________________
साधना काल
१५५ नमहापुरुषचरियं, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र और कल्प सूत्र की टीकाओं में वह वर्णन आया है जो इस प्रकार है
प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् भगवान वहाँ से प्रस्थान करते हैं । जनजन के नयन तब तक टकटकी लगाकर निहारते रहे जब तक भगवान नजर से ओझल न हो गए । ओझल होते ही नेत्रों से आंसूओं के मोती बरस पड़े और उनके हृत्तंत्री के सुकुमार तार झनझना उठे। --.दरिद्र ब्राह्मण का उद्धार
समभाव में निमग्न महावीर अकिंचन भिक्षु बनकर बढ़े जा रहे थे। उन्हें मार्ग में सिद्धार्थ का परिचित मित्र सोम नामक वृद्ध ब्राह्मण मिला।९७ महावीर से नम्र निवेदन करता हुआ कहने लगा-भगवन् ! मैं दीन और दरिद्र हूँ, न खाने को अन्न है, न पहनने को पूरे वस्त्र हैं और न रहने को अच्छा झोंपड़ा ही है। भगवन् ! जिस समय आपने सांवत्सरिक दान किया था उस समय मै भूख से विलखते परिवार को छोड़कर धन की आशा से दूरस्थ प्रदेश में भीख मांगने गया हुआ था। मुझ अभागे को यह पता ही न चला कि आप धन की वर्षा कर रहे हैं। हताश और निराश होकर खाली हाथ घर लौटा । पत्नी ने भाग्य की भर्त्सना करते हुए कहा-पतिदेव ! यहाँ सोने का मेह उमड़-घुमड़कर बरस रहा था, उस समय आप कहाँ भटकते रहे ? अब भी शीघ्र जाओ और महावीर से याचना करो। वे दीनबन्धु आपको निहाल कर देंगे।९९ भगवन् ! कृपा कीजिए, यह दोन ब्राह्मण आपके सामने भीख माग रहा है।
महावीर-भद्र ! इस समय मैं एक अकिंचन भिक्षु हूँ।..
ब्राह्मण-भगवन् । क्या कल्पवृक्ष के पास आकर के भी मेरी मनोवांछित कामना पूर्ण नहीं होगी? यह कहते-कहते उसका गला हंध गया। आंखें आँसुओं मे छलछला आई। वह महावीर के चरणारविन्दों से लिपट गया।
ब्राह्मण की दयनीय दशा को देखकर महावीर का दयालु हृदय द्रवित हो गया। उन्होंने उसी क्षण इन्द्र द्वारा प्रदत्त देवदूष्य चीवर का अर्ध भाग उसे प्रदान कर दिया।' ब्राह्मण अपने भाग्य को सराहता हुआ चल दिया।