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________________ उपक्रम : बस कल्प समाधान करते हुए गौतम ने कहा--" विज्ञवर ! विज्ञान से तस्व को जानकर ही धर्म साधनों की आज्ञा दी गई है। लोक मे प्रतीति के लिए, संयम निर्वाह के लिए, ज्ञानादि गुण-ग्रहण के लिए, वर्षाकल्प आदि में सयम पालन के लिए ही वस्त्रादि उपकरणों की आवश्यकता है । वस्तुतः दोनो तीर्थकरो की प्रतिज्ञा (प्ररूपणा ) मोक्ष के सद्भूत साधन ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप ही है। उसमें कोई अन्तर नही है ।" १२ आगमानुसार सभी तीर्थंकर देवदूष्य वस्त्र के साथ प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं । १३ कुछ समय तक वे देवदृष्य वस्त्र को रखते हैं। 134 भगवान् श्री महावीर ने भी एक वर्ष तक देवदृष्य वस्त्र को धारण किए रखा था, उसके बाद वे पूर्ण अचेलक बने । १४ बावीस परीषहों मे छट्टा परीषह अचेल परीषह है ।" उसका भी अर्थ है- 'वस्त्रों के जीर्ण होने पर श्रमण यह चिन्ता न करे कि मैं वस्त्र रहित हो जाऊँगा, अथवा यह भी विचार न करे कि अच्छा हुआ वस्त्र जीर्ण हो गए हैं और अब मैं नये वस्त्रों से सचेलक हो जाऊँगा । सचेल और अचेल दोनो ही अवस्था में श्रमण खिन्न न हो । १६ हाँ तो आलक्य-कल्प का सक्षेप मे अर्थ हुआ - अल्प प्रमाणोपेत एवं श्वेत वस्त्र धारण करने की मर्यादा । • औद्द शिक free froर्थ है श्रमण को दान देने के उद्देश्य से, या परित्राजक, श्रमण, निर्ग्रन्थ आदि सभी को उद्देश्य कर निर्मित अशन, वसन, भवन आदि । १७ वह श्रमण के लिए अग्राह्य एव असेव्य है । यदि श्रमण को यह ज्ञात हो जाय तो वह स्पष्ट रूप से कहे कि यह अशनादि मुझे नहीं कल्पता । १८ प्रथम और अन्तिम तीर्थकरो के श्रमणों के लिए यह विधान है कि 'एक श्रमण को उद्देश्य करके निर्मित आहार आदि न उसे ग्रहण करना कल्पता है, और न अन्य श्रमणों को ही ग्रहण करना कल्पता है ।' किन्तु बावीस तीर्थकरो के समय में जिस श्रमण को उद्देश्य कर आहार आदि निर्मित किया गया हो वह उसे ग्रहण करना नही कल्पता, पर शेष श्रमणो के लिए वह ग्राह्य हो सकता है । १९ २१ दशवैकालिक, २० प्रश्नव्याकरण, सूत्रकृताङ्ग, २३ २२ उत्तराध्ययन, आचारांग, १४ और भगवती २" आदि आगमों में अनेक स्थलों पर औद्दे शिक आहार आदि ग्रहण करने का निषेध है, क्योंकि औद्दे शिक आदि ग्रहण करने से त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा का अनुमोदन होता है, २६ अतः वह श्रमण के लिए अग्राह्य है । २७ • शय्यातर - पिण्ड श्रमण को शय्या ( वसति - उपाश्रय) देकर संसार - समुद्र को तैरने वाला गृहस्थ शय्यार कहलाता है । २८ अर्थात् वह गृहपति जिसके मकान में श्रमण ठहरे हुए हों शय्यातर
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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