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सामना काल : थोर अभिय
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वहाँ से भोगपुर, नन्दीग्राम और मेढियग्राम पधारे। वहां ग्वालों ने उपसर्ग दिया । ३०९
• घोर अभिग्रह
ग्राम से भगवान कौशाम्बी पधारे और पौष - कृष्णा प्रतिपदा के दिन एक घोर अभिग्रह ग्रहण किया
"अविवाहित कुलीन राजकन्या हो, दासी बनकर रह रही हो; उसके हाथों में हथकड़ियाँ और पैरों में बेडियाँ हो, सिर मुँड़ा हुआ हो, तीन दिन की उपवासी हो, पके हुए उडट के बाकुले सूप के एक कौने में लेकर भिक्षा का समय व्यतीत होने के पश्चात् जो अपलक प्रतीक्षा कर रही हो, गृहद्वार के बीच बैठो हो, एक पैर बाहर, एक भीतर हो, आँखों में आँसू हो, ऐसी राजकन्या से भिक्षा प्राप्त होगी तो लूँगा अन्यथा नहीं लूँगा । ३१०
कुछ
इस प्रकार कठोरतम प्रतिज्ञा को स्वीकार करके महावीर प्रतिदिन भिक्षा के लिए कौशाम्बी मे पर्यटन करते । उच्च अट्टालिकाओं से लेकर गरीबों की झोंप ड़ियों तक पधारते । भावुक भक्त भिक्षा देने के लिए लपकते, पर, भगवान् बिना लिए उलटे पैरों लौट जाते । जन-जन के अन्तर्मानस में एक प्रश्न कचोट रहा था कि इन्हें क्या चाहिए । अमात्या नन्दा के यहाँ से जब बिना कुछ लिए लौटे तो उसका मन खिन्न हो गया । वह जल रहित मौन की तरह छटपटाने लगी। अपने भाग्य को भर्त्सना करने लगी । परिचारिकाओं ने कहा- आप इतनी क्यों घबराती हैं। देवार्य तो आज ही नहीं चार-चार मास से बिना कुछ लिए ही इसी तरह लौट जाते हैं । जब उसने यह बात सुनी तो वह और अधिक चिन्तित हो गई । उसने अमात्य सुगुप्त से नम्र निवेदन किया कि "आप कैसे प्रधान मंत्री है, कि चार मास पूर्ण हो गये हैं, भगवान् श्री महावीर को भिक्षा उपलब्ध नहीं हो रही है। उनका क्या अभिग्रह है, पता नहीं लगा पाये हैं । यह बुद्धिमानी फिर क्या काम आयेगी । "
अमात्य को अपनी त्रुटि का अनुभव हुआ । शीघ्र ही अन्वेषणा का आश्वासन दिया । प्रस्तुत संलाप विजया प्रतिहारी ने सुन लिया, उसने महारानी