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कल्प सूत्र
बन्धन किया। महारंभ और महापरिग्रह में मशगूल बनकर चौरासी लाख वर्ष तक राज्य श्री का उपभोग करता रहा । (१६) सातवीं नरक
त्रिपृष्ठ वासुदेव आयु पूर्णकर सातवें तमस्तमा नरक के अप्रतिष्ठान नारकावास में नरयिक रूप में उत्पन्न हुआ। ८० (२०) सिंह
वहां से निकलकर वह केसरीसिंह बना। (२१) चतुर्थ नरक
वहां से आयु पूर्णकर वह चतुर्थ नरक में गया ।' नरक से निकलने के पश्चात् उसने अनेक भव तिर्यञ्च और मनुष्य के किये । २ आवश्यक नियुक्ति, आवश्यक मलयगिरिवृत्ति, त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र और "श्रमण भगवान् महावीर" में बावीसवां भव मानव का लिखा है। पर उसके नाम, आयुष्य आदि का उल्लेख नहीं है और न यह उल्लेख ही है कि चक्रवर्ती के योग्य पुण्य उपार्जन किन शुभ कृत्यों से किया था।
समवायाङ्ग सूत्र में और उसकी वृत्ति में महावीर के प्रथम छह भव दिये है। बावीसवां भव मानव का मानने पर, समवायाङ्ग का क्रम नही बैठता है। अतः हमने यहां बावीसवां भव मानव का नही लिखा है। (२२) प्रियमित्र चक्रवर्ती
वहां से वह आयु समाप्त कर महाविदेह क्षेत्र की मूका नगरी में धनजय राजा की धारणी रानी से प्रियमित्र चक्रवर्ती हुआ। 3 पोट्टिलाचार्य के पावन प्रवचन रूपी पीयूष का पान कर मन में वैराग्य की ज्योति प्रज्ज्वलित हुई । दीक्षा ग्रहण की । एक करोड़ वर्ष तक संयम की कठोर साधना की ।"
समवायाङ्ग सूत्र में श्रमण भगवान् श्री महावीर ने तीर्थंकर के भवग्रहण से पूर्व छट्ठा पोट्टिल का भव ग्रहण किया और एक करोड़ वर्ष तक श्रमण पर्याय का पालन किया । ८५ नवाङ्गी टीकाकार आचार्य अभयदेव ने प्रस्तुत