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________________ त्रिशला का स्वप्न-दर्शन ----- तओ पुणो हारनिकरखीरसागरससंक किरणद गरयरययमहासेल पंडरगोरं रमणिज्जपेच्छणिज्जं थिरलट्ठपउट्ठे वट्टपीवर सुसिलिविसिद्धतिक्खदाढा विडंबिय मुहं परिकम्मियजच्चकमलकोमलभाइयसो तल उट्ठ रत्तोप्पलप तम उयसुकुमालतालु निल्लालियग्गजीहं मूसागयपवरकणगतावियआवत्तायंत वट्टविमल डिस रिसनयणं विसालपीवरवरोरु पडिपुन्नविमलखंधं मिउविसयसु हुमलक्खणपसत्यविच्छिन्नकेसराडोवसोहिय ऊसियसुनिम्मियसुजायअप्फोडियनंमूलं सोम्मं सोम्माकारं लीलायंतं नहयलाओ ओवयमाणं नियगवयणमइवयंतं पेच्छइ सा गाढतिक्खनहं सीहं वयणसिरीपल्लवपत्तचारुजीहं ३ ॥३६॥ मूल अर्थ -- उसके पश्चात् त्रिशला क्षत्रियाणी स्वप्न में सिंह देखती है। वह सिंह हार-समूह, क्षीर सागर, चन्द्र किरणें, जल-कण एवं रजत-पर्वत के समान अत्यन्त उज्ज्वल था, रमणीय था, दर्शनीय था, स्थिर और दृढ पंजों वाला था । उसकी दांठें गोल, अनीव पुष्ट एवं अन्तर-रहित, श्रेष्ठ व तीक्ष्ण थीं, जिन से उसका मुंह सुशोभित हो रहा था । उसके दोनों ओष्ठ स्वच्छ, उत्तम कमल की तरह कोमल, प्रमाणोपेत व सुन्दर थे । उसका तालु रक्तकमल की तरह लाल व सुकोमल था । उसकी अग्र-जिह्वा लपलपा रही थी । उसके दोनों नेत्र सुवर्णकार के पात्र में रखे हुये तप्त गोल स्वर्ण के समान चमकदार और विद्य की तरह चमकीले थे । उसकी विशाल जंघाएँ अत्यन्त पुष्ट व उत्तम थी । उसके स्कंध परिपूर्ण और निर्मल थे। उसकी दीर्घ केसर ( अयाल ) कोमल, सूक्ष्म, उज्ज्वल, श्रेष्ठ लक्षणयुक्त व विस्तृत थी । उसकी उन्नत पूंछ कुण्डलाकार एवं शोभायुक्त थी । उसके नाखून अतीव तीक्ष्ण थे, उसकी आकृति बड़ी ही सौम्य थी, और नवीन पल्लव की तरह फैली हुई मनोहर जिह्वा थी। ऐसे सिंह को आकाश से जीला पूर्वक, नीचे उतरते और मुंह में प्रवेश करते देखती है ।
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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