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सोकर काल : प्रथम देशना : गणधर बीमा
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महावीर-इन्द्रभूति ! तुम्हें यह भी तो ज्ञात है न कि वेद से पुरुष के अस्तित्त्व की भी सिद्धि होती है ?
इन्द्रभूति-"हाँ, “स वै अयमात्मा ज्ञानमयः" प्रभृति श्रुतिवाक्य आत्मा के अस्तित्व को प्रमाणित करते हैं। इन परस्पर विरोधी विधानों के कारण ही तो यह शंका उत्पन्न होती है कि किस वाक्य को प्रामाणिक माना जाय ।"
___महावीर-इन्द्रभूति ! जैसा तुम "विज्ञानधन" श्रुतिवाक्य का अर्थ ममझ रहे हो वस्तुतः वैसा अर्थ नहीं है। तुम विज्ञानघन का अर्थ भूत समुदायोत्पन्न 'चेतनापिण्ड' करते हो, किन्तु 'विज्ञानघन' का सही अर्थ विविध ज्ञानपर्यायों से हैं। आत्मा में प्रतिपल प्रतिक्षण-नित्य-नवीन ज्ञान पर्यायों का आविर्भाव होता है और पूर्वकालीन ज्ञानपर्यायों का विनाश होता है। जब एक पुरुष घट को देख रहा है, उसका चिन्तन और मनन कर रहा है उस समय आत्मा में घटविषयक ज्ञानोपयोग समुत्पन्न होता है। उसे हम घटविषयक ज्ञानपर्याय कहते हैं। जब वही पुरुष घट के बाद पट आदि अन्य पदार्थों को निहारता है तब उसे पट आदि का ज्ञान होता है और पूर्वकालीन घट ज्ञान पर्याय विनष्ट हो जाता है । विविध पदार्थ विषयक ज्ञान के पर्याय ही विज्ञानघन (विविध पर्यायों का पिण्ड) है, जिसकी उत्पत्ति भूतों के निमित्त से होती है। यहाँ भूत शब्द का अर्थ पृथिव्यादि पञ्च भूत नहीं, अपितु प्रमेय है-जड़ और चेतन आदि समस्त ज्ञेय पदार्थ हैं।"
सभी ज्ञेय पदार्थ आत्मा में अपने स्व-स्वरूप से प्रतिभाषित होते हैं। जैसे घट-घट रूप में और पट-पट रूप में। ये विभिन्न प्रतिभास ही ज्ञानपर्याय है। भिन्न-भिन्न ज्ञयों के निमित्त से विज्ञानधन (ज्ञानपर्याय) उत्पन्न होते हैं और उस काल में वे पर्याय नष्ट हो जाते हैं।
'न प्रेत्यसंज्ञास्ति' वाक्य का अर्थ 'परलोक नहीं' ऐसा नहीं, अपितु पूर्वपर्याय की सत्ता नहीं, ऐसा है । जब पुरुष में उत्तर कालिक ज्ञान पर्याय समुत्पन्न होता है तब पूर्वकालीन ज्ञानपर्याय विनष्ट हो जाता है, क्योंकि किसी भी द्रव्य या गुण की उत्तरपर्याय के समय पूर्वपर्याय की सत्ता नहीं रह सकती। अतः 'न प्रेत्य संज्ञास्ति' कहा है।