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________________ २६४ दूसरे वर्ष सिंहगुफावासी मुनि कोशा वेश्या के यहाँ पहुँचा। वेश्या ने परीक्षा के लिए ज्योंही कटाक्ष का बाण छोड़ा कि घायल हो गया और व्रतभंग करने के लिए प्रस्तुत हो गया । कोशा ने प्रतिबोध देने हेतु नेपाल नरेश के यहां के रत्नकम्बल की याचना की। विषयाकुल बना हुआ वह वर्षावास में ही नेपाल पहुँचा। रत्नकम्बल लेकर लौट रहा था कि मार्ग में चोरों ने उसे अनेक कष्ट दिए। बहुत-सी कठिनाइयों को सहता हुआ पुनः पाटलिपुत्र पहुँचा। रत्नकम्बल वेश्या को दिया। वेश्या ने गन्दे पानी की नाली में उसे फेंक दिया। आक्रोश पूर्ण भाषा में साधु ने कहा -- अत्यन्त कठिनता से जिस रत्नकम्बल को प्राप्त किया गया है उसको गन्दी नाली में डालते हुए तुम्हे लज्जा नहीं आती ? वेश्या ने कहा-रत्न-कम्बल से भी अधिक मूल्यवान संयम रत्न को क्षणिक वासना के लिए भंग करना क्या संयम रतन को गंदी नाली में डालना नहीं है ? वेश्या के एक ही वाक्य से सिंह गुफा वासी मुनि को अपनी भूल मालूम हो गई। उसे गुरु के कथन का रहस्य ज्ञात हो गया। आकर गुरु से क्षमा याचना को। आचार्य स्थूलिभद्र का महत्त्व कामविजेता होने के कारण ही नहीं, अपितु पूर्वधारी होने के कारण भी रहा है । वीर संवत् ११६ में इनका जन्म हुआ। तीस वर्ष की वय में दीक्षा ग्रहण की । २४ वर्ष तक साधारण मुनि पर्याय में रहे, भौर ४५ वर्ष तक युग प्रधान आचार्य पद पर । ६६ वर्ष का आयु भोगकर वैभारगिरि पर्वत पर पंद्रह दिन का अनशन कर वीर संवत् २१५ (मतान्तर से २१६) में स्वर्गस्थ हुए। २ आचार्य प्रवर स्थूलिभद्र के पट्ट पर उनके शिष्य रत्न, महान् मेधावी और चारित्रनिष्ठ आयं महागिरि और आर्य सुहस्ती आसीन हुए। ये दोनों ही आर्य स्थूलिभद्र की बहिन यक्षा साध्वी द्वारा प्रतिबुद्ध हुए थे। आर्य महागिरि उग्र तपस्वी थे। दस पूर्व तक अध्ययन करने के पश्चात् संघ संचालन का उत्तरदायित्त्व अपने लघु गुरुभ्राता आर्य सुहस्ती को समर्पित
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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