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कन्य सूत्र
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एगराईए नगरे पंचराईए वासीचंदणसमाणकप्पे समतिणमणिले - टू कंचणे समदुक्खसुहे इहलोग परलोग अपडिबद्धे जीवियमरणे निरवकंखे संसारपारगामी कम्मसंग निग्वायणट्ठाए अब्भुट्ठिए एवं चणं विहरइ ॥ ११६ ॥
अर्थ - भगवान् वर्षावास के समय के अतिरिक्त ग्रीष्म और हेमन्त ऋतु में आठ मास तक विचरण करते थे। गांव में एक रात्रि और नगर में पांच रात्रि से अधिक नहीं रहते थे । बसूना और चन्दन के स्पर्श में भी समान संकल्प वाले, तृण एवं मणि में लोष्ट और सुवर्ण इन सभी के प्रति समान वृत्ति वाले, दुःख और सुख को एक भाव से सहन करने वाले, इहलोक और परलोक के प्रतिबंध से रहित, जीवन और मरण की आकांक्षा से मुक्त हो संसार को पार करने वाले, कर्म और संग को नाश करने वाले सम्यक् प्रकार से उद्यमवंत बने, तत्पर हुए इस प्रकार विहार करते हैं ।
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विवेचन - उपर्युक्त चार सूत्रों में भगवान महावीर के साधक जीवन At afte मनः स्थिति का सुन्दर चित्र उपस्थित किया गया हैं । दीक्षा ग्रहण करते ही उन्होंने वज्ज्र संकल्प किया- कि भविष्य में मुझं जो भी घोरातिघोर उपसर्ग उपस्थित होंगे, उन्हें अविचल धैर्य एवं मनोबल के साथ विजय करूँगाव संकल्प ही साधक जीवन का विजय संकल्प है ।
हाथी, सिंह, वृषभ, सुमेरु एवं पृथ्वी की उपमा के द्वारा उनके अनन्त पराक्रम एव मनोबल का परिचय कराया गया है तथा शख, शरद सलिल कमल पत्र, महावराह, वायु आदि की उपमा से भगवान की आंतरिक पवित्रता, निःसंगता तथा अप्रतिबद्धता का दिग्दर्शन हुआ है । वस्तुतः उनका मनोबल एवं जीवन की उज्ज्वलता तो अनुपमेय थी ।
श्रमण भगवान् महावीर पक्के घुमक्कड़ थे तक स्थिर होकर रहना उन्हें पसन्द नहीं था । के लिए चार मास तक एक स्थान पर रुकते थे हुए साधना करते थे । भगवान् को साधना काल में
। एक स्थान पर दीर्घकाल वर्षावास में जीवों की रक्षा
और आठ मास तक घूमते अनेक उपसर्ग आये ।