, उससे पहले या बाद में भी जिस Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिन भी परस्पर में यदि कठोर, कटुक शब्दों से कलह हो गया हो, लड़ाई झगड़ा हो गया हो, तो लघु को तुरन्त ही बड़ों के पास जाकर विनयपूर्वक खमाना चाहिए और यदि बड़ों से कुछ भूल हुई हो तो उन्हें लघु को स्नेह पूर्वक खमाना चाहिए। मूल में 'खमियव्वं' खामियव्वं के द्वारा दो बातों का निर्देश किया है, दूसरों के कटुवचन आदि को स्वयं खमना-सहन करना चाहिए और अपने कटु वचन आदि को दूसरों को खमाना चाहिए । और स्वयं को उपशान्त करना चाहिए तथा दूसरों को भी उपशान्त कराना चाहिए। यदि सार्मिकों में परस्पर कलह शान्त नहीं होता है तो उससे उनके तप, नियम, ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय आदि ज्ञान-दर्शन चारित्र की हानि होती है संसार की वृद्धि होती है और लोकों में उनकी अप्रीति-अश्रद्धा उत्पन्न होती है। इसीलिए भगवान ने कहा है-श्रमण धर्म का सार उपशम–शान्ति है । परस्पर क्षमा याचना करने से आत्मा में प्रसन्नता की अनुभूति होती है । मूल: वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तओ उवस्सया गिण्हित्तए, वेउब्विया पडिलेहा साइज्जिया पमज्जणा ॥२८॥ अर्थ-वर्षावास में रहे हुए निग्रन्थों और निर्ग्रन्थिनियों को तीन उपाश्रय ग्रहण करना कल्पता है । तीन उपाश्रयों में से दो उपाश्रयों की प्रतिदिन सम्यकतया प्रतिलेखना करनी चाहिए और जिस उपाश्रय का उपयोग किया जाता है उसकी प्रमार्जना करनी चाहिए । विवेचन-वर्षावास में जीवों की उत्पति अधिक मात्रा में होती है। संभव है जिस स्थान में श्रमण अवस्थित है, उस स्थान पर जीवों की उत्पत्ति हो गई तो वह जिन दो अन्य स्थानों का अवग्रह लेकर रखता है उसमें जा Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचारी : कठोर वाणी : क्षमापना सकता है । यदि वर्षावास से पूर्व अवग्रह नहीं लेता है, तो वर्षावास में अन्य स्थान पर रात्रि निवास नही कर सकता, अतः तीन मकानों का विधान किया है। और साथ ही उनकी प्रतिलेखना करने का भी । प्रतिलेखन के समय का सूचन समय बाहर जाने पर, पूर्वाह्न में एक बार अवश्य प्रतिलेखना करनी । करते हुए चूर्णिकार ने कहा है, भिक्षा के या सायंकाल (तालियं) तक दिन में चाहिए 134 मूल : ३५० वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गं थी वा अन्नयरिं दिसं वा अणुदिसं वा अवगिज्झिय भत्तपाणं गवेत्ति से किमाहु भंते ! ? ओसन्नं समणा वासासु तवसंपउत्ता भवति, तवस्सी दुब्बले किलंते मुच्छिज्ज वा पवडिज्ज वा तामेव दिसं वा अणुदिसं वा समणा भगवंतो पडिजागरंति ॥२८८॥ अर्थ - वर्षावास में रहे हुए निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनियों को किसी एक निश्चित दिशा को या विदिशा को उद्देश्य कर भक्त पान के लिए गवेषणा करने के लिए जाना कल्पता है । प्रश्न - हे भगवन ! ऐसा किसलिए कहा है ? उत्तर— श्रमण भगवान् वर्षाऋतु में अधिकतर तप में सम्यक् प्रकार से संलग्न होते हैं । तपस्वी तन से दुर्बल और थके हुए होते हैं । कदाचित् वे मार्ग में मूर्च्छा को प्राप्त हो जाएं या गिर जाएँ तो यदि वे एक निश्चित दिशा या विदिशा में गये हों तो उस ओर श्रमण भगवान् तपस्वी की खोज कर सकते हैं । मूल : वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गं Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थीण वा जाव चत्तारि पंच जोयणाइ गंतु पडियत्त ए, अंतरा वि से कप्पइ वत्थए, नो से कप्पइ तं रयणि तत्थेव उवायणावित्तए ॥२८॥ अर्थ-वर्षावास में रहे हुए निर्ग्रन्थ या निग्रन्थिनियों को ग्लान या रुग्ण (सेवा, औषधि आदि) के कारण यावत् चार या पांच योजन तक जाकर के पुनः लौटना कल्पता है । अथवा इतनी मर्यादा के अन्दर रहना भी कल्पता है, परन्तु जिस कार्य के लिए जिस दिन जहाँ पर गये हों, वहां का कार्य पूर्ण करने के पश्चात वहाँ से शीघ्र ही निकल जाना चाहिए। वहाँ पर रात्रि व्यतीत नहीं करनी चाहिए, अर्थात् रात्रि तो अपने स्थान पर ही आकर बितानी चाहिए। - • उपसंहार मूल : इच्चेयं संवच्छरियं थेरकप्पं अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्चं सम्मं कारणं फासित्ता पालित्ता सोभित्ता तीरित्ता किट्टित्ता आराहित्ता आणाए अणुपालित्ता अत्थेगइया समणा णिग्गंथा तेणेव भवग्गहणेणं सिझति बुझति मुच्चंति परिनिव्वायंति सब्बदुक्खाणमंतंकरेंति, अत्थेगइया दोच्चेणं भवग्गहणणं सिझति जाव सव्वदुक्खाणमंतंकरेंति, अत्थेगइया तच्चेणं भवग्गहणेणं जाव अंत करेंति, सत्तट्ट भवग्गहणाइं नाइक्कमंति ॥२६॥ अर्थ इस प्रकार के इस स्थविरकल्प को सूत्र के कथनानुसार कल्पआचार की मर्यादा के अनुसार, धर्म मार्ग के कथनानुसार, यथार्थ रूप से शरीर के द्वारा स्पर्ण कर-आचरण करके, सम्यक् प्रकार से पालन कर, शुद्ध कर अथवा Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचारी : उपसहार २५६ शुशोभन प्रकार से दिपाकर के, किनारे तक लेजाकर के, जीवन के अन्त तक पालन करके, दूसरों को समझाकर के, अच्छी तरह से आराधना करके और भगवान् की आज्ञा के अनुसार पालन करके, कितने ही श्रमण निग्रंथ उसी भव में सिद्ध , बुद्ध मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं । और सर्व दुःखों का अन्त करते हैं। कितने ही श्रमण द्वितीय भव में सिद्ध होते हैं, कोई-कोई श्रमण तीसरे भव में सिद्ध होते हैं यावत् सर्वदुःखों का अन्त करते हैं। वे सात आठ भव से अधिक तो संसार में परिभ्रमण करते ही नहीं है। अर्थात् अधिक से अधिक सात-आठ भवों में अवश्य सिद्ध होते हैं यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं । मूल : तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे रायगिहे नगरे गुणसिलए चेहए बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं बहूणं देवाणं वहणं देवीणं मज्भगए चेव एवमाइक्खइ एवं भासइ एवं पण्णवेइ एव परुवेइ पज्जोसवणाकप्पो नाम ऽज्झयणं सअह महेउयं सकारणं मसुत्तं समत्थं सउभयं सवागरणं भुज्जो मुज्जो उवदंसेइ, त्ति बेमि ॥२६१॥ पज्जोसवणा कप्पो सम्मत्तो। अमज्झयणं सम्मत्तं ॥ अर्थ—उस काल उस समय राजगृह नगर के गुणशिलक चैत्य में बहुत श्रमणों के, बहुत श्रमणियों के, बहुत श्रावकों के, बहुत श्राविकाओ के बहुत देवों के और बहत देवियों के मध्य में विराजमान श्रमण भगवान महावीर इस प्रकार कहते है, इस प्रकार भाषण करते हैं, इस प्रकार बताते हैं, इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं और पज्जोसवणाकप्प को अर्थात् पर्युपशमन के आचार प्रधान क्षमाप्रधान आचार नामक अध्ययन को अर्थ के साथ, हेतु के साथ, कारण के Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ, सूत्र के साथ, अर्थ के साथ, सूत्र और अर्थ दोनों के साथ स्पष्टीकरण पूर्वक बारम्बार दिखाते हैं, समझाते हैं, ऐसा में कहता हूँ।" पज्जोसवणा कप्प समाप्त हुआ । आठवां अध्ययन समाप्त हुआ। ॥ श्री क ल्प सूत्र स मा प्त ॥ COM o o hoYAN Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कल्प सूत्र AmmmmmmmmmAAMAN परिशिष्ट (श्री कल्पसूत्र-विवेचन के अन्तर्गत सूचित विशेष टिप्पण एवं ग्रन्थ-सन्दर्भ) Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A C . DaaS VANN Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट [ उपकमान्तर्गत टिप्पणानि ] १. यज्जानशीलतपसामुपग्रहं च दोषाणाम् । कल्पयति निश्चये यत्तत्कल्प्यमवशेषम् । -प्रशमरति प्रकरण १४३ कल्पशब्देन साधूना-माचारोऽत्र प्रकथ्यते। -पर्युषणा कल्पसूत्रम्-केशर मुनि पृ० १ ३. (क, आचेलक्कु १ देसिय २ सिज्जायर ३ रायपिंड ४ किइकम्मे ५ । वय ६ जेट्र७ पडिक्कमणे ८ मासंह पज्जोसवणकप्पे १० । -आवश्यक नियुक्ति मलयगिरिवृत्ति मे उद्धृत ५० १२१ (ख) प० कल्याण विजय जी ने श्रमण भगवान् महावीर पृ० ३३६ मे कल्पनियुक्ति की प्रस्तुत ___गाथा उद्धृत की है। (ग) कल्पमूत्र कल्पलता, समयसुन्दर गणी गा० १.पन्ना २ मे उद्धृत (घ) कल्पसूत्र कल्पद्र म कलिका पन्ना २ में उद्धृत () कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी पृ० २ (च) कल्पसूत्र, मणिसागर गा० ५ पृ० ६ मे उद्धृत (छ) प्रस्तुत गाथा दिगम्बर ग्रन्थ भगवती आराधना मे उधृत है। -पृ०१८१ गा. ४२७ (ज) निशीय भाष्य-गाथा ५६३३, भाग ४, पृ० १८७ (झ) बृहत्कल्प भाष्य-गाथा ६३६४ ४ आप्टे संस्कृत-इंग्लिश-डिक्शनरी, भाग १, पृ० १ ५. अबेल :- अल्पचेल' --आचाराग टीका, पत्र-२२१-२ ६ लघुत्वजीर्णत्वादिना खेलानि वस्त्राण्यस्येत्येवमचेलकः । -उत्तराध्ययन बृहत् वृत्ति, पत्र० ३५९१ ७. (क) श्वेतमानोपेतवस्त्रधारित्वेन अचेलकत्वमपि । -कल्पसूत्र सुबोषिका, टीका पत्र० ३, विनय वि० (ख) "अचेलत्वं" श्री आदिनाथ-महावीरसाधूनां वस्त्रं मानप्रमाणसहितं जीर्णप्रायं षवलं च कल्पते । ___ श्री अजितादिद्वाविशती तीर्थ करसाधूनां तु पञ्चवर्णम् । -कल्पसूत्र, कल्पलता पन्ना २।१ समयसुन्दर (ग) “अचेलत्वम्" मानोपेत धवलवस्त्रं धारयन्ति । -कल्पद्र म कलिका १, पृ० २०१ ८. (क) विशेषावश्यक भाष्य-भाषान्तर भाग १, पृ० १२, प्रकाशक आगमोदय समिति, आवृत्ति १, (ख) जिणकप्पिया उ दुविधा, पाणीपाता पडिम्गहवरा य । पाउरणमपाउरणा, एक्केक्का ते भवे दुविधा ।। -निशीथ भाष्य, गाथा १३६०, भा० २ पृ० १८८ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. बाबेलुक्को धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिस । मज्झिमगाण जिणाणं होइ सचेलो अबेलो य॥ -कल्पसमर्थन गाथा ३, पृ० १ १०. "बालकक" ति आचेलक्यं (अचेलकत्वं) वस्त्र रहितत्त्वं, तत्र प्रथमान्तिमजिनतीर्थे सर्वेषां साधूनां श्वेतमानीपेतजीर्णप्रायतुच्छ (अल्पमूल्य) वस्त्रधारित्वेनाचेलकत्वं । -कल्पार्थ बोधिनी पृ० १ ११. अचेलगो य जो धम्मो, जो इमो संतस्तरो। देसिओ वद्धमाणेण, पासेण य महामुणी ।। एगकज्जपवन्नाणं, विसेसे किन्नु कारण । लिंगे दुविहे मेहावी, कहं विप्पच्चओ न ते ? ---उत्तरा० अ० २३, गा० २६॥३. १२. उत्तराध्ययन अध्य० २३, गा० ३१-३२-३३ १३. सव्वे वि एग दूसेण णिग्गया जिणवरा चउवीसं-समवायाग १३. A (क) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति (ख) कल्पसूत्र (ग) तहवि गहिएगवत्था, सवत्थतित्थोबए सणत्यति । अभिनिक्खमंति सब्बे, तम्मि तुएऽचेलया होति ।। -विशेषावश्यक भाष्य गा० २५८३ १०३०७ द्वि० भा० (घ) त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र देखें १४. जो चेविमेण वत्येण पिहिस्सामि तंसि हेमंते से पारए आवकहाए, एयं खु अणुधम्मिय तस्स संवच्छरं साहियं मासं जं न रिक्कासि बत्यगं भगवं अचेलए तो चाइ तं वोसिज्ज वत्थमणगारे । -आचाराग १११ १५. (क) भगवती सूत्र शतक ८, उद्दे० ८, पृ० १६१ (ख) उत्तराध्ययन अध्ययन-२ (ग) समवायाङ्ग २२, (घ) तत्त्वार्थ सूत्र ३० ६ सूत्र०६ १६. (क) उत्तराध्ययन अ० २, गा० १२-१३ (ख) प्रवचन सारोदार वृत्ति पत्र १९३ १७. (क) उद्दिस्स कज्जइ तं उद्देसियं, साधुनिमित्तं आरंभो ति वुत्तं भवति । -दशवकालिक, जिनदास चूणि पृ० १११ (ख) उद्देसितं जं उद्दिस्सं कज्जति -दशवकालिक, अगस्त्यसिंह चूणि । (ग) 'उद्देसियं' ति उद्देशनं सावाद्याश्रित्यदानारम्भस्येत्युद्देशः तत्र भवमोदेशिकं । -पर्वकालिक, हारिभद्रीया टीका ५० ११६ १८. दशवकालिक अ० ५॥११५१-५२ १६. (क) संघादुद्देसेणं ओघाइहिं, समणाइ अहिगच्च । कडमिह सव्वेसि थिय न कप्पई पुरिमचरिमाणं ॥ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मज्झिमाणं तु इमं जं कडमुद्दिस्स तस्स चेव त्ति । नो कप्पर सेसाण उ, कप्पर तं एस मेर ति ।। (ख) कल्पसूत्र, कल्पद्र ुम कलिका पृ० २।१ (ग) कल्पसूत्र, कल्पलता टीका १० २।१ (घ) कल्पसूत्र, कल्पार्थबोधिनी २०. दशर्वकालिक ५११५५६, ४८-४९ ८ २३ २१. प्रश्नव्याकरण, सम्वरद्वार, ११५ २२. सूत्रकृताङ्ग ११६ ११४ २३. उत्तराध्ययन २०१४७ २४. आचारांग अ० २राउ६० ६ २५. भगवती, शतक १ उद्दे० ६ २६. जे नियाग ममायाति कीय मुद्देसियाह । वहं ते समणुजाणति, इइ वृत्त महेसिणा प्रश्नव्याकरण, संबर द्वार - २१५ २७ २८. तत्थ वसहीए साहुणो ठिता ते वि सारक्खिउ तरति । तेण सेज्जादाणेण भव समुद्रतरति त्ति सिज्ज तरो ॥ ३० सेज्जातरो पभू वा, पभुसंदिट्ठो व होतिकातव्वो । ३१. निशीथ भाष्य गा० ११४६-४७ चूणि - निशीय भाष्य पृ० १३१ १६. ( क ) सेज्जा वसती, स पुण सेज्जादाणेण संसार तरति सेज्जातरी, तस्स भिक्खा सेज्जातर पिड़ो । - दशवेकालिक, अगस्त्यसिंह चूर्णि (ख) आश्रयोऽभिधीयते, तेण उ तस्स य दाणेण साहूण ससारतरतीति सेज्जातरो तस्स पिंडो, - दशवैकालिक, जिनदास चूर्णि पृ० ११३ भिक्खत्ति वृत्तं भवइ (ग) शय्या - वसतिस्तया तरति संसार इति शय्यातरःसाधुवसतिदाता तत्पिण्डः । -कल्पसमर्थन गा० ४ - ५ पन्ना १ ३२. जत्य राउट्टिता तत्येव सुस्ता तत्थेव चरमावस्य कयं तो सेज्जातरो भवति ॥ ३३. दुविह चउठिवह छउव्विह, अट्ठविहो होतिबार मविधोवा । सेज्जातरस्स पिण्डो, तव्वतिरित्तो अपिंडो उ ॥ ३४. सागरियं च पिंड च तं विज्जं परिजाजिया । ३५. ' सागारिकः " शय्यातरस्तस्य पिण्डम् - आहारं । ३६. (क) मुद्धाभिसितस्स रण्णो भिक्खा रायपिण्डो । - दशवेकालिक ६।४८ --- - दशर्वकालिक, हारिभद्रीया टीका प० ११७ - निशीय भाष्य, गा० ११४४ 1 - निशीथ भाष्य गा० ११४८ चूर्णि - निशीथ भाष्य गा० ११५१ चूर्णि - सूत्रकृताङ्ग ११९११६ - सूत्रकृताङ्ग १।६।१६ टीका प० १८१ दशर्वकालिक, अगस्त्यसिह चूर्णि Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) मुदाभिसित्तरणो......"पिंड:-राजपिंड। -दशवकालिक, जिनदास चूणि पृ० ११२-११३ (ग) मुदियाइगुणो राया अट्टविहो तस्स होइ पिंहुत्ति, पुरिमेअराण एसो वाधायाईहिं पडिकुट्ठो। -कल्पसमर्थनम्-गा०६, पृ०१ (घ) “राजपिण्डः" राजा- छत्रधरः, तस्य पिण्ड । -कल्पसूत्र, कल्पलता, ४, पृ. २, समयसुन्दर (3.) "रायपिंड" ति राजपिण्डः, तत्र राजा-छत्रधरः सेनापति-पुरोहित-श्रेष्ठ्य-मात्य-सार्थबाहरूपैः पञ्चभिलक्षण युतोमू भिषिक्तस्तस्य अशनादिचतुर्विध आहारो वस्त्र पात्रं कबलं रजोहरणं चेत्यष्टविध. पिण्डः ................" -कल्पार्थबोधिनी ४, पृ०२ ३७. निशीय भाष्य गा० २४६७ चूर्णि ३८. (क) अतोसो रायपिण्डो गेहिपडिसेहणत्थं एषणा रक्खणत्थं च न कप्पइ । -दशवकालिक जिनदाए चूणि पृ०११२-११३ (ख) ...""एषणा रक्खणाए एतेसि अणातिण्णो। -दशवकालिक, अगस्त्यमिह चूणि ३६ निशोथ ९ | १ | २ ४०. (क) निर्गच्छदागच्छत्सामन्तादिभि. स्वाध्यायस्य अपशकुनबुद्ध या शरीरादेश्च व्याघातसम्भवात्खाद्यलोभलघुत्व-निन्दादिबहुदोष सम्भवाच्च... .... -कल्पार्थबोधिनी, कल्प ४ ५०२ -कल्पसमर्थन गा० १०प०१ ४१. निशीयभाष्य गा० २५०३-२५१० ४२. दशकालिक ३ | ३ १३ श्री आदिनाथ महावीर साधूना न कल्पते । अजितादि २२ तीर्थ कर साधूना तु कल्पते । -कल्पसूत्र कल्पलता टोका (ख) श्री आदीश्वर-महावीरयो माघूनामेव न कल्पते । द्वाविंशतितीर्थ कर माधना तु कल्पते । -कल्पपद्रुम कलिका पृ०२ १४. (क) असणाईण चउक्क, वत्थ तह पत्त पायछणए । निवपिंडम्मि न कप्पइ, पुरिमातिमजिणजईण तु ॥ -कल्पसमर्थनम् गा० ११ १०२ (ख) कल्पार्थ प्रबोधिनी टीका मे भी प्रस्तुत गाथा उद्धृत है। ४५. (क) किइकम्मपि य दुविहं, अग्भुट्ठाणं तहेव वदणयं । समणेहि समणीहिं य, जहारिह होइ कायव्यं ॥ -कल्पसमर्थनम-गा० १२ १०२ (ख) "कियकम्मे" कृतकर्म लघुना साधुना वृद्धम्य साधोश्चरणयोर्वन्दनकानिदातव्यानि । -कल्पद् म कलिका टीका ५०२ (ग) निशीथ चूणि द्वि० भा० पृ० १८७ ४६. सव्वाहि संजईहिं किइकम्मं संजयाण कायव्वं । पुरिसत्तमुक्ति धम्मो सव्वजिणाणपि तित्थेसु॥ -कल्पसर्थनम् गा० १३ ४७. हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेम्यो विरतिव्रतम् -तत्त्वार्थ सूत्र ७१ ४८ अकरणं निवृत्तिरुपरमो विरतिरित्यनन्तरम् । -तस्वार्थ मूत्र ७१|भाष्य Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. तस्वार्थ सूत्र ७|१| भाष्य टीका ५०. चाउज्जामो य जो धम्मो, जो इमो पंचसिक्लिओ । देसिओ बद्धमाणेण पासेण य एगज्जपवन्नाणं, विसेसे किं नु धम्मे दुबिहे मेहावि, कह विप्पञ्चओ न ते ॥ उत्तराध्ययन अ० २३, गा० २५ से २७ महामुनी ॥ कारण । ५१ ५२. पंचम खलु धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । मज्झिमगाण जिणाण, चउव्वओ होइ विन्नेओ || नो अपरिग्गहियाए, इत्थीए जेण होइ परिभोगो । ता तब्बिरई इच्चिम, अबंभविरइति पन्नाण || ५३. वरिससयदिक्खिआए, अज्जाए अज्जदिक्खिओ साहू | अभिगमणवदणनमसणेण विणएण सो पुज्जो ॥ - उत्तराध्ययन अ० २३ गा० २३-२४ --- - कल्पसमर्थनम् गा० १४ १५ १० २ ५७. मिच्छत्त- पडिक्कमणं, तहेब असंजमे य पडिक्कमण । कसायाणं पडिक्कमणं, जोगाण य अप्पसत्याणं ॥ ५८. सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । मज्झिमाण जिजाणं, कारणजाए पडिक्कमणं ॥ ५६. देवसिय, राइय, पक्खिय, चउमासिय वच्छरिय नामाओ । दुहं पण पडिक्कमणा, मज्झिमगाणं तु दो पढमा ॥ - कल्पलता टीका मे उद्घृत गाथा ५४. (क) उवठावणाई जिट्ठो, विन्तेओ पुरिमपच्छिमजिणाण । पव्वज्जाए उ तहा, मज्झिमगाणं निरइयारो ॥ - कल्पसमर्थनम् गा० १७५० २ (ख) श्री आदीश्वर - महावीरयोः साधूना दीक्षाद्वयं भवति एका लघ्वी दीक्षा, अपरा वृहती दीक्षा भवति । लघुत्वम् वृद्धत्वं च वृहद्दीक्षया गण्यते । द्वाविशति तीर्थंकर साधूना तु दीक्षाया भवन्त्या सत्यामेव लघुत्वम् वृद्धत्वं गण्यते एष ज्येष्ठ कल्प उच्यते । - कल्पद्र म कलिका, टीका प० २१३ ५५. कल्पसूत्रकल्पार्थं बोधिनी टीका प० २ ५६. (क) स्वस्थानाद् यत्परस्थान, प्रमादस्य वशाद्गतः । तत्रैव क्रमण भूयः, प्रतिक्रमण मुच्यते ॥ - आवश्यक, सूत्र हरिभद्र टीका में उद्धृत पृ० ५५३ | १ (ख) प्रतीप क्रमणं प्रतिक्रमणम्, अयमर्थः -- शुभयोगेभ्योऽशुभयोगान्तरं क्रान्तस्य शुभेषु एव क्रमणाप्रतीप क्रमणम् । - योगशास्त्र, तृतीय प्रकाश, स्वोपज्ञवृत्ति 1 - आवश्यक नियुक्ति गा० १२५० - आवश्यक नियुक्ति, गा० १२४४ सप्तति स्थानक ६०. पुरिम पच्छिम एहि उभओ कालं पडिक्कमितव्वं इरियावहियमागतेहि उच्चारपासवण आहारादीन वा विवेगं - काउण, पदोसपबूसेसु, अतियारो हो तु वा मा वा तहाबस्सं पविकमितव्वं एते हि चेव ठाणेहिं । मज्झिमगाणं तित्थे जदि अतियारो अस्थि तो दिवस हो तु रती वा, पुव्यच्हो, Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 請 अवरहो महो, पुव्वरत्तोवरत वा अड्ढरत्तो वा ताहे वेब पडिक्कमन्ति । नत्थि तो न पडिक्कमन्ति, जेण असढा पण्णावन्ता परिमाणगा न य पमादबहुला, तेण तेसि एवं भवति । - आवश्यक पूर्णि, जिनदास गणी ६१. कप्पद निम्गंथाणं वा निग्गथीणं वा, हेमंत गिम्हासु चारए । ६२ भारंडपक्खी व चरेऽप्पमत्ते | - वृहत्कल्प भाष्य भाग १।३६ - उत्तराध्ययन अ० ४, गा० ६ ६३. संवच्छर इति कालपरिमाणं । तं पुण णेह वारसमासिगं संवज्झति किन्तु वरिसा रक्त चातुर्मासितं । - दशवेकालिक, अगस्त्य सिंह चूर्णि स एव जेोग्गहो । ६४. वृहत्कल्पभाष्य भाग १।३६ ६५ बृहत् कल्पभाष्य भाग १।६।७।८ ६६. संवच्छरं चावि परं पमाणं; बीयं च वासं न तहि वसेज्जा ।। सुत्तस्स मग्गेण चरेज्ज भिक्खू, सुत्तस्स अत्यो जइ आणवेइ ॥ - दशर्वकालिक द्वि० चूलिका गा० ११ जतो भणितं तदुगुणं, दुगणेण अपरि- दशवेकालिक, अगस्त्यसिह चूर्णि ६७. बितियं च वासं वितियं ततो अनंतरं च सद्देण ततियमवि हरिता ण बट्टति । ततिय च परिहरिऊण चउत्थंहोज्जा । ६८. (क) पुरिमंतिमतित्थगराण, मासकप्पो ठिओ मुणेयव्वो । afreeगाण जिणाणं, अट्ठियओ एस विन्नेओ ॥ (ख) "मासकल्पः " श्री आदिनाथमहावीरसाधुभिः शेषकाले द्वाविंशति तीर्थंकर साधुभिस्तु न मासकल्पः क्रियते (ग) कल्पसूत्र कल्पार्थं बोधिनी टीका, प० २।३ (घ) कल्पसूत्र सुबोधिका टीका, व्याख्यान १ (ड) कल्पसूत्र कल्पद्र ुम कलिका टीका प० ३।१ कल्पार्थ बोधिनी, टोका १० ३।१ - कल्पसमर्थनम् गा० १६ १०२ अष्टमासेषु मासकल्प क्रियते । - कल्पसूत्र, कल्पलता टीका, ६९ समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे वक्कते सत्तरिएहिराइ दिएहि सेसेहि वासावस पज्जोसवेइ | - समवायाङ्ग ७० वा समवाय, पृ० ५०१ (ख) तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महाबीरे वासाणं सवीसइराए मासे बिइक्कंते वासावास पज्जोसवेद्द । - कल्पसूत्र सू० २२४ पृ० ६६ पुण्यविजयजी ७० कल्पसूत्र, ७१ कल्पसूत्र नियुक्ति, १-२ ७२. कल्पसूत्र नियुक्ति चूर्ण १६ ७३. कप्पइ पंचहि ठाणेह णिगंथाणं निम्मंषीणं पढमपाउसंसि गामाणुम्मामं वइज्जत्तए तं मागट्टयाए, दसण्या, चरितट्टयाए, आयरियउवज्झायाणं वा से विसु भेज्जा यायरिम उवज्झायाणं वा वहिया वेयावच्च करणाए । स्थानाङ्ग सूत्र, ५ वां ठाणा Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४. (क) कल्पलता व्याख्यान १५० २१३ (ख) तत्थ अपत्ते इमे कारणा राया कुयू सप्पे, अगणिगिलाणे य थंडिलस्सऽसती । एएहि कारणेहि, अप्पत्ते होइ गिग्गमणं ।। -निशीथ भाष्य गा०३१५८ राया दुट्ठो सप्पो वा वसहिं पविट्ठो, कुंथूहि वा वसही संसता, अगणिणा वा वसही दड्ढा, गिलाणस्स पडिचरणट्टा, गिलाणस्स वा ओसहहेउ, थंडिलस्स वा असतीते, एतेहि कारणेहि अप्पते चउपाडिवए णिग्गमणं भवति । -निशीथ चूणि ३१५८ तृ० भा० पृ० १३२ ७५ (क) वासं वा नोबरमइ, पथा वा दुग्गमा सचिखिल्ला। एएहिं कारणेहिं, अइकते होइऽ निग्गमण ॥ -कल्पसमर्थनम् गा० २६ पृ०२ ख) अथ च कदाचित-चतुर्मास्युत्तारेऽपि वर्षा न विरमति मार्गा वा दुर्गमाभग्नाभवन्ति, चिखिल्लं वा प्रभूतं स्यात् तदा अधिकमपि तिष्ठेत् न दोष. । कल्प० कल्पलता टीका, समयसुन्दर प० ३११ (ग) निशीथ भाष्य तृ० मा० पृ० १३३ ७६. (क) चिक्खलपाण थंडिल, वसही गोरमजणाउलेविज्जे । ओसह निचया हिवई, पामडा भिक्खसज्झाए ।। ~~कल्पसमर्थनम् गा० ३६ पृ०३ (ख) कल्प० कल्पद्र म कलिका टीका मे उद्धृत ५० ५ (ग) कल्प० कल्पलता पृ०५ मे उद्धृत ७७ दोसासइ मज्झिमगा, अच्छति अ जाव पुग्योडीवि । ? इहग उ न मासपि हु एव खु विदेहजिणकप्पी ॥ -कल्पसमर्थनम् गा०प०२ ७८ (क) ....."शेषेषु चाचेलक्यादिषु षट्सु अस्थितास्तत्कल्पोऽस्थितकल्प उक्तं च "ठिय अट्टितो य कप्पो, आवेलक्काइएसु ठाणेसु । सव्वेसु ठिया पढमो, चउठिय छसु अट्टिया बीओ।। -आवश्यक नियुक्ति, मलयगिरिवृत्ति मे उद्धृत १२१ (ख) आचेलवकुद्देसिय, पडिकमणे रापिड मासेसु । पज्जुसणाकप्पम्मि य अट्ठियकप्पो मुणेयन्वो ॥ -कल्पसमर्थनम् गा० २६ पृ०२ (ग) कल्पद्रुम कलिका पृ० ३ ७६. (क) सेन्जायरपिंडमी, चाउज्जामे य पुरिस जेट्टे य । किइकम्मस्स य करणे, चत्तारि अवट्ठिया कप्पा ॥ - आवश्यक नियुक्ति मलयगिरिवृत्ति मे उद्धृत ५० १२१ (ख) सिज्जायर पिउंमि य, चाउज्जामे य पुरिसजिट्टे । किइकम्मस्स य करणे, ठियकप्पो मज्झिमाणंपि ।। -कल्पसमर्थनम् गा० ३० पृ. ३ (ग) अथ चत्वारः स्थिर कल्पाः (१) शय्यातरपिंडः (२) चत्वारि व्रतानि (३) पुरुष ज्येष्ठो धर्म (४) परस्परं वन्दनकदानम्, एते चत्वारः स्थिरकल्पा' द्वाविंशतितीर्थ कर साधूनामपि भवन्ति, तस्मादेते स्थिरकल्पा उच्यन्ते । -कल्पद् म कलिका, व्या० १ १०३ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०. वाहिमवणेइ भावे, कुणइ अमावे तयं तु पढमति । बिइअमवणेह न कुणइ, तइयं तु रसायणं होइ । एव एसो कप्पो दोसा-भावेऽवि कज्जमाणो म। सुन्दरभावामओ खलु, चारित्तरसायणं होई ॥ एवं कप्पविभागो, तइओसहनायो मुणेयब्वो। भावत्यजुओ इत्थ उ, सव्वत्यवि कारणं एवं ॥ -कल्पसमर्थनम् गा० ३१-३२-३३, १०३ ५१. पुरिमचरिमाणकप्पो, मंगलं वदमाणतित्यम्मि । इह परिकहिया जिणगणहराइयेरावलिचरितं ।। -पयूषणाकल्पार्थ बोधिनी टीका में उदधृत १०११ १२. भाचारात्तपसाकल्पः, कल्पः कल्पद्रु रीप्सिते । कल्पो रसायनं सम्यक, कल्पस्तस्वार्थदीपकः ।। -कल्पसमर्थनम्, कल्प महिमा इलोक १ १० ३ ८३. एगग्गवित्ता जिणसासम्मि, पभावणा पूअपरायणा जे। तिसत्तवारं निसणंति कप्पं, भवन्नवं ते लहुसा तरति ॥ -कल्पसमर्थनम् कल्पमहिमा गा०४५०३ ८४. उसराध्ययन अध्य० २९ पृ०६ २५. उत्तराध्ययन अ० २६ प्रपन १४ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ [मर्च, विवेचनान्तर्गत टिप्पमानि १. नवकार इक्क अक्खर, पावं फेडेइ सत्त अयराई। पन्नासं च पएणं, सागर पण-सय समग्गेण ।। २. जो गुणइ लक्खमेगं, पूएइ विहीए जिण णमुक्कारं । तित्थयरनामगोअं, तो पावई सासयं ठाणं ।। ३. अठ्ठव अट्ठसया, अट्ठसहस्स च अट्ठकोडीओ । जो कुणइ नमुक्कारं, सो तइयभवे लहइ मोक्ख ॥ ४. आगे चौबीसी हुइ अनन्ती, होशे बार अनन्त । नवकारतणी कोई आद न जाणे, एम भाषे अरिहंत ।। -कुशललाभ वाचक ५ (क) स्थानाङ्ग सूत्र ४११ से तुलना करो (ख) दिगम्बर गर्भापहरण की घटना को नही मानते । वे महावीर के पांच कल्याण नक्षत्र ये मानते है-(१) उत्तराषाढा. (२) उत्तराफाल्गुनी, (३) उत्तरा (४) हस्तोतरा (उत्तराफाल्गुनी) (५) स्वाति । (ग) महात्माबुद्ध के जीवन में भी चार मंगल प्रसंग हैं-(१) जन्म, (२) ज्ञान प्राप्ति, (३) धर्म चक्र प्रवर्तन और (४) निर्वाण । ये चारों जहा होते हैं उस स्थान को बौद्ध परम्परा में तीर्थ मानते हैं: -४११८ अगुत्तर निकाय ६ जह मम न पिय दुक्ख, जाणिय एमेव सब्वजीवाणं । न हणइ न हणावेइय, सममणई तेण सो समणो ।। -दशवकालिक नियुक्ति गा० १५४ ७ (क) नत्थि य सि कोइ वेसो, पिओ व सम्वेसु चेव जीवेसु । एएण होइ समणो, एसो अन्नोऽवि पज्जाओ। तो समणो जइ सुमणो, भावेण य जइ न होइ पावमणो। सयणे य जणे य समो, समो य माणावमाणे सु॥ -दशवकालिक नियुक्ति गा० १५५-१५६ (ख) अनुयोगद्वार १२६-१३१ (ग) सह मनसा शोभनेन, निदान-परिणाम-लक्षण-पापरहितेन च चेतसा वर्तत इति समनसः । -स्थानाङ्ग ४।४।३६३ अभयदेव टीका पृ. २६८ ८. श्राम्यति-तपसा खिद्यत इति कृत्वा श्रमणः । -सूत्रकृताङ्ग १११६३१ शीलांकाचार्य टीका पृ० २६३ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. श्राम्यन्तीति श्रमणाः, तपस्यन्तीत्यर्थः -दशवकालिक हारिभद्रीया, टीका प०६८ १०, ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः । धर्मस्याय प्रयत्नस्य, षण्णां भग इतीङ्गगना ॥ ११. (क) भगशब्देन ऐश्वर्यरूपयशः श्री धर्मप्रयत्ला अभिधीयंते, ते यस्यास्ति स भगवान्-भगो। (ख) जसादी भण्णइ, सो जस्स अत्थि सो भगवं भण्णइ -दशवकालिक, जिनदास चूणि पृ० १३१ १२. भग्गरागो भग्गदोसो भग्गमोहो अनासवो । भग्गास्सपापको धम्मो भगवा तेन वुच्चति । -विसुखिमग्गो ७१५६ १३. महंतो यसोगुणेहिं वीरोत्ति महावीरो। -दशवकालिक, जिनदास, चूणि पृ० १३२ १४. महावीरेण-"शूर वीर विक्रान्ता" विति कषायादिशत्रुजयान्महाविक्रान्तो महावीरः । -दशवकालिक, हारिभद्रीया टीका ५० १३७ १५. सहसंमइए समणे भोमं भयभेरवं उरालं अचलय परीसहसहतिकट्टु देवेहिं से नाम कयं समणे भगवं महावीरे। -आचाराग २।३।४०० प० ३८६ १६. हत्थस्स उत्तरातो हत्युत्तरातो, गणणं वा पडुच्च हत्यो उत्तरो जासि तातो हत्थुत्तरातो-उत्तरफग्गुणीतो, -कल्पसूत्र चूणि सू० १ पृ० १०२ १७. (क) हस्त उत्तरो यासां ताः। -आचार्य पृथ्वीचन्द्र, कल्पसूत्र टिप्पण सू० २ पृ० १ (ख) हस्त उत्तरो अग्रवर्ती यासां वा ता हस्तोत्तरा-उत्तरा-फाल्गुन्यः -कल्पार्थ बोधिनी टीका प०१३३१ १५. लघुक्षेत्रसमास, गाथा ६० १६. काललोक प्रकाश. सर्ग २६ श्लोक ४४ २०. काल लोक प्रकाश, सर्ग २६ श्लोक ४५ २१. लघुक्षेत्रसमास, गाथा ६० २२. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सटीक ९८१ २३. (क) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सटीक पत्र ६८-२ (ख) भगवती शतक १, उद्दे० ८, सू० ६४ भाग १ पत्र ६२-६३ (ग) बनान्येकजातीय वृक्षाणि । -कल्पसूत्र, सन्देहविषौषधिः १०७५ २४. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति २५. काललोक प्रकाश, पृष्ठ १४६ २६. (क) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, वक्षस्कार (ख) काललोक प्रकाश, पृ० १७६ २७. काललोक प्रकाश पृ० १८५ २८. काललोक प्रकाश पृ० ५६२ २६. काललोक प्रकाश पृ० ६०६ ३०. जम्बूद्वीप-प्रशप्ति सटीक, पत्र ११८-१७१ तक Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. मुनिसुव्रत-नेमो हरिवंश समुद्भवी, रेषा एकविंशतिः काश्यपगोत्राः । -कल्पसूत्र टिप्पन आ. पृथ्वीचन्द्र सूत्र २, पृ० १ ३२. काशो नाम इक्बु भण्णइ, जम्हा तं इक्खु पिबति तेन काश्यपा अभिषीयंते । -दशवकालिक, जिनदास चूणि पृ० १३२ ३३. (क) कासं-उच्छू, तस्स विकारो-कास्यः रसः, जस्स पाणं सो कासवो उसभस्वामी, तस्स जो गोतजाता ते कासवा, तेण वडमाण स्वामी कासवो. तेण कासवेण । -दशवकालिक, अगस्त्मसिंह पूणि ३४. काश्यं क्षत्रियतेजः, पातीति काश्यपः । तथा च महापुराणे _ "काश्यमित्युच्यते तेजः काश्यपस्तस्य पालनात्" -धनञ्जय नाममाला पृ०५७ ३५. महापुराण-द्वितीय विभाग, उत्तरपुराण, पर्व ७४ पृ० ४४४ गुणभद्राचार्य रचित, प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ, काशी ३६. देखिए लेखक की पुस्तक-महावीर जीवन दर्शन । ३७. आवश्यक नियुक्ति प० २४८ ३८. (क) महावीर चरियं, गुणचन्द्र (ख) त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र १०११३ ३६. आवश्यक नियुक्ति, मलयगिरिवृत्ति प० १५२ ४०. महावीर चरियं, गुणचन्द्र प०३ ४१. आवश्यक नियुक्ति गाथा १४३ ४२. (क) आवश्यक भाष्य गा० २, (ख) आवश्यक नियुक्ति गा० १४४ ४३. (क) आवश्यक भाष्य गा०२५० १५२ (ख) आवश्यक नियुक्ति गा० १४ (ग) त्रिषष्टि० १० ४४. आवश्यक नियुक्ति गा० १४५-१४६ ४५. (क) महावीर चरियं, गुणचन्द्र प० ११ (ख) त्रिषष्टि०.१०।१।२२-२३ ४६. आवश्यक नियुक्ति गा० ३५० से ३५२ ४७. (क) आवश्यक नियुक्ति गा० ३५३ ५० २३३।१ (ख) त्रिषष्टि० १।६।१५ ५० १५० । १ ४८. आव० नियु' गा० ३५४ (ख) त्रिषष्टि० ११६१६ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. (क) आवश्यक नि० गा० ३५५ ६५. (क) आवश्यक नियुक्ति गा० ४० ..(ख) त्रिषष्टि० ११६.१६ (ख) आवश्यक चूणि पृ० २२६ १०. (क) आव० नियु० गा० ३५६ ६६ (क) आवश्यक मलय० वृ० २४सार (ख) त्रिषष्टि० १।६।२० (ख) त्रिषष्टि० १०।१८३ ५१. (क) आव० नियु० गा० ३५७ ६७. (क) आवश्यक भूणि पृ० २३१ (ख) त्रिषष्टि० ११६।२१ (ख) आवश्यक मलय.० ५० २४६ ५१. (क) आवश्यक नियुक्ति गा० ३५८ (ग) उत्तर पुराण ७४।१०६ से ११० पृ०४५० (ख) त्रिषष्टि० १।६।२२ (घ) समवायाङ्ग सूत्र २६० सुत्तागमे ३८१ ५३. (क) आवश्यक नियु० गा० ३५६ ६८. (क) आवश्यक चूणि पृ० २३१ (ख) त्रिषष्टि० १।६।२३ (ख) आवश्यक मलय० वृत्ति २४६ ५४. आवश्यक नि० गा० ३६० ६६. (क) आवश्यक चूणि पृ० २३१-२३२ ५५ आवश्यक नि० गा० ३८८ (ख) आवश्यक मलयगिरि वृत्ति० २४६ (क) आवश्यक नि० ३६० (ग) उत्तर पुराण ११६ पृ० ४५१ (ख) त्रिषष्टि० १०६।२७ (क) आवश्यक चूणि पृ० २३२ ५७. (क) आवश्यक भाप्य गा० ४४ प० २४३ (ख) आवश्यक मलय० प० २४६ (ख) आवश्यक नियुक्ति गा० ३६७ (ग) त्रिषष्टि०१०१११०६ (ग) महावीर चरियं गुण० गा० १२४ प्र०२ (घ) महावीर चरियं ३।११।४० ५८. (क) आवश्यक नियु० गा० ४२२, से ४२४ (5) उत्तर पुराण ७४।११७ (ख) महावीर चरियं गा० ५२६ से १२८ (च) समवायाङ्ग मूत्र २६२ सुत्तागमे ३८१ तक प्र०२ ७१. (क) आवश्यक मलय० वृत्ति २४६ (ग) त्रिषष्टि ११६ श्लोक ३७२-३७८ (ख) आवश्यक चूणि २३२ ५६. (क) आवश्यक नियुक्ति गा० ४२८ (ग) त्रिषष्टि० १०१।१०७ (ख) महावीर चग्यि गा० १२६५० २४४७२. (क) समवायाङ्ग सूत्र २५७ सुतागमे पृ० ३८० ६० आवश्यक नियुक्ति गा० ४३१ (ल) आवश्यक पूणि पृ० २३२ ६१. आवश्यक नियुक्ति गा० ४३२ (ग) आवश्यक मलय० वृत्ति १०२५०११ ६२ (क) आवश्यक मलय० वृत्ति प० २४७१ । ७३. (क) आवश्यक चूणि १०२३३ (ख) महावीर चरियं पर्व ६ श्लोक२६-३२ (ख) त्रिषष्टि० १०।१४१२२-१२३ (ग) त्रिषष्टि० पर्व १, सर्ग ६, श्लोक २६से३२ ७४. (क) आवश्यक चूणि पृ० २३३ ६३. (क) आवश्यक मलयगिरि वृत्ति प० २४७।१ (ख) त्रिषष्टि० १०१।१३६-१४० (ख) त्रिषष्टि० ११६।४८ (क) आवश्यक मलय० वृ० १०२५०१२ (ग आवश्यक नियुक्ति ४३७ (ख) आवश्यक चूणि पृ० २३४ (घ) महावीर चरिय गुणचन्द्र ५० २२ ७६. (क) आवश्यक चूणि पृ० २३४ ६४. (क) आवश्यक नियु० गा० ४३८५० २४७ (ख) आवश्यक नियुक्ति मलय० वृ० २५० (ख) उत्तर पुराण ७४।६६, पृ० ४४७ (ग) उत्तर पुगण ७४।१६१से१६४ पृ० ४५४ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७. (क) महावीर चरियं, प्र० ३, ५० ६२ (ख) सेषु गायत्सु चोत्तस्थी, विष्णुरूचे च ताल्पिकम् । त्वया विसृष्टाः किं नामी सोऽप्यूचे गीतलोभतः ।। --त्रिषष्टि० १०११३१७७ ७८. महावीर चरियं ३, ५० ६२ ७६. तिवट्ठणं वासुदेवे चउरामोइवसिसय सहस्साई सव्वाउमं पालइत्ता अप्पइट्ठाणे नरए नेरइत्ताए उववन्नो --समवायाङ्ग ८४ समवाय ८०. (क) आवश्यक चूणि २३५ (ख) आवश्यक मलय० वृत्ति २५१ (ग) त्रिषष्टि० १०११।१८१ (घ) महावीर चरिय प्र० ३, ५० ६२ (च) उत्तर पुराण ७४।१६७।४५४ ८१. (क) आवश्यक चूणि २३५ (ख) आवश्यक मलय० २५१ (ग) त्रिषष्टि० १०।१।१८१-१८२ ८२ (क) ताहे कतिवयाई तिरयमणूसभवग्गहणाई भमिउण....। -आवश्यक चूणि पृ० २३५ (ख) जुलसोइमप्पइट्ठे सोहो नरएसु तिरअमणुएसु । -आवश्यक नियुक्ति गा० ४४८ (ग) सोऽथ तिर्य इ मनुष्यादि-भवान् बभ्राम भूरिशः । ___ लब्ध्वा च मानुषं जन्म, शुभं कर्मकदार्जयत् ॥ . -त्रिषष्टि०१०११११८३ (घ) श्रमण भगवान् महावीर प० कल्याण विजय पृ० २५३ (च) कल्प सुबोधिका टीका पृ० १७१ ८३. (क) पियमित ककवट्टी मुया विदेहाइ चुनसोइ । -आवश्यक नियुक्ति गा० ४४८ (ख) आवश्यक मलयगिरि वृत्ति २५१ (ग) आवश्यक चूणि पृ० २३५ (घ) त्रिषष्टि० १०।१।१८४ से १८६ ८४. नीत्या पालयतस्तस्य पृथिवी पृथिवीपते । एकदा पोट्टिलाचार्य उद्याने समवासरत् ।। धर्म तदन्तिके थत्वा राज्ये न्यस्य स्वमात्मजम् । स प्रवनाज तेपे च वर्षकोटी तपः परम् ।। -त्रिषष्टि० १०.११२१४-२१५ ८५. समवायाङ्ग सूत्र १३३ ५० ६८।१ ८६. समवायाङ्ग अभयदेव वृत्ति १३६ स० ५० ६६ ८७. (क) आवश्यक मलयगिरि वृत्ति (ख) पुट्टिल परियाउ कोडि सव्वढे । -आवश्यक नियुक्ति गा.४४ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ (ग) समवायाङ्ग सू० १३३१० ६८ | १ (घ) महावीर चरियं २०३०७१।१ ८. देवोऽभूदिति द्वितीयः ८५. ८. प्रान्ते प्राप्य सहस्रारमभूत्सूर्यप्रभोऽमरः । ९०. पुत्ता घर्णजयस्सा पुट्टिल परियाउ कोटि सम्ब ९१. सत्तरसागरोवमट्टितीतो (ख) आवश्यक मलय० २५१ १२. जावश्यक नियुक्ति गा० ४४६ (ख) आवश्यक पूर्णि० पृ० २३५ (ग) त्रिषष्टि १०।१।२१७ (घ) आवश्यक मलय० २५१ (क) ततो नन्दनाभिधानो राजसूनुः छत्राग्रनगर्यां जज्ञ े इति (ख) आवश्यक मलय० वृ० २५२।१ २३. (क) पणवीसाउ सबसहस्सा (ख) आवश्यक मल० वृ० प० २५२ २४. आवश्यक पूर्णि० २३५ १५. (क) आवश्यक नियुक्ति गा० ४५० (ख) आवश्यक चूर्णि १० २३५ (ग) आवश्यक मलय वृ० प० २५२ (ब) समवायाङ्ग अभय० १३६० १०९९ ९६ (क) आवश्यक चूर्णि २३५ (ख) आवश्यक मलयगिरिवृत्ति १० २५२ ७. (क) आवश्यक नियुक्ति गा० ४५० -समवायाङ्ग, अभयदेव वृत्ति १३६५० १९ -उत्तरपुराण ७४१२४१२४५९ - आवश्यक नियुक्ति गा० ४४९ आवश्यक पूर्णि० २३५ (अ) माणकुटग्गा कोडालस गुसमाहणी अत्थि । तस्य परे उबवन्नो देवानंदाद कुच्छिसि ॥ - समवायाङ्ग अभयदेववृत्ति १३६ स० प० ९९ - आवश्यक नियुक्ति गा० ४४६ (ख) आवश्यक चूर्णि पृ० २३५ (ग) समवायाङ्ग अभयदेव वृ० १३६ स० प० ६६ ६८. ततो ब्राह्मणकुण्डग्रामे ऋषभदत्सब्राह्मणस्य भार्याया देवानन्दाभिधानाया. कुक्षानुत्पन्न इति पञ्चमः - समवायाङ्ग अ० १३६१० १२ - आवश्क नियुक्ति गा० ४५७ 1 २१. "चइस्सामि" त्ति यतस्तीर्थकर सुराः पर्यन्तसमये अधिकतरं कान्तिमन्तो भवन्ति विशिष्टतीर्थंकरत्वलाभात् शेषाणां तु षण्मासावशेषे काले कान्त्यादिहानिर्भवति, उक्त : माल्यस्लानिः कल्पवृक्षप्रकम्प | श्री हीनाशो वाससा चोपरागः । वैभ्यं तन्द्रा कामरागोङ्गमङ्गो दृष्टि भ्रान्तिवेपथुश्चारतिश्च ॥ १ ॥ इति कल्पसूत्र टिप्पण, आचार्य पृथ्वीचन्द्र सू० ३ १० १ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १००. (क) चयमाणे ण जाणति, जतो एगसमइतो उवओगो णत्थि ॥ -कल्पसूत्र चूणि, सू० ३ पृ० १०२ (ग) “चयमाणे न जाणइ" त्ति एक सामयिकत्त्वात् च्यवनस्य, “एग सामाइओ नत्थि उवओगो" त्ति, आचाराङ्गवृनै यथा- "आन्तमौहत्तिकत्त्वाच्छापस्थिकज्ञानोपयोगस्य च्यवनकालस्य च सूक्ष्मन्वादिति ॥” (श्रुत० ३, चू० पत्र ४२५) -कल्पसूत्र टिप्पन आ० पृथ्वी० मू० ३ पृ० १-२ १०१. चुरा मि त्ति जाणड, तिनाणोवगओ होत्था जम्हा। -कल्पसूत्र पृथ्वीचन्द्र टिप्पन, सूत्र ३ पृ० २ १०२ कल्पमूत्र पृथ्वीचन्द्र टिप्पन सू० ४ पृ०२ १०३. कल्पमूत्र चूर्णी, सूत्र ४ पृ० १०३ छत्र तामरस धनूरथवगे दम्भोलिकूर्माकुगा । वापी स्वस्तिकतोरणानि च शर पञ्चानन' पादप ॥ चक्र शंखगजो समुद्रकलशी प्रामादमस्यो यवा ।। यूपस्तूपकमडलून्यवनिभृत्सच्चामरो दर्पण. ॥ १५६।। ........वृषभ पताका कमलाभिषेक. मुदामकेकी धनपुण्यभाजाम् । -कल्पसुबोधिका व्या० १ उद्धृत, गुजराती अनुवाद पृ० ८२ साराभाई नबाब १०५ यजुनैद (३१-१) मे इन्द्र को 'सहस्रशीर्पा पुरुष. सहस्राक्ष महस्रपात्' अर्थात् हजार मस्तक वाला, हजार ऑख और हजार चरण वाला पुरुष माना है। वहाँ पर इन्द्र एक भगवान के रूप में पूजा गया है. और प्रत्येक सिद्धि के लिा इन्द्र से प्रार्थना की गई है। १०६ कल्पमूत्र चूणि मू० १३ पृ० १०२ १०७ वायरिंगक-इन्द्र के पूज्य स्थानीय पायर्यास्त्रशक जाति के देवता । -अर्धमागधी कोष (रन्नचन्द्रजी) भा० ३ पृ० ३६ १०८ विस्तृत व्याख्या व परिभाषा के लिए देखिये कल्पसूत्र पर आचार्य पृथ्वीचन्द्र कृत टिप्पन सू० १४ १०८B संगीत और वाद्य यन्त्रो के सम्बन्ध मे परिशिष्ट ५ में देखे । १०६. आभूषणो के विशेपार्थ के लिए देखे-कल्पसूत्र, पृथ्वीचन्द्र टिप्पण सू० १५ ११०. (क) कल्पसूत्र आ० पृथ्वीचन्द्र टिप्पण मू० १७ (ख) उग्गा भोगा रायण्ण खतिया संगहो भवे चउहा। आरक्खगुरुवयंसा सेसा जे खत्तिया ते उ॥ -आवश्यक नियुक्ति० गा० १९८ (ग) आवश्यक चूणि पृ० १५४ (घ) त्रिषष्टि०१२।९७४ से ६७६ १११. (क) देसूणगं च वरिस सक्कागमण च वसठवणा य । -आवश्यक नियुक्ति गा० १८५ (ख) इतो य णाभिकुलगरो उसभसामिणो अकवरगतेण एव च विहरति । सक्को य महप्पमाणाओ इक्खुलट्ठीओ गहाय उवगतो जयावेइ । -आवश्यक चूणि, १५२ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ११२. (क) आवश्यक चूर्णि पृ० १५२, (ख) आव० नि० गा० १८६ ११३. कल्पसूत्र माचार्य पृथ्वीचन्द्र टिप्पण सू० १७ ११४. (क) स्थानाङ्ग, अभयदेव वृत्ति पृ० ४६३ (ख) प्रवचन सारोद्धार, सटीक उत्तर भाग ११५ उवसग्गगम्भहरणं इत्थीतित्थं अभाविया परिसा । कहस्स अवरकंका, उत्तरणं चन्दसूराणं ॥ हरिवंसकुलुप्पत्ती, चमरुप्पाओ य अट्ठसया सिद्धा । अस्संजसु पूया, दस वि अणतेण कालेणं ॥ ११६. प्रवचन सारोद्धार, सटीक उत्तरभाग ११७. उपदेश माला -दो घट्टी टीका पत्र २८३ ११८ भगवती; शतक १५, पृ० २६४ ११६. (क) समवायाङ्ग ३४ वा समवाय (स्व) योगशास्त्र, हेमचन्द्राचार्य पृ० १३० (ग) अभिधान चिन्तामणि ११५६ - ६३ १२०. वासोतीहि गइ दिएहि वइक्कतेहि तेसीतिमस्स राइ दियस्स परियाए वट्टमाणे दाहिणमाहण कुण्डपुरपुरसन्निवेसाओ.. .. देवाणंदाए माहणीए जालंधरायणस्स गुत्ताए कुच्छिसि गमं साहरई । - आचाराङ्ग द्वि० श्रु० प० ३८८-१-२ १२१. समवायाङ्ग ८३ - पत्र ८३ । २ १२२. स्थानाङ्ग सू० ४११ स्था० ५५० ३०७ १२३. आवश्यक नियुक्ति पृ० ८०-८३ १२४. गोयमा । देवाणंदा माहणी मम अम्मगा । १२५. गर्भे प्रणीते देवक्या रोहिणी योगनिद्रया । अहो far सितो गर्भ इति पौरा विचक्र शुः ॥ १५ ॥ --स्थानाङ्ग सू० ७७७ - भगवती, शतक ५, उद्द े० ३३ पृ० २५६ - श्रीमद्भागवत, स्कंध १० पृ० १२२ - १२३ १२६. महात्माबुद्ध का भी यह मन्तव्य है कि स्त्री अर्हत् व चक्रवर्ती नही बनती । अरहतंसिद्धपवयण गुरुथेर बहुस्सुए तबस्सीसु । वच्छल्लया य एसि अभिक्खनाणोवयोगे य ॥ — अंगुत्तर निकाय १।१५०१२-१३ १२७. दिगम्बर परम्परा में मल्लि को पुरुष मानते है, देखिए - महापुराण १२८. "सत्तरियसयठाणा" नामक श्वेताम्बर ग्रन्थ में उनका नाम 'श्रमण' दिया है। दिगम्बर "वैश्रमण " मानते हैं । ज्ञातृ धर्म कथा में 'महाबल' नाम भाया है । १२६. इमेहियाणं विसाहिय कारणेहि आसेविय बहुलीकएहि तित्थियर णाम- गोय-कम्मं निब्वंतेसु, तं जहा Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसणविणए आवस्सए य सीलव्वए निरइयारो। खणलवतवच्चियाए वेयावच्चे समाही य ।। अप्पुठवनाणगहणे सुयभत्ती पवयणे पहावणया । एहि कारणेहि तित्थयरत्तं लहइ जीवा ॥ -ज्ञातृ धर्म कथाग, सूत्र ११ १३०. उम्गतवसंजम च ओ, पगिट्ठफलसाहगस्सवि जियस्म । धम्मविसए वि सुहुमावि होइ माया अणत्याय ।। जह मल्लिस्म महाबलभवम्मि, तित्थयर नाम बंधेऽदि । तवविसय थोवमाया, जाया जुवइत्त हेउ ति ॥ - ज्ञातृधर्म कथाङ्ग १११६ १३१. देखिए ज्ञातृ धर्म कथाङ्ग १% १३२. (क) महावोर चरियं, गुणचन्द्र गा० ५ ५० २५१।१ (ख) महावीर चग्यिं, नेमिचन्द्र गा० ८६ पत्र ५६ (ग) न सर्वविरतेरहं कोऽप्योति विदन्नपि । कल्प इत्यकरोतत्र निषण्णो देशना विभुः ॥ -त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र १०।५।१०।६४ १३३ आवश्यक नियुक्ति गा० २८७, पृ० २०६ १३४. दिगम्बर मान्यतानुसार भगवान महावीर ने केवलज्ञान होते ही उपदेश नही दिया । छियासठ दिन के पश्चात् श्रावण कृष्णा प्रतिपदा को जब इन्द्रभूति गोतम उन्हे गणधर के रूप में प्राप्त हुए तब प्रथम दिव्योपदेश दिया। धवल सिद्धान्त और तिलोयपपणत्ति में प्रस्तुत तिथि को धर्मतीर्थोत्पत्ति तिथि माना है । अवसपिणी के चतुर्थकाल के अन्तिम भाग मे तेंतीस वर्ष आठ माह और पन्द्रह दिन शेष रहने पर वर्ष के श्रावण नामक प्रथम महीने में कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के दिन अभिजित् नक्षत्र के उदित रहने पर धर्म तीर्थ की उत्पत्ति हुई : बासस्स पढममासे पढमे पक्खम्मि मावणे बहले। पाडिवदपुब्बदियसे तित्थुप्पत्ती दु अभिजम्हि ॥ -धवला टीका, प्रथमभाग पृ० ६३ १३५. ज्ञातासूत्र श्रुत० १ अ० १६ १३६ (क) कोसंबि चंदसूरोअरणं । -आवश्यक नियुक्ति गा० ५१६-२६४ (ख) त्रिषष्टि० १०।८।३३७-३५३ ५० ११०-१११ ___ साहावियाई पच्चक्ख दिस्समाणाणि आरुहेउण । ओयरिया भत्तोए वंदणवडियाए ससिसूरा ॥ ६ ॥ तेसि विमाणनिम्मल मऊह निवहप्पयासिए गयणे । जायं निसिपि लोगो अवियाणतो सुणइ धम्मं ॥१०॥ नवरं नाउ समयं चंदणबाला पवत्तिणी नमि। सामि समणीहि समं निययावासं गया सहसा ॥११॥ सा पुण मिगावई जिणकहाए वक्खित्तमाणसा धणिय । एगागिणी चिय ठिया विणंति काऊण ओसरणे ॥१२॥ -महावीर परियं (गुणचन्द्र) प्रस्ताव -पत्र २७५ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८, बोरओ वि कालगतो सोहम्मे कप्पे तिपलिओवमट्टिनी किग्विसिओ देवो जातो। -बसुदेव हिण्डी पृ० ३५७ १३६. कुणति य से दिव्वप्पभावेण धणुसम उच्चतं । -वसुदेव हिण्डी पृ० ३५७ १४०. (कभगवती शतक ३. उद्दे-३ पृ० १६७ (ख) महावीर चरियं, गुणचन्द्र, ७ वां प्रस्ताव पृ० २३४ से २४० १४१. रिसहो रिसहस्स सुया, भरहेण विधज्जिया नव नवई । अट्टेव भरहस्स सुया, सिद्धिगया एक समयम्मि ।। १४२ उक्कोसोगाहणाए य, सिज्झन्ते जुगवं दुवे । चत्तारि जहन्नाए, मज्झे अठुनरसयं ।। -उत्तराध्ययन अ०३६ गा०५३ १४३. (क) अट्ठावयम्मि सेले चउदसभत्तेण सो महरिसीण । दसहि सहस्सेहि सम निव्वाणमणुत्तरं पत्तो॥ -आवश्यक नियुक्ति गा० ४३४ (ख) आद्य सहस्रर्दशभि. । -लीक प्रकाश मर्ग ३२, श्लोक ३८ १४४. बस्तीसा अडयाला सट्री बावत्तरी य बोद्धव्वा । चुलसीइ छन्नउइ उ दुरहियमठुतर सय च ॥ -पन्नवणा पद १, जीवप्रज्ञापना प्रकरण १४५. स्थानाङ्ग सूत्र पृ० ५२४ १४६. (क) रिसेह अट्ट हियसयसिद्ध, मियलजिणम्मि हरिवमो । नेमिजिणे अपरकका-गमणं कण्हस्स मपन्न ॥१॥ इस्थितित्थ मल्ली पूआ-असजयाणनवमजिणे । अवसेसा अच्छेग वीर जिणंदस्मतिम्मि ॥२॥ सिरि रिसह सियलेसु एक्केक मल्लि नमि नाहेण । वीरजिणदे पचओ, एगं सव्वेसु पाएणं ॥३॥ -कल्पमूत्र कल्पद्र म कलिका, टीका मे उद्धृत पृ० ३३ १४७. हरिणेगमेषी-शब्द एक अति प्राचीन शब्द है । ऋग्वेद के खिल्यसूत्र में एव महाभारत के आदिपर्व (४५०।३७) में 'नगमेष' शब्द आता है । जो एक विशेष देव का वाचक है। बौद्ध साहित्य मे (बुद्धिष्ट हाइब्रिड संस्कृत ग्रामर एड डिक्शनरी खड २१०३१२) में भी यह शब्द आया है और उसे एक यक्ष बताया है। जैन साहित्य में आचार्यों ने इमको व्युत्पत्ति करते हुए लिग्वा है-"हरिणगमेसिति:'-हरेरिन्द्रस्य मैगमेधी आदेश प्रतिच्छक इति'- (कल्पसूत्र, सन्देह विषौषधि टीका, पत्र ३१) इन्द्र का आदेश-आज्ञापालक हरिणगमेषी है । यही व्युत्पत्ति राजेन्द्रकोषकार ने मान्य की है-हरेरिन्द्रस्य नैगममादेशमिच्छतीति हरिनगमेषी (अभि० राजेन्द्र ७३११८७) इसी दृष्टि को लेकर कल्पमूत्र के बंगला अनुवादक श्री वसंत कुमार चट्टोपाध्याय ने 'हरि-नमेगषो' शब्द मे विग्रह किया है । तात्पर्य यह है कि हरिनगमेषी देव, देवराज इन्द्र का एक विशेष कार्य दक्षत 'हरिणगमेसी सक्कदए' (भग० ४) आज्ञापालक है। जो उसकी पदातिसेना का नायक भी है। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८. देखो कल्पसूत्र पृथ्वीचन्द्र टिप्पण सू० २७ १४९ प्रस्तुत सूत्र का आचाराग के निम्न सूत्र से मेल नहीं बैठता है " साहरिज्जिस्सामि त्ति जाणड, साहरिज्जमाणे वि जाणड माहरिएमित्ति जाणइ समणाउसो । .२१ - आचाराग द्वितीय श्रुतस्कघ भावना अ० सू० ६६४ आचार्य आत्माराम जी म० द्वि० भा० पृ० १३५३-५ हमारी दृष्टि से भी आचाराग का पाठ ही अधिक तर्क-संगत और आगम-सिद्ध है। क्योंकि महरण में असंख्यात समय लगते है अत. अवधिज्ञानी उसे जान सकता है । प्रस्तुत सूत्र में यह भूल na और कैसे हुई, यह विद्वानो के लिए अन्वेषण का विषय है । आचार्य पृथ्वीचन्द्र ने 'तिन्नाणोवगए साहरिज्जिस्नामि इत्यादि व्यवनवद् ज्ञ ेयम्" लिखा है, पर च्यवन में और संहरण मे बहुत अन्तर है, च्यवन स्वत होता है और महरण पर-कृत च्यवन एक समय मे हो सकता है, किन्तु संहरण मे असख्यात समय लगते है । -सम्पादक १२० कल्पसूत्र पृथ्वीचन्द्र टिप्पण सू० ३३ १५१. ऐसा माना जाता है कि प्रथम तीर्थंकर की माता मरुदेवी को सर्व प्रथम वृषभ का स्वप्न आया और भगवान श्री महावीर की माता को सिंह का स्वप्न आया था, और शेष बाबीस तीर्थ करो की माता को प्रथम हाथी का स्वप्न आया था । मभव है यहाँ पर बहुल पाठ से ही इस प्रकार उल्लेख किया है। पाठ मे सिंह का स्वप्न तीसरे क्रम पर है। -सम्पादक · तीर्थ कर देवलोक से - भगवती शतक ११ उद्दे० ११ अभयदेव वृत्ति १५२ यहाँ पर यह स्मरण रखना चाहिए कि जो व्यवकर आते है उनकी माना स्वप्न में विमान को देखती है, और जो तीर्थ कर नरक से आते है उनकी माता स्वप्न मे भवन को देखती है- "देव लोकाद्योऽवतरति तम्माता विमान पश्यति यस्तु नरकात् तन्ममाताभवनमिति" १५३. एम सोच्या हट्टतुटु हृष्ट तुष्टः अत्यन्तं हृष्टं वा तुष्ट वा विस्मितं चित्तं यस्य मः आनन्दिन - ईषन्मुखसौम्यतादिभावे समृद्धिमुपगत। ततश्च 'नंदिये' नि नन्दितम्तैरेव समृद्धतर तामुपगत 'पोइमणे' प्रीति प्रीणनं मनसि यस्य सः 'परमसोमणसिए' परमं सौमनस्यं - सुमन - स्कतास जान मनो यस्य म "धाराहय" वाराहतनीपकदम्ब सुरभिकुसुममिव "चंचुमालहए" ति पुलकिता तन शरीरं यस्य स तथा । किमुक्त भवति ? 'ऊसवियरोम' उच्छ वसितानि रोमाणि कूपेषुतद्वन्ध्रेषु यस्थ सः तथा 'मइपुवेणं' अभिनिवोधिकप्रभवेन 'बुद्धिविन्नाणेण ' बुद्धिः प्रत्यक्षदर्शिका | - कल्प० पृथ्वी चन्द्र टिप्पण सू० ५३ १५४ आरोग्य - नीरोगता, तुष्टि - हृदयतोष, दीर्घायु आयुषो वृद्धि, कल्याणानि - अर्थप्राप्तय मङ्गलानि - अनर्थप्रतिद्याता । - कल्पसूत्र टि० सू० ५३ १५५. तथा 'लक्खण वजण' ति लक्षणानि स्वस्तिकादीनि व्यञ्जनानि मपतिलकादीनि तेषा यो गुणः प्रस्तता तेनोपेत युक्तो य स तथा तम् अथवा महजं लक्षणम् पश्चाद्भयं व्यञ्जनमिति गुणा सौभाग्यादय लक्षणव्यञ्जनाना वा ये गुणा स्तैरुपेत-युक्त यं तम् । लक्षण का अभिप्राय है शरीर पर अंकित छत्र, चामर, स्वस्तिक आदि चिन्ह | तीर्थंकर और चक्रवर्ती के शरीर पर १००८ शुभ लक्षण होते है, वासुदेव बलदेव के १०८ तथा अन्य पुरुषो के शरीर पर ३२ लक्षण होते है । Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६. 'मनोन्मान' तत्र मानं-जलद्रोणमानता, जलभृतकुण्डिकायां हि मातव्यः पुरुषः प्रवेश्यते, तत्प्रवेशे च यजलं ततो निःसरति तद् यदि द्रोणमानं भवति तदाऽसौ मानोपेत उच्यते । उन्मानं तु अई. भारमानता, मातव्यपुरुषो हि तुलारोपितो यबद्धभारमानो भवति तदा उन्मानोपेतो 5 सावुच्यते । प्रमाणं पुनः स्वाग लेनाष्टोत्तरशताङ्ग लोन्यता। -कल्पसूत्र, पृथ्वीचन्द टिप्पण सू० ५३ *१५७. सतं वाराओ पक्कं जं तं सतपाग, सतेणं (वा) काहावणाणं । कल्पसूत्र चूणि सू० ६१ १५८. 'पम्हलसुकुमालाए' पक्ष्मवत्यासुकुमालमा चेत्यर्थ. 'गंधकासाइय' गंधप्रधानया कषायरक्तशा टिकयेत्यर्थः -कल्पसूत्र टिप्पण सू० ६२ १५६. कल्पसत्र पथ्वीचन्द्र टिप्पण सू० ६२ 'कयकोउय' कृतानि कौतुकमङ्गलान्येव प्रायश्चित्तानि दु.स्वप्नादि विघातार्थमवश्यकरणीयत्वाद् यस्ते तथा।" पादेन वा छुप्ताः-चक्षुर्दोषपरिहारार्थ पादच्छुप्ता कृतकौतुकमङ्गलाश्च ते पादच्छुप्ताश्चेति विग्रह । तत्र कौतुकानि मषोतिलकादीनि, मङ्गलानि तु सिद्धार्थकदध्यक्षत दूर्वा कुरादीनि । - कल्प सूत्र, पृथ्वी० टि० मू० ६६ १६१. अनुभूत श्रुतोदृष्टः, प्रकृतेश्च विकारज. । स्वभावत समुद्भूतश्चिन्तासन्ततिसम्भव ॥ देवताद्यपदेशोत्थो, धर्म-कर्म-प्रभावज । पापोकसमत्थश्च. स्वप्न स्यान्नवधा नणाम ॥ प्रकाररादिमः षड्भिाशुभश्च शुभोऽपि वा। पृष्टो निरर्थक स्वप्न, सत्यस्तु विभिरुत्तरः ।। --कल्पसूत्र सुबोधिका टीका मे उद्धृत १६२, रात्रेश्चतुषु यामेषु, दृष्ट स्वप्न फलप्रद. । मासैद्वादशभिः षभिस्त्रिभिरेकेन च क्रमात् ।। निशाऽन्त्यघटिकायुग्मे, दशाह त्फलति ध्रुवम् । दृष्ट सूर्योदये स्वप्न', सद्य . फलति निश्चितम् ॥ - कल्पसूत्र सुबोधिका टीका मे उद्धृत १६३. मालास्वप्नोऽह्नि दृष्टश्च, तथा षिव्याधिसम्भव । मल-मूत्रादिपीडोत्थ स्वप्न सर्व निरर्षक: ।। धर्मरतः समपातुर्य स्थिरचित्तो जितेन्द्रियः सदयः । प्रायस्तस्य प्राषितमर्थ स्वप्नः प्रसाधयति ।। स्वप्नमनिष्टं दृष्ट्वा सुप्यात्पुनरपि निशामवाप्यापि । नाम कथ्य. कथमपि केषांचित फलति न स यस्मात् ॥ नश्राव्यः कुस्वप्नो गुवदिस्तवितरः पुनः श्राव्य. । योग्यधाव्याभावे गारपि कर्णे प्रविश्य वदेत ।। इष्टं दृष्ट्वा स्वप्नं न सुप्यते नाप्यते फलं तस्य । नेया निशाऽपि सुधिया जिनराजस्तवनसंस्तवत.॥ पूर्वमनिष्टं दृष्ट्वा स्वप्नं यः प्रेक्षते शुभं पश्चात् । स तु फलदस्तस्य भवेद् द्रष्टव्यं तद्वदिष्टेऽपि ॥ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वप्ने मानव मृगपतितुरङ्गमातङ्गबुषभसिहोभिः । युक्तं रथमारूढो यो गच्छति भूपतिः स भवेत् ।। -- कल्पसूत्र सुबोधिका में उद्घृत श्लोक १६४. भगवती सूत्र की टीका ( शतक १६ उ० ६ सू० ५८१ ) में ४७ स्वप्न (सामान्य फल वाले) गिनाये गये है । १४ महास्वप्न तीर्थंकर की माता देखती है और १० स्वप्न भगवान महावीर ने छद्मस्थ इस प्रकार ७१ स्वप्न होते हैं । तीर्थंकर की माता जाने से ७२ स्वप्न गिनाये गए हैं। भगवती टीका काल में शूलपाणियक्ष के मन्दिर में देखे. विमान अथवा भवन देखती है एक ओर बढ़ में ४७ स्वप्न निम्न प्रकार है १ हय पंक्ति १३ लोहित सूत्र १४ हरिद्रसूत्र २ गज पंक्ति ३ नर पंक्ति ४ किन्नर पक्ति ५ किंपुरुष पंक्ति ६ महोरग पक्ति ७ गंधर्व पंक्ति वृषभ पक्ति ९ दामिनी १० रज्जु ११ कृष्ण मूत्र १२ नोल सूत्र १५ शुक्लसूत्र १६ अयराशि १७ तम्बराशि १८ तउयराशि १६ सीसगराशि २० हिरण्यराशि २१ सुवर्णराशि २२ रत्नराशि २३ वचराशि २४ तृणराशि २५ कट्ठराशि २६ पत्रराशि ३७ दधिकुम्भ ३८ घृतकुम्भ २७ तपाराशि २८ भुसराशि २६ तुसराशि ३० गोमयराशि ३१ अवकर राशि ३२ शरस्तम्भ ३३ वीरिणस्तम्भ ४५ सागर ३४ वशीमूलस्तम्भ ४६ भवन ३५ वल भीमूलस्तम्भ ४७ विमान ३६ क्षीरकुंभ १६६. तिहि नाणेहि सम्मग्गो, देवितिसलाए सो य कुच्छिसि । अह वसह सन्निगन्भो, छम्मासे अद्धमासं च ।" अह सत्तमम्मि मासे गन्भत्यो बेवsभिग्गहं गेहे । नाहं ममणो होहं, अम्मापियरंमि जोवंते " २३ ३६ मधुकुम्भ ४० सुरावियड कुंभ ४१ सोवीरविड कुम ४२ तेलय कुंभ ४३ वसाकुंभ ४४ पद्म सरोवर १६५ प्रीतिदान का भावात्मक अर्थ है- दाता प्रसन्न होकर अपनी इच्छा से जो दान देता है। जिस दान मे अथी की ओर से याचना किंवा प्रस्ताव रखा जाता है और उस पर मन नही होते हुए भो दाता को देना पडता है वह प्रीतिदान नहीं हैं । प्रीतिदान का व्यावहारिक अर्थ है - इनाम या पुरस्कार, पारितोषिक 1 - देखिये, अर्धमागधी कोष ३१५८६ -आवश्यक भाष्य, गा० ५८- ५६ १६७. वर्षासु लवणममृतं शरदि जलं गोपयश्च हेमन्ते । शिशिरे चामलकरसो, घृतं वसन्ते गुडवान्ते ॥ वातलेश्व भवेद्गर्भः कुब्जान्धजडवामन । पित्तलः खलतिः पिङ्गः, श्वित्री पाण्डुः कफात्मभिः । - वाग्भट्ट, अष्टांग हृदय, शारीर स्थान ११४८ कल्पार्थ बोधिनी टीका में उद्धृत- पृ० ८४|१ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्युष्णं हरति बलं, पतिशीत मारुतं प्रकोपयति । अतिलवणमचाक्षुष्य-मतिस्नेहं दुर्जरं भवति ।। १६८. दु चउत्थ नवम बारस-तेरस पन्नरस सेस गम्भट्ठिई । - मासा अड-नव तदुवरि उसहाउ कमेणिमे दिवसा चउ पणवीसं छद्दिण, अडवोसं छच्च छ ञ्चिगुणवीसं । ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ १५ सग छन्वीस छच्छ य, वीसिगवीस छ छब्बीसं । १६ १७ १८ १९ २० छप्पण अडसत्तट्टयं २१ २२ २३ २४ अडडठ्ठय छ सत्त होति गब्भदिणा ।' -सप्ततिस्थानक आचार्य सोमतिलक तिहि उच्चेहि नरिदो, पंचहि तह होइ अद्धचक्की य । छहि होइ चक्कवट्टी सत्तहि तित्थकरो होइ॥ १६६. तिहिठाणेहि लोगुज्जोएसिया, तं जहा अरहतेहि जायमाणहि, अरहतेमु पव्वयमाणेमु, अरहताण णाणुप्पायमहिमासु । --स्थानाग ३ १७०. बीस भवनपति निकाय के इन्द्र, बत्तीस बाणव्यन्तर निकाय के ईन्द्र, दो ज्योनिक निकाय के ईन्द्र और दस वैमानिक निकाय के इन्द्र-इस प्रकार ६४ इन्द्र होते है। १७१. (क) पदागुष्ठेन यो मेरुमनायासेन कंपयन् । लेने नाम महावीर इति नाकालयाधिपात -रविषेणाचार्य कृत. पद्मचरित्र पर्व २,लो. १६ पृ० १५ (ख) वामम (य) पायगुट्ठय कोडीए तो सलीलमह गुरुणा। तह चालिओ गिरीसो जाओ जह तिहुयणक्खोहो ।। ___ चउप्पन्नमहापुरिमचरियं, आचार्य शीला प्र० प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वागणमी ५, पृ० २७१ (ग) आकम्पिओ य जेणं, मेरू अङ्गटेएण लीलाए । तेणेह महावोगे, नाम सि कयं सुरिन्देहि । -पउमचरिय, विमलसूरि, २०२६ प्राकृत ग्रन्थ परिषद् वाराणसी ५ पृ० ६० १७२. गगरगुत्तिय-नगर का रक्षक । -अर्धमागधी कोप भा० २।६०६ १७३. (क) आवश्यक मूत्र मलयगिरिवृत्ति प० २५८ (ख) उत्तरपुगण पर्व ७४ श्लो० २६० (ग) आवश्यक चूणि, भाग १, पत्र २४६ (क) त्रिषप्टि० १०॥२॥१०४-५-६ (ख) आवश्यक भाष्य, गा० ७२१७३। प० २५८ (ग) उत्तर पुराण, पर्व ७४, श्लो० २८८ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ (क) आवश्यक मल० १० २५८ (ख) त्रिपष्टि० प० १०।२।११२ ११३ ११६-११७ (ग) आवश्यक भाष्य गा० ७५, १०२५८ १७६. उत्तरपुराण ७४।२६५ १७७. त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र १०।२।१२२ १७८. (क) आवश्यक भाष्य गा० ७६-७७ (ख) त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र १०।२।१२९ - १४९ १७६. (क) आवश्यक भाष्य गा० ७६ - ८० (ख) आचारांग, द्वितीय श्रुतस्कन्ध भावनाधिकार सू० ४०० पृ० ३८१ (ग) आवश्यक नियुक्ति पृष्ठ ८५ (घ) आवश्यक हारिभद्रीय टीका १८२-२ (च) आवश्यक मलयगिरिवृत्ति पत्र २५१-२ (ख) महावीर चरियं नेमिचन्द्राचार्य पत्र ३४-१ (ज) महावीर परियं गुणचन्द्र पत्र १३२ (झ) त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, पर्व १० सर्ग २ श्लो० १५१ - १५४ 7 , १०० (क) विशेषावश्यक भाष्य सटीक पत्र ६३५ (ख) आवश्यक हारि० पत्र ३१२।२ १८१ (क) पद्मपुराण २०६७ (ख) हरिवंश पुराण ६०।२१४ मा० २ १८२ (क) कुमारी युवराजेऽश्ववाहके (ख) अमरकोष, काण्ड १ नाट्यवर्ग श्लोक १२ १८३. आप्टेकृत संस्कृत-इंगलिश डिक्शनरी पृ० ३६३ १८४. आवश्यक नियुक्ति पृ० ३६ गा० २२२ १८५. आवश्यक नियुक्ति, हारिभद्रीय टीका पत्र १८३३१ १०६ (क) कल्पसूत्र सू० ११० (ख) त्रिषष्टि १०।२।१५६ से १६३ १८७ (क) मा क्षारं क्षते निक्षिप कियन्तमपि कालं प्रतीक्षस्व (ख) त्रिषष्टि० १०।२।१६४-१६५ १०. (क) आचारांग प्रथम अध्य० १ गा० ११ (ख) आवश्यक मलयगिरिवृत्ति प० २६०।१ (ग) त्रिषष्टि १०।२।१६७ २५ शब्द रत्न समन्वय कोष पृ० २६८ - आवश्यक मलयगिरिवृत्ति २६० १८९. (क) प्राचीन समय में स्वर्ण एक सिक्का विशेष था, जिसका मान ८० गुंजा प्रमाण अथवा १६ कर्ममाथ (मासा) प्रमाण था । - अनुयोगद्वार टीका, पत्र १५६११ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ग) कौटिलीय अर्थशास्त्र २१३७-पृ० १०३ (घ) मनुस्मृति ८।१३५ भट्टमेधातिथि का भाष्य पृ० ६१८ १६०. आवश्यक मलयगिरिवृति, पत्र २६१ १६१. (क) आवश्यक भाष्य गा० १०६ प० २६५ (ख) आवश्यक मलयगिरिवृत्ति, प० २६५ (ग) मलिना : कुटिला मुग्धैः पूज्यास्त्याज्या मुमुक्ष भिः । केशाः क्लेशसमास्तेन यूना मूलात्समुद्धृताः उत्तर पुराण, पर्व ७४ श्लोक ३०७ १६२. काऊण नमोक्कार, सिद्धाणमभिग्गहं तु सो गिण्हे। सव्व मेऽकरणिज्ज, पावंति चरित्तमारूढो ।। -आवश्यक भाष्य गा० १०६ १६३. (क) तिहिं नाणेहि समग्गा, तित्थयरा जाव होंति गिहवासो। पडिवन्नमि चरित्ते, चउनाणी जाव छउमत्था ॥ ~आवश्यक भाष्य गा० ११० (ख) उत्तरपुराण, ५० ७४ श्लोक ३१२ पृ. ४६४ १६४. वारस वासाई वोसटुकाए चियत्तदेहे जे केइ उपसग्गा समुप्पज्जति तं जहा-दिवा व माणुस्मा वा तेरिच्छिया वा-ते सव्वे उवसग्गे समुप्पन्ने समाणे सम्म सहिस्सामि खमिस्सामि अहियासइस्सामि। -आचागग श्रुत २ अ० २३ प० ३६१।२ १६५. एक्को भगवं वीरो पासो मल्लि यतिहि तिहि सएहि । भगवंपि वासुपुज्जो छहि पुरिसमएहि णिक्खतो ।। उग्गाणं भोगाणं राइण्णाणं य खत्तियाणं य । चउहि सहस्सेहिं उसभा सेसा उ महस्म परिवारा॥ -ममवायाग, पृ० १०६१ (घासी०) १६६. संबच्छरं साहिय मास, जंण रिक्कासि वत्थं भगवं । अचेलए तओ चाइ, त वामिरिज्ज वत्थमणगारे ।। -आचागग ११४ १९७. (क) आवश्यक मलयगिरिवृत्ति । (ख) महावीर चरिय, गुणचन्द्र प्र. ४ पृ० १४२॥? (ग) त्रिषष्टि०१०।३२ १६८ (क) महावीर चग्यिं गुण० प्र० ५ गा० ४ पृ० १४३ (ख) त्रिपष्टि० १०१३३ १९६. मावश्यक मलयगिरिवृनि प० २६६ (ख) महावीर चरियं गुणचन्द्र प्र० ५५० १४३३१ (ग) त्रिषष्टि० १०।३।६ २००. (क) महावीर चरियं गुण० १४३।२।१४४।१ (ख) त्रिषष्टि १०।३।८ (ग) महावीर चरिय प० १४४।१ २०१. (क) ताहे सामिणा तस्स देवदूसस्स अखं दिन्नं । -बाव० मल०प०२६६ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) देवारपुप्पिया ! परिचतसयलसंगो हं संपयं, तुमं च दारिद्दोबदुओ । इमस्स मज्ऽसावसत्तवासस्स अद्ध घेतून गच्छसि ॥ ता २०२. (क) आवश्यक मल० प० २६६ (ख) महावीर० प्र० ५, पृ० १४४ (ग) त्रिषष्टि० १०/३/१४ २०३. महावीर चरियं ५। प० १५८ २०४ नंदिवर्नारदो दीणारलकनमेगं वत्यस्स मुल्लं दाविऊण सबहुमाण.... । २०५. ( क ) आवश्यक भाष्य० गा० १११ - चउप्पन महापुरिसचरियं, पृ० २७३, आचार्यशीलाक (ख) आवश्यक मलयगिरिवृत्ति पत्र २६७ (ग) त्रिषष्टि० १०।३।१५ २०६. वोर - विहार मीमासा, विजयेन्द्र सूरि पृ० २३ २०७ (क) आवश्यक मलय० पत्र २६७ (ख) त्रिषष्टि० १०।३।२५ २०८ (क) सबको भणइ भयवं । तुज्झ उवसग्ग बहुलं । अह वारस वरिसाणि तुज्झ वेयावच्चं करेमि । (ख) महावीर चरिय प्र० ५ ५० १४५।१ (ग) त्रिषष्टि० १०1३३२८ २७ (ग) महावीर चरियं, गुण० प्र० ५ प० १४५-१४६ २११. संबच्छरेण भिक्खा खोयलद्धा उसभेण लोयणाहेण । सेसेहि बीय दिवसे, लद्धाओ पढमभिक्खाओ || उसभस्स पढमभिक्खा, खोयरसो आसि लोगणाहस्स । सेसाणं परमण्णं अमियरसरसोवमं आसि || - महावीर वरियं प्र० ५ पृ० १५८ -आवश्यक मलय० प० २६७ २०६. नो खलु देविदा । एवं भूय वा भवइ वा भविस्सइ वा जं णं अरहता देविदाण वा असुरिदाण वा uter केवलनाणमुप्पाइसु उप्पायंति उप्पाइस्संत्ति वा तवं वा करिसु वा करंति वा करिस्संति वा, अरहंता सएण उट्ठाणच लवी रियपुरिसक्कारप रक्कमेणं केवलनाणमुप्पाइंसु उप्पायंति उप्पा इस्सति - आवश्यक नियुक्ति पृ० २६७ वा । (ख) त्रिषष्टि १० ३०-३० १० २०१ (ग) महावीर चरियं प्र० ५ १० १४५ २१० (क) आवश्यक नियुक्ति गा० ४६१ प० २६७ (ख) आवश्यक मलय० वृ० २६८।१ - समवायाङ्ग, सूत्र १५७ (संपादक - मुनि कन्हैयालालजी) Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ २१२. आवश्यक मलय० वृत्ति प० २६८ (ख) महावीर चरियं, गुण ० १४६ २१३. (क) ताहे सो सामिस्स सागएण उबट्ठितो । सामिणा पुण्वपयोगेण बाहा पसारिया । (ख) महावीर चरियं प्र० ५ ० १४६ (ग) त्रिषष्टि० १०।३१५० २१४. (क) त्रिषष्टि० १३।३।५१-५२ (ख) महावीर चरियं, प० १४६ २१५. (क) आवश्यक मलय० पृ० २६८ (ख) महावीर चरियं १४७ (ग) त्रिषष्टि० १०/३/६९-७३ २१६. महावीर चरियं - १४७ २१७ (क) महावीर चरियं प्र० ५ पृ० १४८ (ख) आवश्यक नियुक्ति मलय० पृ० २६८ - आवश्यक मलय० प० २६८ २१८. (क) इमेल तेण पंच अभिग्गहा गहिया, तंजहा (१) अचियत्तोग्गहे न बसियब्बं, (२) निच्वं वोसट्टे कार्य, (३) मोण च, (४) पाणीसु भोक्तव्यं, (५) गिहत्थो न वंदियव्वो, न अब्भुट्टे यब्वो, एए पंच अभिग्गहा गहिया । - आवश्यक मलयगिरि वृत्तिपृ० २६८ (ख) महावीर चरियं प्र० ५- १४५ (ग) कल्प सुबोधिका टीका पृ० २८८ (घ) त्रिषष्टि० १०।३।७५ से ७७ --आचाराम अ० ६ उ० १ २१६. णो सेवई य परवत्थं पर-पाए वि से न भुज्जित्था । २२०. (क) प्रथमपारणकं गृहस्थपात्रे बभूव, ततः पाणिपात्रभोजिना मया भवितव्यमित्यभिग्रही गृहीतः । -- आवश्यक मलय० वृ० (ख) भगवया पढमपारणगे परपत्तंमि भुत्तं - महावीर वरियं, गुणचन्द्र २२१. अयोत्पन्न ऽपि केवलज्ञाने कस्मान्न मिक्षार्थं भगवानटति ? उच्यते, तस्यामवस्थाया भिक्षाटने प्रवचनलाघवसम्भवात् । उक्तं च - "देविदचक्कवट्टी मडलिया ईसरा तलवरा य । अभिगच्छति जिणिदं गोयरचरियं न सो अबइ ॥ २२२. उत्पन्न केवलज्ञानस्य तु लोहार्य आनीतवान्, तथा चोक्तं-'धनो सो लोहज्जो, खंतिखमो पवरलोहसरिवन्नो । जस्स जिणो पत्ताओ, इच्छई पाणीहि भोतु जे ।" - आवश्यक नियुक्ति मल० पृ० २६८ -आवश्यक नियुक्ति गा० पृ० ३६० Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ (क) महावीर चरिय गुण पृ० १५३ (ख) बावश्यक, मलय०१० २६८ (ग) त्रिषष्टि० १०१३३११६ २२४. (क) आवश्यक मलय० २६६ (ख) त्रिषष्टि० १०॥३॥११७-११८ (ग) महावीर परियं ५० १५३ २२५. (क) महावीर चरियं १५३-१५४ (ख) आवश्यक मलय० पृ० २६६ (ग) त्रिषष्टि० १०॥३।१२२-१३० २२६. (क) खोमे ताहे सतविहं वेयणं उदीरेइ, तं जहा-सोस.यणं, नासवेयणं, दंतवेयणं, कण्णवेयणं, अच्छिवेयणं, नहवयणं, पिठिवेयणं एक्केक्का वेपणा पागयजणस्स जीवियं संकामि समत्था, कि पुण सत्तवि समेयातो? -आवश्यक मलय० वृत्ति (ख, महावीर चरियं प० १५४ (ग) त्रिषष्टि. १०१३३१३२।१० २३१२ २२७ (क) तत्थ सामी देसूणे चतारि जामे असीव परितावितो पभायकाले मुहत्तमेत्तं निद्दापमायं गतो। -आवश्यक मलय०प०२७०११ (ख) महावीर चरियं प० १५५११ (ग) त्रिषष्टि० १०.३१४७ २२८. (क) आवश्यक नियुक्ति०५० २७० (ख) भगवती शतक १६, उद्दे० ६, सू० ५८० (ग) त्रिषष्टि १०३।१४७ से १५१ . । २२६. गिद्दपि नो पगामाए सेवइ भगयं उठाए। जग्गाबद्दय अप्पाणं, ईसि साइ या अपडिन्ने । -आचारांग १९६९ २३०. (क) मावश्यक मल प० २७०११ (ख) महाबीर चरियं. १५२१ (ग) त्रिषष्टि १०११५२ २३२. (क) आवश्यक मल प० २७०।१ (ख) महावीर चरियं १५५१ (ग) भगवती १६॥६५८० २३३. (क) सामी भणद-हे उप्पल ! जण्णं तुमं न याणसि तण्णं अहं दुविहं सागाराणगारियं धम्म पण्ण वेहामि । -आवश्यक मल० १०२७० (ख) महावीर परियं, गुणचन्द्र प० १५५ २३४. (क) बावश्यक मल० ०५० २७. Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) महावीर चरियं १५५ (ग) त्रिषष्टि० १०॥३७८ २३५ (क) मावश्यक मल ५० २७० (स) महावीर चरियं प० १५६ २३६. (क) आवश्यक मलय० २७२ (स) महावीर चरियं प० १५८१ (ग) त्रिषष्टि० १०३।२१५-२१८ २३७ (क) आवश्यक मल ५० २७३ (ख) महावीर चरियं, गुण० ५० १५६ २३८. (क) आवश्यक मल० ५०२७३ (ख) महावीर चरियं, गुण० ५० १५६ (ग) त्रिषष्टि० १०॥३।२५१ २३१. (क) आवश्यक मलय टीका० २७३३२ (ख) त्रिषष्टि० १०१३३२५५-२६१ २४०. (क) मावश्यक मल० वृ०प० २७३ (ब) महावीर चरियं, गुण. १७६ २४१ (क) आवश्यक मलय वृ० २७३ (ख) त्रिषष्टि०१०।३।२६६ (ग) उत्तरवाचालंतर वणसरे चंडकोसिबो सपो। न ही चिंता सरणं जोइस कोवाऽहिजाओऽहं ।। -आवश्यक नियुक्ति गा. ४६७ २४२. (क) आवश्यक मलय० पृ० १० २७३ (ख) महाबीर चरियं पृ० १७६ (ग) त्रिषष्टि० १०३।२७२ से २७५ २४३. (क) उत्तरवाचाला नागसेण खीरेण भोयणं दिन्नं । सेयवियाए पदेसी पंचरहो णेज्जरायाणो॥ आवश्यक नियुक्ति गा० ४६८ (ख) त्रिषष्टि० १३२८० से २८६ (ग) आवश्यक मलय० वृति०५० २७४११ (घ) महावीर परियं गुणचन्द्र प० १७७१-२ २४. (क) मावश्यक मलय प० २७४।१-२ (ख) महावीर चरियं प० १७८१ (ग) वीरवरस्स भगवतो नावास्तुस्स कासि उवसग्गं । मिच्छादिट्रिपरतो, कंबलसंबलेहि तित्वं च।। -निशीथ भाष्य, गा० ४२१८ पृ० ३६६ तृतीय भाग प्र० सन्मति मानपीठ, आगरा Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५. (क) आवश्यक नियुक्ति गा० ४७२ (ख) त्रिषष्टि० १०१३३४८-३५१ २४६ (क) महावीर चरियं प्रस्ताव ५ १० १८१-१८२ (स) आवश्यक मलय० प० २७५ (ग) त्रिषष्टि० १०॥३॥३५६-३६६ २४७. 'मंख' शब्द का अर्थ है-चित्र दिखाकर आजीविका करने वाला। मल्लधारी हेमचन्द्र सूरि ने इसका अर्थ किया है 'केदारपट्टिकः (हारिभद्रीयावश्यक टिप्पण पत्र २४-१) अर्थात् शिव का चित्र लोगों को दिखाकर मिक्षा प्राप्त करने वाला । संभवतः इसी आधार पर परंपरागत अनुभूति उसे 'डाकोत' कहती होगी! किसी एक ब्राह्मण को गोशाला मे उसका जन्म होने से वह 'गौशालक' कहलाया। बचपन में ही बहुत उद्धत होने से माँ बाप को छोडकर वह स्वतन्त्र घूमता था (देखे भगवती १५३१) -सम्पादक २४८. (क) आवश्यक मल• वृत्ति प० २७६ (ख) आवश्यक नियुक्ति गा० ४७३ (ग) त्रिषष्टि० १०।३।३६६ २४६. (क) आवश्यक मलय० वृ० प० २७६ (ख) आवश्यक नियुक्ति गा० ४७४ २५०. (क) आवश्यक मलयगिरि वृत्ति २७६ (ख) त्रिषष्टि० १०॥३॥४१६-४१७ २५१. आवश्यक चूणि, प्रथम भाग पत्र २८४ २५२. आवश्यक नियुक्ति गा० ४७६ २५३ (क) आवश्यक मलय० वृत्ति पत्र १७८ (ख) महावीर चरियं ५० १८९ २५४. (क) आवश्यक मलय० वृ० २७८ (ख) महावीर परियं० प्र० ६।५० १६१ (ग) आवश्यक पूणि, पूर्वाद्ध-पत्र० २८५ २५५. ताहे सामी चोरगसंन्निवेसं गता । -आवश्यक मलय०२७८ २५६. (क) आवश्यक नियुक्ति गा० ४७७ (स) मावश्यक मलय०प० २७८,२७६ (ग) त्रिषष्टि०१०१३।४२-४८६ २५७. कयंगल देउलवरिसे, दरिदोराण गोसालो। -बावश्यक नियुक्ति गा० ४७% २५८. आवश्यक मलय० १०२७६ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ २५९. आवश्यक मलय प० २८०१ २६.. बावश्यक मलयगिरि वृत्ति २८१३१ क) आवश्यक मलय० वृ०प० २०११ (ख) त्रिषष्टि० १०॥३६५५३ २६२. (क) आवश्यक मलय० ० ५० २८१।१ (ख) महावीर परियं प्र० ६॥ प० १६५ २६३. (क) अह दुच्चर-लाठ-मचारी -आचारांग अ० ६, उद्दे० ३, गा० २ प्रथम श्रु. (ख) दुच्चराणि तत्व लाहिं, -आचारांग अ० ६ उद्दे० ३... २६४. वज्ज भूमि च सुम्भ-भूमि च, --आचाराग अ०६। उ०३, गा०६ २६५. आचारांग प्रथम श्रुतस्कंध, अ० ६, उद्दे ३ गा० २ से ७ २६६ बाचारांग प्रथम श्रुतस्कंध अध्य : उ० ३, गा० ७ से १० २६७. आचारांग, प्र० श्रु० ६३।११-१२ २६८. आचाराग, प्र० श्रु०६।३।१३ २६६. (क) आवश्यक नियुक्ति गा० ४८२ (ख) आवश्यक मलय० वृत्ति० १० २८१ (ग) महावीर चरियं प्र. ६, प० १६५ २७०. (क) आवश्यक मलय० २८१ (ख) महावीर चरियं० प्र० ६ ५० १६६ २७१. (क) मावश्यक मलय० प० २८२ (ख) आवश्यक नियुक्ति० गा० ४८४ (ग) त्रिषष्टि० १०॥३॥५८३-५८७ २७२. त्रिषष्टि० १०॥३॥५६५ २७३. आवश्य नियुक्ति० गा० ४८५ २७४. आवश्यक मलय० वृ०प० २८३३१ २७५. (क) आवश्यक नियुक्ति मलय० वृत्ति०५० २८३ (ख) महावीर परियं प्र० ६ ५० २१२-१३ (ग) त्रिषष्टि० १०१३।६१४-६२४ २७६. (क) आवश्यक मलय० वृत्ति० २८३ (ख) आवश्यक frयुक्ति० गा० ४८, २७७. आवश्यक मलय० वृत्ति० २८४ २७८. आवश्यक मलय० वृत्ति० ५० २८४२८५ २७६. (क) अविकाह से महावीरे, बासणत्ये अकुक्कुए । झाणं उलं आहे तिरियं च पेहमाणे समाहिमपरिन। -आचारांग १४।१०. (ख) मावश्यक मलय०५० २८५ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८०. आवश्यक मलय० प० २८५ २८१ (क) आवश्यक नियुक्ति० गा० ४६२ (ख) त्रिषष्टि० १०१४१६८-१२८ २८२. भगवती श० १५ तृतीय खण्ड० पृ० ३७४ २८३. आवश्यक पूर्णि, प्रथम भाग पत्र २६६ २८४ (क) आवश्यक मलयगिरि वृत्ति १० २८७।१ (ख) भगवती शतक १५, ० भा० पृ० ३७५ (ग) महावीर चरियं० प्र० ६ ० २२३ - २२४ (घ) त्रिपष्टि० १०१४११३४- १३७ २८५ (क) आवश्यक नियुक्ति० गा० २०७ (ख) आवश्यक मल० १० २८७ (ग) महावीर चरियं० प्र० ७ १० २२४११ (घ) त्रिपष्टि० १०:४११३८ २०६ (क) आवश्यक नियुक्ति० गा० ४९४ (ख) आवश्यक मलय० वृ० प० २८७ (ग) महावीर चरियं० प्र० ७ १० २२४ (घ) त्रिषष्टि० १०|४|१११-१४२ २८०७ (क) आवश्यक नियुक्ति० गा० ४९५ (ख) त्रिषष्टि० १०।४।१४३ से १४७ २८८ आवश्यक नियुक्ति० गा० ४६५ २८१ आवश्यक नियुक्ति० गा० ४६६ २६०. आवश्यक मलय० वृ० प० २८८ २६१. आवश्यक नियुक्ति० गा० ४९७ २९२ (क) सक्को व देवराया सहागओ भई हरिसिओ वयणं । तिन्निवि लोगsममत्था जिणवीरमिगं चलेउ जे ॥ (ख) त्रिषष्टि० १०/४११६४-१७५ (ग) महावीर परियं प्र० ७ ०१-४१० २२७ (घ) कल्प समर्थनं, उपसर्गा, गा०५, पृ० २८ २९३ (क) आवश्यक नियुक्ति गा० ४६६ से ५०१ (ख) महावीर चरियं प्र० ७ १० २२७ २९४. धूलो पिबीलियाओ उद्दसा चैव तह व विन्दुज नउला सप्पा व भूसया देव उन्होला । अदुभया || ३३ - आवश्यक नियुक्ति० गा० ४९८ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ हत्थी हत्यिणियाओ पिसाअए घोररुव वग्यो य । थेरो थेरी सूमो आगच्छइ पक्कणो अ तहा ।। खरवाय कलंकलिया, कालचक्कं तहेव य । पामा इयमुक्सग्गे, वीसइमे होति अणुलोमे ।। सामाणियदेविद्धि देवो दाएइ सो विमाणगओ। भणई वरेह महरिसि ! निप्फत्तो सरगमोक्खाणं ।। -बावश्यक नियुक्ति गा० ५०२ से ५०५ २६५. आवश्यक नियुक्ति० गा० ५०६ से ५०७ २६६. (क) आवश्यक नियुक्ति० गा० ५०० ख) मावश्यक मलय० प० २६१ २९७ (क) आवश्यक नियुक्ति गा० ५०६ (ख) आवश्यक मलय० ३० प० २६२ २६८. आव०नि० गा० ५१०, आव० म० वृ० २६२ २६६. (क) महावीर चरियं, प्र० ७ प० २३० (ख) बावश्यक मल० प० २६२ ३००. (क) आ० नि० गा० ५११-(ख) महा० चरि० प्र०७५० २३० ३०१. आव०नि० गा० ५१२ ३०२. महावीर चरियं प्र० ७ पृ० २३१। (ख) त्रिषष्टि० १०।४।३०२ ३०३. (क) आवश्यक नियुक्ति० गा० ५११ (ख) त्रिषष्टि० १०४।३१६-३२० ३०४. आवश्यक नियुक्ति गा० ५ ३०५. जिनेश्वर सूरि कृत कथाकोष ३०६. (क) त्रिषष्टि १०।४।३४६ से ३५८ (ख) महावीर चरियं० प्र० ७ गा० १४ ५० २३३ ३०७. (क) आवश्यक नियुक्ति० गा० ५१७ (ख) त्रिषष्टि० १०॥४॥३७२ ३०८. (क) भगवती सूत्र शतक ३, उद्दे० २ (ख) देखिए कल्पसूत्र आश्चर्य वर्णन ३०९. (क) आवश्यक नियुक्ति० गा. ५१७-५१८ (ब) आवश्यक मलय० वृ० प० २६४ ३१०. (क) सामी य इमं एतारूवं अभिग्गहं अभिगेण्हति चउन्विहं दवतो, ४ दव्वतो कुमासे सुप्पकोणेणं, खित्तयो एलुग विक्खंभइत्ता, कालो नियत्तेसु भिक्खायरेसु भावतो जदि रायधूया दासत्तणं Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्ता णियलबद्धा, मुडियसिरा रोयमाणी मन्मत्तट्ठिया, एवं कप्पति, सेसं ण कप्पति, कालो य पोसबहल पाडिवो-आवश्यक चूणि प्र० भा०प० ३१६-३१७ (ख) आवश्यक मलय० वृ०प० २६४ (न) त्रिषष्टि० १०।४।४७८.४८१ (घ) महावीर चरियं० प्र०७५० २४१ ३११. (क) आवश्यक मलय• वृत्ति २६५ (ख) आवश्यक नियुक्ति० गा० ५१६ ३१२. (क) आव० म० वृ० २६६ (ख) महावीर चरियं गुणचन्द्र, प्र० ७ ५० २४६३१ (ग) त्रिषष्टि०१।४।५७२-५७६ ३१३ (क) महावीर चरिय गुण० ७।२४७ (ख) त्रिषष्टि ० १०४।६०६ ३१४. (क) चंपा वासावास जक्खिदो साइदत्त पुच्छा य । वागरण दुह पएसण पच्चक्खाणे अ दुविहे अ॥-आवश्यक नियुक्ति गा० ५२२, १० २६७ (ख) को ह्यत्मा ? भगवानाह-योऽहमित्यभिमन्यते । स कीदृशः ? सूक्ष्मोऽसो, कि तत् सूक्ष्म!, यदिन्द्रिय-ग्रहीतुन शक्यते इति, तथा कि त ते पदेसणयं? कि पच्चक्खाणं? भगवानाह साइदत्ता । दुविहं पदेसणग-धम्मियं मम्मियं वा, पदेसणगं नाम उपदेश; पच्चक्खाणे दुविहे-मूलपच्चक्खाणे उत्तर पञ्चक्खाणे य, एएहि पएहि तस्स उवगयं । -बआवश्यक मलय० २६७ ३१५ (क) महावीर चरियं० ७।२४८ (ख) त्रिषष्टि० १०१४६६१८-६४६ ३१६. (क) सम्वेसु किर उवसग्गेसु दुव्विसहा कतरे ? करपूयणासीयं कालचक्कं एतं चेव सल्लं कढिज्जतं । बहवा जहन्नगाण उवरि कडपूयणासीतं मज्झिमाण काल चक्कं, उच्कोसगाण उवरि सल्लुद्धरणं ॥ -आवश्यक पूणि प्र० भा०प० ३२२ (ख) महावीर चरियं ७.२५०। ३१७. एवं वा विहरमाणस्स जे केइ उवसग्गा समुपज्जति दिव्वावा माणुस्सा वा, तेरिच्छिया वा ते सम्बे उवसग्गे समुप्पन्ने समाणे अणाउले अध्यहिए अदीणमाणसे तिविहमण-वयण कायगुत्ते सम्म सहइ खमइ, तितिक्खइ अहियासेइ । -आचाराग० १।१५।१०१६ सुत्तागमे पृ० १३ (ख) सूरो संगामसीसे वा, संखुडे तत्थ से महावीरे । पडिसेवमाणे फरसाई अचले भगवं रीइत्था । -आचारांग रा३३१३ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८. (क) उग्गं च लबोकम्म, विसेसओ बद्धमाणस्स । -आवश्यक नियुक्ति गा० २४० (ख) सूत्र कृतांग १६ ३१६. तिन्नि सए दिवसाणं अउणापन्ने य पारणाकालो -आवश्यक नियुक्ति गा०५३४ ३२०. आवश्यक नियुक्ति गा० ५२६ से ५३५ ३२१. छठेण एगया मुळे अदुवा अट्टमेण दसमेणं । दुवालसमेण एगया भुजे पेहमाणे समाहिअपडिन्ने -आचाराग १ ३२१. विजयावत्तस्स चेतियस्स । विजयावत्तं गामेणं, वियावत्तं वा' व्यावृत्तं चेतियत्तणासो जिण्णजाणमित्यर्थः। -कल्प सूत्र चूणि सू० १२० ३२२. (क) बारस चेव य वासा मासा छच्चेव अदमासो य । वीरवरस्स भगवओ एसो छउमत्थपरियाओ। -आवश्यक नियुक्ति गा० ५३६ (ख) उत्तर पुराण, गुणचन्द्र ७४॥३४८ से ३५२ ३२३. आवश्यक मलयगिरि वृत्ति प्र० भा० ५० ३००।१ ३२४. मगहा गोव्वर गामे जाया तिण्णेव गोयमसगोत्ता। कोल्लागसभिवेसे जा ओ विअत्तो सुइम्मो य ।। ६४३।। मोरीयसभिवेसे दो भायरो मंडमोरिया जाया । अपलो य कोसलाए महिलाए बकंपिनो जाओ ॥६४४॥ तुंगीयसन्निवेसे मेयम्जो वच्छभूमिए जाओ। भगबंपियप्पभासो, रायगिहे गणहरो जाओं ॥६४५।। --विशेषावश्यक भाष्य ३२५. (क) मावश्यक वृत्ति । (ख) वाजसनेयी संहिता ४०-५ में भी यही वाक्य है। (ग) तदेजति तन्नेजति, तद्दूरे तदन्तिके । तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः -ईशावास्योनिषद् में यह पाठ प्राप्त होता है (च) पुरुष एवेदं सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यम् उतामृतत्वस्येशनो यदन्नाति रोहति -वाजसनेयी संहिता ३२-२ -श्वेताश्वतरोपनिषद २४९ -पुरुषसूक्त, इन सभी में यह पाठ प्राप्त हैं। ३२६. (क) आवश्यक टीका से उद्धृत (ख) सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष ब्रह्मचर्येण नित्यम्, अन्तः शरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्रो य पश्यन्ति यतवः क्षीणदोषाः। ---मुण्डकोपनिषद् १४० Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ ३२७. तस्मान्न बध्यते नापि मुच्यते नापि संसरति कश्चित् । संसरति बध्यते मुख्यते च नानाश्रया प्रकृतिः । -सांस्य कारिका नं० ६२ त भाव मिलता है। ३२८. न ह वै सशरीरस्य सतः प्रियाप्रिययोरपहतिरस्त्य शरीरं वा वमन्तं न प्रिया प्रिये स्पृशतः। -छान्दोग्योपनिषद् ४४५ मे यह पाठ प्राप्त हैं। ३२९. (क) आवश्यक टोका में उद्धृत (ख) अपाम सोमममृता अभूमागमन् ज्योतिरविदाम देवान् किमस्मान् कृणवदरातिः किमु धूतिरमृतं म] च ॥ -ऋग्वेद संहिता-४१३ अथर्वशिर उपनिषद ३ ३३०. (क) पुण्यो वै पुण्येन कर्मणा भवति पाप पापेनेति -बृहदारण्यकोपनिषद ५६० (ख) पुण्यः पुण्येन कर्मणा भवति पाप पापेनेति -बृहदारण्यकोपनिषद् ६३२ ३३१. (क) आवश्यक टीका में उद्धृत (ख) एतद्वं जरामर्यमग्निहोत्रं सत्रम -नारायणोपनिषद्-१६३ (ग) जरामर्य व एतत्सर्वं यदग्निहोत्रम् -तेतिरियारण्यक १०६४ -महानारायणोपनिषद् २५ ३३२. (क) सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म । -तैत्तिरीयोपनिषद् १८२ (ख) तस्मै स होवाच विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद् ब्रह्मविदो । बदन्ति परा चापरा च -मुण्डकोपनिषद् ११६१-४ । ३३३. 'महाकुलाः महाप्राज्ञाः संविग्ना विश्ववंदिता। एकादशापि तेऽभूवन्मूलशिष्या जगद्गुरोः ॥ -त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र १०॥५७० (ख) महावीर परियं, प्रस्ताव ८१ प० २५७॥ १ ३३४. (क) त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र पर्व १० सर्ग ५ श्लोक १६४ (स) महावीर चरियं, गुणचन्द्र प्र० ८१ प २५७ ३३५. तीर्यते संसारसमुद्रोनेनेति तीर्थ प्रवचनापारस्चतुर्विधः संघः। -अभिधान चिन्तामणि १।२५ स्वोपज्ञ टीका ३३१. विषष्टि शलाका पुरुष चरित्र १०१५।१७४ ३३७. उत्तराध्ययन २३ गा.८७ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० G ३३५. भगवती सूत्र शतक : उ०३२, स० ३७८ ३३९. सूत्रकृतांग अत २. म० ७ सू० ८१२ ३४०. तए णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे थेरे भगवंते बंदई, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता चाउज्जायामो धम्माओ पंचमहव्वइयं सपडिक्कमणं धम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरइ । -भगवती शत० १ उ०६ सू०७६ ३४१. भगवती शतक० २, उद्दे० १० A (क) औपपातिक टीका सू० ४, १८२- १६५ (ख) भगवती श० १४, उद्दे०८ भगवती सूत्र श० २, उ० ५ भगवती सूत्र शत० ११ उ०६ भगवती सूत्र शत० उ०१० भगवतो सूत्र शतक २ उ० ५ भगवती शतक १२, उ०२ भगवती शतक १८ उद्दे० ३ H भगवती सूत्र शतक १ उद्दे० ६ ३४२. संजय काम्पिल्यपुर का राजा था। इसका विस्तृत वर्णन उत्तराध्ययन १८ नेमिचन्द्रीय टीका मे आया है। A 'सेय' राजा आमलकल्पा नगरी का स्वामी था। इसका विस्तृत वर्णन रायपसेणी (बेचरदास जी द्वारा सपादित) सूत्र १० मे आया है । B शिव हस्तिनापुर के राजा थे। भगवती सूत्र शतक १। उ० ६ मे विस्तार से इसका वर्णन मिलता है। C शंख मथुग नगरी का राजा था। विस्तृत वर्णन देखें उत्तराध्याय १२ नेमिचन्द्रीय टीका ३४३. समणेणं भगवया महावीरेणं अठ्ठ रायणो मुडे भवेत्ता अगाराओ अणगारिअ पव्वाविया, तं०वीरंगय वीरजमे संजयए, णिज्जए य । रायग्सिी सेयसिवे उदायणे तह संखे-कासिबद्धणे -स्थानाङ्ग, स्थान ८ सू० ७८८ ३४४. (क) ज्ञातृ धर्म कथा अ० १ (ख) दशाश्रुत स्कंध १ (ग) आवश्यक चूणि, त्रिषिप्टि शलाका० आदि में श्रेणिक के जीवन का विस्तृत वर्णन भाता है। ३४५. अन्तकृत दशा ३४६. त्रिषष्टि० १०॥१०॥१३६-१४८ पत्र १३४-२३५ ३४७. त्रिषष्टि० १०.१०८४ ३४८. सूत्र कृताङ्ग टीका श्रु० २ ० ६ ५० १३६३१ ३४६. उत्तराध्ययन अ० १२ ३५० अन्तकृत् दशा १ ३५१. (क) सो चेडको सावओ -आवश्यक पूणि, उत्तराद प० १६४ (ख) चेटकस्तु श्रावको -त्रिषष्टि. १०।६।१८८, १०७७-~-२ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२. पभावती वीतिमए उदायणस्स दिण्णा, पउमावती चम्पाए दहिवाहणस्स, मिगावती कोसंबीए सताणियस्स, सिवा उज्नेणीए पज्जोतस्स जेट्टा कुंडग्गामे वदमाण सामिणो जेठस्स नंदिवद्धणस्स दिण्णा । -आवश्यक चूर्णि भाग २ १० १६४ (ख) त्रिषष्टि०१०१६।१८७ पत्र ७७-२ ३५३. नवमल्लई नवलेच्छई कासीकोसलग्ग अठारसवि गणरायाणो। -कल्पसूत्र सुबोषिका, टीका सू० १२८ ३५४. (क) 'पावा' देवेहि कतं णाम, जेण तत्थ भगव कालगतो। -कल्पसूत्र चूणि सू० १२२ (ख) 'पावा' देवेहिं कयं, जेण तत्य भगवं कालगओ। -कल्पसूत्र, पृथ्वी० टिप्पण सू० १२२ (ग) रज्जुगा- लेहगा, तेसिं सभा रज्जुयसभा, अपरिभुज्जमाणा करणसाला। -कल्पसूत्र चूणि सू० १२२ ३५५. (क) बितितो चंदो संवच्छरो, पीतिवद्धणो मासो, गंदिवद्धणो पक्खो, अग्गिवेसो दिवसो उवसमो वि से णाम, देवाणंदा रयणी निरिति ति वच्चति, लवस्स अच्ची णामं, पाणुस्स मत्तो, थोवस्स सिद्धणामं, करणं णागं, सन्वट्ठसिद्धो महत्तो। -कल्पसूत्र चूणि सू० १२३ ३५६. समणस्म भगवओ महावीरस्स जेठे अंतेवासी इंदभूति नामं अणगारे गोयमसगोत्तणं सत्तस्से हे समचउरंससठाण संठिए वज्जरिसह नारायण संघयणे कणगपुलगणिघसपम्हगोरे उम्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे ओराले घोरे घोग्गुणे घोरतवस्सी, घोरबंभचेरवासी उच्छूळसरीरे संखित्त विउलतेयलेसे चोद्दसपुन्वी चउनाणोवगए सम्वक्खरसन्निवाई समणस्स भगवओ........ ..... -भगवती ११७ ३५७. मरणा कायस्स भेदा इओ चुआ दोवि तुल्ला । एगट्ठा अविसेसमणाणत्ता भविस्मामो । -भगवती शतक १४ उद्दे०७ ३५६. कल्प सुबोषिका, टीका ३५६. (क) कल्पसूत्र चूणि सू० १२६ (ख) कल्पसूत्र टिप्पण सू० १२६ पृ० १७ ३६०. ज्वलत्प्रदीपालिकया प्रवृद्धया, सुरासुरः दीपितया प्रदीप्तया । तदास्म पावानगरी समन्ततः प्रदीपिताकाशतला प्रकाशते । ततस्तु लोकः प्रति वर्षमादरात प्रसिद्ध-दीपावलिकयात्र भारते । समुद्यतः पूजयतुि जिनेश्वरं जिनेन्द्रनिर्वाणविभूति-भक्ति-भा क् । -हरियश पुराण, जिनसेन ३६१. कल्प सुबोषिका टीका ३६२. भयवं ! कुणह पसायं विगमह एवंपि ताव खणमेक्कं । जावेस भासरासिस्स नृणमुदओ अवक्कमइ ॥१॥ जं एयस्सुदएण तुम्हं तित्थं कुतित्थिरहिं दढ । पीडिस्सइ सक्कारं न तहा पाविस्सइ जणाउ । न य तुम्हे असमत्या एवं विह कग्जसाहले जेण । Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Yo जो तोलइ तइलोक्कं बलेण का तस्स इह गणणा ॥ कहतसत्तिजुत्ता जिणा हर्बतित्ति वयणमवि अम्हे । पतिज्जिसामो पहु । जइ न तुमं ठासि स्वणमेक्कं ॥ - महावीर चरियं, प्रस्ताव ८ गा० से ४ पृ० ३३८ । १ विह कालेऽवि । ३६३. अह जयगुरुणा भणियं सुरिद ! तीया इति नो भूयं न भविस्सद्द न हवइ नूणं इमं कज्ज ॥ ज आउ कम्म विगमेsवि कोवि अच्छेज्ज समयमेत्तमवि । अच्च ताणं तविसिसत्तिपब्भार जुत्तोऽवि ॥ अवि जोडिज्जइ सयखंडियंपि वयरागरुन्भवं रयणं । परिसडियमाउदलिय न उ तीरइ कहवि संघडिउ ॥ ता जइ आच्च तमभूयमत्थमम्हे न किं एत्तिएण नाणं तसत्तिणी ? मुयसु साहिमो एय । ता मोहं ॥ - महावीर चरिय, प्र० ८ गा० ५ से ८ पृ० ३३८ ३६४. (क) कु: भूमि तस्यां तिष्ठनीति कुन्पू, अणुं सरीरंगं घरेति अणुं धरी । - कल्पचूर्ण, सू० १३१ (ख) तं रयणि 'कु' अणुद्धरो नाम' ति कुः - भूमिस्तस्या तिष्ठतीति कुन्यूः अणु सरीर धरेइ ति अणुधरी। -कल्प सूत्र टिप्पण सू० १३१ ३६५. (क) कल्पसूत्र चूर्णि सू० १४५ पृ० १०४ (ख) कल्पसूत्र टिप्पण सू० १४५ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ (पूर्व परम्परान्तर्गत टिप्पणानि) १. पासे अरहा 'पुरिसादाणीए' पुरुषाणां प्रधानः पुरुषोत्तम इति । अथवा समवायाङ्ग वृत्तायुक्तम् "पुरुषाणा मध्ये आदानीयः-आदेयः पुरुषादानीयः" (पत्र १४-२) उत्तगध्ययन वृहबृत्ती "पुरुषश्चासौ पुरुषकारवत्तितया आदानीयश्च आदेयवाक्यतया पुरुषादानीयः, पुरुषविशेषणं तु पुरुष एव प्रायस्तीथं कर इति ख्यापनार्थम् । पुरुषर्वा आदानीयः-आदानीयज्ञानादिगुणतया पुरुषादानीय." (पत्र २७०-२) -कल्पसूत्र पृथ्वीचन्द्र टिप्पनकम् पृ० १७ (ख) कल्पसूत्र, सन्देह विषोषधि, टीका १० ११६ (ग) कल्पसूत्र, किरणावलि पत्र १३२ (घ कल्पसुबोधिका सू० १४६ ५० ३६६ (ड) पुरुषाणां मध्ये आदानोय.-आदेयः पुरुषाऽ । दानीय : -भगवती, श० ५, उ० ६ अभयदेव वृत्ति प० २४८ (च) मुमुक्ष णा पुरुषाणामादानोया माश्रयणीयाः पुरुषाऽऽदानीयाः । महतोऽपि महीयासो भवन्ति । -सूत्रकृताङ्ग १, श्रु० अ० ६, ५० १८६-१ २. त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित पर्व ६, सर्ग २ ३. पाणिग्रहण के लिए कुशलस्थ (कन्नोज) प्रदेश मे जाने पर वहाँ कलिंगादि देशो के यवनों ने संघर्ष करने की ठानी। गजकुमार पावं की ललकार के समक्ष सभी यवन विनत होगए और परस्पर मैत्री सम्बन्ध स्थापित किया। -त्रिषष्टि० पर्व ६, सर्ग ३ ४. (क) पाश्वनाथ चरित्र भावदेव मूरि, सर्ग ६, श्लोक २१३ (ख) त्रिषष्टि० ६३ ५. त्रिषष्टि शलाका० पर्व १. सर्ग १, श्लोक २५ ६. वाराणसी के समीप आश्रमपद उद्यान में धातकी वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग करके खडे थे। -त्रिषष्टि० ६३ .. प्रस्तुत सूत्र की तरह समवायांग में भी आठ गणषरों का ही उल्लेख है"पासस्स णं अहो पुरिसादाणिअस्स अट्ठ गणा, अट्ठ गणहा होत्या तं जहा-गाहा सुभे य सुभघोसे य, वमिठे बंभयारि य सोमे सिरिधरे चेच, वीरभद्दे जसे इ य 110 आचार्य हेमचन्द्र के विषष्टि शलाका० (६३) के अनुसार म० पाश्र्वनाथ के १० गणधर थे जिनमें आर्यदत्त गणधर सबसे प्रमुख थे। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश गणधरों का उल्लेख आव. नि. गा० २६०, आव० मल टीका (पत्र २०६) आदि ग्रन्थों में भी मिलता है । किंतु कल्पसूत्र सुबोधिका टोका (पत्र ३८१) में इसका स्पष्टीकरण किया है- "हो अल्पायुष्कत्त्वादिकारणानोक्तौ इति टिप्पनके व्याख्यातम् ।" इसी प्रकार गणधर के नाम के सम्बन्ध में भी कुछ भेद है। कल्पसूत्र में 'शुभ' तथा पासनाह चरिय मे (पत्र २०२) शुभदत्त नाम आया है। समवायाग में सिर्फ 'दिन्न' शब्द हो है जबकि त्रिषष्टि० में 'आर्यदत्त।' -सम्पादक ८. (क) कल्पसूत्र को संकलना के समय मे यह कालगणना की गई है। (ख) भगवान पाश्वनाथ को ऐतिहासिकता प्राय. निर्विवाद है। इस सम्बन्ध मे विशेष ऐतिहामिक गवेषणा के लिए देखें१. चार तीर्थ कर-पं० सुखलाल जी सिंघवी २ जन साहित्य का इतिहास भाग १-० कैलाशचन्द्र शास्त्री ३ इण्डियन एन्टीक्वेरी जि० ६ पृ० १६०-डा० याकोबी के लेख ६. (क) समवायांग, सूत्र २४०१ (ख) समवायाग मूत्र १५७-११ (ग) अहं अरिष्टनेमि की ऐतिहासिकता वैदिक ग्रन्यो एव ऐतिहामिक विद्वानो की गवेषणा से मी सिद्ध होती है। अथर्व वेद के माण्डूक्य, प्रश्न और मुण्डक अनिपदो मे अरिष्टनेमि का नाम आया है। महाभारत के अनुशासन पर्व अध्याय १४६ मे विष्णुसहस्रनाम मे दो स्थानो पर 'शूर, शौरिजिनेश्वर.' पद आया है-- __"अशोकस्तारणस्तारः शूरः शोरि जिनेश्वरः ।५०।" "कालिनेमि महावीर शूरः शौरि जिनेश्वरः।" ८२॥ छांदोग्य उपनिषद् में देवकी पुत्र कृष्ण के उल्लेख से व्यक्त होता है कि उन्होंने घोर अंगरिस से अहिंसा और नीति का उपदेश ग्रहण किया। श्री धर्मानन्द कौशाम्बी (भा० म० अ० पृ० ३८) के अनुसार ये घोर अंगरिस नमिनाथ ही थे, क्योकि नेमिनाथ श्रीकृष्ण के धर्मगुरु थे यह प्राचीन जैन ग्रन्थो से प्रमाणित होता है (विशेष विवरण के लिए देखें- जैन साहित्य का इतिहास पूर्व पाठिका, प० कैलाशचन्द्र जैन १० १७०) १० सोग्यिपुरम्मि नयरे, आसि राया महिडिढाए । समुद्दविजए नाम, रायलक्खण संजुरा । तस्स भज्जा सिवा नाम तीसे पुत्तो महायसो। भगवं अग्ठ्नेिमि ति, लोगनाहे दभीमरे । - उत्तराध्ययन २२।३-४ ११. अह सो वि रायपुत्तो, समुदृविजयंगओ। -उत्तराध्ययन २२०३६ १२. एवं सच्चनेमी, नवरं ममुद्दविजये पिया सिवा माता। एव दढनेमी वि सव्वे एगगमा। --अन्तकृतदशा, वर्ग ४,०९-१० Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. (क) उत्तराध्ययन अ० २२-५, (ख) सप्तति शतस्थान प्रकरण ३७-३८ द्वार, ना० १०५ १४. (क) नियगाओ भवणाओ, निज्जाओ बहिषु गयो । (ख) अहं च भोगरायस्स तं चऽसि अधगवहिणी । १५. मोरिट्ठनेमि नामो य, लक्खणस्सरसंजुल । अट्ठस हस्तलक्खणधरो, गोयमो कालगच्छवी । १६. वज्जरिसहसंघको समचउरंसो कसोयरो । १७. त्रिषष्टि० ८ १५ (क) त्रिषष्टि०८६ (ख) कल्पसूत्र सुत्रोधिका टीका १६. (क) त्रिवष्टि पालाका दार (ख) कल्पसूत्र सुवोधिका टोका २०. त्रिषष्टि० ८ २१. अहसा रायवर कन्ना, सुमीला वारुपेहिणी । लक्खणसंपन्ना, विज्जुमोया मणिप्पभा । २२. उत्तरा० अ० २२६-१० २३. उत्तरा० २२।१४-१५ २४. कस्स अट्ठा इमे पाना, एए सब्वे मुहेसिणो । वाडेहि पंजरेह च संनिरुद्धा य बच्चई ॥ २५. अह सारही तओ भणई, एए भद्दा उ पाणिणो । तुम्भे विवाहकज्जम्मि सु जावेउ बहु जणं ॥ २७. त्रिषष्टि० वा २८. ( क ) त्रिपप्टि० बा (ख) कल्पसूत्र सुबोधिका टीका २६. राईमई विचिते, धिरत्यु मम जीवियं । जाsहं तेण परिभ्वत्ता सेयं पब्वइउ मम ॥ ८३ ३०. अह सा ममरसन्निभे कुच्चफणगणसाहिए। यमेव लुई केसे, हिमंता ववस्सिया । वासुदेवा य णं भनई, लुत्तकेसं जियंदियं । संसारसारं घोरं तर कन्ने लहु लहु । , - उत्तरा० अ० २२, गा० १३ --उत्तरा० म० २२, गा० ४४ -उत्तरा० २२।१७ २६. नाचल पर्वत पर सहस्राम्रवन मे पधारे - ऐमा त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित मे उल्लेख आता है। - त्रिपष्टि० बाट -उत्तरा० अ० २२, गा०५ -उत्तरा० अ० २२, गा० ५-६ - उतरा० म० २२1७ - उत्तरा० २२११६ -उत्तरा० २२।२९ -उतरा० २२।३०-३१ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ३१. मीया व सा हि वट्टु एगते संजयं तयं । बाहाहि काउ संगोप्फं, वेवमाणी निसीयई ॥ ३२. जइ सि रूपेण बेसमणो, सलिएण, नलकूबरी । सहा वि सेन इच्छामि, जय सि सक्खं पुरंदरां परखंदे जलिये जो धूमकेउ दुरासयं । नेच्छति बंतयं भोतु फुलेजाया अगपणे । चिरत्यु तेऽजसोकामी, जो तं जीवियकारणा । वंत इच्छसि आवेउ सेयं ते मरणं भवे । ३३. (क) त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र ६८ (ख) उत्तराध्ययन २४. (क) वसुदेव हिन्डी (ख) त्रिपष्टि शनाका० स ७ (ग) जैन रामायण ३५० (क) अहंतु भगवती मल्ली के विस्तृत वर्णन के लिए देखे – ज्ञाना धर्मकथा १६ बडप्पन्न महापुरुष चरिउ त्रिपष्टि शलाका पुरुष चरित्र ५०१ ६११, ६२ ३. शातिनाथ चरित्र ३७. (क) धन मिहूण सुर महम्बल ललियग य बदरजच मिठ्ठणे य सोहम्म विज्ज अच्य चक्की सव्वट्ठ उसमे य । (ख) लेखक की पुस्तक ऋषभदेव एक परिशीलन । (ख) त्रिपष्टि शलाका ६६ ३६. अहं शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ एवं अरनाथ ये तीनो तीर्थ कर क्रमश: पाचवे छडे एवं सातवें चक्रवर्ती भी हुए। एक ही भव मे दो महान् पदवी का उपभोग किया। इनके विस्तृत जीवन चरित्र के लिए देखें- १. २. -उत्तरा० २२।३५ - उत्तरा० २२१४०-४३ ३८. त्रिषष्टि० १११।५५ से ६१ पृ० ३।२ ३६. ( क ) आवश्यक नियुक्ति गा० १६८ (ख) आवश्यक पूर्णि पृ० १३२ (ग) त्रिवष्टि० १।१।१४० मे १४३ १०६ ४०. ( क ) आवश्यक मलय० वृ० प० १५८ (ख) त्रिषष्टि० ११७१४१७१५ ४१. (क) आवश्यक पूर्णि० १३३ १३४ (ख) त्रिपष्टि १।१।१०७ - १०११०३२ - आवर मलय० वृत्ति पृ० १५७।१ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. (क) आवश्यक मलय० वृ० १६२ (ख) पष्टि० १२६ मे (ग) आवश्यक हारिभद्रया वृत्ति १२०१ ४३. स्थानाङ्ग प० ३६६-१ ४४. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, कालाधिकार (अमोलक ऋषि) १०७६ ४५. स्थानाङ्ग सूत्र वृत्ति ५० ३६६ ४६. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, वक्षस्कर सू० १४ ४७. (क) आवश्यक मलय० वृत्ति प० १६३ ४८ (ख) त्रिषष्टि० १।२।२१३५० ४०।१ (ग) महापुराण जिनसेनाचार्य १४१६२१० ३१९ (क) ऊरूसु उस भलंखणं उसभी सुमिणंमि तेण । कारण उसभोत्ति णामं कयं ॥ (ख) ऊम्प्रदेशे ऋषभो लाञ्छनं यज्जगत्पतेः । ऋषभं प्रथम यच्च, स्वप्ने मात्रा निरीक्षित. । तत् तस्य ऋषभ इति नामोत्सवपुरःसरम् । तो मातापितरो हृष्टो विदधाते शुभे दिने । ४२. (क) आवश्यक नियुक्ति० १० १८६ (ख) आवश्यक मलय० प० १६२।२ (ग) आवश्यक प्रणि० १५२ (घ) आवश्यक हरिभद्रया १० १२५ (ड.) विषष्टि० १।२।६५४ - ६५६ ५० (क) आवश्यक नियुक्ति० गा० १६१ (ख) त्रिषष्टि० ११२१८८१ २१ (क) आवश्यक भाष्य (ख) आवश्यक पूर्णि० पृ० १५३ (ग) आवश्यक मलय० वृ० १६४ (घ) आवश्यक चूर्णि० पृ० १५३ ४५ - आवश्यक पूर्णि० पृ० १५१ - त्रिष्टि १२६४५ से ६४९ ५२. (क) दत्ती व दाणमुसमं दितं । दट्टु जमिवि पवतं । - आवश्यक नियुक्ति० गा० २२४ (ख) भगवता युगलधर्मव्यवच्छेदाय भरतेन सह जाता ब्राह्मी बाहुबलिने दत्ता, बाहुबलिना सह आव० मल० पृ० २०० जाता सुन्दरी भरताय । (ग) युग्मिधर्मनिषेधाय भरताय ददौ प्रभुः । सोद बाहुबलिनः सुन्दरी गुणसुन्दरीम् । - Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतस्यचसोदयां ददौ ब्राह्मा जगत्प्रभुः । भूपाय बाहुबलिने तदादि जनताप्यथ । -श्री काललोक प्रकाश सर्ग ३२ श्लोक ४७-४८ ५३. (क) इति दृष्ट्वा तत आरभ्य प्रायो लोकेऽपि कन्या पित्रादिका दत्ता सती परिणीयते इति प्रवृत्तम् । --आवश्यक मलय० पृ० २०० (ख) गुरुदत्तिा य कण्णा परिणिज्जते तो पायं । -आवश्यक हारि० वृ० पृ० १३३ (ग) भित्रगोत्रादिका कन्या दत्ता पित्रादिभिमदा । विधिनोपायतः प्राय. प्रावर्तत तथा ततः। -श्री काललोक प्रकाश सगं ३२, श्लोक ४६ ५४. (क) आवश्यक नियुक्ति गा० १६४ (ख) आवश्यक चूणि पृ० १५३-१५४ ५५. आवश्यक नियुक्ति गा० १६६ ५६. पुराणसार १८।३।३६ ५७. आवश्यक मलय० ५० १५७-२ ५८. (क) आवश्यक हारिभद्रीया प० १२०-२ (ख) आवश्यक मलय० ५० १६३ ५६ आवश्यक नियुक्ति गा० १५१ ६०. (क) आवश्यक नियुक्ति० गा० १६८ (ख) आवश्यक चूर्णिपृ० १५४ ।। (ग) आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति प०१२८ (घ) त्रिषष्टि. १२२।७४ से ६७६ ६१ त्रिषष्टि० ११२१६२५-६३२ ६२ स्थानाङ्ग वृत्ति ७।३१५५७ ६३. आद्यद्वयमृषभकाले अन्ये तु भरत काले इत्यन्ये । -स्थानाङ्ग वृत्ति ७.३१५५७ ६४. परिभाषणाउ पढमा, मंडलबंधम्मि होइ बीया नु । चारग छविछेदावि, भरहस्स चउबिहा नीई । -स्थानाङ्ग वृत्ति ७.३१५५७ ६५. निगडाइजमो बन्धो, घातो दंडादितालणया । -आवश्यक नियुक्ति गा० २१७ ६६. बन्धो-निगडादिभिर्यम. संयमनं, घातोदण्डादिभिस्ताडना, एतेऽपि अर्थशास्त्रवत्वधातास्तत्काले यथायाग प्रवृत्ता। -आवश्यक मलय० वृत्ति प० १९६२ ६७. (क) मारणं जीववधो-जीवस्य जीविताद् व्यपरोपणं, तच्च भरतेश्वरकाले समुत्पन्न । -आवश्यक मलय० १० १६६।२ (ख) मारणया जीववहो जन्ना नागाइयाण पूयातो। -आवश्यक नियुक्ति गा० २१८ ६८. आवश्यक नियुक्ति० गा० २०६ ६६. (क) आवश्यक नियुक्ति गा० २१२ (ख) विशेषावश्यक भाष्य वृत्ति १३२ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ग) आवश्यक पूणि० पृ० १५६ (घ) आवश्यक हारिभद्रया प० १३२ ७०. विषष्टि० १२६७१ ७१. आवश्यक नियुक्ति० गा० ३३७ ७२. (क) आवश्यक नियुक्ति०गा० ३३२ (ख) आवश्यक चूर्णि० पृ० १६२ (ग) प्ट ११२।१२२-१२३ (घ) महापुराण, जिनसेन १८५५-५ पृ० ४०२ ७३. क) आवश्यक मलय० वृ० प० २१७ 1 (ख) त्रिषष्टि० ११३१२४४१२४५ ७४. ( क ) आवश्यक मलय० २१७-२१८ (ख) आवश्यक चूणि० १६३ ७५. (1) आवश्यक नियुक्ति० ० ३४२-४५ (ख) ममवायाङ्ग ७६. (क) दशकालिक अगस्तपसिंह ि (ख) . (ग) आवश्यक चूर्णि० १० १५२ (घ) महापुराण २६६।६।३७० (४) धनञ्जयनाममाला० १९४ १० ५७ जिनदाम चूर्णि० पृ० १३२ ७७. (क) त्रिपष्टि० १।३।३०१-३०२ (ख) कल्पलता, समयमुन्दर पृ० २०६ (ग) कल्पद्र ुम कलिका पृ० १४६ ७८. (क) आवश्यक निय०ि०३४२ (स्व) आवश्यक चूर्णि० पृ० १८१ (ग) त्रिषष्टि० १।३।५११-५१३ (घ) चरप्पन्न महापुरिस परियं (आचार्य शीलाक) ७६. आवश्यक नियुक्ति० गा० ३४३ ८०. महापुराण (आदि पुराण पर्व २४) के अनुसार इसी समय सम्राट भरत को अन्तःपुर में पुत्र रत्न प्राप्त होने की सूचना भी प्राप्त हुई । ८१. (क) आवश्यक मलयगिरि वृत्ति २२६ (ख) आवश्यक पूणि० पृ० १८१ (ग) त्रिपष्टि० १।३।५०८-५३० ४७ ८२. (क) आवश्यक नियुक्ति (ख) त्रिषष्टि० १।३।५३१ ८३. (क) आवश्यक नियुक्ति० गा० ३४५-३४६ (ख) आवश्यक पूर्णि० पृ० १०२ (ग) आवश्यक मलय० वृत्ति प० २२६ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४. धम्माणं कासवो मुंहें। -उत्तरा०म० २५, गा• १६ ८५. (क) आवश्यक नियुक्ति० मलय० वृत्ति पृ० २३०१ (ख) त्रिषष्टि० ११३१६५४ १० ८६ ८६. (क) आवश्यक मलय० वृ० पृ. २२६ (ख) त्रिषष्टि० १३१६५१ (ग) कल्पलता, समयसुन्दर पृ० २०७ (घ) त्रिषष्टि ० १।४।७३०-७४६ ८७. मावश्यक चूर्णि० पृ० २०६ ५६. मावश्यक मलय० पृ० २३१११ ८६. (क) बावश्यक मलय० पृ० २३१३१ (ख) त्रिषष्टि० १।४।८१८ से ८२६ ६०. (क) आवश्यक चूणि० २०६।२१० (ख) आवश्यक मलयगिरि वृत्ति ६१. आवश्यक नियुक्ति० गा० ३४८ ६२. आवश्यक चूणि पृ० २१० ६३. पढमं दिट्ठोजुद्ध', वायाजुद्ध तहेब बाहाहिं । ___ मुट्ठीहि अ दंडेहि अ सव्वत्यवि जिप्पए भरहो । -आवश्यक भाष्य गा०३२ ६४. (क) त्रिषष्टि० पर्व १, सर्ग ४-५ (ख) आदि पुराण (जिनसेन) पर्व ३४-३६ (ग) कथाकोष प्रकरण (जिनेश्वर सूरि) कथा : ६५. (क) आवश्यक मलय० पृ० २३२ (ख) आदि पुराण, पर्व ३६ ६६. (क) आवश्यक मलय० वृत्ति (ख) त्रिषष्टि० १३५१७६५ से ७६८ (ग) आवश्यक चूणि० पृ० २१०-२११ ६५. (क) आवश्यक नियुक्ति गा० ४३६ (ख) आवश्यक मलय० वृत्ति पृ० २४६ (ग) आवश्यक चणि पृ० २२७ १८. भगवान ऋषभदेव के सम्बन्ध मे प्राय. वैदिक ग्रन्थ एक स्वर से श्रद्धाभिव्यञ्जना करते हैं। ऋग् वेद (२-३३-१५) में रुद्र सूक्त मे एक ऋचा है __ "एव बम्रो वृषभ चेकितान यथा देव न हृणीषे न हंसी।" हे वृषभ ! ऐसी कृपा करो कि हम कभी नष्ट न हों।। इसके अलावा नाभिपुत्र ऋषभ और ऋषभ पुत्र भरत चक्री का ताज्यवाह्मण (१४-२-५) शत० मा० (५, २-५-१७) श्रीमद्भागवत (स्कंध २०) तथा उत्तर कालीन मार्कण्डेय पुराण (म० ५०) कूर्म पु० (म० ४१) अग्नि पु० (१०) वायु पु० (३३) गरुड पुराण (१) ब्रह्माण्ड पु० (१४) विष्णु पु० (२-१) स्कंद पु० (कुमार खण्ड ३७) आदि अनेकों पुराणो मे विस्तार के साथ उनकी चर्चा मिलती है। पुरातत्त्व विभाग के अनुसन्धानों ने तो यह प्रायः सिद्ध कर दिया है कि ऋषभदेव ही भारतीय सभ्यता और योग मार्ग के आद्य प्रवर्तक थे। इसके लिए विशेष जिज्ञासु लेखक का ऋषभ देव, एक परिशीलन ग्रन्थ देखें। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-४ (स्थविरावस्यन्तर्गत टिप्पणानि) १. (क) 'णव गणा एक्कारम गणधरा' दोहं दोण्हं पच्छिमाणं एक्को गणो। जीवंते चेव भट्टारए गवहिं जणेहिं अज्जसुधम्मस्स गणो णिक्खित्तो "दोहाउगो त्ति णातु।-कल्प० पू० सू० २०१ (ख) परिनिव्वुया गणहग जीवंते नायए नव जणा उ । इदभूई सुहम्मो अ, रायगिहे निव्वुए वीरे। -आवश्यक नियुक्ति० गा० ६५८ २ मगहा गुब्बरगामे जाया तिन्नेव गोयमसगुत्ता । -आवश्यक नियुक्ति गा० ६४३ ३. (क) आवश्यक नियुक्ति० गा० ६४७ (ख) आद्याना त्रयाणां गणभृता पिता वसुभूतिः । -आवश्यक मलय० ३३८ ४. (अ) आवश्यक नियुक्ति० गा० ६४८ (ख) आद्यानां त्रयाणां गणभृता माता पृथिवी । -आवश्यक म० वृ० ३३८ ५. तिनि य गोयमगुत्ता। -आव० नियुक्ति० गा० ६४६ ६ (क) आवश्यक नियुक्ति० ६५० (ख) इन्द्रभूतेरगारपर्यायः पञ्चाशद्वर्षाणि । -आवश्यक मलय०१० ५० ३३८ ७. (क) आवश्यक नियुक्ति० गा० ६५२ (ख) इद्रभूतेश्छपस्थपर्यायस्त्रिंशद्वर्षाणि । -आवश्यक मलय. प० ३३९४१ ८. (क) आवश्यक नियुक्ति० गा० ६५४ (ख) इन्द्रभूतेः केवलपर्याययो द्वादश वर्षाणि । -आवश्यक मलय० वृ० ५० ३३६ ६. (क) आवश्यक नियुक्ति० ६५५ (ख) इन्द्रभूतेः सर्वायुविनवतिवर्षाणि । -आव० मलय० वृ०५० ३३१ १०. आवश्यक नियंक्ति गा० ६५० । ११. आ. नियं० गा० ६५२ । १२. मा० नियुगा० ६५४ १३. आ० गा० ६५५ । १४. आ.नियु०६५० । १५. आ० नि० गा०६५२ । १६. मा०नि० गा० ६५४ । १७. आ. नि. गा. ६५५ । १८ आ०नि० गा० ६४३ । १६. आ०नि० गा० ६४ २०. आ. नि. गा०६४७। २१. आ. नि. गा०६४८ । २२. आ. नि. गा० ६५०। २३. आ० नि० गा० ६५२ । २४. आ० नि० गा० ६५४ । २५. आ० नि० गा० ६५५ । २६. आ०नि० गा० ६४३ २०मा०नि० गा०६४१। २५. आ०नि० गा० ६४७ । २६ मा० नि० गा० ६४८ । ३०. आ. नि० गा० ६५० । ३१. मा०नि० गा० ६५२ । ३२. आ० नि० गा० ६५५ । ३३. आ०नि० गा.६४४ ३४. मा०नि० गा०६४७। ३५. मा०नि० गा० ६४८। ३६ आ. नि. गा० ६५० । ३७. आ० Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० गा० ६५३-६५४ । ३८. आ० नि० गा० ६५५.६५६ । ३६. आ०नि० गा० ६५३ । ४०. आ० नि० गा०६४७ । ४१. आ० नि० गा० ६४८ । ४२. आ०नि० गा० ६४४ । ४३ आ०नि०गा० ६. ४४. आ०नि० गा०६५३-६५४ । ४५. आ०नि० गा० ६५५ । ४६. आ०नि० गा०६४४ । ४७. आ० नि० गा०६४९ । ४८. आ० नि० गा० ६४७ । ४६. आ०नि० गा० ६४८ । ५०. आ०नि० गा० ६५० ५१. आ०नि० गा० ६५५-६५६ । ५२ आ० नि० गा० ६४४ । ५३. आ०नि० गा० ६४८ । ५४. आ. नि० गा० ६४७ । ५५. आ०नि० गा० ६४८ । ५६. आ०नि० गा०६५० । ५७. आ०नि० गा० ६५५-६५६ । ५८. आ० नि० गा० ६४५ । ५६. आ० नि० गा० ६४६ । ६०. आ० नि० गा० ६४७ ६१. आ०नि० गा० ६४८ । ६२. आ. नि. गा० ६५१ । ६३. आ०नि० गा० ६५५-६५६ । ६४. आ० नि० गा०६४५ । ६५ आ०नि० गा०६४६ । ६६. आ०नि० गा०६४७।६७. आ०नि० गा० ६४८ ६८. आ०नि० गा०६५१ । ६६. आ०नि० गा० ६५५-६५६ । ७.A. वीर निर्वाण संवत् को जानने का तरीका यह है कि वि० स० मे ४७० मिलाने पर, शक सवत् में ६०५ और ई. स. मे ५२७ मिलाने पर वोनि सवत् मिल जाता है। जैसे वर्तमान वि० स० २०२५ मे ४७० शक १८६० में ६०५ और १९६८ मे ५२७ मिलाने पर वोर संवत् २४६५ आ जाता है। ७० B. मण परमोहि पुलाए, आहार खवग उसमे कप्पे। संजमतिग केवल सिज्मणा य जम्मि वुच्छिण्णा । -जैन परपरानो इतिहास भा० १ पृ० ७२ मे उघृत, (त्रिपुटी) ७१. स्थविर सुस्थित गृहस्थाश्रम मे काटिवर्ष नगर के रहने वाले थे, अतः वे कोटि क नाम से पहचाने जाते थे । स्थविर सुप्रतिबुद्ध गृहस्थाश्रम मे कावन्दी नगर के निवामी थे, अतः वे काकन्दक नाम से विश्रुत थे। ७२. 'ताम्रलिप्तिका' शाखा की उत्पत्ति बंग देश की उस समय की राजधानी ताम्रलिप्ति या ताम्र लिप्तिका से हुई थी। उस युग मे वह एक प्रसिद्ध बन्दरगाह था। वर्तमान में वह बंगाल के मेदिनीपुर जिले में 'तमलुक' नाम का गाव है । __ कोटिवर्षीया शाखा की उत्पत्ति गठ देश को राजधानी कोटिवर्ष नगर से हुई थी। वर्तमान मे वह पश्चिमी बंगाल में मुर्शिदाबाद के नाम से प्रसिद्ध है। पौण्डवर्धनिका शाखा की उत्पत्ति पुण्ड्रवर्धन नगर से हुई थी। वर्तमान में वह उत्तरी बंगाल के (फिरोजाबाद) माल्दा से ६ मील उत्तर की ओर 'पाण्डुआ' नाम के पांव से पहचाना जाता है । उस युग मे इसमे राजशाही, दीनाजपुर, रंगपुर, नदिया, वीरभूम, मिदनापुर, जंगलमहल, पचेन और चुनार सम्मिलित थे। एक अन्य निद्वान के मतानुसार (जैन परंपरानो इतिहास भा० १ पृ० २०५) वर्तमान पहाड़पुर (बंगाल के वोगरा जिला R. B. R के स्टेशन से ३ मील दूर) पोंड्रवद्धन नगर का वर्तमान अवशेष है । 'दामी कपंटक' शाखा की उत्पत्ति बगाल के समुद्र के सनिकटवर्ती 'दासी कर्पट' नामक स्थान से हुई है। ७३. दशाश्रुतस्कंध, चूणि Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ ७४. (क) गुर्वावली-मुनि रत्न सूरि (ख) उवसग्गहरं धुत्तं, काऊणं जेण संघकल्लाणं । ___ करुणापरेण विहियं, स भद्दबाहू गुरु जयउ ॥१॥ -कल्पसूत्र कल्पार्थ बोधिनी टीका मे उदवत १० २०८ ७५. मुनि कल्याणविजय जो उपलब्ध भद्रबाहु संहिता को सत्तरहवी शताब्दी की कृति मानते हैं। -निबन्ध निचय पृ० २६७ ७६. आवश्यक धूणि भाग २, पृ० १८७ ७७. (म) तित्थोगा लिय ८०११२ । (ख) त्रिषष्टि० परिशिष्ट पर्व, सगं ६ (ग) वीर निर्वाण संवत् और जैन काल गणना पृ० ६४ ७८. कौशाम्बी शाखा की उत्पत्ति कोशाम्बिका नगरी से हुई है। कौशाम्बिका नगरी वर्तमान मे 'कोसम' नाम से प्रसिद्ध है। यह स्थान इलाहाबाद से दक्षिण और पश्चिम मे ३१ मील पर अवस्थित है और जहानपुर से दक्षिण मे १२ मील पर है । ७६. शुक्तिमतीया शाखा की उत्पत्ति शुक्तिमती नगर से हुई है । शुक्तिमती दक्षिण मालव प्रान्त की एक प्रसिद्ध नगरी थी। ८०. कौडम्बाण शाखा को उत्पत्ति किस स्थान से हुई है इसका सही पता नही लगा है। पुरातत्त्ववेता श्री कल्याणविजय गणि के अभिमतानुसार यह स्थान युक्त प्रदेश में कही होना चाहिए। ८१. चन्द्रनागरी शाखा की उत्पत्ति चन्द्रनगर से हुई है। चन्द्रनगर सेबडाफुली जंक्शन से ७ मोल उत्तर चन्द्रनगर का रेलवे स्टेशन है और हुगली रेलवे स्टेशन से ३ मील दक्षिण मे है । ८२. (क) कल्याणविजय गणि के मतानुसार स्यूलिभद्र का स्वर्गवास २१५ में नही, पर २२१ से भी बहुत पीछे हुमा है । तथ्यो के लिए देखिए -पट्टावली पराग० पृ० ५१ (ख) वीर निर्वाण संवत् और जैन काल गणना पृ० ६२ टिप्पणी ८३. वृहत्कल्प भाष्य ११५० गा० ३२७५ से ३२८६ ८४. जैन परंपरानो इतिहास भा० १ पृ० १७५-१७६ ८५. उदुम्बरीया-शाखा की उत्पत्ति उदुम्बरीया नगर से हुई थी। उदुम्बरीया का वर्तमान मे नाम . 'डोमरिया गञ्ज है। यह रापती नदी के दाहिने तट पर अवस्थित है। ८६. 'मासपुरीया' शाखा की उत्पत्ति वर्त देश को राजधानो 'मासपुरी' से हुई थी। ८७. चम्पीया शाखा की उत्पत्ति अंग देश की राजधानी चम्पा से हुई थी। ८८. भद्रीया शाखा की उतात्ति मलय देश की गजधानी भद्रिया से हुई थी। ८९. काकन्दीया शाखा की उत्पत्ति विदेह देश मे अवस्थित काकन्दी नगरी से हुई थी। ६०. मिथिला शाखा की उत्पत्ति विदेह की राजधानी मिथिला से हुई थी। ६१. उडुवाडिय (ऋतुवाटिका) शाखा की उत्पत्ति 'उडुवाडिय' स्थान से हुई है जो आजकल 'उलवडिया; नाम से प्रसिद्ध है। यह स्थान कलकत्ता से १५ मील दक्षिण भागीरथी गंगा के बायें किनारे पर हावड़ा जिले में है। Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२. 'क्षौमिलिया' शाखा की उत्पत्ति पूर्व बंगाल के क्षौमिल नगर से हुई थी जो वर्तमान मे 'कोमिला' नाम से प्रसिद्ध है। ६३. मानवगण की ये तीन शाखायें क्रमशः काश्यप, गौतम और वासिष्ठ गोत्रो से विश्रुत हुई है और चतुर्थ शाखा 'सारठ्ठिया' की उत्पत्ति सोरठ नगर से हुई है, जो वर्तमान में मधुवनी से उत्तर-पश्चिम में आठ मील पर 'सोरठ' नाम से अवस्थित है। ६४. कोटिकगण की उत्पत्ति सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध स्थविरो से हुई है। आर्य सुस्थित गृहस्थाश्रम में कोटिवर्ष नगर के निवासी थे और सुप्रतिबुद्ध काकन्दो नगरी के। अतः इन स्थविरों के अपर नाम क्रमशः कोटिक और काकन्दक भी थे। इन स्थविरो से प्रादुर्भूत होने वाला गण 'कोटिक' नाम से विश्रुत हुआ। १५. 'उच्चानागरी' शाखा की उत्पत्ति 'उच्चानगरी' से हुई है। उच्चानगरी' ही वर्तमान मे 'बुलन्द शहर' के नाम से विख्यात है। ६६. ममिका शाखा की उत्पत्ति चित्तोड के सन्निकटवर्ती मध्यमिका नगरी मे हुई थी। ६७. बंभलिज्जिय' कुल के स्थान पर मथुरा के शिलालेखों मे ब्रह्मदासिका नाम उपलब्ध होता है। कल्याणविजय गणि के अभिमतानुसार यह नाम शुद्ध है-"कोटिक गण' के जन्मदाता सुस्थित - सुप्रतिबुद्ध के गुरुभ्राता 'ब्रह्मगणा का पूरा नाम 'ब्रह्मदास गणि' हो और उन्ही के नाम से ब्रह्मदासिक कुल प्रसिद्ध हुआ हो।" पट्टावली पराग पृ० ४१-४२ १८. वाणिज्य कूल के स्थान पर मथुरा के शिलालेखों में 'ठाणियातो' नाम उत्कीर्ण है। कल्याण विजय जी इस नाम को ठीक मानते हैं। देख-पट्टावली पगग पृ० ४२ RE. (क) कल्ासुबोधिका टीका पृ० ५५४, माराभाई मणिलाल नबाब (ख) जैन परम्परानो इतिहास, भा० १, पृ० २२०-२२१ । १०० ० सो पइटाणं आगतो। तत्थ य सातवाहणी राया सावगो। तेण समणप्रयणओच्छणो पवत्ति तो, अतेउरं च भणियं-अमावसाए उववासं काउ "अमिमादीसु उववास कातुः" इति पाठान्तरम् । पारणए साधूणं भिक्खं दाउ पारिज्जह । अध पज्जोसमणादिवसे आसण्णीभूते अज्जकालएण सातवाहणो भणितो-भड्वयजोण्हस्स पचमीए पज्जोमावणा। रण्णा भणितो-सहि वसं मम इंदो अणु जायचो होहिति तो 'ण पज्जुवासिताणि चेतियाणि साधुणो य भविस्सं ति" ति कातु तो छट्ठीए पज्जोमवणा भवतु। आयरिएण भणियं-न वट्टति अतिकामेतु। रण्णा भणित-तो चउत्थीए भवतु......"आयरिएण भणितं एवं होउ, त्ति चउत्थीए कता पज्जोसवणा। एवं चउत्थी वि जाता कारिणता। -पज्जोसमणाक.प्पणिज्जुती पृ० ८६ (क) श्री निशीथसूत्र चूणि० उ० १० (ख) भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति १०१. तुम्बवन के परिचय के लिए देखिए-मुनि श्री हजारीमल स्मृतिमथ पृ० ६७७ १०२. (क) आवश्यक चूगि०,प्रथम भा० ५० ३६० (ख) अवंती जणवए तुम्बवणसग्निवेसे धणगिरी नाम इन्भपुतो। -आवश्यक हारिभद्रीय टीका प्र. भा०प० २८६-१ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ग) अवंतीजणवए तुम्बवणसन्निवेसे घर्णागिरी नाम इब्भपुत्तो । - आवश्यक मलय० टी० द्वि० भा० प० ३८७-१ (घ) तु बवणसन्निवेसे अवंतीविसयंमि धणगिरि नाम इन्भसुओ असि नियंगचंगिमाविजियसुररुथो । - उवएसमाला सटीक, ११०, पत्र २०७ १२३. (क) उपदेशमाला सटीक, गाथा ११०, पत्र २०७ ( ख ) ऋषिमंडल प्रकरण गा० २ पत्र १६१-१ (ग) त्रिपष्टि० परिशिष्ट पर्व, द्वादश सगं श्लोक ४, पृ० २७० १०४ (क) वज्रादप्यधिकं भारं शिशोरालोक्य सूरय. । जगत्प्रसिद्धां श्री वज्र इत्याख्यां ददुरुन्मुदः । - ऋषिमंडल प्रकरण, श्लोक ३४ पृ० १६३।१ (ख) सोत्रिय भूमिपत्तो जा जाओ तत्वसूरिणा भणियं । अम्बो कि बइरमिमं जं भारियं भावमुव्वहइ ॥ (ग) तद्भारभंगुर करो, गुरुरूचे सविस्मयः १०५ भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति: प० ७३ १०६. (क) आवश्यक नियुक्ति ३६३ - ३७७ अहो पु रूपभूद्वयमिदं धतु ं न शक्यते । - परिशिष्ट पर्व, सगं १२, श्लो० ५२ पृ० २७४ (घ) भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति, पृ० ६६, शुभशोलगणि ( ख विशेषावश्यक भाष्य २२८४ - २२६५ १०७. (क) आवश्यक नियुक्ति ७६२ (ख) विशेषावश्यक भाप्य २२७९ ५३ १११. ( क ) नन्दी सूत्र, हारिभद्रीय टीका मलयगिरि वृत्ति १०८. नन्दी चूर्णि पृ० ८ १०६ वीर निर्वाण संवत् और जैन कालगणना -- कल्याणविजय पृ० १०४ ११०. जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए ममं एग बाससहस्सं पुम्बगए अणुसज्जिस्सइ । - भगवती सूत्र २०१६।६७७ (ख) - उपदेश माला, सटीक पत्र २०६ " (ग) नन्दी सूत्र, चूर्णि जिनदास गणी महतर Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. (क) समणे भगवं महावोर० । चंदसंवच्छग्मधिकृत्यापदिश्यते जेणं जुगादी सो । [समा बार्यन्तत टिप्पणानि ] मोहुभवी, खीरे य धरणे आत - संजमविराधणा । (ख) दावे भंते !' दापये: 'पडिगा' त्वमपि गृह्णीयाः । परिशिष्ट - ५ - कल्पसूत्र घृणि सू० २२४ (ख) वासाणं सवीसइराए, चन्द्रसंवत्सरमधिकृत्यापदिश्यते जेण सो जुगाई | २. नो से कप्पई तं रर्याण, ति भाद्रशुक्नपञ्चमीमतिक्रमितुम् । - कल्पसूत्र टिप्पनक सू० २३१ ३. (क) अत्येगतिया आयरिया 'दाए भंते ।' दाते गिलाणस्स मा अप्पणो पडिग्गाहे चातुम्मासिगादिसु । - कल्पसूत्र चूर्णि सू० २३४ (ख) ' एवं वृत्तपुव्वं' ति यद्येतदुक्तं भवति गुरुभिर्यदुत 'दापयेग्लनाय त्वं' तदा दातु कल्पते न स्वयं ग्रहीतुमिति । - कल्पसूत्र टिप्पण सू० २३४ ४. पडिग्गाहे भंते । ति अप्पणो पडिग्गाहे अज्ज गिलाणस्स अण्णो गिव्हिहि त्ति ण वा भुजनि । अध दोह वि गेहति तो पारिट्ठावणियदोसा । अपरिट्ठवेते गेनण्णादि । -- कल्पसूत्र, टिप्पनक - कल्पसूत्र चूर्णि० २३५ ५. दाए पडिग्गाहे गिलाणस्स अप्पणो वि, एवाऽयरियबाल वुड्ड पाहुणगाण वि वितिष्णं, स एव दोसो - कल्पसूत्र चूर्णि सू० २३६ ६. (क) उत्तराध्ययन अ० १७, गा० १५। (ख) वही, अ० ३०, गा० २६ (ग) विकृतिहेतुत्वाद्विकृती (घ) स्थानाङ्ग ६।६७४ (च) चत्तारि सिणेह विगतीओ पन्नत्ताओ, तं जहा - तेल्लं घयं वसा णवगीतं । सू० २२४ - कल्पसूत्र, आचार्य पृथ्वीचन्द्र टिप्पण सू० २३६ उत्तराध्ययन वृहद्वृत्ति शान्त्याचार्य प० ४३५ (छ) चत्तारि महाविगतीओ पन्नताओ, तं जहा - महु, मंसं, मज्जं, णवणीतं । -स्वानाङ्ग ४/२/२७४ -स्थानाङ्ग ४।१।२७४ (ज) विकृति - अशोभनं गतिं नयन्तीति विगतय; ताश्च क्षीरविगयादय. बिगतीमाहरयतः मोहोभवो भवति । - उत्तराध्ययन] चूर्णि० पृ० २४६ (झ) विशेष जिज्ञासु लेखक का 'मासाहार निषेध', लेख देखें । ૪ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. खट्ठस्स दो गोयर काला । किं कारणं ? सो दुणो वि कल्लं उववासं काहिति जति खंडिताणि सत्तियाणि चैव कष्पति कीस एगवारा गेव्हिनु न परेति ? उच्यते-सोतलं भवति संचय संसत दीहावी दोसा भवंति मुत्ताणुमुते य बलं भवति, दुक्ख च घरेतिति । · ५ - कल्पसूत्र पूर्णि० सू० २४२ ८. (क) व्यपगतं अष्टं व्पष्टं विकृष्टं वा, तिष्णि वि गोवरकाला सब्बे' चत्तारि वि पोरुसितो आहा गणंतरं पाणगं । (ख) 'विकिट्ठ' ति अष्टमादूर्ध्वं तपः - कल्पसूत्र पूणि सू० २४४ - कल्पसूत्र टिप्पण० ० २४४ ६ 'तओ पाणगा' त्रीणि पानकानि । 'उस्सेइम' पिट्ठजलाइ । 'संसेइम' पत्राणि उक्कालेउ सीयलेण जलेण सिम्पति तं संमेइम - कल्पसूत्र टिप्पण सू० २४६ १०. (क) 'आयाम' अवस्सावणं सोवीरग' अबिलं । (ख) 'आयाम' अवस्त्रावणम् । सोवीर काञ्जिकम् । 'सुद्धवियड' उष्णोदकम् । -- - कल्पसूत्र पूर्ण सू० २४० 1 कल्पसूत्र टिप्पण सू० २४० ११. (क) 'संखादनिओ' परिमिनदनिओ मांण बोवं दिज्जति जति तत्तिलगं भतपाणस्स गेष्हति सा विदती व पंच ति णिम्म चतुरो तिष्णि दो एगा वा छ सत वा मा एव संडोमोकता तेण पंच भायणस्स लद्धातो तिष्णि पाणगस्स ताहे ताओ पाणगच्चियातो भोषणे संधु 1 भति तण कति भोयण न्वियातो वा पाणए सम्भति तं पिण कष्पति । कल्पसूत्र पूर्णि सू २५१ कल्पसूत्र टिप्पन २५१ 1 (ख) 'संखादनि' परिमित दत्तेः 'लोणासायणं स्तोकम् । १२. (क) वामावास ० ज किचि कणयसितं उस्सा महिया वास वा पद्धति उदगविराहण ति काउं - कल्पसूत्र चूर्णि० २५३ (ख) 'पाणिपठिगह जिनकल्पिकादेः ओम महीवासा कुसारमात्रं यावत् पतति तावन्न कल्पते - कल्पसूत्र टिप्पण सू० २५३ १३. बग्घारियटिकालो जो वासकणं गालेति अच्छिणाते व पागते। कप्पत्ति से 'स ंतस्तरस्स, अंतरं -स्यहरणं पडिम्महो वा उत्तर पाउरण कप्पो सह अंतरेण उत्तरस्स | गन्तुम् । - कल्पसूत्र पूणि २५६ १४. आचाराग १२८।४।५१ १५. उत्त राष्ययन अ० २३ गा० १३ १६ -- 'संतरुतरंसि' अतरमिति कल्पः उत्तरं च वर्षाकल्प कम्बली अथवा अंतरं- रजोहरणं डिग्गहो वा उत्तर पाउकरणप्पो तेहि सह । - कल्पसूत्र पृथ्वी टिप्पण २५६ १७. ओघनियुक्ति गाथा ७२६ वृत्ति १८. कम्बलस्य वर्षासु वहिनताना तात्कालिकवृष्टाय काय रक्षणमुपयांगः यतो बालवृद्धाननिमित्तं वर्षत्यपि जलधरे भिक्षार्य असह्योच्चार प्रस्त्रवणपरिष्ठापनार्थं च निःसरता कम्बलावृत्तदेहाना न तथा विवाकाय विरामनेति । --संग्रह वृत्ति पत्र ६६ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ १९. बाल-वृट-ग्लाननिमित्तं वर्षत्यपि जलघरे भिक्षाय नि.सरतां कम्बलावृत्तदेहाना न तथा विधाकाय विराधना। -योगशास्त्र, स्वोपन वृत्ति ३, ८७ २०. अह पुणे जाणेज्जा-तिब्वदेसियं वासं वासमागं पेहाए, तिम्बदेसियं वा महियं सण्णिवयमाणि पहाए"""......"से एवं जच्चा णो साडिग्गहमायाए गाहावइ-कुलं पिंडवायपडियाए णिक्खमेज वा पविसेज पा! -आयारी तह आयार चूला, चूला १,०६ उद्देशा २, सू० ५३, पृ. २६६ २१. दशवकालिक ॥१ २२ प इति पडिसेहसद्दो, चरणं गोचरस्स त पडिसेहेति 'वास' मेघो, सम्मि पाणियं मुयन्ते। ___ - दशवकालिक, अगस्त्यसिंह चूणि २३. नकारो पडिसेहे वठ्ठइ, चरेज नाम भिक्खस्स अट्ठा गच्छेज्जाति. वास पसिद्धमेव, तमि वामे वरिसमाणे उ परियव्वं, उत्तिण्णेण य पन्युठे महाछन्नाणि सगडगिहाइणि पविसित्ता ताव अच्छाइ जावठ्ठियो ताहे हिंडइ । -दशवेकानिक जिनदास चूणि १० १७० २४. न चरेद्वर्षे वर्षति, भिक्षार्थं प्रविष्ठो वर्षणे तु प्रच्छन्ने तिष्ठेत् । -दशवकालिक हारिभद्रीया टीका प०१६४ २५. कणगफुसियमित्तं पि। २६. (क) महियाए व पतिए । -दशव० ५१८ (ख) महिया पायसो सिसिरे गम्भमासे भवइ ताएवि पडत्तीए नो चरेज्जा। -दशवै० जिनदाम चूणि पृ० १७० २७. निगिन्मिय निगिझिय स्थित्वा स्थित्वा । कप्पइ अहे वियडगिहं सि वा आस्थानमण्डपम् । पुम्वाउत्ते 'भिलंगसू।' मसूरदालिः उडिददालिर्वा इति जनश्रुतिः व्यवहारवृत्ती विदमुक्तम् "यद् गृहस्थाना पूर्वप्रवृत्तमुपस्क्रियमाण तत् पूर्वायुक्तम् ।" इति । साधोरागमनात पूर्व गृहस्थ स्वभावेन राध्यमानः सतन्दुलोदनः 'मिलंगसूपो नाम' सस्नेहः सूपो दालिरिति म कल्पते प्रतिग्रीहतुम् । यो 5 सौ तत्र 'पूर्वागमनेन' पूर्वागताः साधव इति हेतो. पश्चाद् दायकः प्रवृत्तो राद्ध म नन्दुलोदनो मिल गसूपो वा नासो कल्पते प्रतिग्रहीतुमिति । -कल्पसूत्र, आचार्य पृथ्वीचन्द्र टिप्पण सू० २५७ २८. पत्थ विवियडरुक्खमूलेसु कहं अच्छितन्वं ? "तत्य जो कप्पति एगस्म णिगंथस्स एगाए य गिरगथीए ।" कहं एगाणिओ ? स घाडइल्लओ अब्भत्तन्टिओ असुहितओ कारणिओ वा । एवं णिग्गंधीण वि आयपरोभयसमुत्या दोसा सकादओ य भवंति । अह पंचमओ खुड्डओ वा खुड्डिया वा, छक्कण्णं रहस्सण भवति तत्थ वि अच्छतो असि धुवकम्मियादीषं संलोए 'सपडिदुवारे' सपडिहुत्तदुवारं सव्वगिहाण वा दुवारे । खुड्डनो साधूणं स जतीणं खुड्डिया। साधू उस्मगेणं दो, संजती ओतिण्णि चत्तारि पंच वा । एवं अगारीहिं वि। -कल्पसूत्र चूणि सू० २५६-२६६-२६१ २६. (क) 'अण्णतरं वा विगति', खीरादि, 'एवदियं' एत्तियं परिमाणेण, 'एवतिखुत्तो' एत्तियवारातो दिवसे वा मोहुम्भवदोसा खमगगिलाणाणं अणुण्णाता। -कल्पसूत्र पूणि २७६ (ख) कल्पसूत्र टिप्पण २७६ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ " ३१. (क) वासावासं० णो कप्पति णिगंधा २ परं पज्जोसवणातो गोलोममेत्ता वि केसा जाव संबछरिए कप्पे । उवातिणावेत' त्ति अतिक्कामेत्तर । केसेसु आउक्कातो लग्गति सो विराधिज्जति, तेसु य उल्ल तेसु छप्पतियालो समुच्छंति, छप्पइयाश्रो य कडूयतो विराषेति प्रप्पणी वा खत करेति, जम्हा एते दोसा तम्हा गोलोमप्यमाणमेत विण कप्पति । जति सुरेण करोति कत्त रीए वा आणादीता, छष्पतियातो छिज्जति, पच्छाकम्म च महावितो करेति, महामणा तम्हा लोमो कातो, तो एते दोसा परिहरिता भवति । भवे कारणं ण करेज्जा वि लोय असाहू ण तरेति अहियासेतु लोयं जतिकीरति अण्णे उवद्दवो भवति, बालो रुवेज्ज वा धम्म वा छड्डे ज्ज, गिलाणो वा तेण लोभ ण कीरति । जइ कत्तरीए कारेति पक्खे पक्खे कातव्वं, अष कुरेण मासे मासे कातव्यं परम डुरेण, पच्छा कसरीए अध्याण दबं घेतून तस्स वि हुत्थधोवणं दिज्जति एस जयणा । घुवलोओ उ जिणाणं । थेराण पुण वासासु अवस्स कायव्यो । पक्खिया आरोवणा arti reवकाल' | अहवा संचारयदोषाणं पक्खे पक्खे बंधा मोत्तव्वा पडिलेहेयब्वा य । महवा पक्खिया आरोवणा के साणं कत्तरीए, अण्णहा पन्छित । मासितो बुरेणं लोओ छण्हं मासाण येराण, तरुणाणं वाउम्मासियो । सवच्छरिम्रो ति वा वासरत्तिओ ति वा एग। उक्तं च सवच्छरं वा वि परं पमाण । बीयं च वासं ण तहि वसेज्जा " एस 'कप्पो'- मेरा मज्जाया, कस्स ? येराणं भणिता आपुच्छ भिक्खायरियावि विगति पच्चकखाण जाव मत्तगति । जिणाण वि एत्थ किचि सामण्ण पाएण पुणथेरान' | -- कल्पसूत्र भूणि २८४ (ख) 'उवायणा' अतिक्रमयितुम् । शेषो लोचादिविधि चूर्णितो ज्ञेयः | - पृथ्वी० टिप्पण २८४ (ग) केशेषु हि अप्कायविराघना, तत्संसर्गाच्च यूका: समूर्च्छन्ति, ताश्च कण्डयमानो हन्ति शिरसि नवक्षत वा स्यात्, यदि क्षुरेण मुण्डापयति कर्तर्या वा तदाऽज्ञाभंगाद्या: दोषाः संयमात्माविराधना, यूकाछिद्यन्ते नापितश्च पश्चात्कर्मकरोति शासनाय भ्राजना च ततो लोच एव श्रेयान् । - कल्पसूत्र सुबोधिका टीका, पत्र० १६०-६१ ३२. देखिये -- जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, आवश्यक नियुक्ति आदि ३३. वीरासन उक्कुड़गासणाइ लोआइओ य विष्णेओ । कायकिलेसो संसारवास निब्वे अहे उत्ति || वीरासणासु गुणा कार्यानरोहो दया अ जीवेस । परलोअमई अ तहा बहुमाणो देव अन्नेसि ॥ स्सिंगया य पच्छापुरकम्मविवज्जणं च लोअगुणा । दुक्ख सहतं नरगादिभावणाए य निव्वेओ ॥ तथाऽन्यैरप्युक्तम्- पश्चात्कर्म पुरः कर्म (ई) यपथपरिग्रहः । दोषा होते परित्यक्ता, शिरोलोचं प्रकुर्वता ॥ - दसवैकालिक, हारिभद्रीय वृत्ति १० २८२६१ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ३४. जं मज्जियं समीरबल्लएहि तवनियमबंभमइएहि । त दाणि पच्छ नाहिसि, छड्डतो सागपतेहि ॥ २७१४॥ तवो भेदो असो, हाणी, दसण-चरित नाणाण । साहुपदोसो संसारवड्ढणी साहिकरणस्स ॥ २७०८ || - कल्पलघुभाष्य उत्तरा० २६ ३५. खमावणयाएण जीवे पल्हायणभाव' जणयह । ३६. वासासु वाघातणिमित्त ं तिष्णि उवस्सया घेत्तव्या । का समाचारी ? उच्यते-वेउब्विया पडिलेहा पुणे पुणो पडिले हिज्जति ससते अससत्तं, तिष्णि वेलाओ - पुरुषव्हे १ भिक्खं गतेसु २ वेतालिय ३ । जे अणे दो उवस्सया तेसि 'वेउब्विया पडिलेहा' दिणे दिणे निहालिज्जंति, मा कोति ठाहिति ममत्तं या काहिति ततिए दिवसे पादपु जणेण पमज्जिज्जति । - कल्पसूत्र भ्रूणि सू० २८७ ३७. (क) तेणं कालणं तेणं समेएणं समणे भगवं महावीरे रायगिहे नगरे सदेवमणूयासुराए 'परिसाए' उद्घाट्य शिरः परि-सर्वतः सीदति परिषत् 'मज्झे ठितो' मज्झगतो 'एवं ययोक्त' कहेति, भासति वाग्योगेण, पण्णवेति अणुपालियस्स फल, परुवेति, प्रति फल प्रतिरूवेति । 'पज्जोसवणाकप्पो ।' त्ति वरिसार समज्जाता । बज्जो ! त्ति आमंत्रणे । द्विग्रहण निकाचनायें, एव कर्तव्यं नान्यथा । सह अत्थेण सअट्ठ । सेहेतु न निर्हेतुकम् । 'सनिमित्त सकारण अणूणपालितस्स दोसा अयं हेतु:, अपवादो कारण जहा सवीसतिराते मासे वीतिक्कते पज्जो सबेयध्व । किनिमित्तं हेतुः पाएणं अगारीहि अगाराणि सट्ठाए कहाणि । कारणं उरेण बि पज्जो - सवेति मासापुणिमाए। एवं सव्वसुत्ताण विभासा | दोसदरिसण हेतुः । अववादो कारण | संहेतु कारणं भुज्जो भुज्जो ।' पुणो पुणो उबदसेति । परिग्रहणात् सावगाण वि कहिज्जति, समोमरणे कढिज्जति पज्जोसमणाकप्पो | - कल्पसूत्र चूर्णि सू० २६१ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-६ ( बाय, संगीत परिचय ) १ तत--तन्तुवाद्य-वीणा आदि २ वितत-मंढे हुए वाद्य-पटह आदि १८ कुतुम्ब चर्मावनपुटो वाद्यविशेषः । १६ गोमुखी ३ घन-कांस्यताल ४ मुसिर-शुषिर-फूक द्वारा बजने वाला २० मर्दल २१ वीणा वाद्य बांसुरी आदि । २२ विपंची-त्रितंत्री वीणा -स्थानाङ्ग ४ २३ वल्लकी -सामान्य वीणा १ शंख २४ महती-शततत्रिका वीणा २ शृग २५ कच्छभी ३ शंखिका २६ चित्रवीणा ४ खरमुही २७ बद्धीसा ५ पेया २८ सुघोषा ६ पोरिपिरिया-शूकर-पुटावनद्धमुखो- २६ नन्दोघोषा वाद्य विशेषः। ३० भ्रामरी ७ पणव--लघु पटह ३१ षड्भ्रामरी ८ पटह ६ भंभा-ढक्का ३२ परवादनी-सप्ततत्री वीणा १० होरंभ-महाढक्का ३३ तूणा ११ मेरी ३४ तुम्बवीणा १२ सल्लरी ३५ आमोद १३ दुंदुभि-वृक्ष के एक भाग को भेदकर ३६ संमा बनाया गया वाद्य। ३७ नकुल १४ मुरज - शकटमुखी ३८ मुकुन्द १५ मृदंग ३६ हुडुक्की १६ नंदी मृबंग-एकतः संकीर्ण अन्यत्र ४० विचिक्की विस्तृतो मुरज विशेषः। ४१ करटा १७ आलिंग ४२ डिडिम Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) १० वंश ११ पणव १२ शंख -वृहत्कल्पभाष्यपीठिका २४ वृत्ति ४३ किणित ४४ कडंब ४५ दर्बरिका-गोहिया ४६ दर्वरक ४७ कलशी ४८ मडक ४६ तल ५० ताल ५१ कांस्यताल ५२ रिगिसिया ५३ लत्तिया ५४ मगरिका ५५ सुसुमारिया ५६ वंश ५७ वेणु ५८ वाली ५६ परिल्ली ६० बद्धगा -राजप्रश्नीय सूत्र ६४ संगीत गीत के तीन प्रकार हैं:-- १ प्रारंभ में मृदु २ मध्य में तेज ३ अन्त में मन्द --स्थानाङ्ग ७, उ०३ -अनुयोगद्वार गीत के दोष १ भीतं-भयभीत मानस से गाया जाय, २ द्रुतं-बहुत-शीघ्र-शीघ्र गाया जाय ३ अपित्यं-श्वास युक्त शीघ्र गाया जाय __ अथवा ह्रस्व स्वर लघु स्वर से ही गाया जाय। ४ उत्तालं- अति उत्ताल स्वर से व अव स्थान ताल से गाया जाय , ५ काकस्वरं-कौए की तरह कर्ण-कट शब्दों से गाया जाय। ६ अनुनासिकम्-अनुनामिका से गाया जाय । १ भमा २ मुकुन्द ३ मद्दल ४ कडंब ५ मल्लरि -अनुयोगद्वार ७ कांस्यताल ८ काहल ६ तलिमा __गीत के आठ गुण:१ पूर्ण-स्वर, लय और कला से युक्त गाया जाय। २ रक्तं-पूर्ण तल्लीन होकर गाया जाय । Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१ ) ३ अलंकृत - स्वर विशेष से अलंकृत होकर गाया जाय । ४ व्यक्तं - स्पष्ट गाया जाय । ५ अविघुष्टं - अविपरीत स्वर से गाया जाय । ६ मधुरं - कोकिला की तरह मधुर गाया जाय । ७ समं-ताल, वंश, व स्वर से समत्व गाया जाय । ८ सुललितं - कोमल स्वर से गाया जाय । अन्य आठ गुण: १ उरोविशुद्ध - वक्षस्थल से विशुद्ध होकर निकलना । २ कण्ठविशुद्ध - जो स्वर भंग न हो । ३ शिरोविशुद्ध - मूर्धा को प्राप्त होकर भी जो स्वर-नासिका से मिश्रित नही होता । ४ मृदुक- जो राग कोमल स्वर से गाई जाय । ५ रिङ्गित - आलाप के कारण स्वर अठखेलिया करता-सा प्रतीत हो । ६ पदबद्ध - जो गेय पद विशिष्ट लालित्य युक्त भाषा में निर्मित किये गये हों । ७ समताल प्रत्युत्क्षेप - नर्तकी का पादनिक्षेप और ताल आदि परस्पर मिले हों। ८ सप्त स्वर सीमर - सातों स्वर अक्षरादि से मिलान खाते हों । अक्षरादि सम भी सात प्रकार का है:१ अक्षर-सम- ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत, सानुनासिका से युक्त । ३ २ पद - सम-- पद विन्यास से युक्त । ताल - सम-ताल के अनुकूल कर आदि का हिलाना । ४ लय- सम- वाद्य यन्त्रों के साथ स्वर मिलाकर गाना | ५ ग्रह- सम-वांसुरी या सितार की तरह गाना । ६ निश्वसितोच्छ्वसितो सम-श्वास ग्रहण करने और निकालने का क्रम व्यवस्थित | ७ संचार - सम-वाद्य यत्रों के साथ गाना - स्थानाङ्ग ७।३:२५ - अनुयोगद्वार गा० ७ प्रकारान्तर से अन्य आठ गुण:१ निर्दोषं - गीत के बत्तीस दोष से रहित गाना । २ सारवन्तं -- विशिष्ट अर्थ से युक्त गाना | ३ हेतुयुक्तं - गीत से निबद्ध, अर्थ का गमक और हेतु युक्त । ४ अलंकृतं - उपमादि अलंकारों से युक्त । ५ उपनीतं - उपनय से युक्त । ६ सोपचार- कठिन न हो, विशुद्ध हो । ७ मितं - सक्षिप्त व सार युक्त । ८ मधुरं - योग्य शब्दों के चयन से श्रुति मधुर । —स्थानाङ्ग ―――― छन्द के तीन प्रकारः- १ सम-चारों पाद के अक्षरों की संख्या समान । Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ सारसी ( ६२ ) २ अर्घसम-प्रथम और तृतीय, द्वितीय ग्राम ओर मूर्च्छनाएं: -- और चतुर्थ पाद समान संख्या सात स्वरों के तीन ग्राम है:वाले हों। १ षडज प्राम ३ विषमसम-किसी भी पाद की संख्या २ मध्य प्राम, एक दूसरे से नहीं मिलती हो। ३ गांधार ग्राम -अनुयोग द्वार गा०१० सप्तस्वर षडज ग्राम की सात मूर्च्छनाएं:१ षडज-नासिका, कंठ, छाती, तालु, १ माग जिल्हा, दांत, इन छह स्थानों २कौरवो, से उत्पन्न । ३ हरिता, २ वृषभ-जब वायु नाभि से उत्पन्न होकर ४ रत्ना कण्ठ और मूर्धा से टक्कर ५ सारकान्ता खाकर वृषभ के शब्द की तरह निकलता है। ३ गांधार-जब वाय नाभि से उत्पन७ शुद्धष इजा होकर हृदय और कण्ठ को स्पर्श मध्य ग्राम की सात मूर्च्छनाएंकरता हुआ सगंध निकलता है। १ उत्तरमंदा ४ मध्यम- जो शब्द नाभि से उत्पन्न २ रस्ना होकर हृदय से टक्कर खाकर ३ उत्तरा पुनः नाभि में पहुंचे। अर्थात् ४ उत्तरासमा अन्दर ही अन्दर गूजता रहे। ५ समकान्ता, ५ पञ्चम-नाभि, हृदय, छाती, कंठ और ६ सुवीरा सिर इन पांच स्थानों से उत्पन्न होने वाला स्वर । ७ अभिरूपा गांधार ग्राम की सात मूच्र्छनाएँ ६ घेवत-अन्य सभी स्वरों का जिसमें मेल हो, इसका अपर नाम रैवत भी है। २ क्षुद्रिका ७ निषाद-जो स्वर अपने तेज से अन्य . ३ पूरिमा स्वरों को दबा देता है और ४ शुद्धगान्धार जिसका देवता सूर्य हो। ५ उत्तर गांधार Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ सुष्ठुतर मायामा ७ उत्तरायत कोटिमा संगीत शास्त्र में मूर्च्छनाओं के नाम अन्य उपलब्ध होते हैं१ ललिता, २ मध्यमा ३ चित्रा ४ रोहिणी ५ मतंगजा सौबीरी ६ ७ षण्मध्या ( ६३ ) १ पंचमा २ मत्सरी ३ मृदुमध्यमा ४ शुद्धा ५ अत्रा ६ कलावती ७ तीव्रा १ रौद्री २ ब्राह्मी ३ वैष्णवी ४ खेबरी ५ सुरा ६ नादावती ७ विशाला Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-७ कल्पसूत्र का संक्षिप्त पारिभाषिक शब्द-कोश अचेलक-कल्प का एक भेद । देखिये तथा मनुष्यो के पुरुषार्थ आदि 'कल्प' शब्द । गुण जिस कालक्रम में क्रमशः अट्रमभक्त-लगातार आठ समय (वक्त)तक घटते-जाते हैं, वह समय । काल आहार पानी का परित्याग, चक्र का अपकर्ष-युग। किंवा केवल आहार का त्याग- अवस्वापिनी-मनुष्य आदि को गहरी नीद तीन दिन का उपवास; तेला। दिला देने वाली एक विद्या। अनगार--मुनि । गृह का त्यागकर मुनिव्रत स्वीकार करने वाला श्रमण । अष्टांग महानिमित्त-आठ प्रकार की अनुत्तरोपपातिक-अनुत्तर-सर्वश्रेष्ठ देव निमित्तविद्या । जंसे (१) अंग विमान में, औपपातिक- जन्म विद्या-शरीर के अगोंपांग के लेने वाला देव। फुरकने से लाभालाभ का ज्ञान । (२) स्वप्न विधा-शुभाशुभ स्वप्नों अनुत्तर विमान- सर्वश्रेष्ठ देव विमान । का फल ज्ञान । (३) स्वरविद्याअभिग्रह-दृढ़ संकल्प, निश्चय जो कि जहाँ काक, शृगाल, उल्लू आदि तक सफल नहीं होता, वहां तक पक्षियों के स्वर से लाभालाभा गुप्त रखा जाता है। का परिज्ञान। (४) भू विद्याअवग्रह- चातुर्मास मे एक स्थान पर रहने भूकम्प आदि से लाभालाम का के बाद आस-पास के क्षेत्र में ज्ञान । (५) लक्षण विधा-शरीर जाने-आने की मर्यादा का निर्धा पर के तिल, मष आदि लक्षणों रण करना। से शुभाशुभ का परिज्ञान । (६) अवधिज्ञान-इन्द्रियों की सहायता के बिना रेखाविज्ञान - हाथ पांव आदि की होने वाला रूपी पदार्थों का रेखाओं पर से शुभाशुभ परि. ज्ञान। ज्ञान, सामुद्रिक शास्त्र । (७) अवधिज्ञानी-अवधिज्ञान जिसे प्राप्त हुआ आकाश विज्ञान-आकाश में होने हो वह साधक। वाले उल्कापात आदि आकअनशन- अशन-भोजन ! भोजन का स्मिक आघातों पर से लाभापरित्याग करना--अनशन । एक लाम का ज्ञान । (८)नक्षत्रविद्या नक्षत्रों के उदयअस्त आदि पर प्रकार का तप । से शुभाशुभ का परिज्ञान । अवसर्पिणी-कालचक्र का अर्धभाग । भूमि, वृक्ष आदि वस्तुओं का स्वारस्य अष्ट कर्म-देखो 'कर्म' शब्द । Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदानभाउमात्र निक्षेपणा समिति जाते हैं। यह ज्ञान होने के बाद देखिए 'समिति'। वापस चला भी जाता है। तथा आभोगिक-अवधिज्ञान का एक वह प्रकार अधिक विशुद्ध नहीं होता है। जो उत्पन्न होने के बाद कभी एषणासमिति-देखिए 'समिति'। विनष्ट नहीं होता, केवल ज्ञान कर्म- आत्मा के मूल गुणों को आच्छाप्राप्त होने तक रहने वाला दित करने वाली सूक्ष्म पौद्ज्ञान। गलिक शक्ति । इनके माठ भेद आयाम-चावल आदि का धोवन (ओसा होने से अष्टकर्म तथा 'घाती मण)। कर्म' 'एवं अघाती कर्म' के नाम आयूष्य कर्म-देखिए 'कर्म' से भी प्रसिद्ध है। आठ भेद-(1) मानावरण-ज्ञान आरा- आरा-चक्र । जिस प्रकार रथ शक्ति को आवरण अर्थात् ढकने गाड़ी आदि के चक्र-चक्के लगे होते हैं, वैसे ही काल रूपी रथ वाला कर्म। (२) बर्शनावरणके भी चक्र (आरा) होते हैं । दर्शन (सामान्यबोध) शक्ति को ऐसे बारह आरा का एक काल ढकने वाला। (३) मोहनीय आत्मस्वरूप के अवबोध को चक्र होता है। जो बीस कोडाकोड़ी सागरोपम का होता है। रोककर मोह में फंसाने वाला। काल चक्र के छः आरा अवस (४) असराय-दान, लाभ, भोग पिणी काल एवं छ आरा उत्स आदि में विघ्न उपस्थित करने पिणी काल कहलाता है। वाला (१) वेदनोय-सुख दुःख का ईर्या समिति देखिए 'समिति' । निमित्त बनने वाला i(6) प्रायुष्य --जीवन धारण का निमिस । उपपात-- नरक एवं देवयोनि में जन्म ग्रहण (७) नामकर्म-गति, स्थिति, यश __ करने को उपपात कहते हैं। अपयश आदि का निमित्त । (८) उष्ण-विकट-अग्नि पर उबला हुआ पानी। गोत्र-उच्चता, नीचता आदि का उत्सपिणी-कालचक्र का अर्ध भाग। जिस निमित्त। समय (काल) मे भूमि, वृक्ष इनमें प्रथम चार कर्म आदि का स्वारस्य एवं मनुष्यों आत्मा के मूल स्वरूप का घात के पुरुषार्थ आदि गुण निरन्तर करने वाले होने से घाती कर्म वृद्धिंगत होते रहते हैं, वह कहलाते हैं। शेष चार भवाती समय । कालचक्र का उत्कर्षयुग। उत्स्वेदिम-आटा आदि का धोवन। कल्प- नीत, आचार, मर्यादा, विधि भानुमति - मनःपर्यव ज्ञान का एक भेद । और समाचारी। कल्प के दस इस ज्ञान से मन के भाव जाने भेद हैं (१) आचेलक्य, (२) Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औद्देशिक (३) शय्यातर पिण्ड उनके प्रवचन को सूत्र-मागम रुप (४) राज पिण्ड (५) कृतिकर्म में अथित करते है। (६) व्रत (७) ज्येष्ठ (८) प्रति- गणनायक-गणतत्र राज्य व्यवस्था का क्रमण (६) मासकल्प (१०) प्रधान पुरुष-मुख्य नेता। पर्युषणा कल्प । विवरण के लिए देखें गणावच्छेदक-मुनि समूह को गण' कहते हैं, 'गण' की सुरक्षा व विकास पृष्ठ ३ से १६ तक के लिए मुनि मंडल को सयम कायोत्सर्ग-शरीर आदि के विकल्प से मुक्त आदि की दृष्टि से संभालने होकर ध्यान करना। एक प्रकार वाला प्रमुख मुनि । को ध्यान मुद्रा। गणिपिटक-बारह अगो का समूह वाचक कायगुप्ति-देखिए - 'गुप्ति!' नाम 'गणिपिटक' है। कुलकर-कुल की व्यवस्था करने वाला। गणी-गण की व्यवस्था करने वाला युग की आदि में जब मानव अधिकारी मुनि-आचार्य । प्रजा कुल व समूह के रुप मे व्यव समि-विवेक पर्वक आत्म-सयम, नियमन स्थित नही थी, उस युग में सर्व । करना गुप्ति है । गुप्ति के तीन प्रथम कुल व्यवस्था का प्रारम्भ भेद है-(१) मनोगुप्ति - मन का करने वाले कुलकर कहलाए। संयम, (२) वचन गुप्ति-वाणी का इस युग मे सात कुलकर संयम, (३) कायगुप्ति-शरीर का हए। जिनमें अन्तिम कुलकर सयम। थे भगवान ऋषभदेव के पिता गोदोडासन-गाय को दुहते समय ग्वाला नाभि राजा । जिस प्रकार बैठता है उस प्रकार केवलवरज्ञान-निखिल विश्व के जड़ चेतन बैठना गोदोहासन है। के भूत-भविष्य एव वर्तमान गंधहस्ती-वह श्रेष्ठ जाति का हस्ती, कालीन समस्त भावो को जानने जिसके शरीर से एक प्रकार की वाला श्रेष्ठतमज्ञान । त्रिकाल विचित्र गन्ध निकलती रहती है ज्ञान। जिसके कारण अन्य हाथी भय केवलज्ञानी-केवलज्ञान को धारण करने खाते हैं। वाला महान आत्मा चउदसम भक्त- लगातार चौदह वक्त क्षुल्लक-छोटी उम्र का श्रमण । लघु मुनि । तक आहार आदि का परित्याग खादिम-फल आदि खाद्य पदार्थ । करना। छह दिन का उपवास। चतुर्थ भक्त-लगातार चार वक्त तक गणधर-तीथंकर के मुख्य शिष्य, जो गण बाहार आदि का परित्याग को व्यवस्था करते हैं, तथा करना । एक दिन का उपवास । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च्यवन-नारक एवं देवता के आयुःक्षय को व्यवस्था करनेवाला अधिकारी। 'च्यवन' कहा जाता है, अर्थात दत्ति-एक बार में संलग्न व अक्षतधारा देव एवं नारक को 'मृत्यु ।' रूप से दिया जाने वाला चाउलोदक-चावल का पोवन । आहार पानी। चाहे एक बार च्युत होना - देव एवं नरक गति में मृत्यु में एक कण भर आहार दिया प्राप्त करना। हो, या एक बूद भर जल ! चौदह पूर्व-जैन पंरपरा के मूल अंग वह एक 'दत्ति' ही कहलाती है। नगर गुप्तिक-नगर की व्यवस्था का र बारह है। बारहवें अंग दृष्टि जिम्मेदार अधिकारी।कोटवाल वाद (जो वर्तमान में विच्छिन्न आदि। है) में चौदह पूर्व आते हैं, जिनका ज्ञान अत्यंत विस्तृत नाम कर्म-देखिए 'कर्म'। माना जाता है। पर्याप्ति-शरीर, इन्द्रिय आदि की संपूर्ण चोवह पूर्वी (पूर्व धर)-जिसे संपूर्ण चौदह रचना। पूर्व का ज्ञान प्राप्त हो वह, पल्योपम--एक विशेष प्रकार का समय सूचक चौदहपूर्वी या चतुर्दश पूर्वधर माप। अंकों द्वारा जो संख्या मुनि कहलाता है। प्रकट न की जा सके उसे छट्ठभक्त-लगातार छः वक्त तक आहार उपमा द्वारा प्रकट करना होता है। पल्प- एक विशेष प्रकार आदि का त्याग करना। दो दिन का उपवास । का माप है, उसकी उपमा से काल गणना करना-पल्योपम जबोदक-जो का धोवन । कहलाता है, अर्थात् संख्यातीत जातिस्मरण ज्ञान-अपने पूर्व जन्म का वर्ष । असंख्य काल। मान । जाति-स्मृति। पादपोपगमन-अनशन तप की विशेष ज्योतिषिक देव-सूर्य, चन्द्र, प्रह, नक्षत्र, अवस्था । अनशन ग्रहण करके तारा आदि ज्योतिषिक देव मृत्यु पर्यन्त वृक्ष (पादप) की कहलाते हैं। भांति शरीर को स्थिर करके तिलोदक-तिल आदि का धोया हुआ समाधिस्थ रहना-पादपोपगमन पानी, धोवन । संथारा कहलाता है। तुषावक-तुष अर्थात् छिलका, दाल आदि पान-पीने का सादा पानी। छिलके वाली वस्तु का धोवन। पारिष्ठापनिका समिति-देखिए 'समिति'। खंडनायक-प्रजा में न्याय तथा व्यवस्था पुरुषावानीय-मनुष्यों में आदरणीय श्रेष्ठ । के लिए दण्ड आदि की भगवानपाश्र्वनाथका विशेषण। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौरुषी ( ६ ) - समय का एक भाग । अहोरात्र (दिन रात) का आठवां हिस्सा एक पौरुषी ( प्रहर) कहलाता है। दिन में चार पोरुषी होती है, रात्रि में चार । प्रहर - देखिए 'पौरूषी' । प्रतिमा - साधु एवं श्रावक के सामान्य नियमो के अतिरिक्त विशेष प्रकार के कठोर नियमों का व तपश्चर्या आदि का आचरण करना प्रतिमा कहलाता है। भिक्षु को बारह प्रतिमा हैं, एव श्रावक की ग्यारह । बलिकर्म- गृह देवता का पूजन करना । भक्तप्रत्याख्यान - भक्त अर्थात् भोजन-पानी, अथवा भोजन का परित्याग करना - भक्तप्रत्याख्यान है । भवनपति - विशेष प्रकार को देव जाति जो भवनो में रहती है । भाषा समिति - देखिए 'समिति ' मडंब जिस स्थल के चारों ओर दो-दो कोश तक कोई ग्राम न हो, वह स्थल विशेष । मनः पर्यव ज्ञान- मन के भावो को जानने वाला ज्ञान। यह ज्ञान सिर्फ संयती को ही होता है । मनोगुप्ति - देखिए 'गुप्ति ।' मारणांतिक संलेखना जीवन के अन्त्य समय में मृत्युपर्यन्त आहार आदि का परित्याग करना । यवनिका - पर्दा विशेष । रस विकृति ( विगय ) - जिन वस्तुओं के सेवन से मन में सरस रस विकार आदि उत्पन्न होने की संभावना हों - उन्हें विकृति - विगय कहते हैं । विगय नौ प्रकार की होती हैं- दूध, दही, मक्खन, घी, तैल, गुड, मधु, मद्य और मांस । लोकान्तिक- एक जाति के देव जो ब्रह्मलोक के अन्त में रहते हैं, तथा तीथङ्कर जब दोक्षा लेने का संकल्प करते हैं, तब उन्हें विश्वकल्याण के लिए प्रार्थना करने आते हैं। वचन गुप्ति -- देखिए - 'गुप्ति ।' वादी वाद विवाद करने मे निपुण । ( वादलब्धि ) - वाद विवाद करने की योग्यता वाली विशेष शक्ति । त्राणव्यन्तर – एक जाति के देव जो वन विशेष मे उत्पन्न होते हैं, रहते हैं और वन में क्रीडा करते हैं जिन्हे भूत पिशाच आदि नाम से भी पुकारा जाता है । विकट — निर्दोष आहार पानी । विकट गृह - ग्राम की पंचायती व लोकों के एकत्र होने का स्थान, चबूतरा आदि । विपुल विकृष्ट भक्त - अट्टम भक्त ( तीन दिन के उपवास) से अधिक तप करना । मतिज्ञान- मनः पर्यव भेद । इस ज्ञान में भावों की विशुद्धि विशेष रहती है तथा ज्ञान का Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) केवल ज्ञान पर्यन्त स्थायी यतना पूर्वक चलना । (२) भाषा रहता है। समिति-विवेक व यतना पूर्वक विचार भूमि--शौच आदि के लिए बाहर बोलना। (३) ऐषणा समितिजाना। खाने पीने, पहनने आदि कार्य विहार भूमि- स्वाध्याय आदि के लिए के लिए शुद्ध, निर्दोष वस्तु को एकान्त स्थान में जाना। यतनापूर्वक ग्रहण (याचना) वृष्टिकाय--वर्षा, दूदे या फुहारे । करना। (४) मादान मार मात्र निक्षेपणा समिति - अपने वस्त्र, वेदनीय कर्म-देखिए - 'कर्म' । पात्र आदि उपकरणों को विवेक वैमानिक देव-विमान में उत्पन्न होने वाली पूर्वक उठाना व विवेक पूर्वक उत्तम देव जाति । रखना। (५) पारिष्ठापनिका वैक्रियलब्धि-शरीर को छोटे बड़े आदि समिति-फेंकने व छोड़ने योग्य विभिन्न रूपों में बदलने वाली वस्तु को उचित स्थान पर शक्ति विशेष। देव एवं नारक विवेक पूर्वक फेंकना व छोड़ना । में जन्मजात होती है, मनुष्य स्वादिम-मुखवास आदि के लिए स्वाद आदि में योग, तप आदि द्वारा वाले खाद्य पदार्थ । प्राप्त की जाती है। सौवीर-कांजी। बैंक्रियसमुद्घात--शरीर को तथा शरीर संखडी (सुखंडी)-मिष्टान्न-पक्वान्न, तथा परमाणुओ को विशेष रूपों में मिष्टान्न आदि जहाँ बनते हो, वह बदलने के लिए को जाने वाली स्थान । भोज आदि का स्थल । विशेष प्रक्रिया। संधिपाल-राज्यों के बीच विग्रह आदि श्रुतकेवली-चौदह पूर्व के ज्ञाता श्रमण । समस्याओं को सुलझाकर संधिसागरोपम---असख्य पल्योपम जितना काल कराने वाला, एवं संधि को सागर कहलाता है, सागर से रक्षा का जिम्मेदार अधिकारी उपमित किया जाने योग्य राजदूत। कान-सागरोपम। संस्वविम-वृक्ष के पत्ते प्रादि को उबाल समिति-श्रमण जीवन में सम्यक प्रकार कर उन पर छिटका जाने वाला (विवेक पूर्वक) से गति करने पानी। का नाम समिति है। श्रमण शुद्ध विकट (क)-देखिए 'उष्ण विकट । जीवन की समस्त प्रवृत्तियों को हरिणेगमेसी-देवराज इन्द्र का एक पाँच रूप में विभक्त कर के 'पच सेनापति, तथा विशेष कार्यदक्ष समिति' का रूप दिया है। दूत, जो गर्भ परिवर्तन आदि की (१) तिमिति - सावधानी, व कला में प्रवीण होता है Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पसूत्र विवेचन में प्रयुक्त ग्रन्थसूची अष्टांग हृदय (वाग्भट्ट) अंगुत्तर निकाय अन्तकृद्दशा अर्धमागधी कोष - रतनचन्द जी म० अनुयोगद्वार टीका अमरकोष अभिधान चिन्तामणि कोष अभिधान राजेन्द्र कोष आचारांग सूत्र आचारांग टीका आचारांग - मलयगिरि वृत्ति आप्टेज् संस्कृत-इंग्लिश - डिक्सनरी भाग १ आवश्यक पूर्णि आवश्यक भाष्य आवश्यक हारिभद्रीय टीका आवश्यक नियुक्ति ( भद्रबाहु ) आवश्यक मलयगिर वृत्ति इण्डियनएन्टीक्वेरी ईशावास्योपनिषद् उत्तराध्ययन सूत्र उत्तराध्ययन (बृहद् वृत्ति, शान्त्याचार्य) उत्तर पुराण उत्तराध्ययन, वृहत् वृत्ति उपदेश मालादोघट्टी टीका ऋग्वेद ऋषि मण्डल प्रकरण ओपनियुक्ति कथा कोष प्रकरण (जिनेश्वर सूरि ) कल्पसूत्र सुबोधिका - विनय विजय । कल्प सुबोधिका-गुजराती अनुवाद ( साराभाई नबाव) कल्पसूत्र ( पुण्य विजय जी) कल्पसूत्र ( मणिसागर) कल्पसूत्र - कल्पलता (समय सुन्दरगणि ) कल्पसूत्र - कल्पद्रुम कलिका कल्यार्थवोधिनी कल्पसूत्रसंदेह विषोषधि कल्पसमर्थनम् कल्पसूत्र चूर्णि कल्पसूत्र नियुक्ति कल्पसूत्र (पृथ्वीचन्द टिप्पणकम् ) काललोक प्रकाश कौटिलीय अर्थशास्त्र चउप्पन्नमहापुरुष चरियं-प्राकृतग्रन्थ परिषद् वाराणसी - ५ चार तीर्थकर (पं० सुखलाल जी) छांदोग्योपनिषद् जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, सटीक जैनपरंपरा नो इतिहास जैन साहित्य का इतिहास (पीठिका) -पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री तत्वार्थ-सूत्र तत्त्वार्थ भाष्य तत्त्वार्थ भाष्य टीका तित्थोगालिय पइन्ना तैत्तिरीयारण्यक तैत्तिरीयोपनिषद् Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक दशवकालिक - अगस्त्य सिंह चूणि दशवकालिक-जिनदास चूर्णि दशवकालिक नियुक्ति दशवकालिक-हारिभद्रीय वृत्ति दशाश्रुतस्कन्ध दशाश्रुतस्कन्ध चूर्णि धनंजय नाममाला धर्मसंग्रह वृत्ति धवला टीका नारायणोपनिषद् निबन्ध निचय ( कल्याण विजय ) निशीथ सूत्र निशीथ चूर्णि निशीथ भाष्य पउमचरिय (विमल सूरि । पट्टावली पराग पाचरिय - रविसेन आचार्य पद्मपुराण पन्नवणा सूत्र पर्युषणा कल्प सूत्रम् ( केशर मुनि ) पर्धनाथ चरित्र - भावदेव सूरि पुराणसार प्रवचन सारोद्धार वृत्ति प्रशमरति प्रकरण प्रश्नव्याकरण बुद्धिस्ट हाइब्रिड संस्कृत ग्रामर एण्ड डिक्सनरी, खण्ड २ वृहत्कल्पभाष्य बृहदारण्यकोपनिषद् भगवती आराधना भगवती सूत्र भरतेश्वर बाहुबलि वृति ( शुभ शीलगणी ) मनुस्मृति - भट्ट मेधातिथि का भाष्य महापुराण महावीर परियं - गुणचन्द्र महावीर चरिय - नेमिचन्द्र महावीर जीवन दर्शन - देवेन्द्र मुनि मुण्डकोपनिषद् मुनि श्री हजारीमल स्मृतिग्रन्थ योग शास्त्र - हेमचन्द्र आचार्य । योग शास्त्र - स्वोपज्ञवृत्ति लघुक्षेत्र समास लोकप्रकाश वसुदेव हिन्डी वाजसनेयी संहिता विशुद्धिमग्गो विशेषावश्यक भाष्य वीरनिर्वाण संवत और जैन कालगणना वीरविहार मीमांसा - विजयेन्द्र सूरि शान्तिनाथ चरित्र श्वेताश्वनरोपनिषद् स्थानांग - अभयदेव वृत्ति (टीका) सत्तरियसय ठाणा सप्तति स्थानक ( आचार्य सोम तिलक ) सुत्तागमे सूत्र कृताङ्ग सूत्रार्थ प्रबोधिनी सूत्रकृतांग ( शीलाकाचार्य टीका ) श्रमणभगवान महावीर श्रीमद् भागवत समवायांग सूत्र - मुनि कन्हैयालाल जी समवायांग ( अभय देव वृत्ति ) शब्द रत्न समन्वय कोष हरिवंश पुराण त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र ज्ञाता धर्म कथांग Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पसूत्र का शुद्धि पत्र (मूल पाठ) शुद्ध निघंट साहरावित्तए कुच्छीओ उत्तरपुर नायाणं चउइंत कोमलमाइय सोहियं घणसण्हलंबत अशुद्ध निघंटु साहरावित्ताए कुच्छिीओ उत्तरपुरा नायणं चउद्दत कोमलभाइय सोहिय कुंभ घणसण्हलवंत देवी लोलतोय चालिय खोरोयसागार सुमिणं मियमहुरं पिणद्धगोविज्जे दिठ्ठां जोगमुवागएण x ... उवक्खाडावित्ता अभिनंदाणा असमे निरावलवणे वट्टमाणाणंx.... पोतिववणेx.... सुठ्ठिx.... गोयमगोत्तस्स थेरे धणडx.... १२६ लोलतोयं चलिय खीरोयसागरं सुमिणे मियमहर पिणदगेविज्जे दिठ्ठा मारोगा उवक्खडावित्ता अभिनंदमाणा अममे निलावलंबणे सव्वलोए मासे नन्दीवखणे सुठ्ठिय गोयमसगोत्तस्स थेरे सिरितु १८४ १८४ १८७ २०० २८६ २८६ २६२ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ २८२ २८८ २६६ २६८ २६६ ३०५ ३०५ ३१३ ३२० ३२० ३२६ ३२६ ३४७ ३४८ ३५० ३५१ ३५८ १५ १६ ३९ ६१ ६६ ६६ ६६ ७२ * ८६ १०२ १६६ पंक्ति is on my ow १ ३ १८ १९ २१ ८ ५ १६ ८ १० १५ ६ १५ १७ १ २ २५ ६ १६ २१ १७ ( ७३ ) अशुद्ध थरे वच्छ लिज्ज ३ १७ २५ अज्जचेडयं उडुवाडियगये कुलाइ साहा निग्गया x .... बभदेवीया संघवालिय पज्जो सवित्ताए का कंपति गाहाव इकुल त चेव अणवकखमाणे ( अर्थ और विवेचनका शुद्धि पत्र ) १२ १२ तहां भंवति जोयणाइ गंतु जतना .... x पोट्टिलाचाय * ह 2930 का वसुदेव वर्तमान पादति तर गित करघनी मंचका थेरे शुद्ध वथ लज्जं अजय sarsarणे कुलाई थेरेहितो णं अज्जताव सेहितो एत्थणं अज्जतावसी साहा निग्गया, बंभदेवीया संघपालिय पज्जोसवित्तए वा कंप्पति गाहावइ कुलं तं चैव अणवकख माण तहा भवंति जोयणाई गंतु जितना उपाध्यायों को नमस्कार हो । पोट्टिलाचार्य वह की वासुदेव वर्तमान पदाति तरंगित करतो मचका Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ १७७ ___ अशुख नहीं SA १६२ २५४ २६५ २६७ नहीं जोव इहलाक का श्रद्धा ज्योतिर्मर्यः वयावृत्य करण वलिवत्व भगवान को भोगे वाल ससार श्रेयक रतन भद्रयशा रहते जीव इहलोक को श्रदा से ज्योतिर्मय: वैयावृत्य वरण क्लीबत्व भगवान की भीगे वाले संसार श्रेयस्क रत्न भद्रयश २८३ २६३ २६४ २६६ रहते Ymr ar तीर तीन तिव्वदोसीयं तिव्वदेसीयं Page #473 --------------------------------------------------------------------------  Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिर Nex भदबा काल न० 2294 कालन.