SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 328
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६० कल्प सूध कहा जाता है कि प्राकृत भाषा में आपने भद्रबाहु संहिता नामक ज्योतिष ग्रन्थ लिखा था, जो आज अनुपलब्ध है । उसके प्रकाश में ही द्वितीय भद्रबाहु ने संस्कृत भाषा में भद्रबाहुं सहिता का निर्माण किया । ७५ आगमों की प्रथम वाचना पाटलीपुत्र में आपके द्वारा ही सम्पन्न हुई थी । उस समय ( वी० नि० १५५ के आसपास) द्वादशवर्षीय भयंकर दुष्काल पड़ा । श्रमण संघ समुद्र तट पर चला गया । अनेक श्रुतधर काल-कवलित हो गए | दुष्काल आदि अनेक कारणों से यथावस्थित सूत्र पारायण नही हो सका, जिससे आगम ज्ञान की श्रृंखला छिन्न-भिन्न हो गई । दुर्भिक्ष समाप्त हुआ । उस समय विद्यमान विशिष्ट आचार्य पाटलीपुत्र में एकत्रित हुए । एकादश अंग संकलित किए गए। बारहवें अंग के एक मात्र ज्ञाता भद्रबाहु स्वामी उस समय नेपाल में महाप्राणध्यान की साधना कर रहे थे। संघ के आग्रह से उन्होंने स्थूलभद्र मुनि को बारहवें अंग की वाचना देना स्वीकार किया। दस पूर्व अर्थ सहित सिखाए, ग्यारहवें पूर्व की वाचना चल रही थी कि एक बार आर्य स्थूलभद्र से मिलने के लिए, जहाँ वे ध्यान कर रहे थे वहाँ उनकी बहनें आईं। बहनो को चमत्कार दिखाने के कौतुक वश स्थूलिभद्र ने सिंह का रूप बनाया । इस घटना पर, भद्रबाहु ने आगे वाचना देना बन्द कर दिया कि वह ज्ञान को पचा नही सकता । पर संघ के अत्याग्रह से अन्तिम चार पूर्वो की वाचना तो दो, पर अर्थ नहीं बताया और दूसरों को उसकी वाचना देने की स्पष्ट मनाई की" । अर्थ की दृष्टि से अन्तिम श्रुत केवली भद्रबाहु ही हैं । स्थूलिभद्र शाब्दिक दृष्टि से चौदहपूर्वी थे और अर्थ दृष्टि से दसपूर्वी थे । 1 मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त आपके अनन्य भक्त थे । उनके द्वारा देखे गये १६ स्वप्नों का फल आपने बताया था जिनमें पंचमकाल की भविष्यकालीन स्थिति का रेखाचित्र था । संभवतः भद्रबाहु के इस विराट् व्यक्तित्त्व के कारण हो श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में उनके प्रति समान श्रद्धाभाव है । दोनों ही उन्हें अपनी परम्परा के ज्योतिर्धर आचार्य मानते हैं । वी० सं० १७० में अर्थात् वि० पू० ३०० में उनका स्वर्गवास माना जाता है ।
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy