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________________ विराबली: विमिस शाखाएँ २६५ कर स्वयं आर्य जम्बू के समय से विच्छिन्न जिनकल्प की अत्यन्त कठोर साधना करने के लिए एकान्त-शान्त कानन में चले गये। अनुश्रुति है कि एक बार दोनों आचार्य कौशाम्बी में गये। दुष्काल से असित एक द्रमक (भिखारी) को प्रव्रज्या दी । यही द्रमक समाधि पूर्वक आयु पूर्णकर कुणालपुत्र संप्रति हुआ। अवन्ती (उज्जयनी) में आर्य सूहस्ती के दर्शन कर जातिस्मरण हुआ और प्रवचन सुनकर जैनधर्मावलम्बी बना। यह बड़ा ही प्रतापी राजा हुआ। हृदय से दयालु प्रकृति का था। इसने ७०० दानशालाएँ खुलवाई, और जैनधर्म के प्रचार के लिए अपने विशिष्ट अधिकारियो को श्रमणवेश में आन्ध्र आदि प्रदेशों में भेजा। दोनों ही आचार्यों की शिष्य परम्पराएँ बहुत ही विस्तृत रही है, जिनका वर्णन मूलार्थ मे किया गया है। आर्य महागिरि का जन्म वीर संवत् १४५ में हुआ, और दीक्षा १७५ मे हुई, २१५ में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए और २४५ में १०० वर्ष की आयु पूर्णकर दशाणं प्रदेशस्थ गजेन्द्र पद तीर्थ में स्वर्गस्थ हुए। आर्य मुहस्ती का जन्म वीर संवत् १६१ में हुआ, दीक्षा २१५ में हुई, युगप्रधान आचार्य पद पर २४५ में प्रतिष्ठित हुए और १०० वर्ष की आयु पूर्णकर उज्जयिनी में २६१ में स्वर्गस्थ हुए। __आर्य सुहस्ती की शिप्य सम्पदा अगले सूत्र में स्वय सूत्रकार निर्दिष्ट कर रहे हैं। मल : थेरस्स ण अज्जसुहत्थिस्स वासिहसगोत्तस्स इमे दुवालस थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिन्नाया होत्था, तं जहा थेरे स्थ अजरोहण, भदजसे मेहगणी य कामिड्ढी। सुहियसुप्पडिबुद्धे, रक्खिय तह रोहगुत्ते य ॥१॥
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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