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________________ सापना काल : पर कौशिक को प्रतियोष १६३ जिधर देखता है, जहर बरसने लगता है, आग की लपटें उठने लगती हैं। उसके कारण आस-पास के वृक्ष भी सूख गये हैं। चारों ओर सुनसान हो गया है । अतः श्रेयस्कर यही है कि आप बाहर के मार्ग से पधारें। पर महावोर मौन थे। वे अपने लक्ष्य की ओर बढे जा रहे थे। पथ से विचलित होना उन्होंने सीखा हो न था। ग्वालों ने पुनर्वार रोकने का प्रयास किया, किन्तु वे सफल न हो सके । भगवान् आगे बढ़ गये। चण्डकौशिक के स्थान पर जाकर ध्यान लगाकर खडे हो गये । २३८ उनके मन में प्रेम का पयोधि उछ्वलित हो रहा था। भयंकर फुकार करता हुआ नागराज बाहर निकला। बांबी के पास भगवान् को देखकर वह सहम गया। उसने क्षुब्ध होकर फुकार मारी। किन्तु भगवान पर कुछ भी असर नहीं हुआ। उसने अनेक बार दंश प्रहार किया, तथापि भगवान को शान्त-प्रशान्त देखकर वह स्तब्ध हो गया । २३९ ___ आश्चर्य में निमग्न विषधर महावीर की मुख-मुद्रा को एक टक देख रहा था। उसमे कही पर भी रोष और क्रोध की रेखाएँ नहीं थी, अपितु मधुर मुस्कान खिल रही थी। अन्त में अमृत ने विष को परास्त कर दिया। __ महावीर ने नागराज को शान्त देखकर ध्यान से निवृत्त होकर कहा"चण्डकौशिक ! शान्त होओ ! उवसम भो चण्डकोसिया ! जागृत होओ ! अज्ञानान्धकार में कहाँ भटक रहे हो, पूर्व जन्म के दुष्कर्मों के कारण तुम्हें सर्प बनना पड़ा है, यदि अब भी तुम न सँभले तो भविष्य तिमिराच्छन्न है।४. भगवान् के सुधा-सिक्त वचनों ने नागराज के अन्तर्मानस मे विचार ज्योति प्रज्ज्वलित कर दी। चिन्तन करते-करते पूर्व जन्म का चलचित्र नेत्रों के सामने नाचने लगा । २४१ “मैं पूर्व जन्म में श्रमण था, असावधानी से भिक्षा के लिए जाते समय पैर के नीचे मण्डकी आ गई । शिष्य के द्वारा प्रेरणा देने पर भी मेंने आलोचना नही की और अस्मिता के वश शिष्य को मारने दौड़ा । अंधकार में स्तम्भ से शिर टकराया, आयु:पूर्ण कर ज्योतिष्क देव बना और वहाँ से प्रस्तुत आश्रम में कौशिक तापस बना। मेरी क्रूर प्रकृति से सभी कांपते थे।
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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