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________________ १०८ कल्प म सद्धि संलाविंति संलाविता तेसिं सुमिणाणं लद्धट्ठा गहियट्ठा पुच्छिया विणिच्छियठा अहिगयटठा सिद्धत्थस्स रनो पुरओ सुमिणसत्थाई उच्चारेमाणा उच्चारेमाणा सिद्धत्थं खत्तियं एवं वयासी ॥७०॥ अर्थ - उसके पश्चात् वे स्वप्न - लक्षण - पाठक सिद्धार्थ क्षत्रिय से प्रस्तुत वृत्त को जानकर एवं समझकर, अत्यन्त प्रफुल्लित हुए। उन्होंने प्रथम उन स्वप्नों पर सामान्य रूप से विचार किया। उसके पश्चात् स्वप्नों के अर्थ पर विशेष रूप से चिन्तन करने लगे। उस सम्बन्ध मे वे एक दूसरे से परस्पर संलापविचार-विनिमय करने लगे । इस प्रकार वे स्वयं चिन्तन एवं विचार-विनिमय के द्वारा स्वप्नों के अर्थ को जान पाये । उन्होंने उस विषय में परस्पर एक दूसरे का अभिप्राय पूछा और तदनन्तर निश्चितमत निर्धारण किया । जब वे सभी एकमत हो गये तब सिद्धार्थराजा के समक्ष स्वप्न शास्त्रों के अनुसार वचन बोलते हुए इस प्रकार कहने लगे । विवेचन - भारतीय साहित्य मे स्वप्न के सम्बन्ध में गहराई से चिन्तन किया गया है । वहाँ स्वप्न आने के नौ निमित्त बताये गए हैं । (१) जिन वस्तुओं का अनुभव किया हो (२) जिनके सम्बन्ध में श्रवण किया हो (३) जो वस्तु देखी हो ( ४ ) वात, पित्त अथवा कफ की विकृति के कारण ( ५ ) स्वप्निल प्रकृति के कारण (६) चित्त- चिन्ता युक्त होने के कारण (७) देवता आदि का सान्निध्य होने पर (८) धार्मिक-स्वभाव होने पर ( ६ ) अतिशय पाप का उदय होने पर | स्वप्न आने के इन नौ प्रकारों में से प्रथम छह प्रकार के स्वप्न शुभ और अशुभ दोनों होते हैं, पर उनका कोई फल नही होता । तीन प्रकार के अन्तिम स्वप्न सत्य होते हैं और उनका शुभ एवं अशुभ फल निश्चित मिलता है । १६१ स्वप्न शास्त्र की एक यह भी धारणा है कि रात्रि के प्रथम पहर में जो स्वप्न दीखता है उसका फल बारह मास में प्राप्त होता है । द्वितीय पहर में जो स्वप्न देखे जाते हैं, उनका फल छह मास में प्राप्त होता है । तृतीय प्रहर में
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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