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________________ समाचारी : भिक्षावरी कल्प ३४७ गणधर से, गणावच्छेदक से, अथवा जिसे भी प्रमुख मानकर विचरण करता हो उससे बिना पूछे उसे वैसा करना नहीं कल्पता है। आचार्य अथवा उपाध्याय, अथवा स्थविर, अथवा प्रवर्तक, गणि, गणधर, गणावच्छेदक अथवा जिस किसी को प्रमुख मानकर विचरण करता हो उससे पूछकर उसे इस प्रकार करना कल्पता है । भिक्षु उन्हें इस प्रकार पूछे- "हे भगवन् ! आपकी आज्ञा प्राप्त होने पर मैं कोई भी एक विगय को इतने प्रमाण में और इतनी बार खाना चाहता हूं।" इस प्रकार पूछने पर जो वे उसे अनुमति प्रदान करे तो इस प्रकार उस भिक्षु को कोई एक विगय खाना कल्पता है । जो वे उसे अनुमति प्रदान न करे तो उस भिक्षु को कोई भी एक विगय खाना नहीं कल्पता। प्रश्न- हे भगवन् ! आप इस प्रकार किसलिए कहते हैं ? उत्तर-आचार्य प्रत्यवाय को और अप्रत्यवाय को, अर्थात् हानि और लाभ को जानते होते हैं ।२९ मूल :-- वासावासं पज्जोसवियाणं भिक्खु य इच्छेज्जा अन्नयरिं तेइ छ आउट्टित्तए, त चेव सव्वं ॥२७७॥ अर्थ-वर्षावास में स्थित भिक्षु यदि किसी प्रकार की चिकित्सा करवाने की इच्छा करे तो इस सम्बन्ध में भी पूर्ववत् ही जानना चाहिए । मूल : वासावासं पज्जोसवियाणं भिक्खु य इच्छिज्जा अन्नयरं ओरालं तवोकम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, तं चेव सव्वं ॥२७८।। ___अर्थ-वर्षावास में रहा हुआ भिक्षु, कोई एक प्रकार का प्रशस्त, कल्याण कारी, उपद्रवों को दूर करने वाला, जीवन को धन्य करने वाला, मंगल करने वाला, सुशोभन, और बड़ा प्रभावशाली तपकर्म स्वीकार कर विचरने की इच्छा
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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