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________________ साधना काल : कामों में झलाका १८५ परन्तु भगवान् उपसर्गों में सर्वदा शान्त रहे, कभी भी उन्होंने रोष और द्वेष नहीं किया, विरोधियों के प्रति भी उनके हृदय में स्नेह का सागर उमड़ता रहा । वर्षा में, सर्दी में, धूप में, छाया में, आंधी और तूफानों में भी उनका साधना-दीप जगमगाता रहा । देव-दानव मानव और पशुओं के द्वारा भीषण कष्ट देने पर भी अदीनभाव से, अव्यथित मन से, अम्लान चित्त से, मन वचन और काया को वश में रखते हुए सब कुछ सहन किया। वे वीर सेनानी की भाँति निरन्तर आगे बढ़ते रहे, कभी पीछे कदम नहीं रखा । १७ नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु का मन्तव्य है कि अन्य तीर्थंकरों की अपेक्षा महावीर का तपः कर्म अधिक उम्र था । 'जैसे समुद्रों में स्वयंभूरमण श्रेष्ठ है, रसों में इक्षुरस श्रेष्ठ है, उसी प्रकार तप उपधान में मुनि वर्धमान जयवन्त श्रेष्ठ हैं । '३१८ 1316 भगवान ने बारह वर्ष और तेरह पक्ष की लम्बी अवधि में केवल तीन मौ उनपचास दिन आहार ग्रहण किया। शेष दिन रहे । ३१९ निर्जल और निराहार संक्षेप में भगवान का छद्मस्थकाल का तप इस एक छ: मासी तप, एक पाँच दिन न्यून छ मासी नौ चातुर्मासिक दो त्रिमासिक दो सार्धं द्विमासिक छह द्विमासिक दो सार्धं मासिक बारह मासिक बहत्तर पाक्षिक एक भद्र प्रतिमा, (दो दिन) एक महाभद्र प्रतिमा ( चार दिन ) एक सर्वतोभद्र प्रतिमा ( दस दिन ) 320 प्रकार है- '
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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