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एक बार श्वेताम्बी के राजकुमारों ने आश्रम के फल-फूल तोड़े। में तीक्ष्ण कुल्हाड़ी से उन्हें मारने दौड़ा पर पाँव फिसल गया और उस तीक्ष्ण कुल्हाड़ी से मैं स्वयं कट गया, वहाँ से आयु पूर्ण कर सर्प बना ।" इस प्रकार पूर्व - पापों की संस्मृति से हृदय विकल व विह्वल हो उठा । आत्म-भान होते ही वह अपनी की हुई भूलों पर पश्चात्ताप करने लगा । भगवान् के चरणारविन्दों में आकर झुक गया । उसका प्रस्तर हृदय पिघल गया । भगवान् के पावन प्रवचन से बह पवित्र हो गया । उसने दृढ़ प्रतिज्ञा ग्रहण की कि 'आज से मैं किसी को न सताऊँगा । उसने आजीवन अनशन कर लिया । देखकर लोग आने लगे । नागराज में यह अद्भुत चकित थी । जिसे मारने के लिए एकदिन जनता उसकी अर्चना कर आनन्द-विभोर हो रही थी ।
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कल्प
भगवान को वहाँ खड़ा परिवर्तन देखकर जनता उन्मत्त थी, आज वही
वहाँ से भगवान् उत्तर वाचाला पधारे। 'नागसेन' के यहाँ पन्द्रह दिन के उपवास का पारणा कर श्वेताम्बी पधारे। सम्राट् प्रदेशी ने भावभीना स्वागत किया, वहाँ से सुरभिपुर पधार रहे थे कि मार्ग में सम्राट् प्रदेशी के पास जाते हुए पांच नैयिक राजाओं ने भगवान् की वन्दना - नन्दना की । "
• माव किनारे लग गई
सुरभिपुर पधारते समय गंगा को पार करने हेतु भगवान् सिद्धदत्त की नौका मे आरूढ़ हुए । नौका ने ज्यों ही प्रस्थान किया, त्योंही दाहिनी ओर से उल्लूक के कर्ण कटु शब्दों को श्रवण कर खेमिल निमित्तज्ञ ने यात्रियों से कहाबड़ा अपशकुन हुआ है, पर प्रस्तुत महापुरुष की प्रबल पुण्यवानी से हम बच जायेंगे । १४४ आगे बढ़ते ही आंधी और तूफान नौका आवर्त मे फँस गई । कहते हैं कि त्रिपृष्ट वासुदेव के भव में जिस सिंह को मारा था वह सुदंष्ट्र नाम का देव हुआ और पूर्व वैर के कारण उसने गंगा में तूफान खड़ा कर दिया | अन्य यात्रीगण भय से काँप उठे, पर, महावीर निष्कम्प थे । अन्त में महावीर के प्रभावपूर्ण व्यक्तित्व से नौका किनारे लग गई ।
• धर्म चक्रवर्ती
नाव से उतरकर भगवान गंगा के किनारे स्थित थूणाक सन्निवेश के