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कल्पसूत्र
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दिया था । अश्वग्रीव अत्यधिक क्रुद्ध हुआ । दोनों राजकुमारों को मरवाने का उसने निश्चय किया ।
अश्वग्रीव ने तुङ्गग्रीव क्षेत्र में शालिधान्य की खेती करवायी, और कुछ समय के बाद प्रजापति के पास दूत भेजा । दूत ने आदेश सुनाया कि “शालि के खेतों में एक क्रूर सिंह ने उपद्रव मचा रखा है, वहाँ रखवाली करने वालों को उसने मार डाला, पूरा क्षेत्र भयग्रस्त है, अतः आप जाकर सिंह से शालिक्षेत्र की रक्षा कीजिए ।" प्रजापति ने पुत्रों से कहा - " तुमने दूत के साथ जो व्यवहार किया उसीके फलस्वरूप वारी न होने पर भी यह आज्ञा आई है । "
प्रजापति स्वयं शालिक्षेत्र की ओर प्रस्थान करने लगा । पुत्रों ने प्रार्थना की - 'पिताजी ! आप ठहरिये ! हम जायेंगे ।' वे गये, और वहाँ जाकर खेत के रक्षकों से पूछा- अन्य राजा यहाँ पर किस प्रकार और कितना समय रहते हैं ? उन्होंने निवेदन किया- "जब तक शालि - (धान्य) पक नही जाता है, तब तक चतुरंगिनी सेना का घेरा डालकर यहां रहते हैं और सिंहसे रक्षा करते हैं । ७४ त्रिपृष्ठ ने कहा- मुझे वह स्थान बताओ जहाँ वह नवहत्था केसरीसिंह रहता है । रथारूढ होकर सशस्त्र त्रिपृष्ठ वहाँ पहुँचा । सिंह को ललकारा । सिंह भी अंगड़ाई लेकर उठा और मेघ - गम्भीर-गर्जना से पर्वत की चोटियों को कंपाता हुआ बाहर निकल आया त्रिपृष्ठ ने सोचा "यह पैदल है और हम रथारूढ़ हैं । यह शस्त्र रहित है और हम शस्त्रों से सज्जित हैं। इस प्रकार की स्थिति में आक्रमण करना उचित नहीं ।" ऐसा विचार कर वह रथ से नीचे उतर गया, और शस्त्र भी फेंक दिए । ७५
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सिंह ने सोचा " यह वज्र - मूर्ख है । प्रथम तो एकाकी मेरी गुफा पर आया है, दूसरे रथ से भी उतर गया है, तीसरे शस्त्र भी डाल दिये हैं । अब एक झपाटे में ही इसे चीर डालू ।” ऐसा सोचकर वह त्रिपृष्ठ पर टूट पड़ा । त्रिपृष्ठ ने भी उछलकर पूरी शक्ति के साथ ( पूर्वकृत निदान के अनुसार ) उसके जबड़ों को पकड़ा और पुराने वस्त्र की तरह उसे चीर डाला । यह देख दर्शक आनन्द विभोर हो उठे। सिंह विशाखनन्दी का जीव था ।