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________________ कल्प ६० पर भी घटित होता है । उन्हें भी सभी वस्तुएँ प्राप्त हो गई हैं, पर खेद है कि उन्हें अब भी सन्तोष नहीं है । वे मुझे 'मंखलिपुत्र' 'छद्मस्थ' और अपना 'कुशिष्य' कहते हैं । तू जाकर उन्हें सावधान करदे, अन्यथा मैं स्वयं आकर उनकी दशा 'दुर्बुद्धि वणिक्पुत्रों से समान कर दूँगा ।' आनन्द मुनि भगवान् के पास पहुँचा । गोशालक का धमकी भरा कथन निवेदन किया । सर्वज्ञ सर्वदर्शी भगवान् तो पूर्व ही जानते थे । भगवान् ने कहा"आनन्द, तुम जाओ और गौतमादि श्रमणों को सूचित कर दो कि गोशालक यहाँ आ रहा है, कोई भी श्रमण उससे सम्भाषण न करे ।” गोशालक महावीर के पास पहुँचा और बोला - " हे काश्यप ! तुम्हारा शिष्य मंखली पुत्र तो मर गया है। वह अन्य था, मैं अन्य हूँ। उसके शरीर को परीषह सहन करने में सुदृढ़ समझ कर मैंने उसमें प्रवेश किया है।" महावीर ने कहा - 'गोशालक ! जैसे कोई तस्कर छिपने का स्थान प्राप्त न होने पर तृण की ओट में छिपने का प्रयास करता है, वैसे ही तुम भी अन्य न होते हुए भी अपने आप को अन्य बता रहे हो ?' भगवान् श्री महावीर के सत्य कथन को श्रवण कर गोशालक स्तम्भित एवं अवाक् था । वह मन ही मन तिलमिला उठा। वह अपने आपको छिपाने की दृष्टि से अनर्गल प्रलाप करने लगा। महावीर के समक्ष अनर्गल बोलते हुए देखकर भगवान् के अन्तेवासी शिष्य 'सर्वानुभूति' और 'सुनक्षत्र' अनगार ने कहा - ' है गोशालक, तुम्हें अपने धर्माचार्य के प्रति इस प्रकार अशिष्टता प्रदर्शित नहीं करनी चाहिए ।' ११७ गोशालक ने क्रुद्ध होकर उन दोनों अनगारों को तेजोलेश्या से वहीं पर भस्म कर दिया। दोनों आयु पूर्ण कर आठवें और बारहवें देवलोक में उत्पन्न हुए । भगवान् के द्वारा प्रतिबोध देने पर भी गोशालक न समझा । पयःपानं भुजङ्गानां केवलं विषवर्धनम् की उक्ति के अनुसार उसने भगवान् श्री महावीर पर भी तेजोलेश्या फेंकी । पर वह तेजोलेश्या भगवान् के इर्दगिर्द चक्कर काटती हुई ऊपर आकाश में उछली और पुनः गोशालक के शरीर में प्रविष्ट हो गई । अपनी तेजोलेश्या से भगवान् को भस्म हुआ न देखकर गोशालक
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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