________________
कल्पसूत्र
है । निशीथभाष्य के अभिमतानुसार स्वयं गृहपति या उसके द्वारा निर्दिष्ट कोई भी अन्य व्यक्ति शय्यातर होता है । 30 शय्यातर कब होता है ? इस पर आचार्यों के विभिन्न मत हैं। निशीथ भाष्य और चूर्णि में उन सभी मतों का निर्देश किया गया है, तथा भाष्यकार ने अपना स्पष्ट अभिमत इस प्रकार दिया है 'श्रमण जिस स्थान में रात्रि रहे, सोए, और चरमावश्यक कार्य करे उस स्थान का अधिपति शय्यातर होता है । १२
श्रमण के लिए शय्यातर के अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, आदि अग्राह्य हैं और तृण, राख, पाट बाजोट, आदि ग्राह्य हैं । सूत्रकृताङ्ग में शय्यातर के स्थान में "सागरिपिण्ड" लिखा है, ३४ पर उसका अर्थ भी टीकाकार ने शय्यातरपिण्ड किया है । 34
राज- पिण्ड
मूर्धाभिषिक्त अर्थात् जिसका राज्याभिषेक हुआ हो वह 'राजा' कहलाता है । उसका भोजन राजपिण्ड है । 30 जिनदासगणी महत्तर के अभिमतानुसार सेनापति, अमात्य, पुरोहित, श्रेष्ठी और सार्थवाह सहित जो राजा राज्य का उपभोग करता है। उसका पिण्ड (भोजन) ग्रहण नही करना चाहिए। अन्य राजाओं के लिए नियम नही है । यदि दोष की सम्भावना हो तो ग्रहण नहीं करना चाहिए, और निर्दोष हो तो ग्रहण किया जा सकता है । ३७
राजपिण्ड का तात्पर्य - राजकीय भोजन है । राजकीय भोजन सरस, मधुर व मादक होता है । जिसके सेवन से रस- लोलुपता बढने की सम्भावना रहती है। साथ ही वह उत्तेजक भी होता है। इस प्रकार का सरस आहार सर्वत्र प्राप्त भी होना सम्भव नही, रस-लोलुप मुनि कही अनेषणीय आहार संग्रहण न करे, इस दृष्टि से राजपिण्ड का निषेध किया गया है । एषणाशुद्धि ही प्रस्तुत विधान की मूल दृष्टि है । ३ यदि कोई इस विधान को विस्मृत करके राजपिण्ड को ग्रहण करता है, या राजपिण्ड का उपयोग करता है तो उस श्रमण को चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है । 3
राजपिण्ड के निषेध के पीछे अन्य अनेक तथ्य रहे हुए है । ४० जिनका उल्लेख, निशीथभाष्य और चूर्णि में किया गया है। राजभवन में प्रायः सेनापति आदि का आवागमन रहता है। कभी शीघ्रतादि के कारण श्रमण के चोट लगने की और पात्रादि फूटने की सम्भावना भी रहती है। किसी कार्यवश जाते हुए साधु को देखने पर उसको वे अपशकुन भी समझ सकते हैं । ४१ इन कारणो से राजपिण्ड को अग्राह्य तथा अनेषणीय माना है तथा उसको ग्रहण करना अनाचार है । ४३
भगवान महावीर और श्री ऋषभदेव के श्रमणों के लिए ही राजपिण्ड का निषेध है, पर बावीस तीर्थंकर के श्रमणो के लिए नही । ४३ राजपिण्ड से अभिप्राय है चार प्रकार के आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण-ये आठ वस्तुएँ, और ये आठों अग्राह्य मानी हैं । ४४