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मूल :
जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए जाव सव्वदुक्खप्पहीणे तं रयणिं च णं कुथ अणुद्धरी नाम समुप्पन्ना, जा ठिया अचलमाणा छउमत्थाणं निग्गंथाणं निग्गंथीण य नो चक्खुफास हव्वमागच्छइ, जा अठिया चलमाणा छउमत्थाणं निग्गंथाणं निग्गंथीण य चक्खुफासं हव्वमागच्छइ, जं पासित्ता बहूहिं निग्गंथेहिं निग्गंथीहि य भत्ताई पच्चक्खायाई ॥१३१॥
अर्थ-जिस रात्रि को श्रमण भगवान् महावीर कालधर्म को प्राप्त हुए, यावत् उनके सम्पूर्ण दुःख नष्ट हो गये, उस रात्रि को बचाई न जा सके ऐसी कुन्थवा३६४ नामक सूक्ष्म जीवराशि उत्पन्न हो गई। यदि वे जीव स्थिर हों, हलन-चलन न करते हों तो छमस्थ निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थ नियों को दृष्टि गोचर नही होते थे। जब वे जीव चलते-फिरते तब छद्मस्थ निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थनियों को दिखलाई देते थे। इस प्रकार जीवों की उत्पत्ति को देखकर बहत से निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थनियो ने अनशन स्वीकार कर लिया था । मूल :
से किमाहु भंते! अज्जप्पभिई दुराराहए संजमे भविस्सइ।१३२॥
अर्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! यह किस प्रकार हुआ ? अर्थात् जीवों को निहार कर जो निम्रन्थ और निर्ग्रन्थनियों ने अनशन किया, वह अनशन क्या सूचित करता है ? ... उत्तर-आज से सयम का पालन करना अत्यन्त कठिन होगा, वह अनशन यह सूचित करता है ।
-. भगवान की शिष्य-संपदा मल:
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवत्रो महावीरस्स