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________________ गर्भ संहरण अर्थ-श्रमण भगवान महावीर तीन ज्ञान [मति, श्रुत और अवधि से युक्त थे । 'मैं देव भव से चऊँगा' ऐसा वे जानते थे, 'वर्तमान में च्यवमान हूँ' यह नहीं जानते थे, और 'देव भव से च्यव गया हूँ' ऐसा वे जानते थे। विवेचन-जो देव भावी जन्म में तीर्थकर बनने वाले होते हैं वे तीर्थङ्करत्व के वैशिष्ट्य के कारण जीवन के अन्तिम समय तक भी अधिक कान्तिमान और प्रसन्न रहते हैं, पर अन्य देव छह माह पूर्व से ही च्यवन के भय से भयभीत बन जाते हैं । मुरझाये हुए फूल की तरह म्लान हो जाते हैं । ९५ सूत्र में "चयमाणे न जाणइ" जो पाठ आया है इसके रहस्य का उद्घाटन करते हुए-चूर्णिकार और टिप्पणकार ने कहा है कि-एक समय में उपयोग नही लगता। छद्मस्थ जीवों का उपयोग अन्तरमुहूर्त का होता है। किन्तु च्यवनकाल एक समय का ही होता है। अतः च्यवन काल के अत्यंत सूक्ष्म समय को छद्मस्थ जीव च्यवन कर रहा हूँ, ऐसा नहीं जान पाते। तीन ज्ञान होने से मैं च्यवगया हूँ यह जानते हैं ।'' -. देवानंदा के गर्भ में मल: जं रयणि च णं समणे भगवं महावीरे देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगोत्ताए कुच्छिसि गब्भत्ताए वक्कते तं रयणि च णं सा देवाणंदा माहणी सयणिज्जंसि सुत्तजागरा ओहीरमाणी ओहीरमाणी इमेयारूवे ओराले कल्लाणे सिवे धन्न मंगल्ले सस्सिरीए चोइस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा ॥४॥ अर्थ-जिस रात्रि में श्रमण भगवान महावीर जालंधर गोत्रीया देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में गर्भ रूप में अवतरित हुए, उस रात्रि को देवानन्दा ब्राह्मणी अर्धनिद्रावस्था में थी। उस समय उसने उदार, कल्याण, शिव, धन्य व मंगलरूप तथा सोभा युक्त चौदह महास्वप्न देखे और फिर जागी।
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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