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सापना काल : संगम के उपसर्व
१७७ भगवान वाणिज्यग्राम से विहार कर श्रावस्ती पधारे। विविध प्रकार के तप व योग-क्रियाओं की साधना के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए दसबा वर्षावास वहां पूर्ण किया ।
__ वर्षावास के पूर्ण होने पर 'सानुलट्ठिय सन्निवेश' पधारे और वहां सोलह दिन का निरन्तर उपवास किया, तथा विविध प्रक्रिया के द्वारा ध्यावमग्न होकर भद्र, महाभद्र, और सर्वतोभद्र प्रतिमाओं की आराधना करते रहे । २८९
पारणा करने के लिए भगवान् परिभ्रमण करते हुए आनन्द के वहाँ पधारे । उसकी बहुला भृत्तिका (दासी) अवशेष अन्न को बाहर फेकने के लिए ज्योंही निकली भगवान् को द्वार पर खड़ा देखा, उसने प्रभु की और प्रश्नभरी दृष्टि से देखा तो प्रभु ने दोनो हाथ भिक्षा के लिए फैलाए, दासी ने भक्ति-भावना से विभोर होकर वह अवशेष अन्न प्रभु को भिक्षा में प्रदान किया, और भगवान् ने उस बासी अन्न से ही पारणा किया । २९० --. संगम के उपसर्ग
___ भगवान् ने वहाँ से दृढ़भूमि की ओर प्रस्थान किया। पेढाल गांव के सनिकट पेढाल उद्यान में अष्टमतप कर और एक अचित्त पुद्गल पर दृष्टि केन्द्रित कर ध्यानस्थ हो गए।२९१ भगवान् की इस अपूर्व एकाग्रता, कष्ट सहिष्णुता और अचल धैर्य को देखकर देवराज इन्द्र ने भरी सभा में गद्-गद् स्वर में प्रभु को वन्दन करते हुए कहा-"प्रभो । आपका धैर्य, आपका साहस, आपका ध्यान अनूठा है ! मानव तो क्या शक्तिशाली देव और दैत्य भी आपको इस साधना से विचलित नहीं कर सकते ।"२९२ शक्र की भावना का सारी सभा ने तुमुल जयघोष के साथ अनुमोदन किया । किन्तु संगमदेव के अन्तर्मानस में यह बात न पैठ सकी। उसे अपनी दिव्य दैवी शक्ति पर बड़ा गर्व था। उसने विरोध किया, और भगवान को साधना मार्ग से चलित करने की दृष्टि से देवेन्द्र का वचन लेकर वहीं पहुंचा जहाँ भगवान् ध्यानमग्न थे। उसने आते ही उपसों का जाल बिछा दिया । २९३ एक के पश्चात् एक भयंकर विपत्तियों का वात्याचक्र चलाया। जितना भी वह कष्ट दे सकता था दिया। तन के कण-कण