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भगवान् ऋषभ का एक नाम ब्रह्मा भी रहा है और हिरण्यगर्भ भी । ऋग्वेद के अनुसार हिरण्यगर्भ भूत जगत् का एक मात्र पति है । सायण के अनुसार वह देहचारी है।७३ महाभारत अनुसार हिरण्यगर्भ ही योग का पुरातन विद्वान् है, अन्य नहीं भगवान् ऋषभ को हिरण्यगर्भ कहने का कारण यह है कि जब वे गर्भ में आये तब कुबेर ने हिरण्य की कहा गया है।७६
दृष्टि की, एतदर्थं उन्हे हिरण्यगर्भ भी
मि० बालिस का कहना है कि हिरण्यगर्भ शब्द लाक्षणिक है। यह विश्व की एक महान् शक्ति को सूचित करता है।
श्रीमद् भागवतकार ने ऋषभ को योगेश्वर कहा है । ११ किया था । हठयोगियों ने भगवान् ऋषभ को हठयोग विद्या के है। जैनाचार्यों ने भी उन्हें योग विद्या का संस्थापक माना है। 'हिरण्यगर्भ' और ब्रह्मा आदि अनेक नामों से सम्बोधित किये गये है।
ऋग्वेद में भगवान् ऋषभदेव को केशी भी कहा गया है। वहाँ पर वातरशन मुनि के उल्लेख के प्रकरण मे ही केशी की स्तुति आयी हैं । ५ जो ऋषभदेव की वाचक है ।
ऋग्वेद मे अन्यत्र केशी और ऋषभ का एक साथ उल्लेख भी मिलता है। मुद्गल ऋषि की
७६. हिरण्यगर्भः १ समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् ।
स सदाधार पृथिवीं द्यामुतेमा कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥
- ऋग्वेद १०।१०।१२।१११ ७७. हिरण्यगर्भः हिरण्मयस्याण्डस्य गर्भभूत प्रजापतिहिरण्यगर्भ तथा च तैतिरीयकप्रजापनि हिरण्यगर्भः प्रजापतेरनुरूपाय ( तै० स० स० ५।५।१।२ यद्वा हिरण्यमयोऽअण्डो गर्भवद्यस्योदरे वर्तते सोऽमौ सूत्रात्मा हिरण्यगर्भ उच्यते । अग्रे प्रपञ्चोत्पत्तेः प्राक् समवर्तत मायाध्यक्षात् मिमृक्षोः परमात्मनः साकाशात् समजायत ।" सर्वस्य जगत् पतिरीश्वर आसीत्
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उन्होने नाना योग चर्चाओं का चरण उपदेष्टा के रूप मे नमस्कार किया इस प्रकार भ० ऋषभ आदिनाथ
- तैत्तिरीयारण्यक, प्रपाठक १० अनुवाक ६२ सायणभाष्य ७८. हिरण्यगभ योगस्य, वेत्ता नान्यः पुरातनः । - महाभारत शान्ति पर्व ३४६।६५ ७६. सेवा हिरण्यमयी दृष्टिः धनेशेन निपातिता, विभोहिरण्यगर्भत्वमिव बोपयितु] जगत् ।।
- महापुराण १२६५
(ख) गन्भट्ठिअस्स जस्स उ हिरण्णबुडी सकचणापडिया |
तेणं हिरण्णगन्भो जयम्मि उवगिञ्जए उसभो - पउमचरिउ ३६८। विमलगणिरचित हिस्ट्री आफ प्रो० बुद्धिस्टिक इंडियन फिलोसफी डा० बालिम | ८१ भगवान् ऋषभदेवो योगेश्वरः
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८२. नानायोगचर्याचरणो भगवान् केवल्यपति ऋषभः
श्री आदिनाथाय नमोस्तु तस्मै, येनोपदिष्टा हठयोगविद्या ।
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८४. योगिकल्पतरु नौमि देव-देवं वृषध्वजम् ।
८५. केश्वरिन केसी विषं केशी विभत रोदशी ।
केशी विश्वं स्वहशे केसीदं ज्योति रुम्पते ।
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८६. ककदेवें वृषभो युक्त आसीदवावचीत्सारथिरस्य केशी। दुपेयुक्तस्य द्रवतः सहानस ऋच्छन्ति ष्मा निष्पदो मुद्गलानीम् ।
श्रीमद् भागवत् ५४३
- श्रीमद् भागवत् ५।५।२५
- हठयोग प्रदीपिका -ज्ञानार्णव १२
-ऋग्वेद १०।११।१३६९
ऋग्वेद १०१९/१०२/६