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________________ समाचारी : मिक्षाघारी कल्प ३३५ पुव्वगहिएणं भत्तपाणेणं वेलं उवाइणावित्तए, कप्पइ से पुवामेव वियडगंभोचा पिच्चा पडिग्गहगंसंलिहिय संलिहिय पमजिय पमजिय एगायगं भंडगं कटु जाव सेसे सूरिए जेणेव उवस्सए तेणेव उवागच्छित्तए,नोसे कप्पइ तं रयणि तत्थेव उवायणावित्तए॥२५८।। अर्थ-वर्षावास में रहे हए और भिक्षा लेने की वृत्ति से गृहस्थ के कुल में प्रवेश किये हुए निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनियों को जब रह रहकर वर्षा बरस रही हो तब उन्हे या तो उद्यान के मूल के नीचे, (बाग की दीवाल की छाया में) जहाँ छींटे न लगे या उपाश्रय के नीचे, या विकटग्रह के नीचे, या वृक्ष के मूल के नीचे चला जाना कल्पता है। वहाँ जाने के पश्चात् पूर्व लाये हुए आहार पानी को रखकर समय को नष्ट करना नही कल्पता । वहां पहुँचते ही विकटक (निर्दोष आहार-पानो) को खा पीकर पात्र को साफ कर एक साथ सम्यक् प्रकार से बांधकर सूर्य अवशेष रहे वहा तक उपाश्रय की ओर जाना कल्पता है, किन्तु वहो पर उस रात्रि को व्यतीत करना नहीं कल्पता। मूल : वासावासं पजोसवियाणं निग्गंथस्स गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठस्स निगिज्झिय निगिझिय वुट्टिकाए निवइज्जा कप्पइ से अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा जाव उवागच्छित्तए, तत्य नो कप्पइ एगस्स य निग्गंथस्स एगाए य निग्गंथीए एगयओ चिहित्तए, तत्थ नो कप्पइ एगस्स निग्गंथस्स दोण्ह य निग्गंथीणं एगयओ चिट्टित्तए, तत्थ नो कप्पइ एगस्स निग्गंथस्स दोण्ह य निग्गंथीणं एगयओ चिहित्तए, तत्थ नो कप्पइ दोण्ह य निग्गंथाणं एगाए य निग्गंथीए एगयओ चिद्वित्तए, तत्थ नो कप्पइ दोण्ह य निग्गंथाणं दोण्ह य निग्गंथीणं एगयओ
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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