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से महावीर के अङ्गों को नोंचा तो भी उनके मन मे रोष नहीं आया। मुंह से 'सी' नहीं निकला। उसने सर्प बनकर जोर से काटा तो भी महावीर का ध्यान भङ्ग नहीं हुआ। अन्त में उसने अपनी दिव्य देव शक्ति से उनके आँख, कान, नाक, सिर, दांत, नख और पीठ में भयंकर वेदना उत्पन्न की। इस प्रकार की एक वेदना से भो साधारण प्राणी छटपटाता हुआ तत्क्षण मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। पर महावीर तो उन सभी प्रकार की वेदनाओं को शान्त भाव से सहन कर गये। राक्षसी-बल महावीर के आत्मबल से परास्त हो गया। उसका धैर्य ध्वस्त हो गया। प्रभु को अद्भुत तितिक्षा देखकर वह चकित व स्तंभित-सा रह गया, अन्त में हारकर महावीर के चरणों मे गिर पड़ा। "भगवन् ! मेरा अपराध क्षमा कीजिए। मैंने आपको पहचाना नहीं !" इस प्रकार वह विनम्र होकर प्रभु की स्तुति करने लग गया। - भगवान के स्वप्न
एक मुहूर्त रात्रि अवशेष रहने पर भगवान् को उस रात में निद्रा आ गई । २२० उस समय उन्होंने दस स्वप्न देखे । २२८
(१) मैं एक भयंकर ताड-सदृश पिशाच को मार रहा हूँ। (२) मेरे सामने एक श्वेत पुस्कोकिल उपस्थित है। (३) मेरे सामने एक रंग-बिरंगा पुस्कोकिल उपस्थित है। (४) दो रत्न मालाएँ मेरे सम्मुख हैं। (५) एक श्वेत गोकुल मेरे सम्मुख है। (६) एक विकसित पद्मसरोवर मेरे सामने स्थित है।
(७) मैं तरंगाकुल महासमुद्र को अपने हाथों से तैर कर पार कर चुका है।
(८) जाज्ज्वल्यमान सूर्य सारे विश्व को आलोकित कर रहा है।
(९) मैं अपनो वैडूर्य वर्ण आतों से मानुषोत्तर पर्वत को आवेष्टित कर रहा हूँ।
(१०) मै मेरु पर्वत पर चढ़ रहा हूँ।
स्वप्नानन्तर भगवान की नींद खुल गई । साधना काल में भगवान् को इसी रात्रि में कुछ नींद आई थी और वह भो सोये-सोये नहीं,अपितु खड़े-खड़े ही। २२०