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गर्न बहरण : सक को विधारणा त्योंही नीचे खड़े वीरक की दयनीय दशा देखकर उसका हृदय द्रवित हो गया। सोचा-'धिक्कार है हमें! हम वासना के कीड़े हैं।' यह विवेक का प्रकाश जगा ही था कि आकाश से बिजली गिरी और देखते-ही-देखते दोनों के प्राण-पखेरू उड़ गये । वीरक ने जब यह सुना तो उसका मस्तिष्क स्वस्थ हो गया और संसार के विनश्वर स्वभाव को समझकर वह एक एकान्त शान्त कानन में तप करने लगा। प्रशस्त भावना से सम्मुख और वनमाला वहां से हरिवर्ष क्षेत्र में युगलिये बने और वीरक भी तप के प्रभाव से आयु पूर्णकर सौधर्म कल्प में त्रिपल्योपम की स्थितिवाला किल्विषिक देव हुआ ।' ३८ उस युगल को कीड़ा में निमग्न देखकर उस देव का पूर्व वैर उबुद्ध हो गया। उसने सोचा-यहाँ भी ये सुख के सागर पर तैर रहे हैं और यहां से देवलोक मे जायेंगे, वहां भी इसी तरह आनन्द करेंगे। अतः ऐसा प्रयत्न करूँ जिससे इनका भावी जीवन दुःखमय बने । देव-शक्ति से दो कोस की ऊंचाई को सौ धनुष्य की करदी । १३९ वहां से दोनों को उठाकर भरतक्षेत्र की चम्पानगरी में लाया। वहां के इक्ष्वाकुकुल सम्राट का निधन हो गया था अतः वह 'हरि' वहां का सम्माननीय सम्राट् बना
और हरिणी राजमहिषी । कुसंगति से दोनों ने सप्त व्यसनों का सेवन किया। जिससे वे वहा से मरकर नरक में गए। यौगलिक व्यसनों का सेवन नहीं करते और नरक में नही जाते पर वे गये, अतः यह आश्चर्य है।
(८) चमरेन्द्र का उत्पात-असुरराज चमरेन्द्र पूर्व भव में "पूरण' नाम का एक बाल-तपस्वी था वह छट्ठ-छ? का तप करता और पारणा के दिन काष्ठ के चतुष्पुट पात्र में भिक्षा लाता। प्रथम पुट की भिक्षा पथिकों को प्रदान करता, द्वितीय पुट की भिक्षा पक्षियों को चुगाता, तृतीय पुट की भिक्षा जलचरों को देता और चतुर्थ पुट की भिक्षा समभाव से स्वयं ग्रहण करता। द्वादश वर्ष तक इस प्रकार घोर तप किया और एक मास के अनशन के पश्चात् आयु पूर्णकर चमरचंचा राजधानी में इन्द्र बना।
इन्द्र बनते ही उसने अवधिज्ञान से अपने ऊपर सौधर्मावतंसक विमान में शक नामक सिंहासन पर शकेन्द्र को दिव्य भोग भोगते हुए देखा। अन्तर्मानस में विचार किया-"यह मृत्यु को चाहने वाला, अशुभ लक्षणोंवाला, लज्जा