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________________ समाचारी : उपसहार २५६ शुशोभन प्रकार से दिपाकर के, किनारे तक लेजाकर के, जीवन के अन्त तक पालन करके, दूसरों को समझाकर के, अच्छी तरह से आराधना करके और भगवान् की आज्ञा के अनुसार पालन करके, कितने ही श्रमण निग्रंथ उसी भव में सिद्ध , बुद्ध मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं । और सर्व दुःखों का अन्त करते हैं। कितने ही श्रमण द्वितीय भव में सिद्ध होते हैं, कोई-कोई श्रमण तीसरे भव में सिद्ध होते हैं यावत् सर्वदुःखों का अन्त करते हैं। वे सात आठ भव से अधिक तो संसार में परिभ्रमण करते ही नहीं है। अर्थात् अधिक से अधिक सात-आठ भवों में अवश्य सिद्ध होते हैं यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं । मूल : तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे रायगिहे नगरे गुणसिलए चेहए बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं बहूणं देवाणं वहणं देवीणं मज्भगए चेव एवमाइक्खइ एवं भासइ एवं पण्णवेइ एव परुवेइ पज्जोसवणाकप्पो नाम ऽज्झयणं सअह महेउयं सकारणं मसुत्तं समत्थं सउभयं सवागरणं भुज्जो मुज्जो उवदंसेइ, त्ति बेमि ॥२६१॥ पज्जोसवणा कप्पो सम्मत्तो। अमज्झयणं सम्मत्तं ॥ अर्थ—उस काल उस समय राजगृह नगर के गुणशिलक चैत्य में बहुत श्रमणों के, बहुत श्रमणियों के, बहुत श्रावकों के, बहुत श्राविकाओ के बहुत देवों के और बहत देवियों के मध्य में विराजमान श्रमण भगवान महावीर इस प्रकार कहते है, इस प्रकार भाषण करते हैं, इस प्रकार बताते हैं, इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं और पज्जोसवणाकप्प को अर्थात् पर्युपशमन के आचार प्रधान क्षमाप्रधान आचार नामक अध्ययन को अर्थ के साथ, हेतु के साथ, कारण के
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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