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________________ साधना काल भी दूसरे के पात्र में भोजन नही किया। पर आचार्य मलयगिरि के अभिमता. नुसार प्रस्तुत प्रतिज्ञा गहण करने के पूर्व भगवान् ने गृहस्थ के पात्र का उपयोग किया था और केवल ज्ञान होने के पश्चात् प्रवचन लाघव के कारण वे स्वयं भिक्षा हेतु नही पधारते थे। उस समय शिष्यों के द्वारा पात्र में लाई गई भिक्षा का उपयोग करते थे।' एतदर्थ ही वह लोहार्य अनगार धन्य माना गया जिसने भगवान को केवल ज्ञान होने पर भिक्षा लाकर प्रदान की । २२२ ---. शूलपाणि यक्ष का उपद्रव भगवान् श्री महावीर आश्रम से विहार कर अस्थिग्राम की और चल पड़े। संध्या के धुंधलके (गोधूलिवेला) में वहाँ पहुँचे । गाँव में एकान्त स्थान की याचना करते हुए नगर के बाहर यक्षायतन मे ठहरने की आज्ञा ली, तब गांव वासियों ने कहा-"भगवन् ! वहाँ एक यक्ष रहता है, उसका स्वभाव बड़ा ही क्रूर है, वह रात्रि में किसी को रहने नही देता है। अतः आप यहां न ठहर कर अन्य स्थान मे ठहरे। १९ पर, भगवान् ने यक्ष को प्रतिबोध देने हेतु उसी स्थान की पुन. याचना की, ग्राम निवासियो ने आज्ञा प्रदान की। भगवान् एक कोने मे ध्यानस्थ हो गये। माध्य अर्चना हेतु इन्द्रशर्मा नाम का पुजारी आया, अर्चना के पश्चात् सभी यात्रियो को यक्षायतन से बाहर निकाला। भगवान से उसने कहा-परन्तु वे मौन थे, ध्यानस्थ थे, इन्द्रशर्मा ने पुन: यक्ष के भयंकर उत्पात का रोमांचक वर्णन किया, फिर भी भगवान् विचलित नहीं हुए और वे वही स्थिर रहे, इन्द्रशर्मा चला गया । २२४ सन्ध्या की सुहावनी वेला समाप्त हुई। कुछ अधकार होने पर शूलपाणि यक्ष प्रकट हुआ। भगवान् को वहां देखकर उसने कहा-मृत्यु को चाहने वाला यह गांव निवासियों व देवार्चक द्वारा निषेध करने पर भी न माना । जात होता है इसे अभी तक मेरे प्रबल पराक्रम का परिचय नहीं है।" पराक्रम का परिचय देने के लिए उसने भयंकर अट्टहास किया२२५ जिससे मारा वनप्रान्त कांप उठा। पर महावीर तो मेरु की तरह अडोल व अकम्प खड़े रहे । उसने हाथी का रूप बनाया, दन्त प्रहार करने और पांव से रौंदने पर भी वें अचल रहे। यक्ष ने पिशाच का विकराल रूप बनाकर तीक्ष्ण नाखून व दाँतों
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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