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________________ भगवान के पूर्वमय २६ (२) प्रथम देवलोक नयसार वहां से आयु पूर्णकर सौधर्मकल्प में एक पल्योपम की स्थिति वाला महर्दिक देव बना। (३) मरीचि [त्रिदण्डी] नयसार का जीव स्वर्ग से आयु पूर्ण होने पर तृतीय भव में चक्रवर्ती सम्राट् भरत का पुत्र मरीचि के रूप में उत्पन्न हुआ। वहां भगवान् श्री ऋषभदेव के प्रथम प्रवचन को श्रवण कर श्रमणत्व स्वीकार किया।" पर एक बार भीष्म-ग्रीष्म के आतप से प्रताडित होकर मरीचि साधना के कठोर कंटकाकोर्ण महामार्ग से विचलित हो गया। उसके अन्तर्मानस में ये विचार लहरियाँ तरगित हुई कि “मेरु पर्वत सदृश यह संयम का गुरुतर भार मैं एक मुहूर्त भी सहन करने में असमर्थ हूँ। क्या मुझे पुनः गृहस्थाश्रम स्वीकार करना चाहिए ? नहीं, कदापि नहीं। किन्तु जबकि संयम का विशुद्धता से पालन नही कर पाता, तब फिर श्रमण वेष को छोड़कर नवीन वेष-भूषा अपनाना ही उचित है।"४ उसने सकल्प किया-"श्रमण संस्कृति के श्रमण त्रिदण्ड-मन,वचन काय के अशुभ व्यापारों से रहित होते हैं, इन्द्रिय-विजेताहोते हैं, पर मैं त्रिदण्ड से युक्त हूँ और अजितेन्द्रिय हूँ अतः इसके प्रतीक रूप में त्रिदण्ड धारण करूंगा।"४७ "श्रमण द्रव्य और भाव से मुण्डित होते हैं, सर्वप्राणातिपातविरमण महाव्रत के धारक होते है, पर मैं शिखा सहित हूँ, क्षुरमुडन कराऊंगा और स्थूल प्राणातिपात का विरमण करूँगा।" श्रमण अकिंचन तथा शील की सौरभ से सुरभित होते हैं, पर मैं वैसा नहीं हूँ, मैं सपरिग्रह रहकर शील की सौरभ के अभाव में चन्दनादि की सुगन्ध से सुगन्धित रहूँगा।"४९ "श्रमण निर्मोही होते हैं, पर मैं मोह-ममता के मरुस्थल में घूम रहा हैं। इसके प्रतीक रूप मैं छत्र धारण करूँगा । श्रमण नंगे पैर होते हैं पर मैं उपानह (काष्ट पादुका) पहनूगा।"५०
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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