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________________ ३२४ कहे कि आवश्यकता है, तो उसके पश्चात् उस अस्वस्थ व्यक्ति से पूछना चाहिए कि कितने प्रमाण में (दूध आदि की ) आवश्यकता है और दूध आदि का प्रमाण अस्वस्थ व्यक्ति से जान लेने के पश्चात् वह कहे कि इतने प्रमाण में अस्वस्थ व्यक्ति (सन्त) को दूध की आवश्यकता है। बीमार जितने प्रमाण में कहे उतने ही प्रमाण में लाना चाहिए। लाने के लिए जाने वाला प्रार्थना करे और प्रार्थना करता हुआ दूध आदि प्राप्त करे । जब दूध आदि प्रमाणयुक्त प्राप्त हो जाय तब उसे पर्याप्त (बस) है, इस प्रकार कहना चाहिए। उसके पश्चात् दूध देने वाला उस श्रमण से कहे कि - 'हे भगवन् ! 'बस, पर्याप्त है' ऐसा आप कैसे कह रहे हैं। उत्तर में लेने वाला भिक्षुक कहे, कि बीमार के लिए इतने की ही आवश्यकता है । इस प्रकार कहते हुए भिक्षुक को दूध आदि प्रदान करने वाला गृहस्थ कदाचित् यह कहे कि हे आर्य ! आप ले जावें बाद में आप खा लेना, या पी लेना, इस प्रकार वार्ता हुई हो तो उसे अधिक लेना कल्पता है, किन्तु लाने वाले को बीमार व्यक्ति के बहाने अधिक लाना नही कल्पता । मूल :वासावासं पज्जोसवियाणं अत्थि णं थेराणं तहप्पगाराई कुलाई कडाई पत्तियाइं थेज्जाई वेसासियाई सम्मयाई बहुमयाई अणुमयाई भवति तत्थ से नो कप्पड़ श्रहख वहत्तए 'अत्थि ते आउसो ! इमंवा इमं वा ? से किमाहु भंते! सड्ढी गिही गिन्हइ वा तेणियं पि कुज्जा ॥ २३६ ॥ अर्थ- वर्षावास में रहे हुए स्थविरों के तथा प्रकार के कुल आदि किये हुए होते हैं, जो कुल प्रीतिपात्र होते हैं स्थिरता वाले होते हैं, विश्वास वाले होते हैं, सम्मत होते हैं, बहुमत होते हैं और अनुमति वाले होते हैं, उन कुलों में जाकर आवश्यक वस्तु न देखकर उन स्थविरों को इस प्रकार कहना नहीं कल्पता कि हे आयुष्मन् ! यह वस्तु या यह वस्तु तुम्हारे यहाँ पर है ? उन्हें इस प्रकार कहना नहीं कल्पता, यह किस प्रश्न- हे भगवन् ! उद्देश्य से कहा गया है ?
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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