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कल्पसूत्र
गुरु ने पुनः पूछा-"बताओ किस प्रकार चितन कर रहे थे ?'
शिज्य-"गुरुदेव ! मेरे घर खेती का धन्धा था। मैं खेत को रेशम की तरह मुलायम करता, वर्षा होने पर उसमे धान्य बोता, फिर उसमे घास आदि जो भी पैदा हो जाता उसे उखाड़ कर एक तरफ करता, और खेती की तल्लीनता से रक्षा करता। गाँध मे मेरी ही खेती सबसे बढिया होती थी। अब मेरे भोले-भाले लड़के क्या करते होंगे? यदि ध्यान नही रखेगे तो धान अच्छा नही पैदा होगा और विना घान के उनकी कैसी दयनीय दशा होगी?"
गुरु ने कहा-"शिष्य । इस प्रकार का ध्यान धर्म-ध्यान नहीं, दुर्ध्यान है। अहिंसक ध्यान नही, हिंसक ध्यान है। भविष्य में इस प्रकार का ध्यान न करना।" शिष्य ने भूल स्वीकार की। यह है जड़ता के साथ सरल मानम का चित्रण ।
भगवान ऋषभदेव के शासन काल की सरल मनोवृत्ति का परिचय देने वाला एक उदाहरण है । एक शिष्य भिक्षा लेकर आया। गुरु ने भिक्षा पात्र खोला, पात्र मे एक ही बड़ा देखकर गुरू ने साश्चर्य मुद्रा में पूछा-'वत्म ' ऐसा कौन दाता मिला, जिसने एक ही बड़ा दिया ?'
शिष्य ने विनम्र शब्दो मे निवेदन किया - "गुरुदेव ! गृहस्थ ने मुझे उदार भावना से बत्तीस गर्मागर्म बड़े दिए थे । मैने सोचा, ये सारे बड़े अकेले गुरूजी नही खायेगे। आधे मुझे भी देगे ही। फिर गर्मागर्म बडो को ठण्डा करने से लाभ क्या है ? मैंने अपने हिस्से के सोलह बड़े खा लिए। बड़े बहुत ही अच्छे लगे। फिर सोचा, सोलह बड़ों के भी तो दो विभाग किए जायेगे। यह सोच आठ ओर खा गया। पूर्ववत् विचार करता हुआ, चार और खा गया। फिर दो खा गया। फिर विभाग का विचार करता हुआ एक खा गया। इस प्रकार इकतीस बड़े मैंने खाये ।"
गुरु ने कहा-'वत्स ! विना गुरूजी को खिलाए वे बड़े तुम्हारे गले के नीचे कैसे
उतर गए ?
___ एक बड़ा जो पात्र में पड़ा था उसे मुंह में डालते हुए शिष्य ने कहा-'गुरूजी ! इस प्रकार वे गले के नीचे उतर गए।'
शिष्य की सरलता देखकर गुरूजी की आँखों में मन्द-स्मित की रेखायें थिरक उठीं। गुरूजी ने समझाया-वत्स ! मार्ग में चलते हुए, तथा गुरुजी को विना दिग्वलाए खाना श्रमणाचार के विरुद्ध है।' शिष्य को अपनी भूल का परिज्ञान हुआ, भविष्य में ऐसी भूल न करने का वचन दिया।
अब देखिए एक वक्र श्रेष्ठी पुत्र का उदाहरण भी। एक सेठ ने अपने वाचाल पुत्र को शिक्षा देते हुए कहा-'पुत्र ! बड़ों के सामने नहीं बोलना चाहिए।'