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इस प्रकार इन नौ स्वप्नों का फल मुझे ज्ञात हो गया, पर चतुर्थ स्वप्न का फल मेरी समझ में नही आया। भगवान् ने चतुर्थ स्वप्न का फल बताते हुए कहा-उत्पल, मैं सर्वविरति व देश-विरति रूप दो प्रकार के धर्म की प्ररुपणा करूगा ।२३३
प्रस्तुत वर्षावास में भगवान् ने पन्द्रह-पन्दह दिन के आठ अर्घमास उपवास किये । २३४
वहाँ से वर्षावास के पश्चात् विहार कर भगवान् मोराकसग्निवेश पधारे और उद्यान में विराजे । २३५ वहाँ भगवान् के तपःपूत जीवन और ज्ञान की तेजस्विता से जन-जन के मन में श्रद्धा के दीप प्रज्वलित हो उठे। ध्यान परायण महावीर के चारों ओर जनता श्रद्धा पूर्वक आकर जमने लगी।
प्रस्तुत सन्निवेश में अच्छन्दक पाषण्डस्थ रहते थे जो अपनी जीविका ज्योतिष आदि से चलाते थे। महावीर की तेजस्वी प्रतिभा से उनकी प्रतिभा प्रभाहीन हो गई। उन्होंने भगवान् से निवेदन किया-"भगवन् ! आपका व्यक्तित्त्व अपूर्व है । आप अन्यत्र पधारें, क्योंकि आपके यहाँ विराजने से हमारी जीविका नहीं चलती, हम अन्यत्र जायें तो परिचय और प्रतिभा के अभाव में हमें कोई भी पूछेगा नही। करुणावतार महावीर ने वहाँ से विहार कर दिया । २७६ --.चण्ड कौशिक को प्रतिबोध
दक्षिण वाचाला से उत्तर वाचाला जाने के दो मार्ग थे। एक कनखल आश्रम से होकर और दूसरा बाहर से। आश्रम का मार्ग सीधा होने पर भी निर्जन, भयानक व विकट संकट से युक्त था। बाहर का पथ केशराशि की तरह कुटिल व दीर्घ था, पर सुगम और विपदा से मुक्त था । आत्मा की मस्ती में गजराज की तरह झूमते हुए महावीर सीधे पथ पर ही अपने कदम बढ़ाते हुए चले जा रहे थे।२३७
ग्वालों ने टोकते हुए कहा-"देवार्य ! इधर न पधारिये ! इस पथ में एक भयंकर दृष्टि विष सर्प रहता है जिसकी विषैली फुकार से मानव तो क्या, पशु-पक्षी गण भी सदा के लिए आँख मूंद लेते हैं। वह इतना भयंकर है कि