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कल्प सूत्र
प्रेरित होकर या किसी के कथन को संकल्प में रखकर तप नही करता । मुझे किसी के आश्वासन वचन की अपेक्षा नहीं है । ३०२
संगम के प्रस्थान के पश्चात् द्वितीय दिन भगवान् छह मास की कठिन तपस्या पूर्णकर व्रजग्राम में पारणा हेतु पधारे। वहाँ वत्सपालक वृद्धा ने प्रसन्नता से प्रभु को पायस की भिक्षा दी ।
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व्रजग्राम से आलंभिया, श्वेताम्बिका, श्रावस्ती, कौशाम्बी, बाराणसी, राजगृह, मिथिला आदि को पावन करते हुए वैशाली पधारे और नगर के बाहर समरोद्यान में बलदेव के मन्दिर में चातुर्मासिक तप के साथ वर्षावास व्यतीत किया । ३०४
• जीर्ण की भावना पूर्ण का दान
वैशाली में एक भावुक श्रावक जिनदत्त रहता था, उसकी संपत्ति क्षीण हो जाने से लोग उसे जीर्ण सेठ कहने लग गए। वह सामुद्रिक शास्त्र का वेत्ता था । " भगवान् की पाद-रेखाओं के अनुसंधान में वह उसी उद्यान में गया, वहां प्रभु को ध्यानस्थ देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ । अब वह प्रतिदिन भगवान् को नमस्कार करने आता और आहारादि की अभ्यर्थना करता । निरन्तर चार मास तक चातक की तरह चाहने पर भी उसकी भव्य भावना पूर्ण नहीं हुई । चातुर्मास समाप्ति के पश्चात् भगवान् भिक्षा के लिए निकले और अपने संकल्प के अनुसार भिक्षान्वेषण करते हुए अभिनव श्रेष्ठी के द्वार पर रुके, यह नया धनी था, मूलनाम 'पूर्ण' था । श्रेष्ठी ने लापरवाही से दासी को आदेश दिया, और उसने एक चम्मच कुलत्थ ( बाकुले ) दिये और भगवान ने उसी से चार माह की तपस्या का पारणा किया ।" देव दुन्दुभि बजी, पंच दिव्यवृष्टि हुई, किंतु इधर जीर्ण श्रेष्ठी की प्रतीक्षा, प्रतीक्षा ही रही, वह भावना के अत्यन्त उच्च व निर्मल शिखर पर पहुँच रहा था। कहते हैं यदि दो घड़ी देवदुन्दुभि नहीं सुन पाता तो केवलज्ञान हो जाता ।
वर्षावास पूर्णकर भगवान वहाँ से सुसुमररार पधारे। शक्रेन्द्र के वज्र से भयभीत हुआ चमरेन्द्र भगवान के चरणारविन्दों में आया और शरण ग्रहण कर मुक्त हुआ । इसका विस्तृत वर्णन भगवती सूत्र में भगवान ने स्वयं श्रीमुख से किया है । " जो पीछे दस आश्चर्य प्रकरण में कर चुके हैं।
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