SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवान के पूर्व मन त्रिपृष्ठ सिंह-चर्म लेकर अपने नगर आया । आने के पूर्व उसने कृषकों से कहा - 'घोटकग्रीव से कह देना कि वह अब निश्चिन्त रहे ।' जब उसने यह बात सुनी तो वह अधिक क्रुद्ध हुआ । अश्वग्रोव ने दोनों राजकुमारों को बुलवाया । वे जब न गये तब अश्वग्रोव ने ससैन्य पोतनपुर पर चढाई करदी । त्रिपृष्ठ भी अपनी सेना के साथ देश की सीमा पर आ गया । भयंकर युद्ध हुआ । त्रिपृष्ठ को यह संहार अच्छा न लगा । उसने अश्वग्रीव से कहा - ' निरपराध सैनिकों को मारने से लाभ क्या है ? अच्छा हो, हम दोनों ही युद्ध करें ।' अश्वग्रीव ने प्रस्ताव स्वीकार किया। दोनों में तुमुल युद्ध हुआ । अश्वग्रीव के सभी शस्त्र समाप्त हो गये । उसने चक्र रत्न फेंका । त्रिपृष्ठ ने उसे पकड़ लिया और उसी से अपने शत्रु के सिर का छेदन कर डाला । तभी दिव्यवाणी से नभोमण्डल गूँज उठा--" त्रिपृष्ठ नामक प्रथम वासुदेव प्रकट हो गया । "७: ३७ । एक बार संध्या की सुहावनी वेला थी । सूर्य अस्ताचल की ओर पहुँच गया था । उस समय त्रिपृष्ठ वासुदेव के पास कुछ संगीतज्ञ आये । उन्होंने संगीत की सुमधुर स्वरलहरी से वातावरण को मुखरित कर दिया । निद्रा आने का समय होने पर वासुदेव ने शय्यापालकों से कहा- जब मुझे निद्रा आ जाय उस समय तुम गायकों को रोक देना । शय्यापालकों ने 'तथास्तु' कहा । कुछ ही समय में सम्राट् निद्राधीन हो गये शय्यापालक संगीत पर इतना अधिक मुग्ध हो गया कि संगीतज्ञों को उसने विसर्जित नहीं किया। रात भर संगीत चलता रहा । ऊषा की सुनहरी किरणें मुस्कराने वाली थी कि सम्राट् की निद्रा टूटी । सम्राट् ने पूर्ववत् ही संगीत चालू देखा । शय्यापालक से पूछाइन्हें विसर्जित क्यों नही किया ? उसने नम्र निवेदन किया- 'देव ! श्रवण के सुख में अनुरक्त हो जाने से इनको नहीं रोका। यह सुन त्रिपृष्ठ को क्रोध भडक आया । अपने सेवकों को बुलाकर कहा - " - " आज्ञा की अवहेलना करने वाले एवं संगीत लोभी इस शय्यापालक के कर्ण-कुहरों में गर्मागर्म शीशा उड़ेल दो ।" सम्राट् की कठोर आज्ञा से शय्यापालक के कानों में शीशा उंड़ेला गया । भयंकर वेदना से छटपटाते हुए उसने प्राण त्याग दिये ।" त्रिपृष्ठ ने सत्ता के मद में उन्मत्त बनकर इस क्रूरकृत्य के कारण निकाचित कर्मों का '७७
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy