SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९ मायें (इन्द्रियाँ) चुराई जा रही थीं तब ऋषि के सारथी केशी वृषभ के बचन से वे अपने स्थान पर लौट आयीं । अर्थात् वे इन्द्रियाँ ऋषभ के उपदेश से अन्तर्मुखी हो गई। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के अनसार भगवान् ऋषभ जब मुनि बने तब उन्होने चार मुष्टि केशलोच किया था। यों सामान्य परम्परा पंच मुष्टि केशलोच करने की है। जब भगवान् केशलोच कर रहे थे दोनों भागों का केश लोच करना अवशेष था, उसी समय देवगज शक्रन्द्र ने भगवान से नम्र प्रार्थना की -'इतनी रमणीय केशराशि को रहने दें। तब भगवान ने इन्द्र की प्रार्थना को स्वीकार कर वसे ही केश रहने दिये । यही कारण है कि केश होने के कारण से वे केशी या केशरिया जी कहलाये । जिस प्रकार सिंह अपने केशों के कारण केशरी कहलाता है. इसी प्रकार ऋषभदेव भी केशी, केशरी और केशरिया जी आदि नामो से पुकारे जाते हैं। ___ भगवान ऋषभदेव के व्यक्तित्व और कृतित्व के सम्बन्ध मे 'ऋषभदेव, एक परिशीलन' ग्रन्थ मे बिस्तार से पर्यालोचन किया गया है एतदर्थ उसके अवलोकन की सूचना के साथ-साथ मे विषय को सम्पन्न कर रहा हूँ। स्थविरावली जिनचरित के पश्चात् स्थविरावली मे देवद्धिगणी क्षमाश्रमण तक की परम्परा आयी है । देवद्धि गणी क्षमाश्रमण तक की परम्परा एक विशुद्ध परम्परा रही है। अभयदेव सूरि के शब्दों मे देखिये --'देवद्धिगणी क्षमाश्रमण तक को परम्परा को मैं भाव-परम्परा मानता हूँ। इसके बाद शिथिलाचारियों ने अनेक द्रव्य-परम्पराओ का प्रवर्तन कर दिया। स्थविगवली मे आये हुए स्थविरो की परिचय रेखा, तथा कूल, गण आदि का परिचय विवेचन में दिया है। समाचारो स्थविरावली के पश्चात् अन्तिम विभाग समाचारी का पाता है। ज्ञान का सार आचार है।८६ वह मुक्ति का साधन है । यहो कारण है कि जैनागमो में जहाँ दार्शनिक तत्त्वो की सूक्ष्म विवेचना की गई है नुग्रहं विधाय चाहिं अटठाहिं लोअ करेइ । वृति-तीयकृता पंचमूप्टि लोचसंभवेऽपि अस्य भगवतश्चतम ष्टिकलोचगोचर. श्री हेमाचार्यकृत ऋषभचरित्राद्यभिप्रायोऽयं प्रथममेकया मुट्या स्मश्र कूर्चयार्लोचे तिसभिश्च शिरोलोचे कृते एका मुष्टिमवशिष्यमाणा पवनान्दोलिता कनकावदातयो' प्रभुस्कन्धयोरुरि लुठन्ती मरकतोपमानबिभ्रती परमरमणीया वीक्ष्य प्रमोदमानेन शक्रण भगवन ! ध्रियतामियमित्थमेवेति विज्ञप्ते भगवतापि सा तथैव रक्षितेति, न ह्यकान्तभक्ताना याचा मनुग्रहीतार खण्डयन्तीनि । -जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, वक्षस्कार २ सू० ३० ८८. देवढिखमासमणजा, परपरं भावओ वियाणेमि । सिढिलायारे ठविया, दव्येण परंपरा बहुआ। -आगम अड्डुत्तरी गाथा १४ ८६. गाणस्स सार आयारो
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy