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सापना काल : पोशालक को भेंट
बाहर ध्यान मुद्रा लेकर खड़े हो गए। भगवान् के चरण-चिह्नों को देखकर पुष्य नामक एक निमित्तज्ञ के मानस में विचार उठा कि ये चरण-चिह्न तो अवश्य ही किसी चक्रवर्ती सम्राट् के हैं जो अभी किसी विपदा से ग्रसित होकर अकेला घूम रहा है। मैं जाकर उसकी सेवा करूँ। चक्रवर्ती सम्राट बनने पर वह प्रसन्न होकर मुझे निहाल कर देगा । ४५ वह चरण-चिह्नों को देखता हुआ भगवान के पास पहुंचा, किन्तु भिक्षुक के वेष में भगवान को देखकर उसके आश्चर्य का पार नहीं रहा। वह यह नहीं समझ सका कि चक्रवर्ती सम्राट् के सम्पूर्ण लक्षण शरीर पर विद्यमान होते हुए भी यह भिक्षक कैसे ? उसे ज्योतिष शास्त्र का कथन मिथ्या प्रतीत हुआ। वह ज्योतिष शास्त्र को गगा मे बहाने के लिए तैयार हो ही रहा था कि देवेन्द्र ने प्रकट होकर कहा"पुष्य । यह कोई साधारण भिक्षुक नही है। धर्म-चक्रवर्ती हैं। चक्रवर्ती सम्राट् से भी बढकर हैं। देवों व इन्द्रों के द्वारा भी वन्दनीय और अर्चनीय है । २४६ पुष्य भगवान् को वन्दना करके चल दिया। ---. गोशालक की भेंट :
भगवान् महावीर ने द्वितीय वर्षावास राजगृह के उपनगर नालन्दा को तन्तुवायशाला (बुनकर की उद्योगशाला) में किया । वहाँ मंखलि पुत्र गोशालक २४७ भी वर्षावास हेतु आया हुआ था। वह भगवान् के तप और त्याग से आकर्षित हुआ । वास्तव मे उसने भगवान के मासक्षपण के पारणे में पांच दिव्य प्रकट हुए देखे, आकाश में देव-दुन्दुभि सुनी तो वह उनके चामत्कारिक तप से आकृष्ट होकर उनका शिष्य बनने के लिए उत्सुक हो गया । वह भगवान से शिष्य बनाने की प्रार्थना करने लगा, प्रभु मौन रहे । उस वर्षावास में भगवान् ने एक-एक मास का दीर्घ-तप किया । वर्षावास की पूर्णाहुति के दिन गोशालक भिक्षा के लिए निकला तो उसने प्रभु से जिज्ञासा की-तपस्वी ! "आज मुझे भिक्षा में क्या प्राप्त होगा ?" उत्तर देते हुए भगवान् ने कहा-'कोदों का बासी तन्दुल, खट्टी छाछ और खोटा रुपया।" भगवान की भविष्यवाणी को मिथ्या करने हेतु वह श्रेष्ठियों के गगनचुम्बी भव्य भवनों में पहुँचा, पर हताश और निराश होकर पुनः खाली लौट आया। फिर गरीबों