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लौटते हुए विजय शंख बजाया,जिसका गंभीर रव तीर्थकर मुनिसुव्रत के पीयूषवर्षी प्रवचनों का पान करते हुए धातकीखण्डस्थ भरत क्षेत्र के वासुदेव श्री कपिल ने सुना । श्रीकृष्ण से मिलने के लिये वे द्रुतगति से चले, पर श्रीकृष्ण तो पूर्व ही वहां से प्रस्थान कर चुके थे। दूर से ही रथ की ध्वजा को निहार कर कपिल वासुदेव ने शखनाद किया और उसके प्रत्युत्तर में श्रीकृष्ण ने भी।
यह नियम है कि वासुदेव व चक्रवर्ती सम्राट अपनी सीमा से बाहर अन्य सीमा में नहीं जाते, पर श्री कृष्ण गए, यह एक आश्चर्य है ।१३५
(६) चन्द्र सूर्य का आकाश से उतरना-एक समय श्रमण भगवान् श्री महावीर छद्मस्थावस्था में कौशाम्बी में विराज रहे थे। उस समय भगवान् के दर्शन हेतु सूर्य और चन्द्र दोनों अपने शाश्वत विमानों के साथ उपस्थित हुए।६ सूर्य और चन्द्र तीर्थकरों के दर्शनहेतु आते हैं, पर शाश्वत विमानों में नहीं। फिर भी आये, यह आश्चर्य है। इस सम्बन्ध में एक भिन्न मान्यता यह भी है-चन्द्र सूर्य का आगमन महावीर के समवसरण में हुआ। उस समय सती मृगावती भी वहीं बैठी थी, रात होने पर भी अंधकार न हुआ। चन्द्र सूर्य गए, अंधकार हुआ। मृगावती अपने स्थान पर गई, अग्रणी सती चन्दनबाला ने अकाल-वेला करने पर उलाहना दिया तब आत्मालोचन करते करते मृगावती को केवलज्ञान होगया। ३७ यह घटना महावोर के २४वें वर्षावास की है।
(७) हरिवंश कुल की उत्पत्ति-कौशाम्बी के 'सम्मुख' नामक सम्राट् ने एक बार वीरक की पत्नी वनमाला को देखा। यौवन के मद में मदमाती वनमाला के सौन्दर्य ने सम्राट को उन्मत्त बना दिया। सम्राट के अनुनयविनय से वह भी अपने धर्म से च्युत हो वीरक की झोंपड़ी छोड़कर वह गगन चुम्बी राजप्रासाद में पहुँची। वीरक उसके वियोग से व्यथित होकर पागल हो गया वर्षा की सुहावनी वेला थी। आकाश में उमड़-घुमड़कर घनघोर घटाएँ आ रही थी। चारु-चपला चमक रही थी। वनमाला के साथ सम्राट आमोदप्रमोद में तल्लीन था। पीक थूकने के लिये गवाक्ष से ज्योंही मुह निकाला