SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १० कल्पसूत्र काल में की जाने वाली क्रियाओ का महत्त्वपूर्ण निदर्शन करता है । इन अर्थों से कुछ ऐतिहासिक तथ्य भी व्यक्त होते हैं । पर्युषणा काल के आधार से काल गणना करके दीक्षापर्याय को ज्येष्ठता व कनिष्ठता गिनी जाती है अर्थात् जितने पर्युषण- - उतनी ही दीक्षापर्याय ज्येष्ठ ! पर्युषणाकाल एक प्रकार का 'वर्षमान' गिना जाता रहा है। अतएव पर्युषणा को दीक्षापर्याय की व्यवस्था का कारण माना है । वर्षावास में भिन्न प्रकार के द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव सम्बन्धी कुछ विशेष पर्यायों ( क्रियाओं) का आचरण किया जाता है, इस कारण पर्युषण का दूसरा नाम “पज्जो समणा" है । गृहस्थ आदि सभी के लिए समानभावेन आराधनीय होने के कारण यह कल्प 'पागइया' (प्राकृतिक) कहलाता है। इस नियत अवधि में साधक आत्मा के अधिक निकट रहने का प्रयत्न करता है, अतः वह 'परिवसना' भी कहा जा सकता है। पज्जुसणा - का अर्थ सेवा भी है। इस काल में साधक आत्मा के ज्ञान, दर्शन आदि निज गुणों की सेवा - उपासना करता है, अत इसे 'गज्जुसणा' भी कहते हैं । इस कल्प में श्रमण एक स्थान पर वार मास तक निवास करता है, अतएव इसे 'वासावास - वर्षावास' कहा गया है । कोई विशेष कारण न हो तो प्रावृट् काल में ही चातुर्मास्य व्यतीत करने योग्य क्षेत्र मे प्रवेश किया जाता है, अतएव इसे 'पढमसमोसरण' (प्रथम समवशरण कहते हैं । ऋतुवद्ध काल की अपेक्षा इसकी मर्यादाएँ भिन्न होती हैं। अतएव यह 'ठवणा' है। ऋतुबद्ध काल में एक-एक मास का क्षेत्रावग्रह होता है, किन्तु वर्षाकाल मे चार मास का, अतएव इसे जेठ्ठोग्गह- ज्येष्ठावग्रह कहते हैं । ७१ अगर साधु आषाढी पूर्णिमा तक नियत स्थान पर आ पहुँचा हो और वर्षावास की जाहिरात करदी हो तो श्रावणकृष्णा पत्रमी से ही वर्षावास प्रारम्भ हो जाता है। उपयुक्त क्षेत्र न मिलने पर श्रावणकृष्णा दशमी को, फिर भी योग्य क्षेत्र की प्राप्ति न हो तो श्रावण मास की पंचदशमी (अमावश्या) का वर्षावास आरम्भ करना चाहिए। इतने पर भी योग्य क्षेत्र न मिले तो पाँच-पाँच दिन बढ़ाते हुए अन्ततः भाद्रपद शुक्ला पचमी तक तो प्रारम्भ कर देना अनिवार्य माना गया है। इस समय तक भी उपयुक्त क्षेत्र प्राप्त न हुआ हो तो अन्ततः वृक्ष के नीचे ही पर्युषणा कल्प करना चाहिए। पर इस तिथि का किसी भी स्थिति मे उल्लघन नहीं करना चाहिए । पंचमी, दशमी और पचदशमी, इन पर्वो में ही पर्युषणाकल्प करना चाहिए. अन्य तिथि - अपर्व में नही । इस प्रकार का सामान्य विधान होने पर भी विशिष्ट कारण से
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy