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१७० मेघ ने गृहस्थाश्रम में क्षत्रियकुण्ड में महावीर को देखा था, अतः देखते ही स्मृति जाग उठी, और पहचान लिया, शीघ्र ही बन्धनों से मुक्त कर अपने अज्ञानवश किए गए अपराध की क्षमा याचना की । २६५
- लाढ़ प्रदेश में
गंभीर विचार-मंथन के पश्चात् भगवान महावीर ने कर्मों की विशेष निर्जरा हेतु लाढ़ प्रदेश (संभवतः बंगाल में गंगा का पश्चिम किनारा) की ओर प्रस्थान किया।६२ यह प्रदेश उस युग में अनार्य माना जाता था। वहाँ विचरण करना अत्यन्त दुष्कर था।२६३
उस प्रान्त के दो भाग थे। एक वनभूमि और द्वितीय शुभ्र भूमि । २६४ ये उत्तर राढ़ और दक्षिण राढ़ के नाम से भी प्रसिद्ध थे। इन दोनों के मध्य में अजय नदी बहती थी। भगवान् ने दोनों ही स्थानों में विचरण किया। उस क्षेत्र में भगवान को जो उग्र उपसर्ग उपस्थित हए उसका रोमांचक वर्णन आर्य सुधर्मा ने आचारांग में निम्न प्रकार से किया है
___ "वहाँ रहने के लिए उन्हें अनुकूल आवास प्राप्त नहीं हुए। अनेक प्रकार के उपसर्ग सहन करने पड़े। रूखा-सूखा वासी भोजन भी कठिनता से उपलब्ध होता था। कुत्ते भगवान् को दूर से देखकर ही काटने के लिए झपटते थे। वहाँ पर ऐसे बहुत कम व्यक्ति थे जो काटते और नौचते हुए कुत्तों को हटाते, किन्तु इसके विपरीत वे कुत्तों को छुछकार कर काटने के लिए उत्प्रेरित करते । पर भगवान महावीर उन प्राणियों पर किसी भी प्रकार का दुर्भाव नहीं लाते। उन्हें अपने तन पर किसी प्रकार की ममत्व बुद्धि नहीं थी। आत्म-विकास का हेतु समझ कर ग्राम-संकटों को सहर्ष सहन करते हुए वे सदा प्रसन्न रहते।"२६५
"जैसे संग्राम में गजराज शत्रुओं के तीखे प्रहारों को तनिक भी परवाह किये बिना आगे ही बढ़ता जाता है, उसी प्रकार भगवान महावीर भी लाढ़ प्रदेश में उपसर्गों को किचित् परवाह किए बिना आगे बढ़ते रहे। वहां उन्हें ठहरने के लिए कभी दूर-दूर तक गांव भी उपलब्ध नहीं होते, तो भयंकर अरण्य