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सहरण
उवागच्छत्ता उसभदत्तं माहणं जाणं विजएणं वद्धावेइ, वडावित्ता भद्दा सणवरगया आसत्था वीसत्था करयल परिग्गहियं सिरसावत्तं दसनहं मत्थए अंजलि कटु एवं क्यासी एवं खलु अहं देवाप्पिया ! अज्ज सयणिज्जंसि सुत्तजागरा ओहीरमाणी ओहरमाणी इमे यावे ओराले जाव सस्सिरीए चोइस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा तं जहा -गय जाव सिहिं च । एएसि णं देवाणुप्पिया ! ओरालाणं जाव चोदसण्हं महासुमिणाणं के मन्न कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ ? ॥६॥
अर्थ - उस समय देवानन्दा ब्राह्मणी इस प्रकार उदार कल्याण, शिव,
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धन्य, मंगल व श्रीयुक्त चौदह महास्वप्नों को देखकर जागृत हुई, हर्षित एवं तुष्ट होकर आनन्दित व प्रीतिमना हुई । परम सौमनस्य को प्राप्त हुई । उसका हृदय हर्ष से प्रफुल्लित हो गया । जैसे कदम्बपुष्प मेघ की धाराओं से खिल जाता है, उसके काँटे खड़े हो जाते हैं, उसी प्रकार देवानंदा के रोम खड़े हो गये । स्वप्नों को स्मरण कर वह अपनी शय्या से उठी, और शनैः शनैः अचपलगति से राजहंस की तरह चलती हुई जहाँ पर ऋषभदत्त ब्राह्मण है वहां आती है और ऋषभदत्त ब्राह्मण की "जय हो, विजय हो" इस प्रकार प्रशस्ति करती है । भद्रासन पर बैठकर आश्वस्त और विश्वस्त होने पर हाथों को जोड़कर मस्तिष्क पर अंजलि घुमाकर इस प्रकार बोली- 'निश्चय ही हे देवानुप्रिय ! मैं आज अर्धनिद्रावस्था में शय्या पर सोई हुई थी, उस समय इस प्रकार उदार व शोभायुक्त चौदह महास्वप्न देखकर जागृत हुई । वे स्वप्न इस प्रकार हैं-गज से लेकर निघू म अग्नि तक । हे देवानुप्रिय ! उन उदार यावत् चौदह महास्वप्नों का क्या कल्याणमय फल विशेष होगा ?
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मूल :
तणं से उस दत्त माहणे देवाणंदाए माहणीए अंतिए एयम सोच्चा निसम्म हहतुट्ठ जाव हियए धाराहय कलंबुयं पिव