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फूट पड़ी-"सम्राट भरत ने भूल की है, पर आप भूल न करें। लघु भाई के द्वारा बड़े भाई की हत्या अनुचित ही नही, अत्यन्त अनुचित है। महान् पिता के पुत्र भी महान होते हैं, क्षमा कीजिए, क्षमा करने वाला कभी छोटा नहीं होता।" बाहुबली का रोष कम हुआ, हृदय प्रबुद्ध हुआ। कुल-मर्यादा और युग की आवश्यकता को ध्यान में रखकर वे चिन्तनमग्न हो गए। भरत को मारने के लिए उठा हुआ हाथ भरत पर नही पड़कर, स्वयं के सिर पर गिरा और वे लुचन कर श्रमण बन गये । राज्य को ठुकरा कर पिता के चरण-चिह्नों पर चल पड़े।
बाहुबली को केवल ज्ञान-बाहबली के पर चलते-चलते रुक गये। वे पिता की शरण में पहुँचने पर भी चरण मे नही पहुँच सके। पूर्व दीक्षित लघुभ्राताओं को नमन करने की बात स्मृति में आते ही उनके चरण एकान्त-शान्न कानन में ही स्तब्ध हो गये। असन्तोष पर विजय पाने वाले बाहुबली अस्मिता से पराजित हो गये । एक वर्ष तक हिमालय की तरह अडोल ध्यान-मुद्रा में अवस्थित रहने पर भी केवलज्ञान का दिव्य आलोक प्राप्त नहीं हो सका। शरीर पर लताएँ चढ़ गई, पक्षियो ने घोंसले बना दिये, तथापि मफलता नही मिल सकी । केवलज्ञान नहीं हुआ।
"हस्ती पर आरूढ व्यक्ति को कभी केवलज्ञान की उपलब्धि नही होती, अतः भाई नीचे उतरो" ये शब्द एकदिन बाहुबली के कानों में पड़े। बाहुबली ने चिन्तन किया-मैं हाथी पर कहाँ आरुढ़ हूँ ? फिर विचारधारा ने मोड़ लिया, नेत्र खोले, सामने विनीत मुद्रा मे भगिनियों को निहार कर सोचने लगे—मै व्यर्थ ही अभिमान के हाथी पर चढ़ा था। मैं अवस्था के भेद में उलझ गया। वे भाई आयु में मुझ से भले ही छोटे हैं, पर चारित्रिक दृष्टि से बडे है । मुझे नमन करना चाहिए।" नमन करने के लिए ज्यों ही पैर उठे त्यों ही बन्धन टूट गए । विनय ने अहंकार को पराजित कर दिया। बाहुबली वही पर केवली बन गये। भगवान् श्री ऋषभदेव को नमन कर केवलीपरिषद् मे आकर सम्मिलित हुए । १६
भरत को कैवल्य-राजनैतिक व सांस्कृतिक एकता के लिए भरत ने