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________________ ६६४ मूल : उसमे गं अरहा कोसलिए एगं वाससहस्सं निच्चं वोसट्ठकाये चियत्तदेहे जाव अप्पाणं भावेमाणस्स एक्कं वाससहस्सं विइक्कतं तओ णं जे से हेमंताणं चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे फग्गुणबहुले तस्स णं फग्गुणबहुलस्म एक्कारसीपक्खेणं पुवण्हकालसमयंसि पुरिमतालस्स नयरस्स बहिया सगडमुहंसि उज्जाणंसि नग्गोहवरपायवस्स अहे अठमेणं भत्तेणं अपाणएणं आसाढाहिं नक्खतेणं जोगमुवागएणं झाणंतरियाए वट्टमाणस्स अणंते जाव जाणमाणे पासमाणे विहरइ ॥१६॥ अर्थ-कौशलिक अर्हत् ऋषभदेव ने अपने शरीर की ओर लक्ष्य देना छोड़ दिया था। उन्होंने शरीर की संभाल छोड़ दी थी। इस प्रकार अपनी आत्मा को भावित करते-करते एक हजार वर्ष व्यतीत हो गये, तब हेमन्त ऋतु के चतुर्थ मास और सातवें पक्ष, अर्थात् फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन, पूर्वाह्न में, पुरिमताल नगर के बाहर, शकटमुख नामक उद्यान मे, उत्तम वट वृक्ष के नीचे, रहकर ध्यान कर रहे थे। उस समय निर्जल अष्टम तप किया हुआ था, आषाढ़ा नक्षत्र का योग आने पर, ध्यान में रहे हुए भगवान् को उत्तम अनन्त केवलज्ञान केवलदर्शन उत्पन्न हुआ। उससे वे सभी लोकालोक के भाव जानते-देखते हुए विचरने लगे। विवेचन-भगवान् श्री ऋषभदेव को केवलज्ञान की उपलब्धि बट वृक्ष के नोचे हुई थी अत वह आज भी आदर की दृष्टि से देखा जाता है । जिस समय भगवान् ऋषभदेव को केवलज्ञान की उपलब्धि हुई उसी समय सम्राट भरत की आयुधशाला में चक्ररत्न भी उत्पन्न हुआ। और उसकी सूचना एक साथ ही यमक और शमक दूतों के द्वारा सम्राट् भरत को मिली ।“ भरत एक साथ दो सूचनाएं मिलने से एक क्षण असमजस में पड़ गये। उन्होंने सोचा-प्रथम चक्ररत्न की अर्चना करनी चाहिए, या भगवान
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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