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तीर्थकर काल : प्रथम देशना : गणधर दीक्षा
इन्द्रभूति
उन दिनों मध्यमपावापुरी में सोमिलार्य नामक धनाढ्य ब्राह्मण अपने यहां एक विराट् यज्ञ का आयोजन कर रहा था । उस यज्ञ में भाग लेने के लिए भारत के जाने-माने चोटी के क्रियाकाण्डी विद्वान् और आचार्य आए हुए थे । इनमें इंद्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति ये तीन विद्वान् चौदह विद्याओं के पारंगत थे । प्रत्येक के साथ पाँच-पाँच सौ शिष्य (छात्र) थे। तीनों ही गौतम गोत्रीय व मगध जनपद के गोवरग्राम के निवासी थे ।
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व्यक्त और सुधर्मा नाम के दो विद्वान् कोल्लाग - सन्निवेश से आये थे । व्यक्त भारद्वाज गोत्रीय थे और सुधर्मा अग्नि वैश्यायन । इनके साथ भी पाँचपाच सौ छात्र थे ।
उस यज्ञ में मंडित व मौर्यपुत्र- ये दो विद्वान मौर्य सन्निवेश से आए थे । ift वासिष्ठ गोत्र के एवं मौर्यपुत्र काश्यप गोत्र के थे। दोनों के साथ भी ३५०-३५० शिष्य थे ।
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अकम्पित, अचल भ्राता, मेतार्य और प्रभास नाम के चार अन्य विद्वान भी उस सभा में थे । जो क्रमशः मिथिला के गौतम गोत्रीय, कौशल के हारित गोत्रीय, तुरंगिक ( कौशाम्बी) के कौडिन्य गोत्रीय एवं राजगृह के कौडिन्य गोत्रीय थे । इन सभी विद्वानों के मन में एक- एक शंका भी छुपी हुई थी । ३२४ ये ग्यारह विद्वान् उन सभी विद्वानों मे प्रमुख थे ।
सर्वज्ञ सर्वदर्शी भगवान् ने देखा मध्यम पावापुरी का प्रस्तुत प्रसंग अपूर्व लाभ का कारण है । भारत के सूर्धन्य मनीषी विज्ञगण भी अज्ञानान्धकार में भटक रहे हैं, साथ ही दूसरों को भी अज्ञानान्धकार में ढकेल रहे हैं । ये बोध प्राप्त करेंगे तो हजारों प्राणियों को सत्य मार्ग पर चलने को प्रेरित कर सकते हैं।
भगवान् महावीर जंभिय ग्राम से विहार कर मध्यम पावापुरी में पधारे । देवाताओं ने समवसरण की रचना की । विशाल मानव मेदिनी एकत्रित हुई । सुर और असुर सभी उपदेश सुनने के लिए उपस्थित हुए । महावीर की मेघगंभीर गर्जना सुनकर सभी के मन-मयूर नाच उठे । जन-जन की जिह्वा पर