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________________ क्षिा से स्वर्ग बताया है वह सत्य है।' इस प्रकार कहकर वह स्वप्नों के अर्थ को सम्यक् प्रकार से स्वीकार करती है तथा सिद्धार्थ राजा की आज्ञा प्राप्त करके विविध प्रकार के रत्नादि से जड़े हुए भद्रासन से खड़ी होती है। खडी होकर शनैः शनैः, अचपल, शीघ्रता रहित, अविलम्ब, राजहंसी के समान मंद गति से चल कर जहाँ पर अपनी शय्या है, वहाँ आती है। वहाँ आकर इस प्रकार मन-ही-मन बोली अर्थात् मन में विचार करने लगी। मूल : __मा मे ते उत्तमा पहाणा मंगल्ला महासुमिणा अन्नोहिं पावसुमिणेहिं पडिहम्मिस्संति ति कट्टु देवयगुरुजणसंबद्धाहिं पसत्थाहिं मंगल्लाहिं धम्मियाहि लढाहिं कहाहिं सुमिणजागरियं जागरमाणी पडिजागरमाणी विहरइ ॥५७॥ __ अर्थ-मेरे वे उत्तम, प्रधान, मंगल रूप, महास्वप्न अन्य स्वप्नों से प्रतिहत निष्फल न हो जाएँ, एतदर्थ मुझे जागृत रहना चाहिए। ऐसा विचार करके देव-गुरुजन सम्बन्धी प्रशस्त, मांगलिक, धार्मिक रसप्रद कथाओं के अनुचिन्तन से अपने महास्वप्नों की रक्षा के लिए अच्छी तरह जागृत रहने लगी। मल: तए णं सिद्धत्ये खत्तिए पच्चूसकालसमयसि कोड बियपुरिसे सहावेइ कोडुबियपुरिसे सहावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अज्ज सविसेसं बाहिरिज्जं उवट्ठाणसालं गंधोदयसित्तसम्मज्जिवलित्तं सुगंधवरपंचवन्नपुप्फोवयारकलियं कालागरुपवरकुंदुरुक्कतुरुकडज्मंतधूवमघमघेतगंधुद्धयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूयं करेह, कारवेह, करेत्ता कारवेत्ता य सीहासणं रयावेह, सीहासणं रयावित्ता ममेयमाणत्तियं खिप्पामेव पच्चप्पिणह ॥५॥
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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