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________________ उपक्रम : बस कल्प · कृतिकर्म कृतिकर्म का अर्थ है अपने से संयमादि में ज्येष्ठ व सद्गुणों में श्रेष्ठ श्रमणों का खड़े होकर हृदय से स्वागत करना। उन्हें बहुमान देना, उनकी हितशिक्षाओं को श्रद्धा से नतमस्तक होकर स्वीकार करना । ४५ चौबीस ही तीर्थंकरों के श्रमण अपने से चारित्र में ज्येष्ठ श्रमणों को वन्दननमस्कार करते हैं । यह कल्प सार्वकालिक हैं । ४६ व्रत व्रत का अर्थ है विरति । ४७ विरति असत् प्रवृत्ति की होती है । अकरण, निवृत्ति, उपरम और विरति ये एकार्थक शब्द हैं । ४८ व्रत शब्द का प्रयोग निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनो ही अर्थों में होता है । जैसे "वृषलान्तं व्रतयति" अर्थात् वह शूद्र के अन्न का परिहार करता है । "पयोव्रतयति" अर्थात् केवल दूध पीता है, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नही खाता । इसी तरह असत् प्रवृत्ति का परिहार और सत् में प्रवृत्ति इन दोनों अर्थों में व्रत शब्द का प्रयोग हुआ है । ४९ भगवान् श्री महावीर और ऋषभदेव के श्रमण पाँच महाव्रत रूप धर्म का पालन करते हैं और अन्य बावीस तीर्थंकरों के श्रमण चार यामों का । इसका क्या रहस्य है, यह प्रश्न भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के अन्तिम प्रतिनिधि केशीकुमार श्रमण के मन को कचोट रहा था। उन्होंने गौतम गणधर से पूछा। गौतम ने समाधान करते हुए कहा" विज्ञवर ! प्रथम तीर्थकर के श्रमण ऋजु जड़ होते हैं, अन्तिम तीर्थंकर के श्रमण वक्र जड़ होते हैं और मध्य के तीर्थकरों के श्रमण ऋजु -प्राज्ञ होते हैं। प्रथम तीर्थकर के मुनि कठिनता से समझते हैं और अन्तिम तीर्थंकर के शिष्यों को धर्मपालन करना कठिन होता है, किन्तु मध्यवर्ती युग के श्रमणो के लिए समझना और पालना सुलभ होता है । ५१ चातुर्याम और पंचयाम का जो भेद है वह भी बहिर्दृष्टि से है, न कि अन्तर्दृष्टि से । मध्यवर्ती श्रमण परिग्रह त्याग में ही चतुर्थव्रत का समावेश कर लेते थे । कञ्चन और कांता दोनों का वे अन्योन्याश्रय सम्बन्ध समझते थे । १२ स्त्री को भी परिग्रह में गिनते थे । कुछ आधुनिक चिन्तकों ने लिखा है कि वे कान्तायुक्त थे, पर उनकी यह कल्पना अनागमिक एवं असंगत है । • ज्येष्ठ जैन धर्म गुण प्रधान होने पर भी इसकी परम्परा पुरुष ज्येष्ठ रही है। सौ वर्ष की दीक्षिता साध्वी भी आज के दीक्षित श्रमण को श्रद्धा-भक्तिपूर्वक नमस्कार करती है 143 ज्येष्ठ कल्प का दूसरा अर्थ है -बावीस तीर्थंकरों के समय श्रमणों के सामायिक चारित्र ही होता है, पर प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के समय श्रमणों के सामायिक चारित्र
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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