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१३८, बोरओ वि कालगतो सोहम्मे कप्पे तिपलिओवमट्टिनी किग्विसिओ देवो जातो।
-बसुदेव हिण्डी पृ० ३५७ १३६. कुणति य से दिव्वप्पभावेण धणुसम उच्चतं ।
-वसुदेव हिण्डी पृ० ३५७ १४०. (कभगवती शतक ३. उद्दे-३ पृ० १६७
(ख) महावीर चरियं, गुणचन्द्र, ७ वां प्रस्ताव पृ० २३४ से २४० १४१. रिसहो रिसहस्स सुया, भरहेण विधज्जिया नव नवई ।
अट्टेव भरहस्स सुया, सिद्धिगया एक समयम्मि ।। १४२ उक्कोसोगाहणाए य, सिज्झन्ते जुगवं दुवे । चत्तारि जहन्नाए, मज्झे अठुनरसयं ।।
-उत्तराध्ययन अ०३६ गा०५३ १४३. (क) अट्ठावयम्मि सेले चउदसभत्तेण सो महरिसीण ।
दसहि सहस्सेहि सम निव्वाणमणुत्तरं पत्तो॥ -आवश्यक नियुक्ति गा० ४३४ (ख) आद्य सहस्रर्दशभि. ।
-लीक प्रकाश मर्ग ३२, श्लोक ३८ १४४. बस्तीसा अडयाला सट्री बावत्तरी य बोद्धव्वा ।
चुलसीइ छन्नउइ उ दुरहियमठुतर सय च ॥ -पन्नवणा पद १, जीवप्रज्ञापना प्रकरण १४५. स्थानाङ्ग सूत्र पृ० ५२४ १४६. (क) रिसेह अट्ट हियसयसिद्ध, मियलजिणम्मि हरिवमो ।
नेमिजिणे अपरकका-गमणं कण्हस्स मपन्न ॥१॥ इस्थितित्थ मल्ली पूआ-असजयाणनवमजिणे । अवसेसा अच्छेग वीर जिणंदस्मतिम्मि ॥२॥ सिरि रिसह सियलेसु एक्केक मल्लि नमि नाहेण । वीरजिणदे पचओ, एगं सव्वेसु पाएणं ॥३॥
-कल्पमूत्र कल्पद्र म कलिका, टीका मे उद्धृत पृ० ३३ १४७. हरिणेगमेषी-शब्द एक अति प्राचीन शब्द है । ऋग्वेद के खिल्यसूत्र में एव महाभारत के
आदिपर्व (४५०।३७) में 'नगमेष' शब्द आता है । जो एक विशेष देव का वाचक है। बौद्ध साहित्य मे (बुद्धिष्ट हाइब्रिड संस्कृत ग्रामर एड डिक्शनरी खड २१०३१२) में भी यह शब्द आया है और उसे एक यक्ष बताया है। जैन साहित्य में आचार्यों ने इमको व्युत्पत्ति करते हुए लिग्वा है-"हरिणगमेसिति:'-हरेरिन्द्रस्य मैगमेधी आदेश प्रतिच्छक इति'- (कल्पसूत्र, सन्देह विषौषधि टीका, पत्र ३१) इन्द्र का आदेश-आज्ञापालक हरिणगमेषी है । यही व्युत्पत्ति राजेन्द्रकोषकार ने मान्य की है-हरेरिन्द्रस्य नैगममादेशमिच्छतीति हरिनगमेषी (अभि० राजेन्द्र ७३११८७) इसी दृष्टि को लेकर कल्पमूत्र के बंगला अनुवादक श्री वसंत कुमार चट्टोपाध्याय ने 'हरि-नमेगषो' शब्द मे विग्रह किया है । तात्पर्य यह है कि हरिनगमेषी देव, देवराज इन्द्र का एक विशेष कार्य दक्षत 'हरिणगमेसी सक्कदए' (भग० ४) आज्ञापालक है। जो उसकी पदातिसेना का नायक भी है।