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________________ १८० कल्पसूत्र महावीर की सर्वज्ञता की चर्चा होने लगी । आकाशमार्ग से आते हुए देवगणो को देखकर पंडितों ने सोचा- 'हमारे यज्ञ से आकृष्ट हुए देवगण आरहे हैं ।' किन्तु जब उन्हें सीधे ही आगे निकल जाते देखा और पार्श्वस्थित भगवान् महावीर के समवशरण में उतरते देखा तो निराशा के साथ आश्चर्य हुआ । इन्द्रभूति को ज्ञात हुआ कि आज यहाँ पर सर्वज्ञ महावीर आये हैं, तो उन्हें अपने प्रकाण्ड पाण्डित्य पर आंच आती-सी लगी । सोचा- चलकर देखूं महावीर कैसा ज्ञानी है ? मेरे सामने वह कितने समय तक टिक सकता है । आज तक कोई भी विद्वान् मुझे पराजित नही कर सका है। भारतवर्ष के एक छोर से दूसरे छोर तक मेरी कीर्ति कौमुदी चमक रही है । आज महावीर से भी शास्त्रार्थ कर उन्हे पराजित करू" । सर्वशास्त्र पारंगत इन्द्रभूति अपने पाँच सौ शिष्यों के माथ शास्त्रार्थ के लिए प्रस्थित हुए । प्रभु की तेजोदीप्त मुखमुद्रा ने पहले ही क्षण इन्द्रभूति को प्रभावित कर दिया। महावीर ने ज्यों ही उन्हे 'गौतम ! ' कहकर सम्बोधित किया त्यों ही वह स्तम्भित से रह गए लोक व्यापिनी ख्याति के कारण ही इन्हें मेरे नाम का पता है । विचारा - "मेरी ।' पर जब तक ये मेरे अन्तर के संशयों का छेदन नही कर देते तब तक मैं इन्हें सर्वज्ञ नही मान सकता ।" गौतम के मानस में संकल्प की उधेड़बुन चल ही रही थी कि महावीर ने कहा- "गौतम ! चिरकाल से आत्मा के अस्तित्त्व के सम्बन्ध मे तुम शंकाशील हो ?" · इन्द्रभूति अपने अन्तर्लीन प्रश्न को सुनकर चकित व प्रमुदित हुए । उन्होंने कहा - "हाँ मुझे इस विषय में शंका है, क्योंकि "विज्ञानघनए वैतेभ्यो भूतेभ्य. समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति, न प्रेत्य संज्ञास्ति ।" प्रभृति श्रुति वाक्य चेतना की उत्पत्ति भी प्रस्तुत कथन का समर्थन करते हैं। भूत समुदाय से ही होती है और उसी में वह पुनः तिरोहित ( लीन) हो जाती है । अत परलोक का अभाव है । भूत समुदाय ही जब विज्ञानमय चैतन्य का प्रादुर्भाव होता है तो भूतसमुदाय के अतिरिक्त पुरुष का अस्तित्व कैसे संभव है ?
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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